Saturday, 18 April 2020

Manusmriti samiksha

👏 सत्यानन्द जी से प्राप्त साभार👏
18.04.2020

क्या मनुस्मृति मानव जाति का प्रथम संविधान  है???

(एक क्रांतिकारी:  शोध पत्र)

(जयपुर हाइकोर्ट में चल रहे मनु की प्रतिमा से सम्बंधित विवाद पर मनु  व मनुस्मृति समर्थक आर्यसमाजी विद्वान डॉ सुरेंद्र कुमार के हर प्रश्न का जवाब)

आर्य समाजी विद्वानों द्वारा हिंदू समाज में यह प्रचार किया जा रहा है कि मनु आदि सृष्टि में पैदा हुए थे और उन्होंने दुनिया के लोगों के लिए एक अनमोल जीवन पद्धति बनाई है, वह सार्वजनिक व सार्वकालिक सत्य है,  वही मानव जाति का संविधान है!  वह हर काल में प्रासङ्गिक था ! है !! और रहेगा!!!  

भारत का वर्तमान संविधान पुरी तरह गलत है , मनु का संविधान वेदों और  भारतीय संस्कृति के अनुरूप है,  इसी को लागू करना हिंदू समाज और हिंदू राष्ट्र का लक्ष्य होना चाहिए!!  आर्य समाजी और संघी होने के कारण पहले मैं भी ऐसा ही सोंचा करता था!!!!

आएये हम आर्य समाज के इस दावे पर शोध करते हैं कि क्या वास्तव में मनु सृष्टि के प्रारम्भ में पैदा हुए थे ?और क्या उनकी मनुस्मृति  सच में दुनिया का प्रथम संविधान है??!!!

मनु के महान समर्थक आर्यसमाजी विद्वान डॉ सुरेंद्र कुमार जी का कहना है कि -

_" प्राचीन भारतीय ऐतिहासिक मान्यताओं के अनुसार ब्रह्मा को आदि सृष्टि में माना जाता है और भारत का प्रत्येक कुलवंश तथा विद्या वंश ब्रह्मा से ही प्रारम्भ होता है!  इस प्रकार मनु का काल आदि सृष्टि का स्थिर होता है! " मनुस्मृति का पुनर्मूल्यांकन पृ-21

एक तरफ तो आर्यसमाजी विद्वान ब्रह्मा विष्णु महेश के पौराणिक चरित्र- चित्रण को मानने से इनकार करते हैं, दूसरी तरफ ब्रह्मा को आदि सृष्टि में भी मानते हैं!! ब्रह्मा हमारी पौराणिक कथाओं  में सृष्टि के कर्ता माने गए हैं,  किंतु उन्हें ऐतिहासिक कोई भी नहीं मानता है!!!

मनुस्मृति के रचियता
मनु कौन थे?!??

"अधिकांश विचारक इस मत से सहमत हैं कि मनुस्मृति का मूल प्रवक्ता मनु ही  है और वह भी  स्वायंभुव मनु (ब्रह्मा के पुत्र) ही है,  मैं भी इसी निष्कर्ष पर पहुँचा हूँ!"  डॉ सुरेंद्रकुमार आर्यसमाजी,  मनुस्मृति का पुनर्मुल्यांकन,  पृ- 7

यूँ तो आर्य समाजी विद्वानों ने मनु स्मृति को लाखों करोड़ों साल पुरानी माना है, मगर फिर वे स्वयं कहते हैं -
    
" यद्यपि अन्य प्राचीन ग्रन्थों की तरह मनुस्मृति विषयक काल का कहीं कोई उल्लेख न होने के कारण सुनिश्चित रूप से समय का निर्धारण करना कठिन है,  फिर भी प्राचीन ग्रन्थों में पाए जाने वाले उद्धरणों,  नामोल्लेखों को आधार मानकर उसका अनुमान लगाया जा सकता है! " डॉ सुरेंद्रकुमार आर्यसमाजी झज्जर, हरियाणा वाले विद्वान्  पृ-25 वही

एक तरफ तो हम हमारे ऋषि- मुनियों को त्रिकालदर्शी मानते हैं, दुसरी तरफ उन्हें इतना भी ऐतिहासिक ज्ञान नहीं था कि कम से कम ग्रंथ लिखने का दिन दिनाँक वर्ष  लिख देते !ताकि आने वाली पीढ़ियों को  अपना इतिहास जानने में सुविधा रहती!!और आज लीपापोती करने वाले विद्वानों को शब्दों के साथ बलात्कार भी नहीं करना पड़ता!!!???

यदि मनु स्मृति लाखों साल पुरानी है तब उसका सबसे प्रथम  उपलब्ध भाष्य मेधातिथि का है, जिसका काल 825-900 ई० के मध्य माना जाता है! ऐसा क्यों?? वही पृ -25

क्या लाखों साल के इतिहास में  भी इतना अर्वाचीन भाष्य उपलब्ध होना यह साबित नहीं करता की मनुस्मृति उतनी प्राचीन नहीं है,  जितनी आर्य समाजियों ने प्रचारित की है!

मनु स्मृति स्वयं कहती है वह प्राचीन या प्रथम स्मृति (हिंदू लॉ ) ग्रंथ नहीं है!!!???

  देखिए-  "सम्पूर्ण वेद अर्थात् चारों वेद और उन वेदों के पारंगत विद्वानों के रचे हुए स्मृतिग्रंथ अर्थात् वेदानुकूल धर्मशास्त्र और श्रेष्ठ गुणों से सम्पन्न स्वभाव और श्रेष्ठ -सदाचरण करने वाले पुरुषों का 'सदाचरण' और ऐसे ही श्रेष्ठ -सदाचरण वाले व्यक्तियों की अपनी आत्मा की संतुष्टि एवं प्रसन्नता अर्थात जिस काम के करने में आत्मा में भय,  शंका, लज्जा उत्पन्न न हो,  अपितु सात्विक संतुष्टि और प्रसन्नता का अनुभव हो,  ये चार धर्म के मूल स्रोत = उत्पत्ति- स्थान या आधार है!"
पृ -  मनुस्मृति 1/125 पृ- 99

बुद्धिमान पाठक विचार करें कि जब मनु स्वयं कहते हैं कि

"वेदों के पारंगत विद्वानों के रचे हुए स्मृतिग्रंथ'!!!??? "

इसका अर्थ हुआ कि मनु से पहले भी स्मृति ( हिन्दू कानून)  बनाने वाले कई विद्वान और स्मृतियाँ उपलब्ध थी,  तभी तो मनु ने उनका उल्लेख अपने स्मृति ग्रंथ में किया है!

डॉ सुरेंद्रकुमार मनुस्मृति की भूमिका में स्वयं मनुस्मृति का उदाहरण देते हुए कहते हैं -
               "श्रुति (वेद) और स्मृति ग्रन्थों की किसी भी अवस्था में आलोचना नहीं करनी चाहिए, क्योंकि उन्हीं से धर्म की उत्पत्ति हुई है!  वही धर्म का मूल स्रोत है!  जो व्यक्ति  तर्कशास्त्र का आश्रय लेकर कुतर्क आदि से उनकी अवमानना - निन्दा करता है,  साधु- श्रेष्ठ लोगों को चाहिए कि उसे समाज से बहिष्कृत कर दें,  क्योंकि वेद की निंदा करने वाला वह व्यक्ति नास्तिक है!  देखिए पृ- 2

योsवमन्यते ते मूले हेतु शास्त्राश्रयाद द्विज: !
स साधुभिर्बहिष्कार्यों  नास्तिको वेद निंदक: !!  1/130 मनु स्मृति

उपर्युक्त श्लोक के अनुवादक  डॉ सुरेंद्रकुमार जी है,  इसमें स्वयं मनु कहते हैं कि

" श्रुति और स्मृति ग्रन्थों की किसी भी अवस्था में आलोचना नहीं करनी चाहिए "

यहाँ डॉ सुरेंद्रकुमार की लीपापोती की पोल खुल जाती है जब वे "स्मृति ग्रन्थों"  शब्द का प्रयोग करते हैं,  जब मनु  महाराज स्वयं कहते हैं कि मेरी स्मृति के पहले भी कई स्मृति ग्रंथ लिखे जा चुके हैं,  तभी उन्होंने 'स्मृति' के लिये 'बहुवचन' शब्द का प्रयोग किया हैं!!!

मनु को तर्कशास्त्र से बहुत डर लगाता इसीलिए वे महर्षि गौतम के महान तर्कशास्त्र  (न्याय शास्त्र) का आश्रय लेकर वेदों और स्मृतियों की पोल खोलने वाले मानवतावादी बुद्धिवादी ब्राह्मणों, क्षत्रियों व वैश्यों को समाज से नास्तिक कहकर बहिस्कृत करने का आदेश देते हैं!!!

   इस श्लोक से एक बात और साबित होती है कि मनु और मनुस्मृति हिंदू तर्कशास्त्र के जनक महर्षि गौतम के बाद पैदा हुए थे!!!

स्पष्ट है जब ब्राह्मण, जैन, बौद्ध और अन्य द्विज ( क्षत्रिय, वैश्य) विद्वानों ने श्रुति (वेदों) और स्मृतियों ( ब्राह्मण कानून)के नाम पर समाज और राष्ट्र को ठगने  व अंधकार में रखने वाले पुरोहितों  को ललकारा होगा, तब उनसे ब्राह्मणवाद की रक्षा करने के लिए  सुमति भार्गव नामक ब्राह्मण द्वारा पुष्यमित्र  शुंग के नेतृत्व में बौद्ध सम्राट बृहदरथ की हत्या के बाद (ईसा पूर्व 184)  के बाद  मनुस्मृति लिखी गई या प्रचलित मनुस्मृति उसी काल की रचना है!!!

उपर्युक्त श्लोक में द्विज (ब्राह्मण,  क्षत्रिय, वैश्य)  शब्द आया है उसका अनुवाद डॉ सुरेंद्रकुमार ने "जो व्यक्ति" किया है जो पूरी तरह गलत है! इससे स्पष्ट होता है कि डॉ  सुरेंद्रकुमार के अनुसंधान  का उद्देश्य सत्य शोधन करना नहीं, अपने पूर्वजों  के काले कारनामों की लीपापोती करना या मनु-मनुस्मृति को महिमा मण्डित करना है,  चाहे उसके लिए भोले -भाले हिन्दूओं की आँखों में  कितना भी धूल झोंकना पड़े,  झोंको!!!!???

मनु  गृहस्थाश्रम की प्रशंसा करते हुए कहते हैं -

"वेदों और स्मृतियों में कहे अनुसार इन सब आश्रमों में गृहस्थ सबसे दायित्व पूर्ण होने से श्रेष्ठ है,  क्योंकि वह इन तीनों का ही भरण- पोषण करता है! " 6/89 मनुस्मृति पृ- 500 देखिए-

सर्वेषामपि चैतेषां वेदस्मृतिविधानात:!
गृहस्थ उच्यते श्रेष्ठ:  स त्रीनेतानिबभर्ति हि!!  6/89

उपर्युक्त श्लोक में मनु स्वयं 'स्मृतियों' शब्द का इस्तेमाल करते हुए चीख- चीख कह रहे हैं कि मैंने बहुत सी स्मृतियों का अध्ययन करने के बाद अपनी स्मृति लिखी है ,न मैं आदि सृष्टि में पैदा हुआ था, न मेरी स्मृति!! 
मगर आर्यसमाजी विद्वान तो बेचारे बेबस मनु को आदि सृष्टि का आदिमानव बनाकर ही छोड़ेंगे जी!
देश ,धर्म -संस्कृति की आड़ में ब्राह्मणवाद की रक्षा जो करना है!
चाहे इसके लिए कितना ही झूठ बोलना पड़े , बोलो!!!

मनु स्वयं प्राचीन महर्षियों की बात कहते हैं????

" श्रेष्ठ व्यक्तियों तथा प्राचीन महर्षियों ने पुत्र के विषय में जो सर्वजनहितकारी  और पुण्यदायक विचार कहा,  इस ' शिक्षाप्रद विचार' को सुनो -" 9/31 मनुस्मृति पृ 747 देखिये-

पुत्रं प्रत्युदितं सदिभ्:  पूर्वजैश्च महर्षिभि: ! 
विश्व जन्यमिमं पुण्यमुपन्यासं निबोधत!!  9/31 मनुस्मृति

उपर्युक्त श्लोक में मनु स्वयं अपने प्राचीन महर्षियों पूर्वजों के विचारों को आत्मसात् कर पुत्र के विषय में शिक्षाप्रद विचार अपने शिष्यों को सुनाते हैं!!!

अब यह बात पूरी तरह प्रमाणित हो गई की मनु स्वयं अपने आपको प्राचीन महर्षियों का ऋणि मानते हैं,  उनसे सीखते हैं अपने शिष्यों को सिखाते हैं!!

मगर आर्यसमाजी बंधु इतनी सी बात नहीं समझ पा रहे हैं कि मनु स्मृति धर्म ग्रंथ नहीं, कानून का ग्रंथ है! और कानून में देश काल परिस्थिति के अनुसार परिवर्तन होते रहते हैं,  इसीलिये हमारे पूर्वज केवल मनुस्मृति को अंतिम सत्य मानकर नहीं रोते रहे और  वे देश काल परिस्थिति अनुसार नई स्मृतियाँ लिखते रहे इसी कारण उनकी संख्या लगभग 138 हो चुकी है!!

इन सबका अमृतमन्थन कर और बड़े -बड़े पंडितों (विद्वानों) से करवा कर डॉ अंबेडकर ने  अपनी जान पर खेल कर हम हिंदुओं के लिए आधुनिक हिंदू कोड बिल ( हिंदू पर्सनल लॉ) बना दिया है!

मगर हम इतने नालायक हैं कि अमृत को छोड़कर फिर जाति वर्ण ऊँच नीच के दलदल में लौटना चाहते हैं, हाय रे बुद्धि!!!

मनु स्मृति किस क्षेत्र और वर्ग के लिए है???

आर्यसमाजी विद्वान यह दुष्प्रचार करते हैं कि मनु स्मृति सारी दुनिया के लिए है जबकि मनु स्वयं कहते हैं- "  हिमालय पर्वत विंध्याचल के मध्यवर्ती विनशन प्रदेश को मध्यदेश कहा जाता है 1/140 (2/21)  मनुस्मृति
" जो पूर्व समुद्र (बंगाल की खाड़ी)  से लेकर पश्चिम समुद्रपर्यंत विद्यमान उत्तर में हिमालय और दक्षिण में स्थित विंध्याचल का मध्यवर्ती देश है उसे विद्वान् आर्यावर्त कहते हैं!! " 1/141(2/22)  मनु स्मृति पृ- 112
विंध्याचल अर्थात नर्मदा के नीचे दक्षिण भारत को आर्यावर्त में शामिल ही नहीं किया गया!!।

भला जो मनुस्मृति पूरे भारत के लिए भी नहीं बनाई गई थी उसे पूरी मानवता पर थोपना कहाँ का न्याय है???

शूद्र (obc)  अंत्यज (sc st)  और स्त्री के लिए कोई संस्कार नहीं - मनु

मनु यह नहीं कहते कि इंसान को इंसान के साथ कैसा व्यवहार करना चाहिए ? वह यह कहते हैं कि एक वर्ण को दूसरे वर्ण के साथ कैसा व्यवहार करना चाहिए!! सारी मनुस्मृति ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य पुरुषों को संबोधित करती है!!!  इन्हें क्या -क्या करना चाहिए या क्या- क्या  नहीं  करना चाहिए और  स्त्री -शूद्र को कैसे कन्ट्रोल में रखना चाहिए? देखिए 16 संस्कार में मनु क्या कहते हैं -

" इसी से सब मनुष्यों को उचित है कि वेदोक्त पुण्यरूप कर्मों से ब्राह्मण,  क्षत्रिय,  वैश्य अपने सन्तानों का निषेकादि (गर्भाधान आदि)  संस्कार करें,  जो इस जन्म या परजन्म में पवित्र करने वाला है!! " (सत्यार्थ प्रकाश 257)  1/2( 2/26)  1 मनु स्मृति पृ - 118
देखिए -

वैदिक कर्मभि:  पुण्यैर्निषेकादि र्द्विजन्मनाम!
कार्य:  शरीरसंस्कार:  पावन:  प्रेत्य चेह  च!!  वही मनुस्मृति अध्याय 2 श्लोक1

उपर्युक्त श्लोक से स्पष्ट हो जाता है कि मनु स्मृति का कानून केवल द्विज् पुरुषों के लिए है,  उसमें शूद्र (OBC)  अंत्यज (sc st)  या सम्पूर्ण हिंदू समाज की नारियों के लिए (विवाह और अंतिम संस्कार के अलावा) कोई संस्कार ही नहीं है!!!

   आर्यसमाजी चीख -चीख कर कहते हैं कि जन्म से सब शूद्र होते हैं,  संस्कार से इंसान द्विज बनता है,  मगर मनु स्मृति जब ब्राह्मण,  क्षत्रिय,  वैश्य की संतान के संस्कार की बात करती है, फिर शूद्र (obc) और अंत्यजों ( sc St) की संतान के संस्कार की बात क्यों नहीं करती है???

जब मनु ब्राह्मण, क्षत्रिय,  वैश्य के बालकों की शिक्षा हेतु उपनयन संस्कार की बात करते हैं फिर इनकी बालिकाओं की शिक्षा- दीक्षा के लिए एक भी श्लोक मनुस्मृति में क्यों नहीं मिलता है!!!???

    उपर्युक्त श्लोक के अनुवाद में मेरे प्रथम गुरु महर्षि दयानंद सरस्वती जी ने बड़ी चालाकी से, " इसी से सब मनुष्यों को उचित है कि,"  लिख कर हिंदू समाज या भोले -भाले लोगों की आँखों में धूल झोंकने का काम किया है श्लोक को गम्भीरता से पढ़ा जाए तो उसमें कहीं भी 'सब मनुष्य' शब्द आया ही नहीं है,  महर्षि उसे जबरन घुसेड़ कर मनुस्मृति को सब मनुष्यों का शास्त्र बनाने पर तुले हुए हैं!!!  स्पष्ट है कि महर्षि दयानंद ने भी शब्दों के साथ खिलवाड़ किया है!!!

क्या मनु स्मृति सभी हिंदुओं के लिये मान्य है????

मनु स्मृति शूद्र (OBC),  अन्त्यज (sc St)  और हिंदू नारी के लिए गुलामी का दशतावेज है! भला जो कानून की किताब 90% हिंदुओं को गुलाम बनाती हो,  ब्राह्मण,  क्षत्रिय,  वैश्य पुरुषों को कई प्रकार के बंधनों में जकड़ती हो,  उससे मुक्ति पाने की बजाय उससे पुनः चिपकने की कोशिश करना हमारी मूर्खता नहीं तो क्या है!!!

क्या 90% हिंदुओं को गुलाम बनाकर हम हिंदू समाज और राष्ट्र को मजबूत व सम्पन्न बना सकते हैं,????

आज हिन्दू समाज को स्मृतियों की गुलामी से आजाद होकर नए भारत और जाति- वर्ण विहीन हिन्दू समाज की रचना के लिए सब हिंदुओं से रोटी -बेटी व्यवहार करना चाहिए न कि हिन्दू समाज को जाति-वर्ण, ऊँच -नीच की जंजीरों में जकड़ने वाले स्मृतिकारों के गीत गाकर हिन्दू समाज को आदिम सभ्यता में घसीटने का असफल प्रयास करना चाहिए!!!

संदर्भ ग्रंथ - मनुस्मृति अनुशीलन, लेखक- डॉ सुरेंद्रकुमार,  आर्यसमाजी
प्रकाशक - आर्ष साहित्य प्रचार ट्रस्ट,  दिल्ली सन् 2000 द्वितीय संस्करण ( प्रमाण  के तोर पर केवल  उन्हीं श्लोकों को लिया गया है,  जिन्हें आर्यसमाजी विद्वान डॉ सुरेंद्र कुमार ने अपने अनुसंधान में मूल मनुस्मृति के माना है)

नोट - शोध का उद्देश्य किसी की भावना को ठेस पहुँचाना नहीं,  हिंदू समाज को अपने गोपनीय ज्ञान के यथार्थ से अवगत करवाना है! सभी विवाद सिविल न्यायालय सारंगपुर, जिला- राजगढ़ (ब्यावरा)  mp में ही मान्य होंगे! 

आपका शुभाकांक्षी
स्वामी सत्यानंद महाराज 'सत्य'
संस्थापक - विश्व हिंदू सत्य शोधक मिशन

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