संस्कृत सामन्तों की दरबारी भाषा रही
मिथक है कि रावण पराक्रमी होने के साथ ही ब्राह्मण था, विद्वान था और संस्कृत मंत्रों का धाराप्रवाह पाठ करता था; मगर यह भी सच है कि उसने छलपूर्वक सीता का अपहरण किया और आतंक एवं मनुहार की मिली-जुली शैली से उन्हें अपनी पटरानी बनाने की कोशिश की।
संस्कृत प्राचीन काल में प्रभुवर्ग की भाषा थी।
आदिकवि वाल्मीकि-जिन्हें जयशंकर प्रसाद ने 'कामायनी' में 'प्रथम कवि' की सुन्दर संज्ञा दी है-स्वयं संस्कृत के महाकवि हैं; लेकिन संस्कृत का प्रयोग करने वाले प्रभुवर्ग के चरित्र के प्रति पैनी निगाह रखते हैं।
इसका सबूत यह प्रसंग है कि जब हनुमान अशोक वाटिका में सीता को देखते हैं, तो सोचते हैं कि मैं अगर लोकभाषा के बजाय द्विजों अथवा सवर्णों की तरह सु-संस्कृत जनों की भाषा, यानी संस्कृत में इनसे बात करूँगा, तो माँ सीता डर जाएँगी, उन्हें लगेगा कि रावण आ गया है :
"यदि वाचं प्रदास्यामि द्विजातिरिव संस्कृताम्।
रावणं मान्यमानां मां सीता भीता भविष्यति।।"
तब वह निर्णय करते हैं कि 'मुझे अवश्य ही सार्थक जन-भाषा में संवाद करना चाहिए, अन्यथा मेरे द्वारा अनिन्द्य सीता जी को सान्त्वना दिया जाना संभव न होगा' :
"अवश्यमेव वक्तव्यं मानुषं वाक्यमर्थवत्।
मया सान्त्वयितुं शक्या नान्यथेयमनिन्दिता।।"
इतने अनूठे और अमूल्य ये श्लोक हैं कि एक महाकवि की रचना में ही व्यक्त हो सकते थे।
इसका आशय यह भी है कि जो लोग कथित तौर पर सभ्य, सुसंस्कृत, शिष्ट, विद्वान, अभिजात या कुलीन, सत्ता-सम्पन्न और राजपुरुष हैं, वे निपट साधारण जन-समाज की बनिस्बत अन्याय और हिंसा में कहीं अधिक सक्षम हैं; क्योंकि उन्हें अपने आचरण को शालीनता के परदे में छिपाए रखने की कला आती है।
तुलसीदास ने 'रामचरितमानस' के आरम्भ में स्वीकार किया है कि उन्होंने 'वाल्मीकि रामायण' को भी अपने महाकाव्य का आधार बनाया; लेकिन संस्कृत में श्रेष्ठ रचना में समर्थ होने के बावजूद वह कविता के लिए एक लोकभाषा अवधी का चुनाव करते हैं।
इस संभावना से इनकार करना कठिन है कि आदिकवि वाल्मीकि के हनुमान का यह विचार उन्हें प्रासंगिक लगा होगा कि शिष्ट भाषा में संवाद करने पर माँ सीता डर जाएँगी, उन्हें लगेगा कि रावण कुछ कह रहा है!