Wednesday, 30 September 2015


डाॅ. रामहेत गौतम
सहायक प्राध्यापक संस्कृत,
डाॅ.हरीसिंह गौर विष्वविद्यालय सागर म.प्र.

Email- drrhgautam@gmail.com
mob.n. 8827745548,9755494128

सौन्दरनन्द का आध्यात्मिक सौन्दर्य
मङ्गलाचरण:-
रिरंसा यदि ते तस्मादध्यात्मे धीयतां मनः।
प्रषान्ता चानवद्या च नास्त्यध्यात्मसमा रतिः।।1
अर्थात् यदि तुम आनन्द चाहते हो, तो आत्मविषयक ज्ञान में मन लगाओ। क्योंकि शान्त और निर्दोष अध्यात्म की तरह कोई दूसरा आनन्द नहीं है।
प्रस्तावना:-
अध्यात्म का सौन्दर्य सार्वकालिक आनन्द प्रदान करता है। भिख्खु आनन्द के मुख से महाकवि अष्वघोष का यह संदेष समस्त मानव जगत के लिए है। इस सन्देष को जन-जन तक पहुँचाने के लिए महाकवि ने काव्य को माध्यम बनाया है। सौन्दरनन्द के माध्यम से महाकवि ने आध्यात्मिक सौन्दर्य की स्थापना की है। इस आध्यात्मिक सौन्दर्य को मैंने अपने शोध का विषय बनाया है। सौन्दरनन्द के आध्यात्मिक सौन्दर्य पर चर्चा करने से पूर्व सौन्दर्य के विषय में जान लेना आवयष्क है। सौन्दर्य क्लेदनार्थक उन्दि धातु से निष्पन्न हुआ है जिससे ध्वनित होता है कि वह भोक्ता को कहीं न कहीं आर्द्र करता है। सुन्दर वही है जो आर्द्र करे, आनन्दित करे, रिक्त नहीं। इसीलिए मनुष्य प्रत्येक वस्तु को सरस, सुन्दर और सार्वकालिक (चिरस्थायी) बनाना चाहता है। जीवनोपयोगी समस्त वस्तुओं में सदोपयोगिता व आनन्दसौन्दर्य का साक्षात्कार ही मानव का अभीष्टतम है। प्रत्येक प्राणी दुःख से पलायन कर अमृत प्राप्त करना चाहता है अतः उपनिषद् कहती है-
असतो मा सद्गमय। तमसो मा ज्योतिर्गमय। मृत्योर्मा अमृतं गमय।2
 आनन्द तरंग मानव हृदय में सदा संव्याप्त रहती है जो विविध कलाओं के माध्यम से समय-समय पर प्रस्फुटित होती रहती है। आनन्दोपासना जीवन की सार्वदेषिक व सार्वकालिक प्रवृत्ति है। यह आनन्दोपासना मानवजगत के विविध क्रिया-कलापों में भी प्रतिबिम्बित होती है। काव्य कवि की आनन्दमयी तरंग का ही अन्य रूप है, क्योंकि सौन्दर्य और आनन्द का उपासक मानव अपनी अभिव्यक्ति के माध्यम से ऐसा सौन्दर्य देखना चाहता है, जिससे दूसरे व्यक्ति को आनन्दित करने के साथ-साथ स्वयं भी आनन्दविभोर हो उठता है। महाकवि अष्वघोष की काव्यप्रवृत्ति का प्रयोजन भी यही है।
परिकल्पना:-
ज्ञान के अभाव में दुःख का भाव होता है, परिणामस्वरूप दुःख में आत्म-संकोच(ह्रास) होता है। जबकि ज्ञान सुख-साधन है। अज्ञाननाष से दुःखानुभूति का क्षय हो जाता है, फलतः सुख में आत्म विस्तार होता है। दुःख, वेदना एवं करुणा से विगलित सहृदय मन में आनन्दोपलब्धि की उत्कट आकांक्षा होती है। बुद्धोपदिष्ट नन्द की भाँति त्रिरत्नानुषाीलन से नित्यानन्द (आध्यात्मिक आनन्द) शक्य है।
परिसीमा:-
कवि की भावाभिव्यक्ति काव्य में परिणत होती है। वह अपने सामाजिक जीवन में दूसरे व्यक्तियों के सम्पर्क में आकर सुख-दुःख, आषा-निराषा, हर्ष-विषाद्, ईष्र्या-द्वेष, मान-अपमान, उत्साह-घृणा आदि का अनुभव करता हुआ दूसरे लोगों के सुख-दुःख से प्रभावित भी होता है। उसके मन-मस्तिष्क पर सामाजिक जीवन के इन विभिन्न रूपों का प्रभाव पड़ता है। इन अनुभूतियों की भाषा के माध्यम से सषक्त, सरस और कलापूर्ण अभिव्यंजना ही काव्य है। इसे आचार्य राधावल्लभ त्रिपाठी जी ने लोकानुकीर्तन कहा है। लोकानुकीर्तनम् काव्यम्।3
आदि काल से ही भारतीय मनीषी लोकहित के लिए प्रयत्नषील रहे हैं। आचार्य भरत भी लोकहितार्थ नाट्य की सृष्टि करते हुए कहते हैं-
दुखार्तानां श्रमार्तानां शोकार्तानां तपस्विनाम्।
विश्रान्तिजननं लोके नाट्यमेतद् भविष्यति।।4
लोक हितार्थ काव्यसृजन की धारा वैदिक ऋषियों से आरम्भ होकर वाल्मीकि, व्यास से होती हुई वर्तमान में भी निरन्तर प्रवाहमान है। इसी अजस्र ज्ञानसरित परम्परा के कवियों में महाकवि अष्वघोष भी एक हैं। महाकवि अष्वघोष के महाकाव्यों में जहाँ एक ओर लावण्यमय काव्यसौन्दर्य के उत्कृष्ट प्रयोग देखने को मिलते हैं तो वहीं बौद्ध धर्म के सिद्धान्तों का सफल प्रतिपादन भी प्राप्त होता है। सुवर्णाक्षीपुत्र का जन्म साकेत(अयोध्या) में माना जाता है। जिसके प्रमाणस्वरूप सौन्दरनन्द की पुष्पिका में आये निम्न श्लोक को उद्धृत किया जाता है-
सुवर्णाक्षीपुत्रस्य साकेतस्य भिक्षोराचार्यभदन्ताष्वघोषस्य महाकवेर्महावादिनः कृतिरियम्।5
मगधविजेता कनिष्क (78ई.) के सभाकवि अष्वघोष ने लोकदुःखतारक बुद्ध के जीवन को आधार बनाकर ‘बुद्धचरित’ महाकाव्य तथा बुद्ध के छोटे भाई नन्द के जीवन को आधार बनाकर ‘ सौन्दरनन्द’ महाकाव्यों के साथ-साथ अन्य अनेक ग्रन्थों की भी रचना की। महाकवि अष्वघोष की काव्यकर्म प्रवृत्ति लोकहित मात्र के लिए थी, जिसकी घोषणा महाकवि स्वयं करते हैं-
इत्येषा व्युपषान्तये न रतये, मोक्षार्थगर्भा कृतिः
श्रोतृणां ग्रहणार्थमन्यमनसां, काव्योपचारात् कृता।
यन्मोक्षात् कृतमन्यदत्र हि मया, तत् काव्यधर्मात् कृतं
पातुं तिक्तमिवौषधं मधुयुतं, हृद्यं कथं स्यादिति।।6
अर्थात् मुक्ति धर्म की व्याख्या से परिपूर्ण यह रचना शान्ति लाभ के लिए है, न कि आनन्द देने के लिए , अन्यमनस्क श्रोताओं को आकृष्ट करने के लिए यह रचना काव्यषैली में रची गई है। इसमें मुक्ति धर्म के अतिरिक्त जो कुछ भी कहा गया है, वह केवल काव्यधर्म के अनुसार इसे सरस बनाने के लिए ही है। जैसे कठु औषधि को पीने के लायक बनाने के लिए मधु मिलाया जाता है।
कवि ने भौतिकविषयासक्त लोगों को काव्यानन्द के ब्याज से निर्वाणानन्द की ओर आकृष्ट करने का सफल उद्यम किया है। यद्यपि कवि निरासक्त है, किन्तु लोक-कल्याण के लिए कवि द्वारा अपने आप को लोक से तटस्थ रखते हुए लोक के लोगों केे ज्ञानचक्षु उन्मीलित करने के लिए लोक के ही साधनोें के विविध पहलुओं पर खुली चर्चा करते हुए उनके वास्तविक स्वरूप  को लोगों के सामने लाया गया है। नन्द और सुन्दरी के ऐष्वर्यभोगमय जीवनाधारित काव्य का सामान्य रसिक मुमुक्षु होकर मुक्ति पाने के लिए उत्कण्ठित हो उठता है।
शोधविधि:-
सौन्दरनन्द के आध्यात्मिक सौन्दर्य के आस्वादन के लिए समीक्षा पूर्वक अनुषीलनात्मक विधि का आश्रय लिया गया है।
तथ्य संकलन:-
कवि ने काव्य के आरम्भ से ही आधिभौतिक, आधिदैविक और आध्यात्मिक तीनों स्तर के सौन्दर्य में तुलनात्मक विवेचन प्रस्तुत किया है। आधिभौतिक और आधिदैविक सौन्दर्य के भोक्ता नन्द को तथा आध्यात्मिक सौन्यर्य के भोक्ता बुद्ध को अपनी आध्यात्मिक अभिव्यक्ति का माध्यम बनाया है। आधिभौतिक सौन्दर्य का भोक्ता नन्द तुष्टि तथा शान्ति नहीं पाता और वह आधिदैविक सौन्दर्य भोग के लिए आसक्त्यग्नि में जलने लगता है। नन्द स्वयं कहता है कि-
यथा प्रतप्तो मृदुनातपेन, दह्येत कष्चिन्महतानलेन।
रागेण पूर्वं मृदुनाभितप्तो, रागाग्निनानेन तथाभिदह्ये।।7
अर्थात् जैसे हल्कि अग्नि से जला हुआ कोई व्यक्ति विषिष्ट आग में जले, उसी प्रकार पहले सामान्य आसक्ति से सन्तप्त मैैं नन्द अब इस महान आधिदैविक सौन्दर्य अप्सरा भोग की आग में झुलस रहा हँू।
जबकि बुद्ध आत्माश्रित, आत्मानुषासित हैं, उनमें हेतुबल की अधिकता तथा मूलषक्ति की प्रधानता है, बिना किसी विषिष्ट गुरू के मार्गदर्षन के अपना मार्ग स्वयं प्रषस्त करते हैं और सबसे कहते हैं- ‘अप्प दीपो भव’। बृद्ध,रोगी और मृतदेह दर्षन जैसी जगत की घटनायें ही उनकी सहायक बनती चली जाती हैं, और वे सत्य की खोज में उन समस्त ऐष्वर्य भोगों को ठुकराकर वन चले जाते हैं जिन भोगों के चंगुल में उनका अनुज नन्द आकण्ठ डूबा हुआ है। दैहिक सौन्दर्य अभिलासी नन्द बाहरी वस्तुओं को प्रधानता देता है। वह उनके मोहजाल जकड़ से आसानी से नहीं छूट पाता। उसे वासना के दलदल से निकालने के लिए बुद्ध को अपने षिष्य आनन्द के साथ निरन्तर लम्बा प्रयास करना पड़ता है। नन्द का यह भौतिक सौन्दर्य भोग ऐन्द्रिय स्तर का है। ऐन्द्रिय स्तर का सौन्दर्यभोग व्यक्ति की शक्ति क्षीण कर उसे रिक्त करता है तब व्यक्ति सौन्दर्य का भोक्ता न होकर सौन्दर्य का भोग्य बन जाता है और व्यक्ति निःषेष मात्र रह जाता है। नन्द सुन्दरी के भौतिक अनित्य दैहिक सौन्दर्य मात्र के प्रति आसक्त होकर निःषेषप्रज्ञ रह जाता है।
 ऐन्द्रिय सौन्दर्य क्षणिक है जबकि अध्यात्मिक सौन्दर्य अनन्त है। अतः कहा जा सकता है कि आध्यात्मिक सौन्दर्य संयम परक है। जो बाद में संयम की जगह सौन्दर्य में पर्यवसित हो जाता है। ज्ञानासक्ति उन्नयनकारी राग है जो पर की ओर से हटाकर स्वात्म की ओर आकृष्ट करता है। यह आध्यात्मिक सौन्दर्य बोध की आरम्भिक अवस्था है। जब साधक की समस्त कामनायें तिरोहित हो जाती हैं, तब वह राग-द्वेष से शून्य अवस्था को पाने पर अभीष्ट के खोने और अनिष्ट के प्राप्त होने के भय से मुक्त होकर साधक स्व से हटकर स्व-पर के भेद को मिटाकर एक रस हो जाता है।
व्याख्या एवं विष्लेषण:-
सम्पूर्ण जगत त्रिविध सौन्दर्य से व्याप्त है- आधिभौतिक सौन्दर्य, आधिदैविक सौन्दर्य और आध्यात्म्कि सौन्दर्य। इनमें से आधिभौतिक सौन्दर्य और आधिदैविक सौन्दर्य अनित्य हैं, जबकि तीसरा आध्यात्मिक सौन्दर्य सार्वकालिक आनन्द है। सौन्दरनन्द की सौन्दर्य दृष्टि संयमपरक है, जो पूर्णता पर स्वाभाविक आनन्दानुभूति में पर्यवसित हो जाती है। सौन्दरनन्द में सौन्दर्य की अनुभूति को अनुभव करने वाले नन्द की यथावसर पात्रता के आधार पर पदार्थो को तीन प्रकार से बांटा जा सकता है-
आधिभौतिक सौन्दर्य भोग- विवेेक तथा संयम(आत्मानुषासन) रहित भोग। नन्द की सुन्दरी के प्रति आसक्ति इसी प्रकार के सौन्दर्यभोग की है। हम देखते हैं कि नन्द मिथ्या राग के वषीभूत होकर पत्नी पे्रम और गुरु-गौरव  के मध्य जलतरंगों पर उत्तोलित राजहंस की भांति न आगे बढ़ पाता है और न प्रिया के पास ही ठहर पाता है।
तं गौरवं बुद्धगतं चकर्ष, भार्यानुरागः पुनराचकर्ष।
सोऽनिष्चयान्नापि ययौ न तस्थौ, तुरंस्तरङ्गेष्विव राजहंसः।।8
इतना ही नहीं भिक्षु वेष धारण करने के बाद भी नन्द लम्बे समय तक ऐन्द्रिय सौन्दर्य  के आकर्षण से मुक्त नहीं हो पाता और आनन्द से कहता है-
अहं ग्रहीत्वापि हि भिक्षुलिङ्गं, भ्रातृषिणा द्विर्गुरुणानुषिष्टः।
सर्वास्ववस्थासु लेभे न शान्तिं, प्रियवियोगादिव चक्रवाकः।।9
अर्थात् यद्यपि मैंने भिख्खु वेष धारण कर लिया है, तथा अग्रज एवं मुनि द्विविध व्यक्तित्व वाले गुरु भगवान बुद्ध से उपदेष ग्रहण कर लिया है फिर भी प्रिया विहीन चकवे की भाँति शान्ति नहीं पा रहा हूँ। नन्द के इस कथन से ध्वनित होता है कि भिख्खु का वेष बना लेने अथवा महान से महान व्यक्ति से दीक्षा लेने मात्र से अभीष्ट की सिद्धि नहीं होती आत्मसमर्पण आवष्यक है। नन्द बार-बार पत्नी के वचनों को याद करता है- चञ्जल एवं अस्रुपूर्ण नेत्रों वाली सुन्दरी ने आते समय मुझसे कहा था कि- मेरे अङ्गराग के सूखने से पहले ही तुम आ जाना। उसका यह कथन आज भी मेरे मन को मथ रहा है।10
मुक्ति पाने का इच्छुक परन्तु पत्नी विरह से व्यथित भिक्षु नन्द के प्रति अन्य भिक्षु कहता है-
किमिदं मुखमश्रुदुर्दिनं, हृदयस्थं विवृणोति ते तमः।
धृतिमेहि नियच्छ विक्रियां, न हि बाष्पष्च शमष्च शोभते।।11
अश्रुपूरित तुम्हारा मुँह तुम्हारे मन के मैल को व्यक्त कर रहा है। मनोवेग को रोककर धैर्य धारण करो क्योंकि आँसू और शान्ति एक साथ नहीं शोभते।
भिक्षुओं के द्वारा समझाने के बाद भी नन्द के भौतिक सौन्दर्य भोग के लिए व्यग्र होने पर उसके मन के मैल को धोने के लिए उसका हाथ पकड़कर  बुद्ध दिव्यलोक के लिए उड़ जाते है।
पाणौ गृहीत्वा वियदुत्पपात, मलं जले साधुरिवोज्जिहीर्षुः।।12
नन्द को इस अनित्य सौन्दर्यभोग की पीड़ादायी आसक्ति से मुक्त करने के लिए इस अनित्य आसक्ति के सम्पूर्ण व वास्तविकता को उद्घाटित करने के लिए बुद्ध नन्द को आधिभौतिक सौन्दर्यभोग की तुलना में आधिदैविक सौन्दर्यभोगों की दुनिया में ले जाते समय मार्ग में पूछते हैं-
का नन्द रूपेण च चेष्टया, च सम्पष्यतःचारुतरा मता ते।
एषा मृगी वैकविपन्नदृष्टिः स, वा जनो यत्र गता तवेकष्टः।।13
अरे नन्द! तुम्हारे विचार से रूप और विलास में कौन अधिक सुन्दर दिखलायी पड़ रहा है, वह कानी वानरी या जिससे तुम्हारी आसक्ति है वह?
नन्द उत्तर देते हुए कहता है-
क्व चोत्तमस्त्री भगवन् वधूस्त,े मृगी नगक्लेषकरी क्व चैषा।।14
हे भगवन्! कहाँ तो दिव्यसुन्दरी आपकी अनुजवधू और कहाँ यह पेड़ों को पीडि़त करने वाली बन्दरी?
बुद्ध ने नन्द का सुन्दरी के प्रति देहस्तरीय अनुराग नष्ट करने के लिए स्वर्ग की अपसराओं को दिखाते हुए पूछा कि-
एताः स्त्रियः पष्य दिवौकसस्त्वं, निरीक्ष्य च ब्रूहि यथार्थतत्त्वम्।
एताः कथं रूपगुणैर्मतास्ते, स वा जनोयत्र गतं मनस्ते।।15
अर्थात् तुम इन देवाङ्गनाओं को देखकर बताओ कि रूप और गुण में इन अपसराओं के विषय में तथा जिसमें तुम्हारा मन आसक्त है उस व्यक्तिविषेष के विषय में तुम्हारा क्या विचार है?
तब नन्द का सुन्दरी के प्रति अनुराग सिथिल हो जाता है और देवाङ्गनाओं के प्रति आसक्त होकर कहता है कि- हे नाथ! आपकी बधू की तुलना में कानी बानरी की जो स्थिति है, वही स्थिति इन अपसराओं की तुलना में आपकी बधू की है। जिस प्रकार अपनी पत्नी को देखने के पश्चात् किसी और स्त्री में मेंरी रुचि नहीं होती थी, उसीप्रकार अब इन अपसराओं को देखने के पश्चात् मेरी रुचि मेरी पत्नी सुन्दरी में नहीं हो रही है।16
इसप्रकार आधिभौतिक सौन्दर्य भोग के प्रति नन्द की आसक्ति तिरोहित होकर आधिदैविक सौन्दर्य भोग के प्रति और अधिक बलवती हो उठती है। अब नन्द सामान्य आसक्ति आधिभौतिक सौन्दर्य आसक्ति की अपेक्षा महान आसक्ति आधिदैविक सौन्दर्यभोग  में जलने लगता है। इसप्रकार का नन्द का सौन्दर्यभोग देहस्तरीयमात्र होने से त्याज्य है क्योंकि यह अधःपतन की ओर आकृष्ट करता है। अनित्यसौन्दर्यभोग की लपटों में झुलसता हुआ नन्द कहता है कि-
वाग्वारिणा मां परिषिञ्च तस्म ाद्यावन्न दह्ये स इवाब्जषत्रुः।
रागाग्निरद्यैव हि मां दिधक्षुः, कक्षं सवृक्षाग्रमिवोत्थितोऽग्निः।।17
दावाग्नि के द्वारा वृक्षाग्र सहित सूखे जंगल को जलाने के समान आसक्ति की आग आज मुझे जला डालना चाहती है, हे देव! वाणीरूपी जल से मुझे सींचिये ताकि मैं अब्जषत्रु की तरह न जलूँ।
तब बुद्ध ने नन्द से कहा-
‘‘धृति परिष्वज्य विधूय विक्रियां, निगृह्य तावच्छ्र ुततेचसी शृणु।
इमा यदि प्रार्थयसे त्वमङ्गना, विधत्स्व शुल्कार्थमिहोत्तमं तपः।।’’18
धीरज के साथ मन के विकारों को दूर करो और कान खोलकर, मन को नियंत्रित कर सुनो। यदि इन स्त्रियों की इच्छा करते हो तो इनकी कीमत चुकाने के लिए यहीं पर उत्तम तप करो।
आदिभौतिक सौन्दर्यभोगों की अपेक्षा आधिदैविक सौन्दर्यभोग नन्द को आकर्षित करते हैं।
आधिदैविक सौन्दर्यभोग-
दिव्यलोकगत सौन्दर्यभोगों का वर्णन करते हुए कवि लिखते हैं कि-
यत्रेष्टचेष्टाः सततप्रहृष्टा, निरर्तयो निर्जरतो विषोकाः।
स्वैः कर्मभिर्हीनविषिष्टमध्याः, स्वयम्प्रभाः पुण्यकृतो रमन्ते।।19
यहाँ इच्छानुसार काम करने वाले, सदा खुष रहने वाले, रोग-षोक और बुढ़ापा रहित, अपने ही कर्मों से उत्तम, मध्ययम और हीन होने वाले तथा अपनी ही प्रभा से प्रोद्भासित होने वाले पुण्यवान व्यक्ति रमण करते हैं।
स्वर्ग की अपसरायें सदा तरुणी रहती हैं, कामक्रीड़ा ही उनका एक मात्र कार्य है, सामान्यतः वे पुण्यकर्मियों के लिए उपभोग्य हैं, वे अलौकिक हैं, उन्हें स्वीकार करने में कोई दोष नहीं है, तपस्या के फलस्वरूप देवता उन्हें प्राप्त करते हैं।20
ल्ेकिन तुम्हें बता दूँ-
ये अपसरायें शक्ति, सौन्दर्य, सेवा या कुछ देकर नहीं पाई जा सकती । केवल धर्माचरण से ही इन्हें प्राप्त किया जा सकता है। तो फिर यदि इन्हें पाना चाहते हो तो प्रसन्नता पूर्वक तप करो।21
तब चलेन्द्रिय नन्द ने कामासक्त होकर भी इन्द्रियों के लिए ही उसने इन्द्रियोें पर नियंत्रण किया।22 जिस पत्नि को अत्यधिक चाहता था अब उसके विषय में अनासक्त रहने लगा था। उसकी चर्चा में उसे न क्षोभ होता और न हर्ष-
प्रस्तावेष्वपि  भार्यायां, प्रियभार्यस्तथापि सः।
वीतरागं इवातस्थौ, न जहर्ष न चुक्षुभे।।23

नन्द को भार्या के प्रति विमुख एवं तप में व्यवस्थित होता हुआ देखकर आनन्द नन्द से कहते हैं कि -
अहो सदृषमारब्धं,श्रुतस्याभिजनस्य च ।
निगृहीतेन्द्रियः स्वस्थे, नियमे यदि संस्थितः।।24
अर्थात् आष्चर्य है ! तुम इन्द्रिय निग्रह कर स्वस्थ हो चुके हो, नियम पालन में स्थिर हो, तुमने अपने कुल एवं मर्यादा के अनुकूल आचरण का आरम्भ कर दिया है।
फिर भी तुम्हारे इस धैर्य और नियम पालन में मुझे एक संषय है, यदि कहने योग्य समझो तो कहूँ?  सुनो -
अप्रियं हि हितं स्निग्धमस्निग्धमहितं प्रियम्।
दुर्लभं तु प्रियहितं, स्वादु पथ्यमिवौषधम्।।25
हितकारी प्रेमपूर्ण बातें सुनने में अप्रिय होती हैं। पे्रमरहित हित के विपरीत बातें सुनने मात्र में प्रिय लगती हैं।  जिस प्रकार औषधि का रोग निवारक होने के साथ-साथ स्वादिष्ट होना दुर्लभ होता है उसी प्रकार हितकारी बात हमेषा कर्णप्रिय हो यह दुलर्भ है। अतः तुम्हारे हित के लिए मैं कहता हूँ कि एक बन्धन को त्यागकर दूसरे बन्धन में फंसने के लिए किये जा रहे तुम्हारे प्रयास पर मुझे हंसी भी आ रहीे है और तुम पर तरस भी। तुम्हारा यह तप व्यापारी के क्रय-विक्रय की भाँति बिकाऊ है, इससे तुम्हें शान्ति नहीं मिल शक्ति।
चिक्रीषन्ति यथा पण्यं, वणिजो लाभलिप्सया।
धर्मचर्या तव तथा, पण्यभूता न शान्तये।।26
यदि तुम सच्चा आनन्द चाहते हो तो आत्मविषयक ज्ञान में मन लगाओ, क्योंकि शान्त और निर्दोष अध्यात्म की तरह कोई दूसरा आनन्द नहीं है।27
आध्यात्मिक सौन्दर्य भोग-
आध्यात्मिक सौन्दर्य भोग आत्मानुषासित भोग है। इसमें रूपादि का सौन्दर्य बन्धन का कारण नहीं बनता। आनन्द कहते हैं कि-
न तत्र कार्यं तूर्यैस्त,े न स्त्रीभिर्न विभूषणैः।
एकस्त्वं यत्रस्थस्तया, रत्याभिरंस्यसे।।28
उस अध्यात्म रति में तुम्हंे तुरही, नारी या अलङ्कारों की आवष्यकता नहीं होगी। कहीं भी रहकर भी तुम अध्यात्म सुख में रमते रहोगे।
इस तृष्णा को काटो, जब तक तृष्णा रहेगी तब तक मन को कष्ट होगा ही क्योंकि दुःख और तृष्णा एक साथ आते और जाते हैं।
तृष्णा (इच्छा) ही दुःखमय सृष्टि (जगत) की मूल कारण है(‘‘इच्छा हि जगतोमूलमिति बौद्धमतं शुभम्’’29)
महाकवि अष्वघोष ने अपने महाकाव्य बुद्धचरित में दुःख के कारण की कडि़यों को वर्णित किया है जो इस प्रकार हैं- सबसे बड़ा दुःख तो जरा-व्याधि-मृत्यु है। जरा-मरण का कारण जाति(जन्म लेना), जाति का कारण भव(जन्म लेने की इच्छा) है। भव का कारण उपादान(जगत की वस्तुओं के प्रति राग एवं मोह), उपादान का कारण तृष्णा (विषयों के प्रति हमारी आसक्ति), तृष्णा का कारण वेदना(अनुभूति), वेदना का कारण स्पर्ष(इन्द्रियों और विषयों के संयोग की अवस्था), स्पर्ष का कारण षडायतन(आँख, नाक, कान, जिह्वा, त्वचा और मन), षडायतन का कारण नामरूप(मन के साथ गर्भस्थ शरीर), नामरूप का कारण विज्ञान(चेतना), विज्ञान का कारण संस्कार(कर्मफल), संस्कार का कारण अविद्या(अनित्य को नित्य, असत्य को सत्य, अनात्म को आत्म समझना) है। इस प्रकार अविद्या ही समस्त दुःखों का कारण है। इस तरह ये द्वादष निदान जीव को जन्म-मरण के चक्र में घुमाते रहते हैं। यही भवचक्र है। इन द्वादष दुःख कारणों की श्रृखला ही दुःख-समुदय है। इस श्रृखला में एक की प्राप्ति होने पर अन्य की उत्पत्ति होती है। यदि एक(कारण) नहीं होता, तो अन्य(कार्य) भी नहीं रहता। इसे आश्रित उत्पत्ति का सिद्धान्त, प्रतीत्यसमुत्पाद का सिद्धान्त कहा जाता है। दुःख के कारण की खोज हो जाने पर कारण के नाष के साथ दुःख से मुक्ति की सम्भावना बढ़ जाती है। अतः बुद्ध आष्वस्त करते हैं कि दुःख का नाष हो सकता है। दुःख का नाष मध्यममार्ग के परिषीलन से पूर्णतः हो जाता है।
विषयों की याचना में कष्ट है, मिलने पर संतोष नहीं होता, बिछुड़ने पर दुःख निष्चित है और स्वर्ग में भी उनसे विच्छेद भी निष्चित है। परदेषी की घर वापसी के समान कठोर तप से प्राप्त स्वर्ग भी पुण्य क्षीण हो जाने पर छूट जाता है। तब स्वर्ग का भोग भी उसे कोई आनन्द नहीं देता। षिवि, मान्धाता स्वर्ग से पतित हुए, नहुष ने स्वर्ग से पतित होकर सर्पयोनि पायी, इलिविल भी स्वर्ग से पतित होकर कछुआ बने, भूरिद्युम्न, ययाति भी स्वर्ग में न ठहर सके। सुरों द्वारा राज्यलक्ष्मी छीन लिए जाने पर असुरों को भी पाताल लोक जाना पड़ा। इन्द्र, उपेन्द्र आदि देवताओं को भी विलखते हुए स्वर्ग छोड़ना पड़ा।
सुखमुत्पद्यते यच्च, दिवि कामानुपाष्नताम्।
यच्च दुःखं निपपतां, दुःखमेव विषिष्यते।।30
स्वर्ग की कामोपासना से सुख अल्प तथा स्वर्ग के छूटने पर पीड़ा अधिक होती है।
स्वर्ग परिणाम में अषुभ है। वह रक्षक, विष्वसनीय, संतोषदायक न होकर छणिक है। ऐसा जानकर मुक्ति में मन लगाओ। मुक्ति की कामना करो।
अध्यात्म के स्तर का अनंग सूक्ष्म काम का सृष्टि के मंगल पक्ष में होना आवष्यक है। उसके बिना न सौन्दर्य का भोग हो सकता है, न भाव न महाभाव। जगद्धिताय बुद्धो हि बोधमाप्नोति शाष्वतम्। अतैव जीवानां सर्वेषां तु हिते रतः।।31, में वर्णित जगतहितार्थ बुद्ध की बोधप्राप्ति तथा ‘इत्येषा व्युपषान्तये न रतये मोक्षार्थगर्भा कृतिः’32 में लोक के शान्तिलाभ के लिए काव्यकर्मप्रवृत्ति इसी आध्यात्मिक सौन्दर्य भोग के लिए है।
बुद्ध और आनन्द के उपदेष से नन्द को आत्म बोध होता है।  आनन्द के कथन- ‘‘अप्सरोभृतको धर्मं चरसीत्यथ चोदितः।’’(अप्सराओं को पाने के लिए तप कर रहे हो।) को सुनकर नन्द लज्जित तथा उदास होकर वैरागी हो गया। अब उसे स्वर्ग की चाह नहीं रही। अप्सरा आदि स्वर्ग के भोगों के प्रति वैराग्य की भाँति नित्य आनन्द (निर्वाण) की तुलना में स्वर्ग केे अप्सरा आदि भोगों के प्रति उसकी अभिलाषा जाती रही।
विसस्मार प्रियां भार्यामप्सरोदर्षनाद्यथा।
तथाऽनित्यतयोद्विग्न स्तत्याजाप्सरसोऽपि सः।।33
इस प्रकार नन्द धीरज की रक्षा कर, उद्योग का सहारा लेकर, आसक्ति का विनाष कर, शक्ति का संग्रह कर, वह शान्त चित्त नियन्त्रित और समाहित मन इन्द्रियों से विरक्त हो जाता है। नन्द के इस दृष्टांत से सिद्ध होता है कि साधक का स्वभाव ही उसकी शक्ति होती है। नन्द के अन्तःकरण में मोक्ष बीजरूप में था जिसे बुद्ध ने पहचानकर पल्लवित किया। नन्द ने चार आर्य सत्यों को भली-भाँति जानकर उपायस्वरूप बुद्धमार्ग(मध्यम मार्ग/ अष्टांग मार्ग) के सम्यक् अनुषीलन व अभ्यास  किया। नन्द में समस्त जगत के प्रति साम्यभाव जागृत हुआ और नन्द ने सार्वकालिक आध्यात्मिक सौन्दर्य की अनुभूति की। अनुभूति के साम्य का सौन्दर्य ही चेतना की पराकाष्ठा है जो आनन्द में विश्रान्ति पाती है। नन्द की अध्यात्म शक्ति की वृद्धि होने पर क्रमषः आसक्ति का क्षय होने के साथ-साथ आध्यात्मिक सौन्दर्य में उत्तरोत्तर वृद्धि होती है। आध्यात्मिक सौन्दर्य को अनुभूत कर नन्द कहता है कि -
न मे प्रियं किञ्चन नाप्रियं मे,  न मेऽनुरोधेऽस्ति कुतोविरोधः।
तयोरभावात् सुखितोऽस्मि सद्यो, हिमातपाभ्यामिव विप्रमुक्तः।।34
मुझे न कुछ प्रिय है और न कुछ अप्रिय, न अनुरोध है और न विरोध, इन दोनों के अभाव से, मैं अब सर्दी-गर्मी के प्रभाव से मुक्त हुए की तरह सुखी हूँ।
निष्कर्ष:-
इस प्रकार हम देखते हैं कि सौन्दरनन्द में सौन्दर्य के त्याज्य व ग्राह्य दोनों रूप प्राप्त होते हैं। वैषम्यजनित  क्षणिक सौन्दर्य त्याज्य है जबकि बुद्धिसाम्यभाव जनित आनन्द ही मानव जीवन का शाष्वत सौन्दर्य है। सौन्दरनन्द का सम्पूर्ण घटनाक्रम नन्द को क्षणिक सौन्दर्य से बाहर निकालकर शाष्वत सौन्दर्य में प्रतिष्ठित करने के लिए ही है। शाष्वत सौन्दर्य साधना से ही लभ्य है। जो कोई भी इस साधना को पूर्ण करता है। उसकी समाधि बुद्ध की भाँति देह की भूमि पर भी भंग नहीं होती।
समाधिस्थ एक बौद्ध सन्यासी को देखकर नन्द स्वयं कहता कि -
पुंस्कोकिलानामविचिन्त्य घोषं, वसन्तलक्ष्म्यामविचार्य चक्षुः।
शास्त्रं यथाऽभ्यस्यति चैव युक्तः, शङ्के प्रियाऽऽकर्षति नास्य चेतः।।35
यह भिक्षु शास्त्र के अध्ययन में इस तरह डूबा हुआ है कि इसे न तो कोयल की काकली की चिन्ता है और न वसन्त की श्री ही इसकी आँखों को अपनी ओर खींचती है। इससे स्पष्ट पता चलता है कि प्रिया इसके चित्त को आकृष्ट नहीं कर रही है।
नन्द के जीवन घटनाक्रम को देखने से स्पष्ट ज्ञात होता कि भौतिकता की भूमि से उपर उठे बिना सौन्दर्यराग उन्नयनकारी नहीं हो सकता जबकि ऊपर उठा हुआ सौन्दर्यराग भौतिकता को ग्राह्य नहीं बनाता। यही सौन्दर्य की सकारात्मक उपासना है। यह सचेत रहने पर ही सम्भव है। जैसे सचेत नन्द आध्यात्मिक सौन्दर्य के साक्षात्कार के वाद गुनगुना उठता है-
नमोऽस्तु तस्मै सुगताय येन, हितैषिणा मे करुणात्मकेन।
बहूनि दुःखान्यपवर्तितानि, सुखानि भूयांस्युपसंहृतानि।।36
तस्याज्ञया कारुणिकस्य शास्तु,र्हृदिस्थमुत्पाट्य हि रागषल्यम्।
अद्यैव तावत् सुमहत् सुखं मे, सर्वक्षये किं बत निर्वृतस्य।।37
अर्थात् उस सुगत को प्रणाम, जिस हितैसी- दयालु ने मेरे सारे कष्ट दूर कर अपार सुख दिया। उस दयालु शास्ता की आज्ञा से हृदयस्थ आसक्ति रूपी शूल को निकाल कर मैं आज ही महान सुख का अनुभव कर रहा हूँ। फिर सारे पदार्थों के क्षीण होने के बाद निर्वाण प्राप्त होने की तो बात ही क्या?
इस प्रकार हम कह सकते हैं कि महाकवि अष्वघोष सदा सचेत व सच्चे काव्यकलाकार हैं। इस महाकाव्य में उनकी चेतना आध्यात्मिक सौन्दर्य के संस्कार से सुसंस्कृत होकर अभिव्यक्त हुई। उनके रचनात्मक विवेक से सम्पूर्ण महाकाव्य में आध्यात्मिक सौन्दर्य की सुन्दरता सर्वत्र दृष्टिगोचर होती है जो मानवमात्र के अनुभव का विषय बनती है।
सन्दर्भ सूची:-
1 सौन्दरनन्द-11.34
2 बृहदारण्यकोपनिषद्-1.3.28
3 अभिनवकाव्यालंकारसूत्र
4 नाट्यषास्त्र प्रथम अध्याय कारिका-14
5 (सौ.न. म.का.सर्ग-18 की पुष्पिका)
6 सौन्दरनन्द-18.63
7 सौन्दरनन्द-10 51
8 सौन्दरनन्द 4-42
9 सौन्दरनन्द 7.17
10 यथैष्यनाष्यानविषेषकायां मयीति, यन्मामवदच्च साश्रु।
पारिप्लवाक्षेण मुखेन बाला तन्मे वचोऽद्यापि मनो रुणद्धि।। सौन्दरनन्द 7.19
11 सौन्दरनन्द 8-2
12 सौन्दरनन्द 10/03
13 सौन्दरनन्द-10.16
14 सौन्दरनन्द-10.17
15 सौन्दरनन्द-10.48
16 हर्यङ्गनासौ मुषितैकदृष्टिर्यदन्तरे स्यात्तव नाथ वध्वाः।
तदन्तरेऽसौ कृपणा वधूस्ते वपुष्मतीरप्सरसः प्रतीत्य।। सौ. 10.50
आस्था यथा पूर्वमभून्न काचिदन्यासु मे स्त्रीषु निषाम्य भार्याम्।
तस्यां ततः सम्प्रति काचिदास्था न मे निषाम्यैव हि रूपमासाम्।। सौन्दरनन्द 10.51
17 सौन्दरनन्द-10.53
18 सौन्दरनन्द 10/59
19 सौन्दरनन्द-10.32
20 सदा युवत्यो मदनैककार्याः साधारणाः पुण्यकृतां विहाराः।
दिव्याष्च निर्दोषपरिग्रहाष्च तपः फलस्याश्रयणं सुराणाम्।। सौन्दरनन्द 10.36
21 इमा हि शक्या न बलान्न सेवया न सम्प्रदानेन न रूपवत्तया।
इमा ह्रियन्ते खलु धर्मचर्यया स चेत्प्रहर्षष्चर धर्ममादृतः।। सौ.10.60
22 (तथा लोलेन्द्रियो भूत्वा दयितेन्द्रियगोचरः। इन्द्रियार्थवषादेव बभूव नियतेन्द्रियः।। सौन्दरनन्द 11.3)
23 सौन्दरनन्द-11.7
24 सौन्दरनन्द 11/9
25 सौन्दरनन्द 11/16
26 सौन्दरनन्द-11.26
27 रिरंसा यदि ते तस्मादध्ययत्मे धीयतां मनः।
प्रषान्ता चानवद्या च नास्त्यध्यात्मसमा रतिः।। सौन्दरनन्द 11.34
28 सौन्दरनन्द-11.35
29 बुद्धचरित 26/18
30 सौन्दरनन्द 11/54
31 बुद्धचरित - 15.28
32 सौन्दरनन्द-11.35
33 सौन्दरनन्द 12/7
34 सौन्दरनन्द 17-67
35 सौन्दरनन्द 7-21
36 सौन्दरनन्द-17.63
37 सौन्दरनन्द-17.65

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