Saturday, 19 April 2025

ग़ज़ल

ग़ज़ल अरबी 
औरत सें औरतों के बारे में बातचीत 

ग़ज़ल एक ही बहर और वज़न के अनुसार लिखे गए शेरों का समूह है। 
इसके पहले शेर को मतला कहते हैं। 
ग़ज़ल के अंतिम शेर को मक़्ता कहते हैं। मक़्ते में सामान्यतः शायर अपना नाम रखता है। आम तौर पर ग़ज़लों में शेरों की विषम संख्या होती है (जैसे तीन, पाँच, सात..)।[1] एक ग़ज़ल में 5 से लेकर 25 तक शेर हो सकते हैं। ये शेर एक दूसरे से स्वतंत्र होते हैं। कभी-कभी एक से अधिक शेर मिलकर अर्थ देते हैं। ऐसे शेर कता बंद कहलाते हैं।

ग़ज़ल के शेर में तुकांत शब्दों को क़ाफ़िया कहा जाता है और शेरों में दोहराए जाने वाले शब्दों को रदीफ़ कहा जाता है। शेर की पंक्ति को मिस्रा कहा जाता है। मतले के दोनों मिस्रों में काफ़िया आता है और बाद के शेरों की दूसरी पंक्ति में काफ़िया आता है। रदीफ़ हमेशा काफ़िये के बाद आता है। रदीफ़ और काफ़िया एक ही शब्द के भाग भी हो सकते हैं और बिना रदीफ़ का शेर भी हो सकता है जो काफ़िये पर समाप्त होता हो।[1]

ग़ज़ल के सबसे अच्छे शेर को शाहे बैत कहा जाता है। ग़ज़लों के ऐसे संग्रह को दीवान कहते हैं जिसमें हर हर्फ से कम से कम एक ग़ज़ल अवश्य हो। उर्दू का पहला दीवान शायर कुली कुतुबशाह है।

तुकांतता के आधार पर ग़ज़लें दो प्रकार की होती हैं-

मुअद्दस ग़जलें- जिन ग़ज़ल के अश'आरों में रदीफ़ और काफ़िया दोनों का ध्यान रखा जाता है।
मुकफ़्फ़ा ग़ज़लें- जिन ग़ज़ल के अश'आरों में केवल काफ़िया का ध्यान रखा जाता है।
भाव के आधार पर भी गज़लें दो प्रकार की होती हैं-

मुसल्सल गज़लें- जिनमें शेर का भावार्थ एक दूसरे से आद्यंत जुड़ा रहता है।
ग़ैर मुसल्सल गज़लें- जिनमें हरेक शेर का भाव स्वतंत्र होता है।

हिंदी की गजलों को स्थापित करने में दुष्यंत कुमार का योगदान सराहनीय है। दुष्यंत के अलावा शमशेर बहादुर सिंह, अदम गोंडवी, गोपाल दास नीरज, विश्वनाथ, शेरगंज गर्ग, त्रिलोचन सहित अन्य कवियों ने भी गजल विधा पर हिंदी में कार्य किया है। कुछ गजलें ऐसी है जिन्हें साहित्य प्रेमी पाठकों ने काफी पसंद किया है। ऐसी ही 3 गजलों का हम यहां उल्लेख कर रहे हैं।
विज्ञापन
शमशेर बहादुर सिंह...
चुपके से कोई कहता है शाएर नहीं हूँ मैं
क्यूँ अस्ल में हूँ जो वो ब-ज़ाहिर नहीं हूँ मैं

भटका हुआ सा फिरता है दिल किस ख़याल में
क्या जादा-ए-वफ़ा का मुसाफ़िर नहीं हूँ मैं

क्या वसवसा है पा के भी तुम को यक़ीं नहीं
मैं हूँ जहाँ कहीं भी तो आख़िर नहीं हूँ मैं

सौ बार उम्र पाऊँ तो सौ बार जान दूँ
सदक़े हूँ अपनी मौत पे काफ़िर नहीं हूँ मैं
राजेश रेड्डी...
शाम को जिस वक़्त ख़ाली हाथ घर जाता हूँ मैं
मुस्कुरा देते हैं बच्चे और मर जाता हूँ मैं

जानता हूँ रेत पर वो चिलचिलाती धूप है
जाने किस उम्मीद में फिर भी उधर जाता हूँ मैं

सारी दुनिया से अकेले जूझ लेता हूँ कभी
और कभी अपने ही साये से भी डर जाता हूँ मैं

ज़िन्दगी जब मुझसे मज़बूती की रखती है उमीद
फ़ैसले की उस घड़ी में क्यूँ बिखर जाता हूँ मैं

आपके रस्ते हैं आसाँ आपकी मंजिल क़रीब
ये डगर कुछ और ही है जिस डगर जाता हूँ मैं
 
गोपाल दास नीरज...
जब चले जाएँगे हम लौट के सावन की तरह
याद आएँगे प्रथम प्यार के चुम्बन की तरह

ज़िक्र जिस दम भी छिड़ा उन की गली में मेरा
जाने शरमाए वो क्यूँ गाँव की दुल्हन की तरह

मेरे घर कोई ख़ुशी आती तो कैसे आती
उम्र-भर साथ रहा दर्द महाजन की तरह

कोई कंघी न मिली जिस से सुलझ पाती वो
ज़िंदगी उलझी रही ब्रम्हा के दर्शन की तरह

दाग़ मुझ में है कि तुझमें ये पता तब होगा
मौत जब आएगी कपड़े लिए धोबन की तरह

हर किसी शख़्स की क़िस्मत का यही है क़िस्सा
आए राजा की तरह जाए वो निर्धन की तरह

जिस में इंसान के दिल की न हो धड़कन 'नीरज'
शाइरी तो है वो अख़बार के कतरन की तरह

Monday, 7 April 2025

जिन खां हरदम मलाई चानेंगुरु! का दक्षिण? का वाम?मालिक जो रट हैं सो इ रट हैंशुग्गा खां रटे सें काम।

जिन खां हरदम मलाई चानें
गुरु! का दक्षिण? का वाम?
मालिक जो रट हैं सो इ रट हैं
शुग्गा खां रटे सें काम।

पागल पानी

न पीय्यो न पीय्यो रे!
जौ पागलपानी न पीय्यो रे!
जो पीबे पागल पानी,
न तो जीबै, जिअन न देबै रे!  
जौ पागल पानी।

न पीय्यो न पीय्यो रे!
जौ पागल पानी न पीय्यो रे!
जो पीबे पागल पानी,
बीबी पीटै बच्चे पढ़न न देबै रे!
जौ पागल पानी।

न पीय्यो न पीय्यो रे!
जौ पागल पानी न पीय्यो रे!
जो पीबे पागल पानी,
वर्तन बेचै, पेट भरन न देबै रे!
जौ पागल पानी।

न पीय्यो न पीय्यो रे!
जौ पागल पानी न पीय्यो रे!
जो पीबे पागल पानी,
गले को गुरिया, तन को पटका जुरन न देबै रे!
जौ पागल पानी।

न पीय्यो न पीय्यो रे!
जौ पागल पानी न पीय्यो रे!
जो पीबे पागल पानी,
फूटी कोंड़ी गांठ न रैबै, 
कर्ज से उबरन न देबै रे!
जौ पागल पानी।