स्मृतियों में वर्णित अन्त्यजों के नाम आरम्भिक वैदिक साहित्य में भी आये हैं । ऋग्वेद ( ८1५ । ३८ ) में चर्मम्न ( खाल या चाम शोधने वाले ) एवं वाजसनेयी संहिता में चाण्डाल एवं पौल्कस नाम आये हैं । वप । या वप्ता ( नाई ) दाब्द ऋग्वेद में आ चुका है । इसी प्रकार वाजसनेयी संहिता एवं तैत्तिरीय ब्राह्मण में विदल कार या बिडलकार ( स्मृतियों में वणित बुरुड ) शब्द आया है । वाजसनेयी संहिता का वासस्पल्यूली ( घोबिन ) । स्मृतियों के रजक शब्द का ही द्योतक है । किन्तु इन वैदिक शब्दों एवं नामों से कहीं भी यह संकेत नहीं मिलता । कि ये अस्पश्य जातियों के द्योतक हैं । केवल इतना भर ही कहा जा सकता है कि पोल्कस का सम्बन्ध बीभत्सा ( वाजसनेयी संहिता ३० । १७ ) से एवं चाण्डाल का वायु ( पुरुषमेध ) से था , और पौल्कस इस ढंग से रहते थे कि । उनसे घृणा उत्पन्न होती थी तथा चाण्डाल वायु ( सम्भवतः श्मशान के खुले मैदान ) में रहते थे । छान्दोग्योपनिषद् ( ५ । १० । ७ ) में चाण्डाल की चर्चा है और वह तीन उच्च वर्णों की अपेक्षा सामाजिक स्थिति में अति निम्न था । ऐसा भान होता है । सम्भवतः चाण्डाल छान्दोग्य के काल में शूद्र जाति की निम्नतम शाखाओं में परिगणित था कृत्त एवं सूअर के सदश कहा गया है
वाले वेद के अध्ययन के लिए किए जाने वाले उपनयन से रहित ) है , पाँचवाँ तो वर्ण नहीं है । विशेष - वैदिक धर्म में मूल रूप में चार वर्ण ब्राह्मण , क्षत्रिय , वैश्य और शूद्र माने गए हैं । चार वर्णों का उल्लेख भागवेद में ही ' ब्राह्मणोऽस्य मुखमासीद् " इत्यादि शचा में ( १०९०१२ ) ही है । इन चार वर्णों में शुद्धकुलीन ब्राह्मण , क्षत्रिय और वैश्य को द्विजाति कहा जाता है । चतुर्थ वर्ण शूद्र को एकजाति कहा जाता है । शूद्र से ऊपर के किन्तु द्विजातियों से नीचे के और " निषादस्थपतिर गावेधुकेऽधिकृतः " ( कात्यायनश्रौतसूत्र १०१२ ) इत्यादि प्रमाण से कुछ श्रीत कर्मों में अधिकार रखने वाले निषाद को औपमन्यव के मत में ' पञ्चम वर्ण ' के रूप में लेने की बात निरुक्त में ( AIR ) ऋगवेद के ' पञ्चजना मम होत्र जुषध्वम् ( १०५३४ ) इस वाक्य की व्याख्या में आए हुए " पञ्चजना मम होत्रं जुषध्वम् । गन्धर्वाः पितरो देवा असुरा रक्षासीत्येके । चत्वारो वर्णाः निषादः पञ्चम इत्यौपमन्यवः ' इस वाक्य में आई है । ऐतरेयिब्राह्मण में तो " एतत् पञ्चजनानामुक्थं देवमनुष्याणां गन्धर्वाप्सरसा सर्पाणां च पितॄणां च ' ऐसा कहा गया है ( १२७ [ ३१ ] ) । ऋगवेद में आए हुए " पाञ्चजन्यः " ( १ / १००१२ ) इस पद की व्याख्या में स्कन्दस्वामी ने ' पञ्चजनाः निषादपञ्चमाश चत्वारो वर्णाः , तेभ्यो हितः पाञ्चजन्यः ' बाह्यो देव्यः पाञ्चजन्यो गाम्भीर्य च ज्य इष्यते ' ( पा . व्या . भा . ४२६० ) इत्येव हितार्थे ज्यप्रत्ययो द्रष्टव्यश छान्दसत्वात् " ऐसा कहा है । इस से स्कन्दस्वामी निषाद को पञ्चम वर्ण मानते हैं , ऐसा ज्ञात होता है । वेङ्कटमाधव भी ऐसा ही मानते हुए प्रतीत होते है । सायण ने भी उक्त पद की व्याख्या में ' पाञ्चजन्यः गन्धर्वा अप्सरसो देवा असुरा रक्षासि पञ्च जनाः निषाद पञ्चमाश् चत्वारो वर्णा वा , तेषु रक्षकत्वेन भवः ' ऐसा कहकर निषाद को पञ्चम वर्ण मानने का पक्ष भी दिखाया है । स्कन्दस्वामी ने अन्यत्र भी ( १८९१० ) * पञ्च जनाः " कहे जाने पर ब्राह्मणादि चार वर्ण और निषाद ही समझा है । वैकल्पिक पक्ष दिखाने पर भी सायण ने भी मुख्य रूप में ऐसा ही माना है । सायण ने अन्यत्र भी पञ्चजन से ब्राह्मणादि चार वर्णों को और निषाद को ही लिया है ( ऋग्वेद मा७ ) । ऋग्वेद के ही ' अग्निर् अषिः पवमानः पाञ्चजन्यः " ( ९६६ । २० ) इस स्थल की व्याख्या में भी सायण ने पञ्चजन से ऐतरेयिब्राह्मण में ( ३१ ) उक्त देवमनुष्य गन्धर्वादि का भी वैकल्पिक रूप में उल्लेख मानने पर भी ब्राह्मणादि चार वर्ण और निषाद को ही मुख्य रूप में लिया ही है । निषाद की जातीय स्थिति को मनुस्मृति में ' ब्राह्मणाद् वैश्यकन्यायामम्बष्ठो नाम जायते । निषादः शूद्रकन्यायां यः पारशव उच्यते " ( १०८ ) इस श्लोक में स्पष्ट किया गया है । वैदिक परम्परा में निषाद की कतिपय विशेषताओं को ध्यान में रखकर निषाद को द्विजातियों से और शूद्र से भी भिन्न मानकर उसको पञ्चम वर्ण मानने का भी पक्ष दिखाई देता है । किन्तु वह पक्ष प्रमुख
Friday, 17 April 2020
अस्पृश्यता
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
No comments:
Post a Comment