डाॅ. रामहेत गौतम
सहायक प्राध्यापक संस्कृत,
डाॅ.हरीसिंह गौर विष्वविद्यालय सागर म.प्र.
8827745548ए9755494128
वृक्षों के प्रति देवत्व की अवधारणा
यज्जाग्रतो दूरमुदैति दैवं तदु सुप्तस्य तथैवेति।
दूरङ्गमं ज्योतिषां ज्योतिरेकं तन्मे मनः षिवसङ्कल्पमस्तु।। यजुर्वेद 31.1
सोते-जागते दूर-दूर तक गमन करने वाला मन जो समस्त ज्ञानेन्द्रियों का नियन्ता है, वह मेरा मन कल्याणकारी विचारों वाला हो।
सभी के मन भी पवित्र विचारों वाले हों। विचारों व विचार धाराओं की दुनिया ही संस्कृति है। खान-पान, वस्त्राभूषण, आवास-आरोग्य, सुरक्षा, मनोरंजन, धर्म, दर्षन, पर्व, पूजा सब संस्कृति के अंग हैं। इन सबके केन्द्र में वृक्ष हैं, जो भोजन के लिए फल, पीने का जल, वस्त्रों का रेषा, आवास के लिये लकड़ी, आरोग्य के लिए औषधि, मनोरंजन-धर्मकर्म-पूजापर्व के लिए पुष्प-फल तथा रम्य वातावरण पेड़-पौधे ही प्रदान करते हैं। ये हमसे विना कुछ चाहे निरन्तर प्राणवायु, फूल, फल, पत्ती, लकड़ी, गोंद, छाया, छाल, रेषा, वर्षा के माध्यम से पेय जल आदि हमारे जीवन के समस्त तत्व हमें प्रदान करते रहते हैं। अतः पेड़ ही हमारे सच्चे देवता हैं। ‘यो ददाति सः देवता’ । अतः वट, पीपल, आंवला, तुलसी आदि को देवतुल्य मानकर आज भी पूजा जाता है। अनेक प्रसंगों पर वृक्षारोपण की महिमा का गान हुआ है तथा वृक्षों को काटना पाप माना गया है।
एक वृक्षोहि यो ग्रामे भवेत पर्णफलान्वितः।
चैत्यो भवति निज्र्ञातिरर्चनीयः सूपूजितः।। 1
अर्थात् यदि गाँव में एक वृक्ष फल और फूलों से भरा हो तो वह स्थान हर प्रकार से अर्चनीय है।
मत्स्य पुराण में एक वृक्ष को दस पुत्रों के समान बताया गया है।
दषकूपसमावापी दषवापी समोहृदः।
दषहृदसमः पुत्रो दषपुत्रसमो द्रुमः।। 2
सामाजिक स्तर पर वृक्ष रक्षा के लिए बलिदान का चिपको आन्दोलन तो अभी निकट अतीत का गौरवयी ज्वलन्त उदाहरण है। 3
तथागत गौतम बुद्ध को बुद्धत्व की प्राप्ति पीपल के वृक्ष के नीचे ही हुई थी। आज भी पीपल को बोधिवृक्ष के नाम से जाना व पूजा जाता है।
कृतप्रतिज्ञो निषसाद बोधये महातरोर्मूलमुपाश्रितः शुचेः। 4
तुर्ययाम उषःकाले यदा शान्ताश्चराचराः।
अविनाशिपदं ध्याता सर्वज्ञत्व´्च प्राप्तवान्।। 5
श्रीमद् भगवद् गीता में भी पीपल के वृक्ष की महत्ता को प्रतिपादित करते हुए श्री मध्ुासूदन कहते हैं किµ
‘अश्वत्थः सर्ववृक्षाणां’ 6
अर्थात् मैं सब वृक्षों में पीपल का वृक्ष हूँ।
वृक्ष-वनस्पतियाँ शिव (कल्याणकारी) हैंµ
वृक्ष-वनस्पतियाँ (औषधियाँ) को पशुपति (शिव) कहा गया है। 7
यजुर्वेद अध्याय 16 में शिव को वृक्ष, वनस्पति, वन, औषधि आदि के स्वामी के रूप में वर्णित किया गया है। शिव विषपान करते हैं और अमृत प्रदान करते हैं। वृक्ष-वनस्पति कार्बन डाई-आॅक्साइड ;ब्व्2द्ध रूपी विष को स्वयं पीते हैं और आॅक्सीजन ;व्2द्ध रूपी अमृत (प्राणवायु) हमें प्रदान करते हैं। अतः ये वृक्ष-वनस्पतियाँ-वन शिव के मूर्त रूप हैं।
वृक्षाणां पतये नमः औषधीनां पतये नमः।8
वृक्ष प्राणवान (सजीव) हैं ये हमारी तरह साँस लेते हैं। प्रजनन करते, संवेदना व्यक्त करते हैं। वृक्ष खड़े-खड़े सोते हैं।
महद् ब्रह्म येन प्राणन्ति वीरूधः।9
अस्थुर्वृक्षा ऊध्र्वं स्वप्नाः।10
वृक्षों में रक्षक तत्त्व (प्रतिरोधक क्षमता) है। अथर्ववेद में इस रक्षक तत्त्व के लिए अवितत्त्व शब्द का प्रयोग किया गया है और अंग्रेजी में ब्ीसवतवचीलसस है। वृक्ष इस अवितत्त्व से युक्त होने से ही हरे रहते हैं।
आविवै नाम देवता-ऋतेनास्ते परीवृता।
तस्या रूपेणे मे वृक्षा हरिता हरितस्रजः।।11
पेड़ों के दस अवयवों का वर्णन करते हुए कहा गया हैµ
पत्रं पुष्पं फलं शाखा काण्डो दण्डश्च कण्टकाः।
कक्षांकुरश्च मूलानि दशाघõः खलुपादपः।।12
पेड़ प्राणी जगत के उपकारक हैंµ
वनस्पतिर्दिवास्वाघõैः कब्र्बवायुं प्रकर्षति।
मुञ्चति प्राणवायुं च प्राणिनामुपकारकम्।।13
वन संरक्षण परम आवश्यक है, क्योंकि वन होंगे तभी हमारा जीवन सम्भव रहेगा अन्यथा नहीं।
वनेन जीवनं रक्षेत्, जीवनेन वनं पुनः।
मा वनानि नरश्छिन्देत्, जीवनं निहितं वने।।14
इसीलिए तो शुक्ल यजुर्वेद 11-45 में द्युलोक, पृथ्वी, अंतरिक्ष को हिंसित (दूषित) न करने के साथ-साथ पेड़ों को न काटने की सीख दी गयी है।
‘‘मा द्यावा पृथिवी अभिशोचीः मान्तरिक्षं मा वनस्पतीन्।’’ 15
मा-ओषधीर्हिंसीः।16
अपः पिन्व औषधीर्जिन्व।17
मा काकम्बीरम् उद्वृहो वनस्पतिम् अशस्तीर्वि हि नीनशः।18
वृक्ष प्रदूषण को नष्ट करते हैं, अतः इन्हें न काटें।
निष्कर्षतः यही कहा जा सकता है कि ‘‘मानव चारों ओर से प्राकृतिक दशाओं, जैसेµवायु, जल, तापमान, मौसम, ताप, वर्षा, आद्र्रता तथा पवन वेग, भूमि की बनावट, वन, खनिज पदार्थों इत्यादि से, तो दूसरी ओर सामाजिक ढांचा, संस्था समूह और रीति-रिवाज व मान्यताओं आदि से जुड़ा हुआ है। जब सामाजिक, प्राकृतिक तथा सांस्कृतिक तीनों दशायें पूर्णरूपेण समन्वित होकर मानव को घेरती हैं, तो वह घेराव ही पर्यावरण कहलाता है।
आज इस बात की महती आवश्यकता है कि प्रत्येक व्यक्ति अपने पर्यावरण को बखूबी जाने और उसे दूषित न करे, साथ ही उसके संरक्षक के उपाय भी अपनाये। बुद्धचरित में महाकवि अश्वघोष ने भी इसी आशय के संकेत दिए हैंµ
स्वस्थ्य प्रसन्नमनसः समाधिरूपपद्यते।
समाधियुक्त चित्तस्य ध्यानयोगः प्रवर्तते।।19
ध्यानप्रवर्तनाद्धर्माः प्राप्यन्ते यैरवाप्यते।
दुर्लभं शान्तमजरं परं तदमृतं पदम्।।20
पर्यावरण स्वच्छ होगा, तो तन स्वस्थ्य और मन प्रसन्न रहेगा। स्थिर एवं प्रसन्न मन वाले को समाधि सिद्ध होती है। समाधि से युक्त चित्त वाले को ध्यान योग प्राप्त होता है। ध्यान प्रवृत्त (सिद्ध) होने पर वे (मानव) धर्म प्राप्त करते हैं, जिनसे दुर्लभ शान्त, अजर, परम वह अमृत पद प्राप्त होता है। वृक्ष हमारे पर्यावरण के प्रमुख घटक हैं। जिनसे हमें भोजन, इनकी सहायता से ही वर्षा के माध्यम से पेय जल, आरोग्य के लिए औषधियाँ, जीने के लिए प्राणवायु प्राप्त होती है। हमकों जीवन के सभी तत्व इन्हीं से प्राप्त होते हैं। यही हमारे कल्याण कर्ता देवता हैं। इनकी सुरक्षा व सम्वर्धन से हमें इनकी आराधना करनी चाहिए।
वृक्षाणां पतये नमः औषधीनां पतये नमः।
1 उद्धृत, योजना जून 2004, पृ. 22-23
2 मत्स्य पुराण
3 पर्यावरण जैविकी एवं विष विज्ञान
4 बु.च. 12/119
5 बु.च. 14/89
6 श्रीमद् भगवद्गीता
7 शपतथ ब्राह्मण 6.1.3.12
8 यजुर्वेद 16.17
9 अथर्ववेद 1.32.1
10 अथर्ववेद 1.44.1
11 अथर्ववेद 10.8.31
12 उदधृत, यू.जी.सी संस्कृत उपकार प्रकाशन, पृ. 325
13 उद्ध्ृात, यू.जी.सी. संस्कृत नेट, पृ. 325
14 उद्ध्ृात, यू.जी.सी. संस्कृत नेट, पृ. 325
15 शुक्लयजुर्वेद 11.45
16 यजुर्वेद 6.23
17 यजुर्वेद 14.18
18 ऋग्वेद 6.48.17
19 बु.च. 12/105
20 बु.च. 12/106
सहायक प्राध्यापक संस्कृत,
डाॅ.हरीसिंह गौर विष्वविद्यालय सागर म.प्र.
8827745548ए9755494128
वृक्षों के प्रति देवत्व की अवधारणा
यज्जाग्रतो दूरमुदैति दैवं तदु सुप्तस्य तथैवेति।
दूरङ्गमं ज्योतिषां ज्योतिरेकं तन्मे मनः षिवसङ्कल्पमस्तु।। यजुर्वेद 31.1
सोते-जागते दूर-दूर तक गमन करने वाला मन जो समस्त ज्ञानेन्द्रियों का नियन्ता है, वह मेरा मन कल्याणकारी विचारों वाला हो।
सभी के मन भी पवित्र विचारों वाले हों। विचारों व विचार धाराओं की दुनिया ही संस्कृति है। खान-पान, वस्त्राभूषण, आवास-आरोग्य, सुरक्षा, मनोरंजन, धर्म, दर्षन, पर्व, पूजा सब संस्कृति के अंग हैं। इन सबके केन्द्र में वृक्ष हैं, जो भोजन के लिए फल, पीने का जल, वस्त्रों का रेषा, आवास के लिये लकड़ी, आरोग्य के लिए औषधि, मनोरंजन-धर्मकर्म-पूजापर्व के लिए पुष्प-फल तथा रम्य वातावरण पेड़-पौधे ही प्रदान करते हैं। ये हमसे विना कुछ चाहे निरन्तर प्राणवायु, फूल, फल, पत्ती, लकड़ी, गोंद, छाया, छाल, रेषा, वर्षा के माध्यम से पेय जल आदि हमारे जीवन के समस्त तत्व हमें प्रदान करते रहते हैं। अतः पेड़ ही हमारे सच्चे देवता हैं। ‘यो ददाति सः देवता’ । अतः वट, पीपल, आंवला, तुलसी आदि को देवतुल्य मानकर आज भी पूजा जाता है। अनेक प्रसंगों पर वृक्षारोपण की महिमा का गान हुआ है तथा वृक्षों को काटना पाप माना गया है।
एक वृक्षोहि यो ग्रामे भवेत पर्णफलान्वितः।
चैत्यो भवति निज्र्ञातिरर्चनीयः सूपूजितः।। 1
अर्थात् यदि गाँव में एक वृक्ष फल और फूलों से भरा हो तो वह स्थान हर प्रकार से अर्चनीय है।
मत्स्य पुराण में एक वृक्ष को दस पुत्रों के समान बताया गया है।
दषकूपसमावापी दषवापी समोहृदः।
दषहृदसमः पुत्रो दषपुत्रसमो द्रुमः।। 2
सामाजिक स्तर पर वृक्ष रक्षा के लिए बलिदान का चिपको आन्दोलन तो अभी निकट अतीत का गौरवयी ज्वलन्त उदाहरण है। 3
तथागत गौतम बुद्ध को बुद्धत्व की प्राप्ति पीपल के वृक्ष के नीचे ही हुई थी। आज भी पीपल को बोधिवृक्ष के नाम से जाना व पूजा जाता है।
कृतप्रतिज्ञो निषसाद बोधये महातरोर्मूलमुपाश्रितः शुचेः। 4
तुर्ययाम उषःकाले यदा शान्ताश्चराचराः।
अविनाशिपदं ध्याता सर्वज्ञत्व´्च प्राप्तवान्।। 5
श्रीमद् भगवद् गीता में भी पीपल के वृक्ष की महत्ता को प्रतिपादित करते हुए श्री मध्ुासूदन कहते हैं किµ
‘अश्वत्थः सर्ववृक्षाणां’ 6
अर्थात् मैं सब वृक्षों में पीपल का वृक्ष हूँ।
वृक्ष-वनस्पतियाँ शिव (कल्याणकारी) हैंµ
वृक्ष-वनस्पतियाँ (औषधियाँ) को पशुपति (शिव) कहा गया है। 7
यजुर्वेद अध्याय 16 में शिव को वृक्ष, वनस्पति, वन, औषधि आदि के स्वामी के रूप में वर्णित किया गया है। शिव विषपान करते हैं और अमृत प्रदान करते हैं। वृक्ष-वनस्पति कार्बन डाई-आॅक्साइड ;ब्व्2द्ध रूपी विष को स्वयं पीते हैं और आॅक्सीजन ;व्2द्ध रूपी अमृत (प्राणवायु) हमें प्रदान करते हैं। अतः ये वृक्ष-वनस्पतियाँ-वन शिव के मूर्त रूप हैं।
वृक्षाणां पतये नमः औषधीनां पतये नमः।8
वृक्ष प्राणवान (सजीव) हैं ये हमारी तरह साँस लेते हैं। प्रजनन करते, संवेदना व्यक्त करते हैं। वृक्ष खड़े-खड़े सोते हैं।
महद् ब्रह्म येन प्राणन्ति वीरूधः।9
अस्थुर्वृक्षा ऊध्र्वं स्वप्नाः।10
वृक्षों में रक्षक तत्त्व (प्रतिरोधक क्षमता) है। अथर्ववेद में इस रक्षक तत्त्व के लिए अवितत्त्व शब्द का प्रयोग किया गया है और अंग्रेजी में ब्ीसवतवचीलसस है। वृक्ष इस अवितत्त्व से युक्त होने से ही हरे रहते हैं।
आविवै नाम देवता-ऋतेनास्ते परीवृता।
तस्या रूपेणे मे वृक्षा हरिता हरितस्रजः।।11
पेड़ों के दस अवयवों का वर्णन करते हुए कहा गया हैµ
पत्रं पुष्पं फलं शाखा काण्डो दण्डश्च कण्टकाः।
कक्षांकुरश्च मूलानि दशाघõः खलुपादपः।।12
पेड़ प्राणी जगत के उपकारक हैंµ
वनस्पतिर्दिवास्वाघõैः कब्र्बवायुं प्रकर्षति।
मुञ्चति प्राणवायुं च प्राणिनामुपकारकम्।।13
वन संरक्षण परम आवश्यक है, क्योंकि वन होंगे तभी हमारा जीवन सम्भव रहेगा अन्यथा नहीं।
वनेन जीवनं रक्षेत्, जीवनेन वनं पुनः।
मा वनानि नरश्छिन्देत्, जीवनं निहितं वने।।14
इसीलिए तो शुक्ल यजुर्वेद 11-45 में द्युलोक, पृथ्वी, अंतरिक्ष को हिंसित (दूषित) न करने के साथ-साथ पेड़ों को न काटने की सीख दी गयी है।
‘‘मा द्यावा पृथिवी अभिशोचीः मान्तरिक्षं मा वनस्पतीन्।’’ 15
मा-ओषधीर्हिंसीः।16
अपः पिन्व औषधीर्जिन्व।17
मा काकम्बीरम् उद्वृहो वनस्पतिम् अशस्तीर्वि हि नीनशः।18
वृक्ष प्रदूषण को नष्ट करते हैं, अतः इन्हें न काटें।
निष्कर्षतः यही कहा जा सकता है कि ‘‘मानव चारों ओर से प्राकृतिक दशाओं, जैसेµवायु, जल, तापमान, मौसम, ताप, वर्षा, आद्र्रता तथा पवन वेग, भूमि की बनावट, वन, खनिज पदार्थों इत्यादि से, तो दूसरी ओर सामाजिक ढांचा, संस्था समूह और रीति-रिवाज व मान्यताओं आदि से जुड़ा हुआ है। जब सामाजिक, प्राकृतिक तथा सांस्कृतिक तीनों दशायें पूर्णरूपेण समन्वित होकर मानव को घेरती हैं, तो वह घेराव ही पर्यावरण कहलाता है।
आज इस बात की महती आवश्यकता है कि प्रत्येक व्यक्ति अपने पर्यावरण को बखूबी जाने और उसे दूषित न करे, साथ ही उसके संरक्षक के उपाय भी अपनाये। बुद्धचरित में महाकवि अश्वघोष ने भी इसी आशय के संकेत दिए हैंµ
स्वस्थ्य प्रसन्नमनसः समाधिरूपपद्यते।
समाधियुक्त चित्तस्य ध्यानयोगः प्रवर्तते।।19
ध्यानप्रवर्तनाद्धर्माः प्राप्यन्ते यैरवाप्यते।
दुर्लभं शान्तमजरं परं तदमृतं पदम्।।20
पर्यावरण स्वच्छ होगा, तो तन स्वस्थ्य और मन प्रसन्न रहेगा। स्थिर एवं प्रसन्न मन वाले को समाधि सिद्ध होती है। समाधि से युक्त चित्त वाले को ध्यान योग प्राप्त होता है। ध्यान प्रवृत्त (सिद्ध) होने पर वे (मानव) धर्म प्राप्त करते हैं, जिनसे दुर्लभ शान्त, अजर, परम वह अमृत पद प्राप्त होता है। वृक्ष हमारे पर्यावरण के प्रमुख घटक हैं। जिनसे हमें भोजन, इनकी सहायता से ही वर्षा के माध्यम से पेय जल, आरोग्य के लिए औषधियाँ, जीने के लिए प्राणवायु प्राप्त होती है। हमकों जीवन के सभी तत्व इन्हीं से प्राप्त होते हैं। यही हमारे कल्याण कर्ता देवता हैं। इनकी सुरक्षा व सम्वर्धन से हमें इनकी आराधना करनी चाहिए।
वृक्षाणां पतये नमः औषधीनां पतये नमः।
1 उद्धृत, योजना जून 2004, पृ. 22-23
2 मत्स्य पुराण
3 पर्यावरण जैविकी एवं विष विज्ञान
4 बु.च. 12/119
5 बु.च. 14/89
6 श्रीमद् भगवद्गीता
7 शपतथ ब्राह्मण 6.1.3.12
8 यजुर्वेद 16.17
9 अथर्ववेद 1.32.1
10 अथर्ववेद 1.44.1
11 अथर्ववेद 10.8.31
12 उदधृत, यू.जी.सी संस्कृत उपकार प्रकाशन, पृ. 325
13 उद्ध्ृात, यू.जी.सी. संस्कृत नेट, पृ. 325
14 उद्ध्ृात, यू.जी.सी. संस्कृत नेट, पृ. 325
15 शुक्लयजुर्वेद 11.45
16 यजुर्वेद 6.23
17 यजुर्वेद 14.18
18 ऋग्वेद 6.48.17
19 बु.च. 12/105
20 बु.च. 12/106
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