मेरे पिता की साईकिल
मेरे पिता की साईकिल
बड़े होने के संकल्प के साथ
पगली सी दौड़ती रही गली-कूचों में,
पीती रही पसीना,
और खाती रही गम्म।
कैरियर थी कि पीठ थी उसकी
मां मेरी बैठा करती उस पर,
और डंडे रूपी कांधे पै बच्चे हम।
ट्रिन-ट्रिन करती-करती
पहले खेत-खलिहान,
फिर बाजार,
फिर स्कूल-कालेज गई।
वहां किताबें देखकर
भारी सी भरमा गई।
पढ़ने के चश्के में फंसी
शिक्षकों की संगत पा गई।
फिर क्या था,
साईकिल, साईकिल न रही
पहले मोटरसाइकिल हुई,
फिर धीरे से कार हो गई।
दौड़ते हुए शहर-शहर
एसी म्यूजिक सुनते हुए
अचानक देख साईकिल को
तर-बतर हांफते हुए,
अपने अतीत में खो गई।
फिर सोचने लगी
वो सख्त व फटे हाथ,
जोर मारते नंगे विवाईदार पैर,
पसीने से निचुड़ते बेतरतीब बाल,
हांपनी से झुलसती सीं मूंछें,
बनियान से ताकती झुलसी खाल,
जर्जर देह कहीं तो छूट गई।
इस तरह
मौके-मौके पर व्याकुल हो उठती है,
साईकिल तो साईकिल है
कह देती है कभी-कभी
बेटा छूट गईँ गांव की गलियों में चल।
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