Tuesday, 4 November 2025

शूद्रनाम

Shashikant Mishra 
माङ्गल्यं ब्राह्मणस्योक्तं क्षत्रियस्य बलान्वितम्।
वैश्यस्य धनसंयुक्तं शूद्रस्य तु जुगुप्सितम्॥

ये थोड़ा विवादित श्लोक हो जाता है क्योंकि इसका सतही अर्थ लगाना थोड़ा अनुचित होता है। यह श्लोक भविष्य पुराण में आधा, मनुस्मृति में थोड़ा परिवर्तित और विष्णुधर्मोत्तरपुराण में भी आया है। 

ब्राह्मण का नाम मंगलवाचक, क्षत्रिय का नाम बलसम्बन्धी, वैश्य का नाम धन सम्बन्धी होना चाहिए। शूद्र का नाम जुगुप्सा सम्बन्धी होना चाहिए। जुगुप्सा का सामान्य अर्थ निंदनीय या घृणित होता है, किन्तु साहित्य दर्पण के अनुसार दोषेक्षणादिभिर्गर्हा जुगुप्सा विषयोद्भवा। भौतिक विषय वासना में लिप्त दोषदृष्टि के कारण जन्य अनुचित बात को जुगुप्सा कहते हैं।

शूद्र चतुर्थ वर्ण में आते हैं, उन्हें आगे अभी और उन्नति की आवश्यकता है। दोषयुक्त जीव को शूद्रयोनि मिलती है, उसे कर्मशीलता से शुद्ध होते रहने की आवश्यकता है, शुद्ध होने पर जब उसे ऊपर के वर्ण मिलेंगे तो वेदाध्ययन आदि से सम्पन्न होकर और भी श्रेष्ठता को प्राप्त करेगा। 

पाराशर गीता में वर्णन है,

विकर्मावस्थिता वर्णाः पतन्ति नृपते त्रयः।
उन्नमन्ति यथा सन्तमाश्रित्येह स्वकर्मसु॥
शेष तीन वर्ण अपने कर्म से भ्रष्ट होने पर नीचे गिर जाते हैं। वैसे ही वर्णगत कर्म में स्थित शेष वर्ण की वर्णोन्नति भी होती है।

न चापि शूद्रः पततीति निश्चयो
न चापि संस्कारमिहार्हतीति वा।
श्रुतिप्रवृत्तं न च धर्ममाप्नुते
न चास्य धर्मे प्रतिषेधनं कृतम्॥

शूद्र का पतन भी नहीं होता और उसे शूद्रयोनि में रहते हुए (उपनयन आदि) संस्कारों की भी आवश्यकता नहीं है, इसीलिए वेदाध्ययन से उसे धर्म की प्राप्ति नहीं होती, और वेदरहित होकर भी वह धर्म से निष्कासित नहीं होता, उसका निषेध नहीं है।

जुगुप्सा से युक्त नाम रहेगा तो उसे दोष का बोध होता रहेगा, इससे वह कठोर सदाचरण करेगा और आगे उन्नति होगी। यह तात्पर्य है। वैसे शूद्रों के नाम भी कोई निंदनीय नहीं रहे हैं इतिहास में, उदाहरण धर्मव्याध, गुह (स्वामी कार्तिकेय का भी यही नाम है), शबरी, कर्णोदर, सुवर्णकार, आदि।

कलाज्ञः स तु शूद्रो हि
(भविष्य पुराण)
शूद्र को सभी कलाओं में दक्ष होना चाहिए, ऐसे निर्देश हैं।

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