Sunday, 29 June 2025

श्रीमद्भागवत कथा व्यासः

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व्यास पीठ और अधिकार
व्यास पीठ पर बैठने की पात्रता

कथावाचक या उपदेशक के लिए व्यासपीठ वह स्थान है, जिसके माध्यम से वह किसी भी संदेश या उपदेश को समाज तक सहजता से प्रेषित करता है।
दुर्भाग्य से यह माध्यम अनेक प्रकार से प्रदूषित होता जा रहा है। इस प्रदूषण का कारण है इस माध्यम का उपयोग ब्राह्मणेतर और सदाचार - हीन लोगों द्वारा करना ।
व्यास पद पर बैठने का कौन पात्र माना गया है,
इसका स्पष्ट विवेचन शास्त्रों में मिलता है।
वास्तव में व्यासपीठ पर बैठने के अधिकारी सच्चरित्र, वेद-धर्मशास्त्रज्ञ, भगवद्भक्त ब्राह्मण को ही माना गया हैं। 
इस विषय में श्रीमद्भागवत माहात्म्य का श्लोक प्रमाण के रूप में उद्धृत है-

विरक्तो वैष्णवो विप्रो वेदशास्त्र विशुद्धिकृत् ।
दृष्टान्त - कुशलो धीरो वक्ता कार्यो ऽतिनिस्पृहः ॥

1. विरक्तः - अर्थात 'धनाद्यभिलाषशून्य : ' यानी जो सांसारिक प्रपंचों से विरक्त और भगवत्प्रेम में अनुरक्त हो, उसी विद्वान ब्राह्मण को विरक्त कहा गया है। इसी बात का समर्थन करते हुए पद्मपुराण में लिखा है कि-

आचार्यो वेदसम्पन्नो विष्णुभक्तो विमत्सरः ।
ब्राह्मणो वीतरागश्च क्रोधलोभ विवर्जितः ॥

2. वैष्णवः - पद्मपुराण के वृंदावन माहात्म्य में विभिन्न सम्प्रदायों के साथ समस्त ब्राह्मणों को वैष्णव कहा गया है। विष्णुदीक्षाविहीनानांनाधिकारः कथाश्रवे का तात्पर्य है कि वैष्णव को ही कथा सुनने - सुनाने का अधिकार है-

ब्राह्मणावैष्णवामुख्यायतो विष्णुमुखोद्भवाः ।
अंगेषु देवताः सर्वाः मुखे वेदाः व्यवस्थिताः ॥
विप्रैः कृता वैष्णवास्तु त्रयो वर्णा भवन्ति हि ॥

3. विप्रः - यद्यपि विप्र शब्द त्रैवर्णिक में घटित हो सकता है, तथापि यहाँ पुराणवक्ता के रूप में केवल वेद-शास्त्रज्ञ सद्गृहस्थ ब्राह्मण ही ग्राह्य हैं, गृहस्थेतर में श्रोत्रिय या विप्र शब्द का व्यवहार अमान्य है-

श्रोत्रियो ब्राह्मणो ज्ञेयो न वैश्यो नैव बाहुजः ।
वेदाध्ययन साम्येऽपि पुरुषोत्तम शब्दवत्॥

पद्मपुराण में भी यही बात स्पष्ट रूप से कही है- वक्तारं ब्राह्मणं कुर्यान्नान्यवर्णजमादरात् जन्मना ब्राह्मण को ही वक्ता के रूप में पवित्र व्यासपीठ पर बैठाना चाहिए।हेमाद्रि में उद्धृत नन्दिपुराण का भी वचन देखें- वाचको ब्राह्मणः प्राज्ञः श्रुतशास्त्रो महामनाः वेदज्ञ गृहस्थ ब्राह्मण ही कथावाचक के रूप में व्यासपीठ पर विराजमान हो सकते हैं। कौशिकसंहिता के भागवत माहात्म्य के अनुसार- विप्र से अतिरिक्त वर्णों में शास्त्र का शास्त्रत्व ही विनष्ट हो जाता है-

यावद्विप्रगतं शास्त्रं शास्त्रत्वं तावदेव हि ।
विप्रेतरगतं शास्त्रम् अशास्त्रत्वं विदुर्बुधाः ॥

4. वेदशास्त्रविशुद्धकृत्- वेदादिशास्त्रों में टंकण आदि दोषों को दूर कर अपनी विद्या से शुद्ध कर व्याख्यान देनेवाला वक्ता हो सकता है।

5. अतिनिस्पृहः- यानी धन आदि संग्रह से रहित विरक्त गृहस्थ ब्राह्मण ही कथाव्यास हो सकते हैं।


Tuesday, 24 June 2025

अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ता

जब देश को धर्मशास्त्र के हिसाब से चलाने वाले लोग बुलन्दियों पर हों और जनता को उनके हिसाब से चलाने में सरकारें सहयोग करती हों तो भक्त जनता उसी ओर हांक दी जाती है। धर्मशास्त्रों से चलने वाले अन्य एशियाई देशों की डगर पर चल दिए हैं क्या हम? आज हमें आत्ममूल्यांकन की सख़्त जरूरत है। भारत बुद्ध की धरती है। जहाँ युद्ध है वहाँ विनाश है। सारे संसाधन ताकतवरों के कब्जे में होते हैं।जो लोग यह भ्रम पाले बैठे हैं कि वे बहुत ताकतवर हैं और वे 90% जनता को संसाधन वंचित कर वर्ण व्यवस्था के हिसाब से जीवन जीने के लिए मजबूर कर राज करेंगे। वे भूल रहे हैं कि पशुओं को लाठी से हांका जा सकता है। यहां तक तो ठीक है 
पर 
जब बरेदी पर शासन करने के लिए बंदूक वाला, 
और बंदूक बाले पर तोप बाला 
और तोप बाले पर बम बाला, 
और बम बाले पर परमाणु बम बाला, 
और परमाणु बम बाले पर हाइड्रोजन बम बाला 
शासन करने की ताक में बैठा है। 
अतः हे लाठी बाले बाले भैया अपने आस-पास के लोगों को पशु मत बना।
उन्हें इंसान बना अगर तू इंसान है तो। 
अगर तू अपने आप को इंसान से ऊपर का मान बैठा है तो मानने से क्या होता है कोई और भी है जो तुझसे भी ऊपर अपने आप को मानता है। 
बस इस ताक में वह भी है कि तू किसी का सम्मान तो छीन ताकि अपमानित लोग मान के भूखे हों और तुझसे त्रस्त हो चुकें।
फिर कोई रक्षक का वेश धारण कर टूट पड़े तुझ पर। 
तू ऐसी गलती करने बच। 
सबके लिए तेरे जैसा विद्वान्, बलवान् धनवान् बनने के रास्ते बन्द मत कर।
सबको बराबर का विद्वान् बनने दे। 
सबको बलवान् बनने दे। 
सबको धनवान् बनने दे। 
जो नहीं बन रहे हों तो ढूँढ ढूँढ़ कर बना। 

'अकेला चना भाड़ नहीं भोड़ता'
फूट जाता है।
भिर बिना दांतो बाला भी खा लेता है।
खाने के लिए दुनिया बैठी है।

Friday, 6 June 2025

पञ्चतन्त्रे: मित्रसम्प्राप्तिः :

॥ श्रीः ॥

पञ्चतन्त्रे

: मित्रसम्प्राप्तिः :

( द्वितीयं तन्त्रम् )

अथेदमारभ्यते मित्रसम्प्राप्तिर्नाम द्वितीयं तन्त्रं, यस्यायमाद्यः श्लोकः-असाधना अपि प्राज्ञा बुद्धिमन्तो वहुश्रुताः । साधयन्त्याशु कार्याणि काकाखुघृगकूर्मवत् ॥ १ ॥

तद्यथानुश्रूयते अस्ति दाक्षिणात्ये जनपदे महिलारोप्यं नाम नगरम् । तस्य नातिदूरस्थो महोच्छायवान् नानाविहङ्गोपभुक्तफलः कीटैरावृतकोटरश्छायाश्वासित-पथिकजनसमूहो न्यग्रोधपादपो महान् । अथवा युक्तमुक्तम् -

छायासुप्तमृगः शकुन्त निव है विंष्वग्विलुप्तच्छदः, कीटैरावृतकोटरः कपिकुलैः स्कन्धे कृतप्रश्रयः । विश्रब्धं मधुपैनिपीतकुसुमः श्लाध्यः स एव द्रुमः, सर्वाङ्ग बंहुसत्त्वत्सङ्गसुखदो भूभारभूतोऽपरः ॥ २ ॥

तत्र च लघुपतनको नाम वायसः प्रतिवसति स्म। कदाचित्प्राणयात्रार्थ पुर-मुद्दिश्य प्रचलितो यावत्प्रश्यत्ति, तावज्जालहस्तोऽतिकृष्णतनुः, स्फुटितचरणः, ऊध्वंकेशो यमकिङ्कराकारो नरः संमुखो बभूव ।

या परा ब्रह्मणः शक्तिः परा वागनपायिनी । चिदानन्दस्वरूपा या सा शिवा पातु सर्वतः ॥ १ ॥

व्याख्या - द्वितीयतन्त्रस्यामुखकथां प्रथयन् प्राह-अयेति । प्राशाः शानवन्तः, बहुश्रुताः = श्रुतसम्पन्नाः (बहु श्रुतं यैस्ते), असाधनाः = साधनहीनाः, काकाखुमृगकूर्मवत् = काकः = वायसः, आखुः = मूषकः कूर्मः कच्छपः, तैर्यथा कार्याणि साधितानि तथैव, आशु = शीघ्रं, स्वकार्याणि साथयन्ति = प्रसाधयन्ति ॥ १ ॥ अनुश्रूयते = आकर्ण्यते, महोच्छ्रायवान् = अति-विशालः, नानाविहङ्गो पभुक्तफलः = विभिन्नपक्षिसमूहैरास्वादितफलः (नानाविहङ्गः विविध-पक्षिभिः, उपभुक्तानि फलानि यस्य सः), की टैरावृत कोटरः = कृमिसमूहैः समाश्रितनिष्कुद्धः (कीटैरावृतानि कोटराणि यस्य सः), छायाश्वासितप्रथिकजनसमूहः = छायातोषित पथिकससूहः

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पञ्चतन्त्रे

(छायया आश्वासितः संतोषितः पथिकजना समूहो येन सः), न्यग्रोधपादपः वटवृक्षः। জাবানুমसूः छायाविश्रान्तः छायायां सुप्ता सुगा यस्य सः शकुन्तनिवः पक्षिसमूहैः विश्वरिवः समन्ततो विलपर्णः विलुप्ताः छदाः यस्यासी), स्कन्धे शाखायो, कृतप्रश्रयः कृताश्रयः, मधुषः मधुकरैः, निपीतकुसुमः निपीतपुष्परसः, सर्वाङ्गः खशरीराः सबै (शाखाप्रशाखादिभिः) बहुसत्वसङ्गसुखदः अनेकजी वसङ्गसुखदः, हुमः वृक्षः, इलाध्यः = प्रशंसाडों भवति, अपरः अन्यः भूभारभूतः एव भवतीति ॥२॥ प्राणयात्रार्थ = जीवि कोपार्जनार्थम् । स्फुटितचरणः विस्फुटितपादः (रफुटितौ चरणौ यस्य सः), यमकिङ्कराकारः = यमदूताकारः (यमकिङ्करस्य आकारः रूपमिवाकारो यस्यासौ)।

हिन्दी-विष्णुशर्मा ने राजपुत्रों से कहा- अब मित्रसम्प्राप्ति नाम का यह द्वितीय तन्त्र आरम्भ हो रहा है, जिसका प्रथम श्लोक यह है-

विद्वान्, बहुभुत एवं बुद्धिमान् जन साधनों के अभाव में भी अपने कार्यों को सिद्ध कर ही लेते हैं, जैसे-काक, मूषक, मृग तथा कूर्म ने मिलकर अपने कार्यों को सिद्ध कर लिया था ॥ १ ॥

जैसा कि सुना जाता है-दक्षिण के किसी जनपद में महिलारोप्य नामका एक नगर है। उस नगर से थोड़ी दूरपर अत्यन्त विशाल एक वटवृक्ष था, जिसके फलों को मुक्त रूप से विहङ्गमगण खाया करते थे और जिसके कोटरों में अनेक कीट निवास किया करते थे। उसको शीतल छाया में दूर-दूर से आनेवाले पथिकजन सतत विश्राम किया करते थे और उसकी सुखद छाया से सन्तोष लाभ किया करते थे। किसी ने ठीक ही कहा है कि-

इस विश्व में उत्पन्न होने वाला वही वृक्ष प्रशंसाई समझा जाता है, जिसकी छाया में मृगकुल आन्त होकर विश्राम करता हो, पक्षिगण जिसके पत्रों और फलों का उपभोग किया करते हों, जिसके कोटरों में असङ्ख्य जीव निवास करते हों, जिसकी शाखाओं पर मर्कटगण निवास किया करते हों, अमरगण जिसके पुष्परस का आस्वादन करके मधुर गुञ्जार किया करते हों, और जो अपने संसर्ग में आये हुये अनेक जीवों को अपने सम्पूण अड्डों के द्वारा सुख प्रदान करता हो। अन्य वृक्ष पृथ्वी के लिये भारभूत होने के अतिरिक्त और कुछ नहीं होते ॥ २ ॥

उक्त वृक्ष की किसी शाखापर लघुपतनक नाम का एक वायस निवास किया करता था। किसी दिन अपनी आजीविका के अन्वेषण में अभी वह इधर-उधर देख ही रहा था कि अत्यन्त कुरूप काला, ऊर्ध्वकेश, स्फुटितचरण और यमकिङ्कराकार एक व्यक्ति हाथ में जाल लिये हुए उसके सामने से आता हुआ दिखाई पड़ा ।

अथ तं दृष्ट्वा शङ्कितमना व्यचिन्तयत्-यत्- "अयं दुरात्माद्य ममाश्रयवटपादप-संमुस्खोऽभ्येति, तन्न ज्ञायते किमद्य वटवासिनां विहङ्गमानां सब्क्षयो भविष्यति, न. वा ?” एवं बहुविधं विचिन्त्य तत्क्षणाश्चिवृत्य तमेव वटपादपं गत्वा सर्वान् विहङ्गमान्
मित्रसम्प्राप्तिः

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प्रोवाच "भोः ! अयं दुरात्मा लुब्धको जालतण्डुलहस्तः समभ्येति तत्सर्वथा तस्य न विश्वसनीयम् । एष जालं प्रसार्य तण्डुलान् प्रक्षेप्स्यति । ते तण्डुला भवद्भिः सर्वैरपि क लकूटसदृशा द्रष्टव्याः।"

एवं वदतस्तस्य स लुब्धकस्तत्र वटतले आगत्य, जाळं प्रसार्य सिन्दुवार-सहशांस्तण्डुलान् प्रक्षिप्य, नातिदूरं गत्वा निमृतः स्थितः। अथ ये पक्षिणस्तत्र स्थितास्ते लघुपतनकवाक्यार्गलया निवारितास्तांस्तण्डुलान् हालाहलाङ्‌कुरानिव वीक्ष माणा निभृतास्तस्थुः ।

अत्रान्तरे चित्रग्रीवो नाम कपोतराजः सहस्रपरिवारः प्राणयात्रार्थ परिभ्रमंस्तां-स्तण्डुलान् दूरतोऽपि पश्यँलघुपतनकेन निवार्यमाणोऽपि जिह्वालौल्याद्भक्षणार्थमपतत्, सपरिवारो निबद्धश्च ।

व्याख्या - शङ्कितमनाः - आशङ्कितचित्तः, सक्षयः = विनाशः, लुञ्चकः = व्याधः, कालकूटसदृशाः = विषतुल्याः (कालकूटः पृथुमालिदैत्यरक्तोद्भवो वित्रभेदः), सिन्दुरबारसह-शान् = निर्गुण्डीसदृशान् (शुभ्रान्) निभृतः गुप्तः सन्, तत्रस्थिताः वटवृक्षाश्रिताः, वाक्या-गंलया = बचनरूपयार्गलया (कपाटस्यावष्टम्भकं मुसलमर्गलम्), हालाहलाङ्कुरानिव = हाला-इलाख्यविषाङ्‌कुरानित्र, वीक्षमाणाः = निरीक्षमाणाः, निभृताः = मौनव्रतमाश्रिताः, जिहा-लौल्लाद् = जिह्वाचापल्यात् ।

हिन्दी-उस यमकिङ्कराकार पुरुष को देखकर वायस ने अपने मन में सोचा-"यह दुष्ट व्याध आज यदि मेरे निवासभूत वटवृक्ष की ओर आ गया तो न जाने क्या होगा ? आज इन बटवासी पक्षियों का विनाश होगा, या ये जीवित ही बच जायेंगे?"

उक्त प्रकार से अनेक बातों को सोचने के पश्चात् वह तत्काल लौट पड़ा और उस वटवृक्ष पर जाकर वहाँ के निवासी समस्त पक्षियों को एकत्र करके उसने कहा- "मित्रो ! यह दुष्ट व्याध अपने हाथ में जाल और चावलों को लेकर इधर ही आ रहा है। तुम लोग उसपर विश्वास न करना। जाल को जमीन पर फैलाने के बाद वह चावलों को उसपर बिखेर देगा। तुम लोग उन छींटे गये चावलों को कालकूट (विष) के समान समझकर उनपर दृष्टिपात न करना।"

अभी यह वटवासी पक्षियों को समझा ही रहा था कि वह व्याध उसी वृक्ष के नीचे -आकर खड़ा हो गया और जाल को फलाकर उसके ऊपर उसने निर्गुण्डी के पुष्पों की तरह सफेद चादलों को छींट दिया और वहाँ से थोड़ी दूर हटकर छिपकर बैठ गया ।

उस वृक्षपर निवास करने वाले पक्षिगण लघुपतनक के वचनरूपी अर्गला से रोके जाने के कारण उन चावलों को हालाहल विष के दानों की तरह समझकर शान्त हो उसकी ओर देखते रहे, कोई भी उनके पास नहीं गया ।

इसी बीच में चित्रग्रीव नाम का एक कपोतराज अपने सहस्रों पारिवारिक सदस्यों के साथ जीविका के अन्वेषण में इधर-उधर घूमता हुआ कद्दों से आकर उन विखरे हुए सफेद चावलों की ओर देखने लगा। लघुपतनक के बार-बार मना करने के बाद भी अपनी जिल्हा की
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पञ्चतन्त्रे

चपलता के कारण उनको खाने के प्रलोभन में आकर वह सपरिवार उन चावलों पर टूट पड़ा और सकुटुम्ब उस जाल में फंस गया।"

अथवा साध्विद‌मुच्यते-जिह्वालौल्यप्रसक्तानां जलमध्यनिवासिनाम् । अचिन्तितो वधोऽज्ञानां मीनानामिव जायते ॥ ३ ॥ अथवा दैवप्रतिकूलतया भवत्येवम् । न तस्य दोषोऽस्ति । उक्तश्च-पौलस्थ्यः कथमन्यदारहरणे दोषं न विज्ञातवान्, रामेणापि कथं न हेमहरिणस्यासम्भवो लक्षितः । अक्षैश्वापि युधिष्ठिरेण सहसा प्राप्तो ह्यनर्थः कथं, प्रत्यासन्नविपत्तिसूडमनसां प्रायो मतिः क्षीयते ॥ ४ ॥

तथा च-

दैवोपहत चेतसाम् । कृतान्तपाशबद्धानां बुद्धयः कुब्जगामिन्यो भवन्ति महतामपि ॥ ५ ॥

व्याख्या- जिल्हा लौल्यप्रसक्तानां जिह्वाचापल्ययुक्तानों (जिह्वायाः लौल्यं जिहालौल्यं, तस्मिन् प्रसक्ता ये तेषामित्यर्थः), जलमध्य निवासिनां जलमध्ये स्थितानान्, अशानां मूढानां, मीनानां = मत्स्यानामिव, अचिन्तितः अतर्कितः, बधो जायते समुत्पश्यते ॥ ३ ॥ दैवप्रतिकूलतया = भाग्यस्य विपरीततया, पौलस्त्यः रावणः (पुलस्त्यस्य गोत्रापत्यं पुमान्), अन्यदारहरणे = परस्त्री हरणे, दोषं पाएं, हेमहरिणस्य स्वर्णमृगस्य, असंभवः असम्भवोत्पत्तिः नक्षैः = पाशैः, अनर्थः विपत्, प्रत्यासन्नविपत्तिमूदमनसाम् = आत्तन्नापत्कालेन जावं गतानाम्, मतिः = बुद्धिः, प्रायेण क्षीयते = क्षयमेव गच्छतीति भावः ॥ ४ ॥ कृतान्तपाशबद्धानां = यमपाशबद्धानां (कृतान्तस्य पाशेन बद्धा ये तेषामिति) दैवोपहतचेतसां - भाग्यबिनाशित-मनसां (दैवेनोपहतं चेतो येषां तेषामिति), बुद्धयः, कुब्जगामिन्यः कुटिलगतयो भवन्ति ॥ ५ ॥

हिन्दी-जिह्वाचापल्ययुक्त (लोभी) मूर्ख व्यक्तियों का विनाश भी उसी प्रकार अतकिंत रूप से होता है, जैसे जलनिवासी मछलियों का, उनके जिहचापल्य के कारण विनाश हो जाता है ॥ ३ ॥

अथवा, भाग्य की प्रतिकूलता से ऐसा हो ही जाता है कि व्यक्ति का लोभ बढ़ जाय और वह दूसरों के जाल में फंसकर छटपटाने लगे। अतः चित्रबीच का इसमें कोई दोष नहीं है। (महान् लोग भी दुर्भाग्य के कारण कभी-कभी सङ्कटग्रस्त हो जाया करते हैं)। कहा मौ गया है कि-

परस्त्रीहरण करने में दोष होता है, इस बात को विद्वान् तथा विचारवान् होते हुये भी रावण ने क्यों नहीं समझा था १, राम ने अपने मन में यह क्यों नहीं पहले हो सोच लिया कि स्वर्णसृग का होना ही असम्भव है? राजनीतिकुशल एवं धर्मविद् युधिष्ठिर ने "धतकर्म को अधर्म समझते हुये भी उसमें फँसकर आपत्ति का भोग क्यों किया था? उक्त उदाहरणों से यह बात

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मित्रसम्प्राप्तिः

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सुत्ररों सिक हो जाती है कि आपत्तिकाल के समीप आते ही मनुष्य जवन राज्य हो जाता है और उसकी बुद्धि भी प्रायः क्षीण हो जाती है ॥ ४ ॥

और भी गमपाश में आबद्ध हुये प्राणियों और प्रतिकूल भाग्य के द्वारा प्रतावित हृदययुक्त मनुष्यों की बुद्धि विपरीतगामिनी हो ही जाती है। मनुष्य कितना भी महान् क्यों न हो, आपत्तिकाल में उसकी बुद्धि स्थिर नहीं रह पाती ॥ ५ ॥

अत्रान्तरे लुब्धकस्तात्वद्वान् विज्ञाय प्रहृष्टमनाः प्रोचतयष्टिस्तइधार्य प्रचावितः । चित्रग्रीवोऽप्यात्मानं सपरिवारं बद्ध मत्वा लुब्धकमायान्तं दृष्ट्रा तान् कपोतानूचे-"अहो, न भेतव्यम् । उक्तञ्च-

व्यसनेष्वेव सर्वेषु यस्य बुद्धिर्न ह। यते । पारमभ्येति तत्प्रभावादसंशयम् ॥ ६ ॥ स तेषां सम्पत्तौ च विपत्तौ च महतामेकरूपता । उदये सविता रक्तो रक्तवास्तमये तथा ॥ ७ ॥

तत्सर्वे वयं हेलयोड्डीय सपाशजाला अस्यादर्शनं गत्वा मुक्ति प्राप्नुमः । अथ चेद्भयविक्लवाः सन्तो हेलया समुत्पातं न करिष्यथ, ततो मृत्युमवाप्स्यथ। उक्तञ्च -

तनवोऽप्यायता नित्यं तन्तवो बहुलाः समाः । बहून् बहुत्वादायासान् सहन्तीत्युपमा सताम् ॥ ८ ॥

व्याख्या-प्रोद्यतयष्टिः बत्थापितदण्डः, तद्धार्थ चित्रग्रीवादिवधार्थ, मत्वा स्वोकृत्य व्यसनेषु = आपत्तु, यस्य पुरुषस्य बुद्धिः, न हीयते नावसीदति, तत्प्रभावात् स्वबुद्धि-सामर्थात्, सः, तेषां = व्यसनानां, पारमभ्येति = पारं गच्छतीति ॥ ६ ॥ सम्पत्ती समृद्धी विपत्ती = विपत्तिकाले च, एकरूपता समस्थितिः, भवति। यथा-सबिता = सूर्यः, रक्तो भवति तथैव अस्तमये = अस्तमनबेलायां, च रक्तस्तिष्ठति ॥ ७ ॥ हेल्या लीलया (अवडापूर्वक, खेल में जैसे किया जाता है), भयविक्लवाः भयव्याकुलाः, समुत्पातम् = उड्डयनं, सृष्युं मरणम्, मवाप्स्यथ प्राप्स्यथ। तनवः सूक्ष्माः, आयताः विस्तृताः, बहुलाः अनेके, तन्तनः = सूत्राणि, समाः संयुक्ताः संमिलिताः, बहुत्वात् अनेकत्वात्, संमिलितत्वादित्यर्थः, बहून् - अनेकान्, आयासान् = कर्षणाबाबासान्, भारादीन्, सहन्तिः तथैव सतामपि उपमा भबति = सज्जनाः संमिलिताः सन्तः प्रचुरान् कष्टान् सहन्ते ॥ ८ ॥

हिन्दी-चित्रग्रीवादि कबूतरों को जालमें आबद्ध देखकर बह बहेलिया अपने मन में बहुत प्रसन्न हुआ और अपनी लाठी को ऊपर उठाकर उन्हें मारने के लिये दौड़ पड़ा। चित्रग्रीव ने जब उस बहेलिये को अपनी ओर आते हुये देखा और सपरिवार अपने आपको उसके जाल में आबद्ध समझ लिया तो अपने अनुयायियों को सांत्वना प्रदान करते हुये कहा- "मित्रो ! बहेलिए के आगमन से तुमलोगों को डरना नहीं चाहिये। कहा भी गया है कि-

अनेक प्रकार की आपत्तियों में घिर जाने पर भी जिस व्यक्ति की बुद्धि क्षीण नहीं होतो
पम्चत म्प्रे

है, यह व्यक्ति अपनी बुडि के प्रभाव से उन आपत्तियों की अवश्य पार कर लेता है। (तः आपशिकात में मनुष्य को अपनी बुद्धि एवं साहस को छोड़ना नहीं चाहिये) ॥ ६॥

जैसे भगवान् सूर्य उदय और अस्त दोनों ही कालों में रक्त बने रहते है उसी प्रकार सज्जन व्यक्ति भी सम्पत्ति और विपति में सदा एकरूप बने रहते हैं। [सुल और दुःख दोनों हो में समान बने रहना सज्जन पुरुषों का स्वाभाविक गुण होता है। वे अभ्युदयकाल में सुखी और विपत्ति काल में दुःखी नहीं होते ] ॥ ७ ॥

अतः यदि इनलोग आपस में मिलकर बिना किसी आवास के ही (खेल-खेल में) बहेलिये के इस पाश और जाल को लेकर उड़ चलें तो इसकी दृष्टि से ओझल हो जाने पर संमय है कि इस बन्धन से मुक्त हो जाय। यदि भय से विकल और निराश होकर इम संमिलित रूप से इस पाश को लेकर उड़ नहीं चलेंगे तो इम सबको मृत्यु निश्रित है। कहा भी गया है कि-

छोटे बड़े सभी प्रकार के तन्तु जब आपस में संश्लिष्ट (संपत्ति) हो जाते है तो अपनी सामूहिक शक्ति के कारण वे अनेक बड़े-बड़े गोशों को भी अनायास ही सह लिया करते हैं। सज्जन व्यक्ति भी उन सूत्रों के श्री सदृश संघटित हो जाने पर बड़ी-बड़ी आपत्तियों को भी अनायास हो झेल लिया करते ई" ॥ ८ ॥

तथानुष्ठिते, लुब्धको जालमादायाकाशे गच्छतां तेपां पृष्ठतो भूमिस्थोऽपि पर्यधावत् । तत ऊर्ध्वाननः श्लोकमेनमपठत्

जालमादाय गच्छन्ति संहताः पक्षिणोऽप्यमर्मा ।

यावश्च विर्वादप्यन्ति पतिष्यन्ति न संशयः ॥ ९ ॥

लघुपतनकोऽपि प्राणय। त्राक्रियां व्यक्त्वा किमत्र भविष्यतीति कुतूहलात्तत्पृष्ठतोऽ-बुसरति । अथ दृष्टेरगोचरतां गतान् तान् विज्ञाय लुब्धको निराशः श्लोकमपठत्, निवृत्तब।

"उक्तश-

नाह भवति यश्च भाव्यं भवति च भाव्यं विनापि यत्नेन ।

करत लगतमपि नश्यति यस्य हि भांवरुव्यता नास्ति ॥ १० ॥

तथा च-

पराङ्‌मुखे विधी चेत्स्यात्कश्चिद् द्रावणोदयः। तत्सोऽन्यदपि संगृह्य याति शङ्ख नाधर्यथा ॥ ११ ॥

तदास्तां सावद्विइङ्गामिपलामा यावत्कुटुम्बवत्तं नोपायभूतं जालमपि मे नष्टम् ।"

ब्याख्या तथानुष्ठितेव्डायमानेषु त५, पयधावत् अन्वधावत् । ऊध्वाननः = कध्वंनुजस्ता पश्यन्, नमी एते, इताः सङ्घटिताः सन्तः यावत् यदा, विवदिश्यन्ति विवादं करिष्यन्ति, (श्रान्ताः सन्तः कलई विधास्यन्तीति भावः) ॥ ९ ॥ प्राणयात्रा कियां = जीविकोपार्जनक्रियां, त्यक्त्वा विश्वाय कुतूहलात् भर्भात्सुक्यात्, अनुसरति अनुधावति ।

मित्रसम्प्राप्तिः

Ind

दृष्टिगोचरताम् = अदृश्यतां, गतान् प्राप्तान्, निराशः गतीत्साहः, निवृत्त = परावृतः । भान्यं = भवितव्यं, भवितव्यता भाग्र्थ, करत लगतमपि इस्तगतमपि नस्तु, नश्यति विन-श्यति ॥१०॥ विधौ = भाग्ये, पराङ्‌मुखे प्रतिकूले सति, फर्भचित् केनाप्युपायेन, द्रविणोदयः सर्योदयः (धनलाभः), अन्यदपि पूर्वसञ्चितमपि, सड्‌यूस गृहीत्वा (समेट कर), याति -गच्छति ॥ ११ ॥ विहङ्गामिषलाभः- पश्चिमांसलामः, कुटुम्बवर्त्तनोपायमूर्त कुलस्य जोवि-कार्बनोपायसाधनम् ।

हिन्दी-जाल को लेकर आकाश में उड़ते हुए पक्षियों को देखकर वह नहेलिया भी उनके पीछे-पीछे भूमि पर दौड़ने लगा। कुछ दूर जाने के पश्वात् उसने आकाश की ओर देखकर इस श्लोक को पढ़ा-

पारस्परिक संघटन के कारण ये कबूतर मेरे जाल की लेकर उड़ तो रहे है किन्तु श्रान्त होकर जब ये आपस में विवाद करने लगेंगे तो पृथ्वी पर अवश्य गिरेंगे ॥ ९ ॥

उधर लघुपतनक उपर्युक्त घटना को साधयं देखता रहा और आगे की घटना को देखने के उद्देश्य से कौतूहलवश वह उन पक्षियों के पीछे पीछे चलने लगा। पक्षियों के अदृश्य हो जाने पर बहेलिये ने निराश होकर अग्रिम श्लोक को पढ़ा और लौट गया-

"किसी ने ठीक ही कहा है कि जो भाग्य में नहीं होता है, वो भाग्य में होता है, वह बिना किसी प्रयत्न के भी हो जाता है। वह नहीं ही होता। जिस पुरुष का भाग्य अनुकूल नहीं होता उसके हाथ में आयी हुई वस्तु भी नष्ट हो जाती है ॥ १० ॥

और भी भाग्य के प्रतिकूल होने पर यदि किसी पुरुष को कर्भाचत् कुछ धनागम हो भी जाता है, तो वह शङ्खनिधि की भाँति स्वयं तो चला ही जाता है अपने साथ उसके पूर्वसचित धन को भी समेटकर लेता जाता है। (शङ्खनिधि के विषय में यह प्रसिद्धि है कि वह किसी के पास ठहरता नहीं है। जिसके पास बह जाता है उसके पूर्वसञ्चित धन को भी नष्ट कर डालता है) ॥ ११ ॥

पक्षियों के मांस की माशा तो दूर ही रही, कीडुम्बिक जीविका के उपार्जन का साधन मेरा जाल भी इनके साथ ही चला गया।"

चित्रग्रीवोऽपि लुब्धकमदर्शनीभूतं ज्ञात्वा तानुवाच - "भोः ! निवृत्तः स दुरात्मा लुब्धकः, तत्सर्वैरपि स्वस्थंर्गम्यतां महिलारोप्यस्य प्रागुत्तर दिग्भागे। तत्र मन सुहृद्धि-रण्यको नाम मूषकः सर्वपां पाशच्छेदं कारष्यति ।

उक्तञ्च-

सर्वेषामेव मर्त्यांनां व्यसने समुपस्थिते । वाङ्‌मात्रेणापि साहाय्यं मित्रात्म्यो न संदधे ॥१२॥

एवं ते कपोता श्रत्रीवेण संबोधिता महिलारोप्ये नगरे हिरण्यकबिलदुर्ग प्रापुः ।

व्याख्या- अदर्शनी मूर्त = दृष्टेरगोचरतां गतं, तान् कपोतान्, दुरात्मा दुष्ठवश्यः, खस्यैः = भयरहितैः (प्रकृतिस्यैः सद्भिः), प्रागुत्तर दिग्भागे पूर्वोत्तरकोणे (ईशान कोण में)

२४४

पञ्चतन्त्र

पाशच्छेदं बन्धन विमोक्षणं (जालकर्तनमिति यावत्)। मर्त्यांनी मनुष्याणां, व्यसने विपदि, निषादन्यः मित्रायतिरिक्तः कोऽपि, बाड्‌मात्रेणापि वचनेनापि, साहाय्ये सहयोगं, न संदभेन विधते ॥ १२ ॥ सम्बोधिताः समाशप्ताः, प्रापुः जग्मुः ।

हिन्दी-बहेलिये के दूर चले जाने के बाद चित्रग्रीन ने अपने अनुयायी कपोतों कहा- 'मित्रो! यह दुष्ट व्याध लौट गया। अब तुम लोग स्वस्थ होकर महिलारोप्य नगर के ईशान कोण की ओर चलो। वहाँ हिरण्यक नाम का एक चूहा मेरा भित्र है। वह तुम लोगों के इस बन्धन को काट देगा। कहा भी गया है कि-

मनुष्य पर जब किसी प्रकार की विपत्ति आ जाती है तो उसके मित्रों को छोड़कर दूसरा व्यक्ति बचनमात्र से भी उसकी सहायता नहीं करता ॥ १२ ॥

चित्रग्रीव के आदेशानुसार वे कबूतर महिलारोप्य नगर के पास रहने वाले हिरण्यक के विवर-दुर्गपर पहुँच गये।

हिरण्यकोऽपि सहस्रबिलदुर्ग प्रविष्टः सन्नकुतोभयः सुखेनास्ते । अथवा साध्विदमुच्यते -

अनागतं भयं दृष्ट्वा नीतिशास्त्रविशारदः । अवसन्मूपकस्तत्र कृत्वा शतमुखं बिलम् ॥ १३ ॥ दंड्राविरहितः सपों मदहीनो यथा गजः । सर्वेषां जायते वश्यो दुर्गहीनस्तथा नृपः ॥ १४ ॥

व्याख्या सहस्रमुखबिलदुर्ग = सहस्रमुखयुक्तं विवरदुर्ग, न कुतोभयः निर्भयः सन्, आस्ते = वसति (तिष्ठतीति भावः) । नीतिशास्त्रविशारदः नीतिशाखकुशलः, भनागतम् = अप्राप्तं (भाविनमिति यावत्), भयं भीतिप्रदं कष्टं, दृष्ट्वा समालोच्य, अवसत् न्यवसत् ॥ १३ ॥ यथा दंष्ट्राविरहितः दन्तविहीनः, मदद्दीनः मदरहितः गजः, वश्यो भवति तथैव दुर्गहीनो नृपः - राजापि सर्वेषां वरागो भवति ॥ १४ ॥

हिन्दी-हिरण्यक भी अपने सहस्रमुखवाते विवर-दुर्ग में निर्भय होकर सुखसे निवास करता था। किसी ने ठीक ही कहा है कि-

भविष्य में आ सकने वाली आपत्ति के भय से नीतिकुशल वह हिरण्यक नाम का चूहा शतमुख-विवर का निर्माण करके सुखते वहाँ निवास करता था ॥ १३ ॥

क्यों कि जैसे जहरीले दांतों के अभाव में सर्प और मद के अभाव में गज अशक्त होकर सबके वशीभूत हो जाते हैं। उसीप्रकार दुर्गहीन राजा भी शक्तिहीन होकर शत्रुओं के अधीन हो जाता है। आत्मरक्षा के अभाव में वह शत्रु का यथोचित प्रतीकार नहीं कर सकता ॥ १४ ॥

तथा च-

4

न राजानां सहस्रण न च लक्षेण वाजिनाम्र। तत्कर्म साध्यते राज्ञां दुर्गेणेकेन

यद्रणे ॥ १५ ॥
शतमेकोऽवि संघले प्राकारस्यो चतुर्जरः । तस्माद् दुर्ग प्रशंसन्ति नीतिशास्त्रविदो जनाः ॥ १६॥

२५१

व्याख्या-वाजिनाम् अश्वानों, साध्यते कियते ॥ १५ ॥ प्राकारः प्राचीरखः (हुर्ग के परकोटे पर स्थित), एकोऽपि धनुर्वरः एकीऽविचानुष्तः, शतं शतस‌ङ्ख्यकान्, संभत्ते संहरति (लक्ष्य बना सकता है)।॥ १६॥

हिन्दी और भी युद्धभूमि में हजारों हाथियों और कालों पोत्रों से मी राजानों का जो काम नहीं किया जा सकता है, वह कार्य केवल एक दुर्ग से किया जा सकता है। (युद्ध-काल में राजाओं के लिये दुर्ग का होना इजारों हाथियों और लाली अश्वारीदियों से भी महत्त्वपूर्ण होता है) ।॥ १५ ॥

दुर्ग के परकोटे पर स्थित केवल एक ही धनुर्वर सैकड़ों योद्धाओं को अपना लक्ष्य बना सकता है। अतएव नीतिविदों ने राजाओं के लिए दुर्ग का होना आवश्यक कहा है और उसकी प्रशंसा भी की है ॥ १६ ॥

अब चित्रग्रीवो बिलमासाद्य तारस्वरेण प्रोवाच - "मोः भो मित्र हिरण्यक ! सत्वरमागच्छ; महती में व्यसनावस्था वर्तते।"

तच्छ्रुत्वा हिरण्यकोऽपि निलदुर्गान्तर्गतः सन् प्रोवाच - "मोः ! को मवान् ? किमर्थमायातः ? किं कारणम् ? कीडक ते व्यसनावस्थानम् ? तत्कयय" इति ।

तच्छ्रुत्वा चित्रग्रीव आह- "भोः ! चित्रग्रीवो नाम कपोतराजोऽहं ते सुद्धत् । सत्सत्वरमागच्छ । गुरुतरं प्रयोजनमस्ति ।"

तदाकर्ण्य पुलकिततनुः प्रहृष्टात्मा स्थिरमनास्वरमाणो स निष्क्रान्तः। अयवा साध्विदमुच्यते -

सुहृदः स्नेहसम्पद्मा लोचनानन्ददायिनः । गृहे गृहवतां निध्यमागच्छन्ति महात्मनाम् ॥ १७ ॥

व्याख्या- तारत्त्वरेण दीर्घस्वरेण, सत्वरं शीघ्रम्, महती विपुला, व्यसनावस्था आपत्तिकालिकी दशा, व्यसनावस्थानं विपत्कालस्थितिः, सुद्धत् मित्रम्। गुस्तर (महच्च-पूर्णमिति यावत्), प्रयोजनं कार्य, पुलकिततनुः रोमाञ्चितदेवः, प्रष्टारना = प्र सत्रहृदयः स्विरमनाः = स्वस्थमनाः। स्नेहसम्पन्नाः स्नेहयुक्ताः, लोचनानन्ददायिनः नयनानन्द-कारकाः, सुद्धदः मित्राणि ॥ १७ ॥

हिन्दी चित्रग्रीव ने हिरण्यक के बिल के पास जाकर उच्चस्वर से कहा- "मित्र हिरण्यक ! शीघ्र बाहर निकलो, मुझपर बहुत बड़ी आपत्ति की स्थिति आ गयी है।"

चित्रग्रीव की बात को सुनकर हिरण्यक ने अपने बिल के भीतर से ही पूछा-''महाशय ! आप कौन है? यहाँ किस लिये आये हैं। आपके यहाँ आगमन का क्या कारण है? आप कैसी विपत्ति की स्थिति में है? स्पष्ट रूप से कहिये।"

२५६

पञ्चतन्ये

हिरण्यक के प्रश्नों को सुनकर विषमीव ने कहा- "मित्र! मैं तुम्हारा मित्र कपोतों का राजा चित्रधीन हूँ। शीघ्र बाहर निकलो। तुमसे बहुत बड़ा कार्य है।"

उसकी बात को सुनकर वह मूषक आनन्द से रोमाञ्चित हो उठा और प्रसन्न तथा स्वस्थ चित्त से शीघ्रतापूर्वक बिल से निकल कर बाहर आ गया। किसी ने ठीक ही कहा है कि-

स्नेहयुक्त और नयनानन्ददायी मित्र सज्जनों एवं सद्‌गृहस्थों के ही यहाँ निल्थ आया करते है। (दुर्जनों के यहाँ कोई नहीं जाता है) ।॥ १७ ॥

आदित्यस्योदयस्तात ! ताम्दले भारती कथा । इष्टा भार्या सुमिषं च अपूर्वाणि दिने दिने ॥ १८ ॥ सुहृदो भवने यस्य समागच्छन्ति नित्यशः । चित्ते च तस्य सौख्यस्य न किञ्चित्प्रतिमं सुखम् ॥ १९ ॥

व्याख्या- हे तात ! आदित्यस्योदयः सूपोंदयः, ताम्बूलं, भारती कथा महा भारतत्य कथा, रष्टा भार्या प्रिया स्त्री, सुमित्रम् सुहृद्, एतानि दिने दिने अपूर्वाणि नवी नानीव, भवन्ति ॥ १८ ॥ प्रतिमं सदृशं, सुखम् अन्यसुखं न भवतीति भावः ॥ १९ ॥

हिन्दी- हे तात ! क्योंदय, ताम्बूल, महाभारत की कथा, प्रियकारिणी स्त्री तथा सन्मैत्री- ये वस्तुयें प्रतिदिन अपूर्व एवं नवीन वस्तु की तरह ही सुखकारक होती है। मनुष्य का हृदय इनसे कभी भी ऊबता नहीं है ॥ १८ ॥

जिसके यहाँ प्रतिदिन अच्छे तथा स्नेही मित्र भाया करते है। उसको मित्रों को देखने से जो सुख प्राप्त होता है वह अन्य किसी वस्तु के देखने से नहाँ प्राप्त होता ॥ १९ ॥

अध चित्रग्रीवं सपरिवारं पाशबद्ध‌मा लोक्य हिरण्यकः सविषादमिदमाह-

मोः ! किमेतत् ?"

स आह- "भोः ! जाननपि कि पृच्छसि ? उक्तञ्च यतः-

यस्माच्च येन च यदा च यथा यच, यावश्च यत्र च शुभाशुभमात्मकर्म । तस्नाच्च तेन च तदा च तथा च तच,

तावच्च तत्र च कृतान्तवशादुपैति ॥ २० ॥ तत्प्राप्तं मयैतद्बन्धनं जिह्वालौल्यात् । साम्प्रतं त्वं सत्वरं पाशविमोक्षं कुरु ।"

व्याख्या सविषादं = सदुःखम्। येन यस्माद् यदा यथा च यत् शुभाशुभम् आत्मनः कर्मफलं यावत्कालपर्यन्तं प्राप्यं भवति, तत् कृतान्तवशात् भाग्यवशात् (कालवशादिति भावः), तस्मादेव तथा तदा च तावत्कालपर्यन्तं स्वत उपैति प्राप्नोति ॥ २० ॥ जिहालौ-ल्यार् - रसनाचापल्यात्, साम्प्रतम् इदानों, सत्वरं = शीघ्रम् ।

हिन्दी-चित्रमीव को सकुटुम्ब पाशवद्ध देखकर हिरण्यक ने दुःखित होकर पूछा-"मित्र ! तुम्हारी यह कैसी दशा हुई है ?"

मित्रसम्प्राप्तिः

२४७

उसने कहा- "मित्र । जामते हुये भी तुम इसप्रकार से क्यों पूछ रहे हो? यतः कहा भी गया है कि-

जिस व्यक्ति के द्वारा जिस वस्तु से जिस रूप में जब जैसा जितना और जी शुनाशुम कर्मफल मनुष्य को भोगना रहता है उसी व्यक्ति के द्वारा उसी वस्तु से उसी रूप से उसी क्षण में बैसा उतना ही और वही भोग्य कर्मफल आकर स्वतः उसके समक्ष उपस्थित हो जाता है ॥ २० ॥

मैने अपनी जिल्हा की चपलता के कारण ही इस बन्धन को प्राप्त किया है। इस समय तुम अधिक देर न करो, शीघ्र मेरे पाश को काट दी।

तदाकण्यं हिरण्यकः प्राह-"अर्धार्थाद्योजन शतादामिपं वीक्षते खगः । सोऽपि पाश्वस्थितं देवाद् बन्धनं न च पश्यति ॥ २१ ॥

तथा च

रविनिशाकरयोग्रहपीडनं, गजभुजङ्गविहङ्गमबन्धनम् । मतिमतां च निरीक्ष्य दरिद्रतां, विधिरहो वळवानिति मे मतिः ॥ २२ ॥

व्याख्या-खगः = पक्षी, अर्थार्थात् पादप्रभाणाद, योजनशतात् शतयोजनदूराद। आमिषं = मांसं वीक्षते पश्यति, सोऽपि दैवात् दुर्भाग्याद, पार्श्वस्थिर्त बन्धनं समीपर्व पार्श, न पश्यति ॥ २१ ॥ ग्रहभूतयोरपि रविनिशाकरयीः सूर्यचन्द्रयीः, ग्रहपीडर्न - राहुजन्यै पीडनं कष्टम् । भुजङ्गः सर्पः विहङ्गमः खगः, एतेषामपि बन्धनं भवति। मतिमतां -सुधीनाम्, दरिद्रतां - विपन्नावस्थां, निरीक्ष्य विलोक्य, विधिः भाग्यम् ॥ २२ ॥

हिन्दी चित्रग्रीव की बात की सुनकर हिरण्यक ने कहा-

"पक्षी सौ सवा सौ योजन की दूरी से भी मांस को देख लिया करते है, किन्तु दुर्भाग्य-ग्रस्त होने पर वे अपने समीप में लगाये गये पारा की भो नहीं देख पाते ॥ २१ ॥

और भी ग्रह होते हुये भी सूर्य और चन्द्रमा की मदजन्य कष्ट भोगना ही पढ़ता है। बलवान् भयङ्कर तथा स्वच्छन्दगामी होने पर भी गजीं, सपों और पक्षियों की बन्धन में आवद्ध हो जाना पड़ता है। इसप्रकार बलवानों और बुद्धिमानी की भी होने वाली विपन्नावस्था की देखते हुये भाग्य को ही बलवान् कहना मेरे विचार से अधिक युक्तिसङ्गत प्रतीत हो रहा है ॥ २२ ॥

तथा च-

व्योमेकान्तविहारिणोऽपि विहगाः सम्प्राप्नुवन्प्यापदं, बध्यन्ते निपुणैरगाधसलिलाम्मीनाः समुद्रादपि । दुर्नीतं किमिहास्ति किं च सुकृतं कः स्थानलाभे गुणः, कालो हि व्यसने प्रसारितकरो गृह्वाति दूरादपि ॥ २३ ॥

२४८

पञ्चतन्त्रे

एवमुक्त्या चित्रग्रीवस्य पाशं छेत्तुमुद्यतं स तमाह- "भद्र ! मा. मैवं कुरु, प्रथमं मस भूत्यानां पाशच्छेदं कुरु, तदनु ममापि च ।"

ब्याख्या-व्योमैकान्त विहारिणः गगने निभूतसचारिणोऽपि, विहगाः खगाः अगाधसलिलाद् = अनवगाश्झतीयाद, समुद्रादपि, निपुणैः मत्स्यग्रहणकुशलैः, मीनाः = मत्स्याः बध्यन्ते = व्यापाद्यन्ते। अतएव इह विश्वे, कि बुनींत नीतिविरुद्धमसद वस्तु, किं सुकृतं पुष्यं पुण्यकार्य बा, कश्व स्थानाश्रयणे लाभीऽस्ति । यतः व्यसनप्रसारितकरः प्रसारित विपद्वाहुः, (विपद् पं स्वकरं प्रसार्येत्यर्थः), कालः कृतान्तः, जीवान् दूरादपि दूरतोऽपि, गृवाति ॥ २३ ॥ उचतं तत्परं, सः चित्रीवः तम् हिरण्यर्क, सूत्यानाम् अनुचराणां, तदनु ततः परं, मम = चित्रग्रीवस्येति भावः ।

हिन्दी-आकाश में स्वच्छन्द विचरने वाले पक्षिगण भी कभी-कभी आपत्तिग्रस्त हो जाया करते हैं। मछलियों को मारने में निपुण जनों के द्वारा समुद्र के अगाध जल के मध्य से भी मछलियों मार ही ली जाती है। अतः इस विश्व में क्या नीतियुक्त है, क्या पुण्य है, कौन सा स्थान सुरक्षित है और किस स्थान में क्या लाभ है, यह कहना कठिन है। क्योंकि काल अपनी आपत्तिरूपी विशाल भुजाओं को सर्वत्र फैलाये हुये खड़ा है। वह दूर एवं सुरक्षित स्थानों में स्थित जीवों को भी पकड़ ही लेता है। उसके बाहुपाश से कोई स्थान अछूता नहीं है ॥ ९३ ॥

उपर्युक्त बात को कहने के पश्वात् जब हिरण्यक चित्रग्रीव के पाश को काटने के लिये आगे बढ़ने लगा तो चित्रग्रीव ने उसे रोकते हुये उसके कहा- "भद्र ! ऐसा मत करो। पहले मेरे इन अनुचरों के पाश को काटो, पुनः मेरे भी पाश को काट देना।"

तच्छ्रुत्वा कुपितो हिरण्यकः प्राह- "भोः ! न युक्तमुक्तं भवता । यतो स्वामिनोऽ नन्तरं भृत्याः"।

स आह- "भद्र ! मा मैवं वद। मदाश्रयाः सर्व एते वराकाः। अपरं स्वकुटुम्बं परित्यज्य समागताः । तत्कथमेतावन्मात्रमपि संमानं न करोमि ! उक्तञ्च-

यः संमानं सदा धत्ते सुत्यानां क्षितिपोऽधिकम् ।

वित्ताभावेऽपि तं हृष्टास्तेत्यिजन्ति न कहिचित् ॥ २४॥

तथा च-

विश्वासः सम्पदां सूलं तेन यूथपतिगंजः । सिंहो सृगाधिपत्येऽपि न सुगैः परिवार्यते ॥ २५ ॥

व्याख्या- कुपितः क्रुद्धः सन्, न युक्तमुक्तं नोचित मुक्त, मदाश्रयाः ममानुयायिनः मनानुजीविनश्व, वराकाः दीनाः, एतावन्मात्रमपि एतावद्विधमपि (इतना भी), यः क्षितिपः = राजा, भृत्यानां सेवकानां, संमार्न सत्कारं, भत्ते विभत्ते, तं राजानं, ते = भृत्याः, हृष्टाः तुष्टाः सन्तः, वित्ताभावे अर्थाभावेऽपि ॥ २४ ॥ सम्पदां विभवानां, मूलं-मूल-भूतं तत्त्वं, तेन विश्वासेनैव, यूधपतिः समूहाधिपः, मृगाधिपत्ये वन्यजीवाधिपत्ये, (अभिषि-तोऽपि), मृगैः = वन्यजी बैंः, न परिवार्यते न स्वजनायते ॥ २५ ॥

२४९

हिन्दी-विभधीय की बात को सुनकर कब होते हुए हिरण्वक ने कहा- "महाशय ! आपने उचित नहीं कहा, क्योंकि स्वामी के बाद ही भूरयों का स्वान आता है।"

वित्रग्रीव ने कहा- "मद्र! ऐसी बात न कहिये। ये सभी विचारे मेरे आश्रित है। ये अपने अपने परिवार को छोड़कर यहाँ मेरे साथ आये है। क्या मैं इनका इतना भी समान नहीं कर सकता। कथा भी है कि-

जो राजा अपने अनुचरों का सदा समान किया करता है उसके मृत्य सन्तुष्ट होकर अर्था-काल में भी उसको नहीं छोडते ॥ २४ ॥

और भी-ऐश्वर्थ का मूल विश्वास ही है। इसीलिये गज अपने यूथ का अधिपति होते हुए भी उन अनुयाथियों के साथ परिवार बना कर रहा करता है और सिंह केवल विश्वास के अभाव में सम्पूर्ण वन्य जीयों के साम्राज्य पर अभिषिक्त होते हुए भी वन्यजीवों के द्वारा पारि तरिक भाबना से अनुबर्तित नहीं हो पाता है। (वन्य जीव उसके साथ परिवार बना कर नहीं रहते) ॥ २५ ॥

अपरं सम कदाचित्पाशच्छेदं कुर्वतस्ते दन्तभङ्गो भवति, अथवा दुरात्मा लुब्धकः समभ्येति, तन्नूनं मम नरकपात एव । उक्तञ्च-

सदाचारेषु भृत्येषु संसीदत्सु च यः प्रभुः । सुखी स्यानरकं याति परत्रेहि च सीदति ॥ २६ ॥

तच्छू त्वा प्रहृष्टो हिरण्यकः प्राह- "भोः ! वेद्मवहं राजधर्म, परं मया तव परीक्षा कृता । तत्सर्वेषां पूर्व पाशच्छेदं करिष्यामि । भवानप्यनेन विधिना बहुकपोतपरिवारो भविष्यति। उफन्च-

कारुण्यं संविभागश्व तस्य भृत्येषु सर्वदा । संभवेत्स महीपालस्त्रैलोक्यस्यापि रक्षणे" ॥ २७ ॥

व्याख्या- दन्तभङ्गः = दन्तद्दानिः, समभ्येति आगच्छति, नरकपातः नरकनिवासः ।

सदाचारेषु प्रशस्ताचारेषु, संसीदत्सु क्लिश्यमानेषु, सुखी स्यात्सः, परत्रेह स्वर्गेगें भूमावपि, सीदति कष्टमनुभवति ॥ २६ ॥ बेद्म्यहं जानामि अहम् । कारुण्यं करुणा, संविभागः = समब्यवहारः, महीपालः = राजा ॥ २७ ॥

हिन्दी-एक दूसरी बात बह भी है कि यदि कदाचित्‌ मेरे पाश को काटते समय तुम्हारे दाँत ही टूट गये, अथवा वह दुष्ट व्याध ही लौट आया तो इनके बंधे रह जाने से मेरा नरकशस सुनिश्चित है। कहा भी गया है कि-

सदाचारी तथा आज्ञाकारी भृत्यों को कष्ट से छटपटाते हुए देखकर जो राजा प्रसन्न होता है, बह उस लोक में तो कष्ट भोगता ही है, मरने के पश्चात् भी नरकमें बास करता १॥ २६ ॥

चित्रग्रीव की बात को सुनकर हिरण्यक ने कहा- "महाशय ! मै राजधर्म को जानवा
e जो राजा अपने मृत्यों के प्रति करुणा का व्यवहार करता है और उनको समभाव से देखता है, वह राजा तीनों ही लोकों की रक्षा कर सकता है ॥ २७ ॥

२५०

पञ्चतन्ये

हूँ। मैने तो आपकी परीक्षा ली थी। अब मैं पहले इन्हीं के पाश की काढूगा। आप अपनी इस भावना और ऐसे आचरण के कारण सदा नढ़ते रहेंगे। कड़ा भी गया है कि-

एवमुक्त्वा सर्वपा पाशच्छेदं कृत्वा हिरण्यकश्चित्रग्रीवमाह- "मित्र ! गम्यता-मधुना स्वाश्रयं प्रति । भूयोऽपि व्यसने प्राप्ते समागन्तव्यम्" इति तान्संप्रेष्य पुनरपि दुर्ग प्रविष्टः।

चित्रग्रीवोऽपि सपरिवारः स्वाश्रयमगमत् । अथवा साध्विदमुच्यते--मित्रवान् साधयत्यर्थान् दुःसाध्यानपि वै यतः । तस्मान्मित्राणि कुर्वीत समानान्येव चात्मनः ॥ २८ ॥

व्याख्या- स्वाश्रयं = स्वभवनं, व्यसने विपत्ती। अर्थान् स्वार्थान् (स्वकार्याणि), सगानानि - तुल्यानि ॥ २८ ॥

हिन्दी-उपर्युक्त बातों को करने के बाद हिरण्यक ने सबके पाश को काटकर चित्रग्रीव से कहा- "मित्र ! अब तुम अपने निवासस्थान को जा सकते हो। जब कमी तुम पर आपत्ति आये तो फिर मेरे पास चले आना।" इस प्रकार से उन कबूतरों को भेजने के बाद हिरण्यक अपने विवर में चला गया। किसी ने ठीक ही कहा है कि-

यतः मित्रवान् व्यक्ति अपने कठिनतम कार्यों को भी सरलतापूर्वक कर लेता है, अतः मनुष्य को अपने समान लोगों की मित्र अवश्य बनाना चाहिये ॥ २८ ॥

लघुपतनकोऽपि वायसः सर्वे तं चित्रग्रीवबन्धमोक्षमवलोक्य विस्मितमना व्यचिन्तयत्- "अहो। बुद्धिरस्य हिरण्यकस्य शक्तिश्च दुर्गसामग्री च । तदीडगेव विधिविहङ्गानां बन्धनमोक्षात्मकः । यद्यप्यहं न कस्यचिद्विश्वसिमि चलप्रकृतिश्च, तथाप्येनं मित्रं करोमि । उक्तञ्च -

अपि सम्पूर्णतायुक्तः कर्तव्याः सुहृदो बुधैः ।

नदीशः परिपूर्णोऽपि

चन्द्रोदयमपेक्षते ॥ २९ ॥

एवं सम्प्रधार्य पादपादवतीयं विलद्वारमाश्रित्य चित्रग्रीववच्छब्देन हिरण्यकं समाहूतवान् - "एलेहि, भो हिरण्यक ! एहि ।"

व्याख्या-विस्मित मनाः आध्र्यान्वितः, इंदूगेव एतादृशः, विधिः उपायः, नियमः, चलप्रकृतिः = चञ्चलस्वभावः । सम्पूर्णतायुक्तैः सर्वसाधनसम्पन्नैः, बुधैः पण्डितैः, सुहृदः = मित्राणि, परिपूणर्णोऽपि = सर्वगुणयुक्तोऽपि, नदीशः समुद्रः, चन्द्रोदयं पूर्णचन्द्रोदयम्, अपेक्षते ॥ २९ ॥ पादपात् वृक्षाद्, एहि आगच्छ।

हिन्दी चित्रग्रीव के उक्त बन्धन और मोक्ष को देखकर वह लघुपतनक नाम का नायत आवयं से चकित हो उठा और अपने मन में सोचने लगा-

"यह हिरण्यक तो बढ़ा बुद्धिमान् है। इसके पास शक्ति और दुर्गसामग्री दोनों दी है।

मित्रसम्प्राप्तिः

२५१

पक्षियों के बन्धन और मोक्ष का यह बहुत अच्छा उपाय है। यद्यपि मैं किसी का विश्वास नहीं करता और मेरा स्वभाव भी बहुत चञ्चल है, तथापि इस हिरण्यक की तो अपना मित्र बनाऊंगा ही। कहा भी गया है कि-

सभी गुणों और साधनों से सम्पन्न होने पर भी बुद्धिमान् व्यक्ति को दूसरों के साथ मिश्रता करनी ही चाहिये। समुद्र सभी साधनों से सम्पन्न होने पर भी चन्द्रोदय की अपेक्षा किया करता है ॥ २९ ॥

उपर्युक्त बातों का विचार करने के बाद वह वृक्ष से उत्तर कर हिरण्यक के बिल पास गया और चित्रग्रीव के ही समान प्रीतियुक्त वाणी में हिरण्यक को बुलाते हुये कहने लगा--

"मित्र हिरण्यक ! बाहर आ जाओ। शीघ्र आओ।"

तच्छब्दं श्रुत्वा हिरण्यको व्यचिन्तयत्- किमन्योऽपि कश्चित्कपोतो बन्धन-शेषस्तिष्ठति, येन मां व्याहरति ।" आह च- "भोः ! को भवान् ?"

स आह- "अहं लघुपतनको नाम वायसः।"

तच्छ्रुत्वा विशेषादन्तर्लीनो हिरण्यक आह- "भोः ! द्रुतं गम्यतामस्मात् स्थानात् ।"

वायस आह- "अहं तव पाश्वें गुरुकार्येण समागतः, तस्किं न क्रियते मया सह दर्शनम् ?"

हिरण्यक आह- "न मेऽस्ति त्वया सह सङ्गमेन प्रयोजनम्" इति ।

स आह- "भोः ! चित्रग्रीवस्य मया तव सकाशात् पाशमोक्षणं दृष्टं, तेन मम महती प्रीतिः सब्जाता । तत्कदाचिन्ममापि बन्धने जाते तव पाश्र्वान्मुक्तिमंविष्यति । तत्क्रियतां मय सह मैत्री ।"

व्याख्या- व्याहरति = आह्वयति, विशेषादन्तलींनः विशेषतो विलान्तगतः सन्, हुतं = शीघ्र, गुरुकायेंण प्रयोजनविशेषेण, पार्वाद् अन्तिकात्, मुक्तिः = मोक्षः ।

हिन्दी वायस के उक्त शब्दों को सुनकर हिरण्यक ने अपने मन में सोचा-क्या कोई कपोत अभी भी बन्धन में फंसा हुआ अवशिष्ट रह गया है, जिसका वन्धन काटने के लिये चित्रग्रीव मुझे फिर बुला रहा है?" उसने पूछा "महाशय आप कौन है ?"

उसने कहा- "मै लघुपतनक नाम का बायस हूँ।"

उसकी बात को सुनकर हिरण्यक ने अपने को और अधिक छिपाते हुये (बिल के भीतर जाकर) कहा- "महोदय ! आप यहाँ से शीघ्र चले जाँय ।"

बायस ने पूछा- "मैं एक बहुत आवश्यक कार्य से आपके पास आया हूँ, आप मुझे अपना दर्शन क्यों नहीं देना चाहते ?"

हिरण्यक ने कहा- मुझे आपसे मिलने की कोई जरूरत नहीं है।"

उसने कहा- "महाशय ! मैने आपको चित्रग्रीव के बन्धन को काटते हुये देखा है। उक्त कार्य को देखकर मेरे हृदय में आपके प्रति अनुराग उत्पन्न हो गया है। कभी मेरे भी

२५२

पश्ञ्चतन्त्र

बन्धन में फँस जाने पर आपकी कृपा से मेरी मुक्ति हो सकेगी। अतएव मैं आपको अपना मित्र बनाना चाहता हूँ। आप कृपया मेरी मित्रता स्वीकार कर लें।"

हिरण्यक भाइ- "अहो ! त्वं भोक्ता, अहं ते भोज्यभूतः । तत्का त्वया सह मम मैत्री ? तद् गम्यताम् । मैत्री विरोधभावात्कथम् ? उक्तञ्च -

तथा च-

ययोरेव समं वित्तं ययोरेव समं कुलम् । तयोमैत्री विवादव न तु पुष्टविष्पुष्टयोः ॥ ३०॥

यो मित्रं कुरुते मूढ आत्मनोऽसदृशं कुधीः । होनं वाप्यधिकं वापि हास्यतां यात्यसौ जनः ॥ ३१ ॥

तद् गम्यताम्" इति ।

व्याख्या-भोक्ता = भक्षकः, भोज्यभूतः भक्ष्यः, विरोधभावात् = विरुद्धस्वभावाद, सम = तुल्यं, वित्तं धनं, विवादः कलहः, पुष्टविपुष्टयोः सबलनिर्बलयोः, न नदि भवतीति ॥ ३० ॥ मूढः मूर्खः, कुधीः दुमतिः, आत्मनः स्वस्य, असदृशम् असमानं, हीनं = स्वल्पम्, अधिकं विपुलं वा. हास्यतां परिहासविषयतां, याति = गच्छति ॥ ३१ ॥

हिन्दी-हिरण्यक ने कहा- "महाशय ! आप भक्षक है और मैं आपका भय हूँ।

अतः आपके साथ मेरी मित्रता से लाभ ही क्या है? आप यहाँ से चले जाँय । परस्पर विरुद्धस्वभाववालों की मैत्री हो हो कैसे सकती है? कहा भी गया है कि-

जिन व्यक्तियों का कुल और वित्त समान हो, उन्हों की मैत्री और शत्रुता अच्छी होती है। सबल और निर्बल के मध्य की मैत्री तथा शत्रुता व्यर्थ होती है ॥ ३० ॥

और भी जो व्यक्ति अपनी मूर्खता के कारण अपने असमान व्यक्ति के साथ मित्रता या शत्रुता करता है, वह अल्पमात्रा में हो या अधिक मात्रा में, चाहे जितना भी हो, परिहास का विषय बनता ही है ।। ३१ ॥

अतः आप यहाँ से शीघ्र चले जाँय ।"

वायस आह- "भो हिरण्यक ! एषोऽहं तव दुगंद्वारे उपविष्टः । यदि त्वं मैत्रीं न करोषि, ततोऽहं प्राणमोक्षणं तवाग्रे करिष्यामि । अथवा प्रायोपवेशनं मे स्यात्" इति ।

हिरण्यक आह- "भोः ! त्वया वैरिणा सह कथं मैत्रीं करोमि ? उक्तञ्च-

वैरिणा नहि सन्दध्यात्सुश्लिष्टेनापि सन्धिना ।

सुतप्तमपि पानीयं शमयत्येव पावकम् ॥ ३२ ॥

प्रायेणानशनव्रतं, सुश्लिष्टेनापि = शत्रुणा, न सन्दध्याद् = सन्धि न व्याख्या - प्राण मोक्षणं प्राणत्यागं, प्रायोपवेशनं संश्लिष्टन, निकटस्थेनापि (अत्यन्त अभिन्न), वैरिणा कुर्यादिति, हि यतः, सुतप्तमपि, पानीयं जलं, पावकम् अग्निं, शमयति - शीतलतां नयति ॥ ३२ ॥

मित्रसम्प्रातिः

२५३

हिन्दी-वायस ने कहा- "मित्र हिरण्यक । मैं अब तुम्हारे द्वारपर बैठ गया हूँ। यदि तुम मुझसे मित्रता नहीं करोगे तो मैं तुम्हारे आगे ही अपना प्राणत्याग कर दूँगा। अगवा, आज से मेरा अनशनवत ही प्रारंभ समझो।"

हिरण्यक ने शहा- "महाशय! आप मेरे शत्रु है। मैं आपके साथ मित्रता कैसे कर सकता हूँ। कहा भी गया है कि-

अत्यन्त घनिष्ठ हो जाने पर भी शत्रु के साथ सन्धि नहीं करनी चाहिये। क्योंकि जल चाहे जितना भी गर्म हो, वह अग्नि को बुझा ही देता है ॥ ३२ ॥

वायस आह- "भोः ! त्वया सह दर्शनमपि नास्ति, कुतो वैरम् ? तत्किमनुचितं बदसि ?"

हिरण्यक श्राह- "द्विविधं वैरं भवति, सहजं कृत्रिमं च। तत्सहजवैरी त्वमस्मा-कम् । उक्तञ्च-

कृत्रिमं नाशमम्येत्ति वैरं द्राक् कृत्रिमैर्गुणैः । प्राणदानं विना वैरं सहजं याति न क्षयम्" ॥ ३३ ॥

व्याख्या- अनुचितम् = अप्रासङ्गिकमनुपयुक्तञ्च, सहजं स्वाभाविकं, कृत्रिमं स्वनिमि-त्तम् (कारणान्निमितं) सहजबैरी रखाभाविकः शत्रुः, अस्माकं मूषकाणाम्। कृत्रिमं वैरं, कृत्रिमै-गुणैः = कल्पितैरस्वभाविकैर्गुणैः, द्राक् = सथ एव, नाशमभ्येति = विनश्यति । सहजवैरं = स्वा-भाविकं शत्रुत्वं, प्राणदानं बिना स्वात्मत्यागं विना (स्वनाशं बिना), क्षयं नाशं, न याति -न गच्छति ॥ ३३ ॥

हिन्दी- हिरण्यक की उक्त बात को सुनकर बायस ने कहा- "अरे भाई ! अभी तो आपका दर्शन भी मुझे नहीं मिला, तबतक वैर कहाँ से हो गया ? इस प्रकार की अनर्गल बातें आप क्यों कर रहे है?"

हिरण्यक ने कहा- "बैर दो प्रकार का होता है-१. स्वाभाविक और २. कृत्रिम (अस्वाभाविक)। आप मेरे स्वाभाविक वैरियों में से है। कहा भी गया है कि-

कृत्रिम शत्रुता तो कृत्रिम (बनावटी) गुणों से कभी-कभी तत्काल मिट जाया करती है, किन्तु सहनशत्रुता एक पक्ष के विनाश के विना विनष्ट नहीं हो सकती" ॥ ३३ ॥ वायस आह- " भोः ! द्विविधस्य वैरस्य लक्षणं श्रोतुमिच्छामि, तत्कथ्यताम् ।"

हिरण्यक आह- "भोः! कारणेन निवृत्तं कृत्रिमम् । तत्तदहोंपकारकरणाद् गच्छति । स्वाभाविकं पुनः कथमपि न गच्छति। तद्यथा- नकुलसर्पाणाम्। शष्पभुङ्नखायुधानाम् । जलवह्नयोः । देवदैत्यानाम् । सारमेयमार्जारा णाम् । ईश्वरदरिद्राणाम् दाणाम् । । सफ्त्नीनाम् । सिंहगजानाम् । लुब्धकहरिणानाम् । श्रोत्रियभ्रष्टक्रियाणाम्। काकोलूकानाम् । मूर्खपण्डिता-नाम् । पतिव्रताकुलटानाम् । सज्जनदुर्जनानाम् । न कस्यचित्केनापि कोऽपि व्यापादितः, तथापि प्राणान्ताय यतन्ते ।"

२५४

पञ्चतन्त्रे

व्याख्या-निर्वृतं = जातं (निर्मितं) तदहोंपकारकरणाय्= तयोग्योपकारकरणात् (तबिनाशोपायकरणावित्यर्थः), शष्पमुक् शष्पमोजी, नखायुधः नखायुधजीवी (सिंहादयः), सारमेयः = कुक्कुरः, मार्जारः बिडालः, ईश्वरः धनिकः (स्वामी), सपत्नी समानपतिका खी (समानः पतियंस्याः सा), लुम्भकः व्याघ्रः, श्रोत्रियः श्रुतिसम्पन्नः, (श्रुतिमधीते वेत्ति वा श्रोत्रियः), अष्टक्रियाणां - क्रियाश्रष्टानां श्रुतेश्च्युतानाम्, काकः वायसः, पतिव्रता = साध्वी स्त्री, कुल्टानां = चरित्रभ्रष्टानां, व्यापादितः मारितः । प्राणान्ताय विनाशाय, यतन्ते = प्रयतन्ते ।

हिन्दी-वायस ने कहा- "महाशय! मैं दोनों प्रकार के वैरों का लक्षण सुनना चाहता हूँ। कृपया कह दीजिये।"

हिरण्यक ने कहा-महोदय ! कारण से उत्पन्न होनेवाले को कृत्रिम कहा जाता है। वह उसके समाप्त होने योग्य उपकार करने से समाप्त भी हो सकता है। किन्तु स्वाभाविक वैर किसी भी स्थिति में समाप्त नहीं होता। जैसे- नकुल और सर्प का, राष्पभोजी तथा मांसाशी का, जल और अग्नि का, देवों और दैत्यों का, कुत्तों और बिडालों का, धनिकों और दरिद्रों का, सपत्नियों का, सिंहों और गजों का, व्याधों और हरिणों का, श्रोत्रियों और अश्रोत्रियों का, काकों और उलूकों का, मूखौं और पण्डितों का, पतिव्रताओं और कुलटाओं का, सज्जनों और दुर्जनों का वैर स्वाभाविक होता है। इनमें से कभी किसी ने किसी को मार नहीं डाला है, फिर भी ये एक दूसरे के विनाश के लिये सतत प्रयत्नशील रहते हैं।"

वायस आह- "भोः ! अकारणमेतत् । श्रूयतां मे वचनम् -कारणान्मित्रतां याति कारणादेति शत्रुताम् । तस्मान्मित्रत्वमेवात्र योज्यं वैरं न धीमता ॥ ३४ ॥

तस्मात्कुरु मया सह समागमं मित्रधर्मार्थम् ।"

हिरण्यक आह- "भोः ! त्वया सह मम कः समागमः ! श्रूयतां नीतिसर्वस्वम् -सकृद् दुष्टं च यो मित्रं पुनः सन्धातुमिच्छति ।

स मृत्युमुपगृह्णाति गर्भमंश्वतरी यथा ॥ ३५ ॥

व्याख्या - अकारणं = निष्कारणं, सर्वे कारणादेव मित्रत्वं शत्रुत्वन्च यान्ति, अतो ऽत्र = विश्वेऽस्मिन्, मित्रत्वमेव, योज्यं योजनीयं, न वैरं शत्रुत्वं न योज्यम् ॥ ३४ ॥ मित्रधर्मार्थ = मैत्रीकरणाय, नीतिसर्वस्वं = नीतितत्त्वं, सकृत् = वारै कमपि, दुष्टं = विकृतं, यः सन्धातुं = सन्धिना साधयितुं, सः, यथाश्त्रतरी (खच्चरी), मरणार्थमेव गर्भमाधत्ते ॥ ३५ ॥

हिन्दी-वायस ने कहा- "आपका कथन अयथार्थ है। मेरी बात सुनिये -

मनुष्य कारण से ही किसी के साथ मित्रता या शत्रुता करता है। अतः मनुष्य को अकारण शत्रुत्ता नहीं करनी चाहिये। यदि हो सके तो, इस विश्व में सभी के साथ मित्रता का ही व्यवहार करना चाहिये ॥ ३४ ॥

मित्रसम्प्राप्तिः

२५५

अतः मेरे साथ मित्रता करने के लिये आप एक बार बाहर निकलकर मेरे साथ भेंट तो कर ही लीजिये।"

हिरण्यक ने कहा- "महाशय ! आपके साथ मेरे समागम करने का प्रयोजन ही क्या नीति के इस तत्व को सुन लीजिये कि -

एक बार भी मित्रता के टूट जाने के बाद जो व्यक्ति पुनः उसको सन्धि के द्वारा जोड़ने की इच्छा करता है, वह गर्भ धारण करने वाली खच्चरी की तरह उससे स्वयं विनष्ट हो जाता है ।। ३५ ।।

अथवा 'गुणवानहं, न मे कश्विद्वैरनिर्यातनं करिष्यति' एतदपि न सम्भाव्यम् ।

सिंहो व्याकरणस्य कर्तुरहरत्प्राणान् प्रियान् पाणिने-मीमांसाकृतमुन्ममाथ सहसा हस्ती मुनिं जैमिनिम् । छन्दोज्ञाननिधिं जघान मकरो वेलातटे पिङ्गल-मज्ञानावृतचेतसामा तरुषां कोऽर्थस्तिरंश्चां गुणैः १ ॥ ३६ ॥

व्याख्या-वर नियातनं = वैरशोधनं, न सम्भाव्यं न विचारणीयं, प्रियान् प्राणान् = प्रियप्राणान्, हस्ती = करी, उन्ममाथ मथयामास (व्यापादयामासेत्यर्थः) वेलातटे = समुद्रस्य तटे, मकरः = ग्राहः, जघान = मारयामास। अतः - अज्ञानावृतचेतसां मन्दबुद्धीनाम्, अतिरुषां = क्रोधातुराणां, तिरश्वां पश्वादीनां, गुणैः कोऽर्थः = को लाभः ॥ ३६ ॥

हिन्दी-अथवा 'मे गुणधान् हूँ, अतएव कोई मुझसे वैरशोधन नहीं करेगा', यह भी नही सोचना चाहिये । कहा भी गया है कि-

व्याकरणशास्त्र के कर्ता पाणिनि को सिंह ने मार डाला था, मीमांसाशास्त्र के प्रवर्तक जैमिनि मुनि को सहसा एक हाथी ने कुचल डाला था और छन्दःशास्त्र के प्रवर्तक आचार्य पिङ्गल को समुद्र के किनारे किसी ग्राह ने मार डाला था। अतः यह सिद्ध है कि-अशानी, अबिवेकी तथा क्रोधी पशुओं को किसी के गुणों से प्रयोजन ही क्या हो सकता है ? (पशुओं को को किसी के गुण से कोई प्रयोजन नही होता है) ।।. ३६ ।।

वायस आह- "अस्त्येतत्, तथापि श्रूयताम् -

उपकाराच्च लोकानां निमित्तान्मृगाक्षणाम् ।

मयाल्लोभाच्च मूर्खाणां मैत्री स्याद् दर्शनात्सताम् ॥ ३७ ॥ मृद्धट इव सुखभेद्या दुःसन्धानश्च दुर्जनो भवति । सुजनस्तु कनकघट इव दुर्भेदः सुकरसन्धिश्च ॥ ३८ ॥ इक्षोरग्रात्क्रमशः पर्वण पोण यथा रसविशेषः । तद्वत्सज्जनमैत्री विपरीतानां तु विपरीता ॥ ३९ ॥

व्याख्या-लोकानां = जनानां, निमित्तात् कारणात्, सतां = सज्जनानां, दर्शना-
२५६

पञ्चतन्त्र

न्मैत्री भवतीति ।। ३७ ।। सुलभेयः सुसेन विपटयितुं शक्यः, दुःसन्धानः पुनः सन्धाना-योग्यध, सुजनः सज्जनः, कनकषट इव स्वर्णघट श्व, दुर्भेदः दुःखेन भेदयितुं योग्यः, सुकरसन्धिः सुसन्धेयो भवतीति ॥ ३८ ॥ रसविशेषः रसनाहुल्यम् ।। ३९॥

हिन्दी वायुस ने कथा 'आपका कहना ठीक है, फिर भी मेरी बात सुन लीजिये-पारस्परिक उपकार द्वारा ही मनुष्यों में सन्धि होती है। मृगों और पक्षियों की मित्रता भी किसी कारण से हो जाती है। मूखों की मित्रता भय एवं लोभ के कारण होती है, किन्तु सज्जनों की मित्रता केवल दर्शनमात्र से ही हो जाती है ।। ३७ ॥

दुर्जन व्यक्ति मिट्टी के घड़े के समान अनायास २८ जाने योग्य होता है और एक बार टूट जानेपर पुनः जोड़ने योग्य नहीं होता। किन्तु सज्जन व्यक्ति स्वर्णघट के समान दुर्भेष होता है और टूट जाने पर भी सरलतापूर्वक ओद लेने योग्य होता है ॥ ३८ ॥

जैसे गन्ने के प्रत्येक गाँठ में रस की मात्रा बढ़ती चली जाती है, उसी प्रकार सज्जनों की मैत्री भी प्रतिक्षण प्रगाढ़ होती चली जाती है। किन्तु दुर्जनों की मित्रता इसके विपरीत प्रारम्भ में प्रगाढ़ और बाद में क्षण-क्षण पर न्यून होनेवाली होती है ॥ ३९ ॥

तथा च-

आरम्भगुर्वी क्षयिणी क्रमेण, लघ्वी पुरा वृद्धिमती च पश्चात् ।

दिनस्य पूर्वार्ध-परार्धभिन्ना, छायेव मैत्री खलसज्जानाम् ॥ ४० ॥ तत्सर्वथा साधुरेवाहम् । अपरं त्वां शपथादिभिर्निर्भयं करिष्यामि ।" हिरण्यक जाह- "न मेऽस्ति ते शपथैः प्रत्ययः । उक्तञ्च-शपथैः सन्धितस्यापि न विश्वासं व्रजेद्रियोः । श्रूयते शपथं कृत्वा वृत्रः शक्रेण सूदितः ॥ ७१ ॥

व्याख्या-आरम्भगुवर्वी = प्रारम्भगुवी (प्रारम्भ में प्रगाद), पुरा पूर्व, लब्बी = स्वल्पा, पश्वाद् वृद्धिमती = परिवृद्धा । पूर्वार्धपरार्थभिन्ना = पूर्वाह्वापराभिन्ना, छायेव स्खलसज्जनानां मैत्री भवतीति ॥ ४० ॥ साधुः सज्जनः, शपथादिभिः प्रतिश्चावचनादिभिः, निर्भयं = भयरहितं, प्रत्ययः = विश्वासः । शपथैः प्रतिशावचनैः सन्धितस्य मित्रभावमुपगतस्य, रिपीः रात्रोः, विश्वासं = प्रत्ययं, न व्रजेत् न गच्छेत्, श्रूयते आकर्ण्यते, पुरा शक्रेण इन्द्रेण, शपथं कृत्वैब, वृत्रः वृत्रासुरः, सूदितः = हतः ।। ४१ ।।

हिन्दी-और भी- दुर्जनों और सब्जनों की' मैत्री दिन की पूर्वाद्ध तथा अपराह्न कालकी छाया की तरह प्रारम्भ में लम्बी और पुनः घटनेवाली तथा प्रारम्भ में छोटी और बाद में बदनेवाली होती है (जैसे- दिनके पूर्व भाग में मनुष्य की छाया बहुत बढ़ी दिखाई पढ़ती है और दोपहर तक जाते-जाते क्षीण हो जाती है, उसी प्रकार दुर्जनों की मैत्री भी प्रारम्भ में प्रगाद किन्तु बाद में क्षीण हो जानेवाली होती है। इसके विपरीत सज्जनों की मैत्री दोपहर के बाद की छाया की भाँति प्रारम्भ में तो छोटी किन्तु बाद में बढ़ती जानेवाली होती है) ॥ ४० ॥

मित्रसम्प्राप्तिः

अतः विश्वास कीजिये। मैं सज्जन व्यक्ति हैं। फिर मैं पण आदिके द्वारा भी आपको विश्वास दिला दूंगा।"

हिरण्यक ने कहा- "मुझे आपके शपथ पर कोई विश्वास नहीं है। कहा मी गया है कि-

शपथपूर्वक मित्रता करने वाले शत्रु का भी कभी विश्वास नहीं करना चाहिये। क्योंकि इन्द्र ने शपथ के बाद भी वृत्रासुर का विनाश किया था ॥ ४१ ॥

भन्यच-

न विश्वासं बिना शत्रुर्देवानामपि सिद्धयति । विश्वासात्त्रिदशन्द्रेण दितेर्गों विदारितः ॥ ४२ ॥

बृहस्पतेरपि प्राज्ञस्तस्मान्नैवात्र विश्वसेत् । य इच्छेदात्मनो वृद्धिमायुष्यं च सुखानि च ॥ ४३ ॥

तथा च-

सुसूक्ष्मेणापि रन्श्रेण प्रविश्याभ्यन्तरं रिपुः । नाशयेच्च शनैः पश्चात्प्लवं सलिलपूरवत् ॥ ४४॥

व्याख्या - त्रिदशेन्द्रेण = इन्द्रेण, दितेः दैत्यमातुः, गभी विदारितः - विनाशितः ॥४२।

प्राशः = पण्डितः, य आत्मनो, वृद्धिम् अभ्युदयं, सुखानि, आयुष्यं जीवनम्, इच्छेदिति ॥ ४३ ॥ सुसूक्ष्मेण = स्वल्पेन, रन्भेण छिद्रेण, आभ्यन्तरं मध्ये, प्रविश्य शनैर्नाशयेद्

यथा-सलिलपूरः = जलप्रवाहः, प्लर्व पोतं, विनाशयतीति ॥ ४४ ॥

हिन्दी-यदि शत्रु किसी का विश्वास न करे तो देवता भी उस को मार नहीं सकते। बिश्वास करने के कारण ही इन्द्र ने दैत्यमाता दिति के गर्भ को विनष्ट कर दिया था ॥ ४२ ॥

अन्य भी जो मनुष्य अपनी समृद्धि, सुख और आयु की कामना करता हो, उस बुद्धिमान् व्यक्ति को चाहिये कि वह इस विश्व में सुरगुरु बृहस्पति का भी बिश्वास न करे ॥ ४३ ॥

और भी शत्रु मनुष्य के सूक्ष्‌मातिसूक्ष्म छिद्र (असावधानी) के द्वारा उसके भीतर प्रवेश कर लेने पर बाद में उसी प्रकार उसका विनाश कर डालता है, जैसे छोटे-छोटे देदों के द्वारा प्रविष्ट होनेवाला जलप्रवाह शनैः शनैः नौका के भीतर एकत्र होकर उस नौका को डुबा देता है ।। ४४ ॥

न विश्वसेदविश्वस्तं विश्वस्तं नाति विश्वसेत् । विश्वासाद्भयमुत्पन्नं मूलान्यपि निकृन्तति ॥ ४५ ॥ न वध्यते ह्यविश्वस्तो दर्बलोऽपि मदोत्कटैः।

विश्वस्ताश्चाश वध्यन्ते वलवन्तोऽपि दुर्बलेः ॥ ४६ ॥ सुकृत्यं विष्णुगुप्तस्य मित्राप्तिर्भार्गवस्य च। गृहस्पतेरविश्वासो नीतिसन्धिविधा स्थितः ॥ ४७ ॥

२५८

तथा च-

पञ्चतन्त्रे

महताप्यर्थसारेण यो विश्वसिति शत्रुषु । भार्यासु च विरक्तासु तदन्तं तस्य जीवितम्" ॥ ५८ ॥

व्याख्या मूलानि आधाराणि, निकृन्तति विदारयति ॥ ४५ ॥ दुर्बलः নির্ধ मदोत्कटः बलगवितैः ॥ ४६ ॥ विष्णगुप्तस्य चाणक्यस्य, सुकृत्यं यथोचितौषाद मार्गवर मीतिसन्धिः = नीतिसम्बन्धः, (नयमार्गः), स्थितः = कथितः ॥ ४७ ॥ अर्थसरिष मार्गवस्य शुक्रस्य मित्राप्तिः मत्रीकरणं, बृहस्पते सुरगुरोः, अविश्वासः विश्वासाना द्रव्यबलेन, विरक्तासु स्वस्मिन् विरक्तासु (परपुरुषानुरक्तासु), तदन्तं विश्वासं वा ( यावद्विश्वासं न करोति तावदेव) जीवितम् जीवनम् ॥ ४८ ॥

हिन्दी- अविश्वस्त व्यक्ति का विश्वास नहीं करना चाहिये और विश्वस्त व्यत्तिर मी अधिक विश्वास नहीं करना चाहिये। क्योंकि विश्वास के कारण उत्पन्न होनेवाला कस विपत्ति) मनुष्य के मूल को भी विनष्ट कर डालता है ।। ४५ ।।

अविश्वस्त रहने पर दुर्बल व्यक्ति भी बलवान् होनेपर भी विश्वस्त होने के कारण बलवानों के द्वारा मारा नहीं जा सकता की वह दुर्बलों के द्वारा भी मारा जा सकता है ॥ ४६॥

नीति के तीन मार्ग होते हैं। विष्णुगुप्त के अनुसार मनुष्च को गुप्त रूप से यथोचित उपाय करते रहना चाहिये। शुक्राचार्य की दृष्टि में मित्रों को बढ़ाना ही मनुष्य की सख्तता का साधन है। किन्तु सुरगुरु बृहस्पति का कथन है कि मनुष्य को सर्वदा अविश्वस्त भावने इते हुए अपना कार्य करते रहना चाहिये ।। ४७ ।।

अपनी प्रभूत सम्पत्ति के बल से उपेक्षापूर्वक (अथवा धनादि के लोभ से) जो ब्यनि अपने शत्रुओं पर विश्वास करता है, अथवा अपने प्रतिकूल आचरण करनेवाली स्त्री में विश्वात करता है, वह व्यक्ति विश्वास करने के समय तक ही जीवत रह पाता है" (उसका बीक तभी तक सुरक्षित रहता है, जबतक कि वह उसका विश्वास नहीं करता है) ।॥ ४८ ॥

तच्छ्रुत्वा लघुपतनकोऽपि निरुत्तरश्चिन्तयामास - "अहो, बुद्धिप्रागल्भ्यमस्त नीतिविषये । अथ वातएवास्योपरि मैत्रीपक्षपातः ।" आह च- "भो। हरण्यक !

राख्यं साप्तपदीनं स्यादित्याहुर्विबुधा जनाः ।

तस्मात्त्वं मित्रतां प्राप्तो वचनं मम तच्छृणु ॥ ४९॥

दुर्गस्थेनापि त्वया मया सह नित्यमेवालापो गुणदोषसुभाषितगोष्ठीकथाः सर्वश कर्तव्याः; यद्येवं न विश्वमिपि।"

तच्छूत्वा हिरण्यकोऽपि व्यचिन्तयत्- "विदग्धवचनोऽयं दृश्यते लघुपतनक सत्यवाक्यश्च । तद्यकमनेन मैत्रीकरणम्।" आह च- "भोः ! परं कदाचिन्मम दुर्गे चरण रातोऽपि न कार्यः । उक्तश-

भीतभीतः पुरा शत्रुर्मन्दं मन्दं विसर्पतिः । भूमी प्रहेलमा पश्चाज्जारहस्तोऽङ्गनास्विव" ।॥ ५० ॥

मित्रसम्प्राप्तिः

२५९

व्याख्या-बुद्धिप्रागल्भ्यं युद्धे नैपुण्यं, मैत्री पक्षपातः मैत्री करणोत्साहः (मैत्री करणा-देच्तुकोऽहमिति यावत्) । विबुधाः बुद्धिमन्तः सख्यं मित्रत्वं, साप्तपदीनं सप्तभिः पदैर्ग-शनेनोत्पार्थ, सप्तभिः पदैः सहगमनैः सप्तभिर्वाक्यं समुत्पयते (एक साथ सात पद चलने से मी मित्रता हो जाती है) ।॥ ४९ ॥ भालापः संभाषणं, न विश्वसिवि विश्वार्स न करोषि । विद‌म्प बचानः भाषणपङः, चरणपातः पदविभ्यासः। यथा- जारहस्तः जारस्य परखीगमन-तत्परस्य, हस्तः = करः, अङ्गनासु परस्रोतु, भीतगीतः पुरा मन्द्रं मन्दं विसर्पति चलति, पक्षाच्च प्रहेळ्या = लोलया = त्वरया, चलत्ति, तथैव शत्रुः पुरा = आदौ, मीतमीतः नयाड्रीवः सत्, मन्दं मन्दं विसर्पति ।। ५० ।।

हिन्दी-हिरण्यक की बात सुनने के बाद लघुपतनक निरुत्तर हो कर अपने मन में सोचने लगा- "नीतिशास्त्र के निषय में हिरण्यक की बुद्धि बहुत प्रगल्म है। इसीलिये इससे मैत्री करने का आग्रह मेरे मन में उत्पन्न हुआ है।" पुनः व्यक्त रूप से उसने कहा- 'निনম্ন हिरण्यक ! विद्वानों का कहना है कि एक साथ सात पद चलने या सात वाक्यों के प्रयोग से ही परस्पर में मित्रता हो जाती है। अतः तुम अब मेरे मित्र हो चुके हो। अब मेरी बात को सुन लो ॥ ४९ ॥

यदि तुम मुझपर विश्वास नहीं करते हो, तो अपने दुर्ग के भीतर से ही तुम मेरे साथ बातचीत, गुणदोषविवेचन और सुभाषित-गोष्ठी आदि किया करना।"

लघुपतनक की बात को सुनकर हिरण्यक ने अपने मन में सोचा- "यह लघुपतनक बहुत चतुर, भाषणपटु एवं सत्यवक्ता जान पड़ता है। अतः इसके साथ मैत्री कर लेना उचित है।" पुनः व्यक्तरूप से उसने कहा- "महोदय ! आप के साथ मित्रता करने से पूर्व मेरा एक आग्रह है कि आप कभी भी मेरे दुर्ग के भीतर अपना चरण नहीं रख सकेंगे। कहा भी गया है कि-

जैसे-परस्त्रीगामी पुरुष का हाथ प्रारम्भ में डरते-डरते स्त्री के ऊपर चलता है और बाद में निर्भय होकर जल्दी-जल्दी चलने लगता है, उसी प्रकार शत्रु भी पहले तो भयभीत होकर शनैः शनैः भूमि में प्रवेश करने का प्रयत्न करता है और जब वह प्रवेश कर लेता है तो निर्भय होकर बड़ी तीव्रगति से बढ़ने लगता है ॥ ५० ॥

तच्छ त्वा वायस आह- "भद्र ! एवं भवतु ।"

ततः प्रभृति तौ द्वावपि सुभाषितगोष्ठीसुखमनुभवन्तौ तिष्ठतः । परस्परं कृतोपकारौ कालं नयतः । लघुपतनकोऽपि मांसशकलानि, मेध्यानि बलिशेपाण्यन्यानि वात्सल्यादा-हतानि पक्वान्नविशेषाणि हिरण्यार्थमानयति । हिरण्यकोऽपि तण्डुलानन्यांश्च भक्ष्यविशेषां-ल्लघुपतनकार्थ रात्रावाहृत्य तत्कालायातस्यार्पयति । अथवा युज्यते द्वयोरप्येतत् । उक्तच-

ददाति प्रतिगृह्णाति गुद्यमाख्याति पृच्छति । भुङ्क्ते भोजयते चैव पद्विधं प्रीतिलक्षणम् ॥ ५१ ॥

व्याख्या-एवं भवतु = तथास्तु, 'कृतोपकारौ विहितोपकारी,

काले समयं, मांस-

खानपान

२६०

शकलानि मांसलण्डानि, मेध्यानि पवित्राणि, मलिशेषाणि अवशिष्टानि बलिभूतानि वस्तूनि, मात्सल्यादाइतानि स्नेहादानीतानि पक्वान्नविशेषाणि विशिष्टानि पक्वान्नानि, मध्यविशे-बान् खाद्यपदार्थान्, आहूत्य समानीय, तत्कालायातस्य गोष्ठीकरणाय समागतस्य, अर्थ. यति ददाति । युद्धं रहस्यम्, आख्याति वदति ॥ ५१ ॥

हिन्दी-हिरण्यक की बात को सुनकर लघुपतनक ने कहा- "मद्र ! आपके कथनानुसार हो रहूँगा।"

उस दिन से दोनों आपस में सुमापित गोष्ठियों का आनन्द लेते हुये सुखपूर्वक मित्रमाव से रहने लगे। परस्पर में एक दूसरे का उपकार करके वे सुखपूर्वक समय व्यतीत किया करते थे। लघुपतनक मांस के टुकड़ों, पवित्र बलि में प्राप्त पदार्थों और विभिन्न प्रकार के पक्वान्नों को को ले आकर स्नेहपूर्वक हिरण्यक को दिया करता था। हिरण्यक भी चावलों तथा अन्य खाब पदार्थों को रात्रि में एकत्र करके प्रातःकाल सुभाषित गोष्ठी के लिए आये हुए लघुपतनक को प्रदान किया करता था। अभवा दोनों का यह पारस्परिक लेन-देन उचित ही था। कहा भी गया है कि-

प्रीति के छः लक्षण बताये गये ई-प्रेमपूर्वक किसी वस्तु को देना और लेना, अपनी गुप्त बातों को कहना और दूसरे की गुप्त बातों को पूछना, स्वयं मित्र द्वारा प्रदत्त पदार्थ को खाना और अपना खिलाना ॥ ५१ ॥

नोपकारं विना प्रीतिः कथञ्चित्कस्यचिद्भवेत् । उपयाचितदानेन यतो देवा अभीष्टदाः ॥ ५२ ॥ तावत्प्रीतिर्भवेल्लोके यावद् दानं प्रदीयते। वत्सः क्षोरक्षयं दृष्ट्वा परित्यजति मातरम् ॥ ५३ ॥

पश्य दानस्य माहात्म्यं सद्यः प्रत्ययकारकम् ।

यत्प्रभावादपि द्वेषा मित्रतां याति तत्क्षणात् ॥ ५४ ॥

व्याख्या-देवाः सुराः, उपयाचितदानेन अभीष्टोपहारा दिप्रदानेन, एवं अमीष्टदाः

बरदाः, भवन्तीति ॥ ५२ ॥ लोके विश्वेऽरिमन्, वन्सः गोवत्तः (बछदा), क्षीरक्षयं दुग्धक्षयं, मातरं स्वजननीम् ॥ ५३ ॥ तथः तत्काले एव, मित्रतां याति ॥ ५४ ॥

हिन्दी-उपकार के बिना किसी की भी किसी व्यक्ति के साथ प्रोति नहीं होती। देवता भी अभीष्ट उपहारादि के प्रदान करने पर हो मनोबाच्छित फल देते है, अन्यथा नहो ॥५२॥

इस विश्व में, जब किसी को कुछ दिया जाता है तभी वह व्यक्ति भी प्रेम करता है। गाय का बछड़ा भी दूध के समाप्त हो जाने पर अपनी माता का साथ छोड़ देता है ॥ ५३ ॥

तत्क्षण फल देने वाले दान के माहात्म्य को देखो, उसके प्रभाव से शत्रु भी तत्काल मित्र बन जाते है ।। ५४ ॥

पुत्रापि प्रियतर खलु तेन दानं, मन्ये पशोरपि

विवेकविवर्जितस्य ।

किं बहुना -

मित्रसम्प्राप्तिः

दते खले नु निखिलं खलु येन दुग्धं नित्यं ददाति महिषी ससुतापि पश्य ॥ ५५॥

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२६१

प्रीतिं निरन्तरां कृत्वा दुर्भद्यां नवमांसवत् । सूपको वायसश्चैव गतावेकान्तमित्रताम् ॥ ५६ ॥

एवं स मूषकस्तदुपकाररञ्जितस्तथा विश्वस्तो यथा तस्य पक्षमध्ये प्रविष्टस्तेन सह सदैव गोष्ठीं करोति ।

व्याख्या - विवेकवर्जितस्य = विचारशून्यस्य, पशोर पि जन्तोरपि, पुत्रादपि स्वसुतादपि, प्रियतरं = स्नेहास्पदं, भवति । येन, ससुतापि, महिषी (मैत), खले कल्के (खली), निखिलं = सम्पूर्णमपि, दुग्धं ददाति ॥ ५५ ।। नखमांसत्रत् दुर्भेद्याम् = अपरिच्छेयां, निरन्तराम् = निगूढां, प्रीति = स्नेहूं, कृत्वा विधाय, एकान्तमित्रतां प्रगाढमैत्रों, गतौ = प्राप्ती ॥ ५६ ॥ तदुपकाररञ्जितः = तस्य उपकारेणानुरक्तः सन्, तस्य वायसस्य, पक्षमध्ये छदाम्यन्तरे, प्रविष्टः = गतः तन्, गोष्ठीं = सभाम् ।

हिन्दी केवल मनुष्यों के हो लिये नहीं अपितु विचारहीन षशुओं के भी लिये दान पुत्र से भी प्रियतर होता है। क्योंकि खली आदि के देने पर सवत्ता महिषी अपना सम्पूर्ण दूब दूगरे को प्रदान कर देती है ।। ५५ ।।

इस विषय में अधिक कहने की आवश्यकता नहीं-

अंगुली के नख और मांस की भाँति अविच्छिन्न एवं अभेद्य प्रेम से मूषक और वायस दोनों ने आपस में प्रगाढ मैत्री कर ली ।। ५६ ।।

वह मूषक लघुपतनक के उपकारों से उसके प्रति इतना गया कि उस वायस के पंखों के नीचे ही निर्भय भाव से करने लगा । अधिक अनुरक्त और विश्वस्त हो बैठकर उसके साथ नित्य गोष्ठी

अथान्यस्मिन्नहनि वायप्तोऽश्रुपूर्णनयनः समभ्येत्य सगद्गदं तमुवाच - "मद्र हिरण्यक ! विरक्तिः सञ्जाता मे साम्प्रतं देशस्यास्योपरि, तदन्यत्र यास्यामि ।"

हिरण्यक आह- भद्र ! किं विरक्तः कारणम् ?”

स आह- " श्रयताम् ! अत्र देशे नहत्यानावृष्या दुर्भिक्षं सन्जातम्। दुर्मि-क्षत्वाज्जनो बुभुक्षापीडितः कोऽपि बलिमात्रमपि न प्रयच्छति । अपरं, गृहे-गृहे बुभुक्षितजनैविहङ्गानां बन्धनाय पाशाः प्रगुणीकृताः सन्ति । अहमप्यायुः शेपतया पाशेन बद्ध उद्धरितोऽस्मि । एतद्विरक्तः कारणम् । तेनाहं विदेशं चलित इति बाष्पमोक्षं करोमि ।"

व्याख्या - अन्यस्मिन्नइनि एकस्मिन् दिने, अश्रुपूर्णनयनः वाष्पपूरितनेत्रः, समभ्येत्य = समागत्य, सगद्गद म् = कण्ठाबरोधादस्पष्ट, विरक्तिः = निरतिः, महत्या विपुलपा, अना-बृष्ट्या = अवर्षणेन, दुभिक्षं दुष्कालः (भकालः), बलिमात्रं काकाय विहितं बलिमपि,

२६२

पञ्चतन्त्रे

विश्ङ्गानां खगानां, पाशाः बन्धनानि, प्रगुणीकृताः प्रसारिताः, आयुःशेषतया जीवना-बशेषतया, उद्धरितः = निःसृतः। वाष्पमोक्षम् अश्रुविमोचनम् ।

हिन्दी-किसी दिन अश्रुपूर्ण नेत्रो से वायस ने आकर गद्‌गद बाणी में हिरण्यक से कहा- "भद्र हिरण्यक । इस देश के प्रति अब मुझे विरक्ति हो गयी है। अतः यहाँ से अन्यत्र चला जाना चाहता हूँ"।

हिरण्यक ने पूछा- "भद्र! आपकी इस विरक्ति का नया कारण है"१

उसने कहा- "भद्र ! यदि जानना ही चाहते हो तो सुनी अत्यधिक अनावृष्टि के कारण इस देश में अधाल पढ़ गया है। उस अफाल के कारण लोग स्वयं भूख से पीड़ित रहते है; अतः वायसों के लिए विद्दित वलि भी कोई प्रदान नहीं कर रहा है। इसके अतिरिक्त एक और भी बात है कि भूल से पीड़ित होकर लोगों ने पक्षियों को फंसाने के लिये घर-घर में पाश फैला दिया है। आयु के शेष रहने के कारण में किसी तरह उस पाश से बचकर निकले आया हूँ। मेरी विरक्ति का कारण यही है। अब मैं विदेश यात्रा के लिए प्रस्तुत हो चुका इसौलिये रो रहा हूँ।”

हिरण्यक अह "अथ भवान् क प्रस्थितः १"।

स आह- "अस्ति दक्षिणापथे वनगहनमध्ये महासरः। तत्र त्वत्तोऽधिकः परमसुहृत्कृमो मन्थरको नाम। सच मे गत्यमांसखण्डानि दास्यति । तद्भक्षणात्तेन सह सुभाषितगोष्टी सुखमनुभवन् सुखेन कालं नयिष्यामि। नाहमत्र विहङ्गानां पाश-बन्धनेन क्षयं द्रष्टुमिच्छामि । उक्तञ्च -

अनावृष्टिहते देशे सस्ये च धन्यास्तात ! न पश्यन्ति देशभङ्ग प्रख्यङ्गते । कुलक्षयम् ॥ ५७ ॥

व्याख्या- वनगइनमध्ये दुर्गमे वने, महासरः नात् = मत्स्यमां तभक्षणात्, क्षयं विनाशन्। अनावृटिइते प्रलयङ्गते = विनष्टे, ये देशमङ्ग स्वराष्ट्रभङ्ग, कुलक्षर्थ धन्याः ॥ ५७ ॥ गृहत्तदागः कूर्मः कच्छपः, तद्भक्ष-अना ११५। पीडिते, सस्ये भाনা, कुलनाशं, न पश्यन्ति, त एव

हिन्दी-हिरण्यक ने पूष्टा - "आप कहाँ जाना चाहते है" ?

उसने कहा- "दक्षिण के एक देश में दुगम वन के बीच एक बहुत बड़ा तालाब है।

वहाँ, तुमसे भी अधिक घनिष्ठ मन्वरक नाम का मेरा एक मित्र कूर्म रहता है। वह मुझे मत्स्यमांसखण्डों को दिया करेगा। उनको खाकर मैं उसके साथ सुभाषितगोष्ठी का आनन्द जिया करूगा और सुखपूर्वक अपना सनय व्यतीत करूंगा। यहाँ रहकर मैं अपनी आँख से जाल में फंसे हुये पक्षियों का विनाश देखना नहीं चाहा। कहा भी गया है कि

हे तात ! अनावृष्टि आदि से दुर्भिक्षग्रस्त क्षेत्र धान्य की नमाप्ति हो जाने पर बिनष्ट होने भाले अपने देश और कुल को जी नहां देखता, यह धन्य है ॥ ५७ ॥

T-

से

ते

मित्रसम्प्राप्ति

कोऽतिभारः समर्थानां कि दूरं व्यवसायिनाम् ? । को विदेशः सविद्यानां कः परः प्रियवादिनाम् ? ॥ ५८ ॥ विद्वत्वल नृपत्वष्च नैव तुल्यं कदाचन। स्वदेशे पूज्यते राजा विद्वान् सर्वत्र पूज्यते" ॥ ५९ ॥

व्याख्या समर्थानां = क्षमाणां, व्यवसायिनाम् उद्योगयुक्तार्ता, सविद्यार्ता विदुर्गा प्रियवादिनां मधुरभाषिणां, परः अम्यः राष्नुर्वा ॥ ५८ ॥ विद्वर्व विचरर्ष, नृपत्र्व भूपतिर्व, मुल्ये समानं, स्वदेशे स्वराष्ट्र ॥ ५९ ॥

हिन्दी समर्थ व्यक्ति के लिये क्या भार होता है, उद्योगी व्यक्तियों के लिये कौन स्थान दूर होता है, विद्वान् व्यक्ति के लिये कौन सा स्थान विदेश होता है और प्रियमाणी व्यक्तियों के लिये कौन व्यक्ति पराया होता है १ ॥ ५८ ॥

विद्वत्ता और राज्यसञ्चालन दोनों समान नहीं होते, क्योंकि राजा केवल अपने देश में ही आदर सत्कार प्राप्त कर सकता है, किन्तु विद्वान् सर्वत्र आदर सत्कार प्राप्त करता है ।॥५९॥

हिरण्यक आह- 'यद्येवं तदहमपि त्वया सह गमिष्यामि। ममापि महद् दुःखं वर्तते ।"

वायस भाह- "भोः ! तव किं दुःखं, तत्कथय ?"

हिरण्यक आह- "भो ! बहु वक्तव्यमस्त्यन्त्र विषये । तत्तत्रैव गत्वा सर्वं सविस्तर कथयिष्यामि ।"

वायस आह- "अहं तावदाकाशगतिः। तत्कथं भवतो मया सह गमनम्" ?

स आह- "यदि मे प्राणान् रक्षसि, तदा स्वष्पृष्ठमारोप्य मां तत्र प्रापय, नान्यथा मम गतिरस्ति ।"

व्याख्या- महद् दुःखम् अतिकष्टं, सविस्तर विस्तृतरूपेण, आकाशगतिः खेचरः, प्रापय = नय ।

हिन्दी-हिरण्यक ने कहा- "यदि आपका विचार इद है तो मैं भी आपके साथ चलूँगा। मुझे भी यहाँ बहुत कष्ट है।"

वायस ने पूछा- "आप को कौनसा दुःख है। वह ती कहिये !"

हिरण्यक ने कहा- "इस विषय में मुझे बहुत कहना है, अतः वहाँ चढ़ने पर ही

बिस्तारपूर्वक कहूँगा।"

बायस ने पूछा- "मैं तो आकाशगामी हूँ, आप मेरे साथ कैसे चल सकते है १"

उसने कहा- "यदि आप मेरे प्राणों की रक्षा कर सकें तो अपनी पीठपर चढ़ाकर मुझे यहाँ पहुंचा दें। अन्यथा मेरे लिये दूसरी कोई गति नहीं है।"

तच्छ त्वा, सानन्दं बायस आह- "ययेवं तदन्योऽहं, यद् भवतापि सह तत्र कार्ड नयामि । नहं सम्पातादिकानष्टावुङ्गोनगतिविशेषान् वेनि । तत्समारोहय अम १ष्ठस्, येन सुखेन त्यां तत्सरः प्रापयामि ।"

हिरण्यक आह- "उड्डीनानां नामानि श्रोतुमिच्छामि ।"

स आह-

"सम्पातब्च विपातच महापार्त निपातनम् । घर्क तिर्यक् तथा चोष्वंमष्टमं लघुसंशकम् ॥ ६० ॥

तच्छत्वा हिरण्यकस्तत्क्षणादेव तदुपरि समारूढः । सोऽपि शनैः शनैस्तमादाय सम्पातोडूयनेन प्रस्थितः, क्रमेण तत्सरः प्राप्तः । तत्तो लघुपतनर्क मूषकाधिष्ठितं विलोक्य दूरतोऽपि देशकालविदसामान्यकाकोऽयमिति शात्वा, सत्वरं मन्थरको शले प्रविष्टः ।

व्याख्या-वैधि - जानामि । वक्रं कुटिलगमनम् ॥ ६० ॥ मूषकाधिष्ठितं पृष्ठे समा-रोपितं मूषक, देशकालवित्- देशशः कालशश्व, असामान्यः असाधारणः, सत्वरं = शीघ्रम् ।

हिन्दी- हिरण्यक की उपयुक्त बात को सुनकर वायस ने प्रसन्न चित्त से कहा- "यदि ऐसी बात है तो मै धन्य हूँ। वहाँ भी मैं आपके साथ सुख से समय व्यतीत कर सकता हूँ। मैं सम्पातादि आठ प्रकार की उड्डयन सम्बन्धी गतियों को जानता हूँ। अतएव आप मेरी पीठपर चढ़ जाँय, जिससे मैं सुखपूर्वक आपको वहाँ तालाब के पास पहुंचा दूँ।"

हिरण्यक ने कहा- "मैं उड्‌डयनसम्बन्धी नीतियों का नाम सुनना चाहता हूँ।”

उसने कहा- "सम्पात, विपात, महापात, निपात, वक्रगति, तिर्यक्ङ्गति, ऊर्ध्वगति तथा लघुगति- ये आठ प्रकार की गतियाँ दोती है ॥ ६० ॥

वायस की बात को सुनते ही हिरण्यक तत्काल उसकी पीठपर चढ़ गया। वह वायस मी उसको लेकर धीरे-धीरे सम्पात गति से क्रमशः उड़ते हुये उस तालाब के किनारे पहुँच गया । चूहे के साथ आते हुये लघुपतनक को दूर से ही देखकर देश और काल को जाननेवाला वह मन्धरक "यह तो कोई असाधारण वायस जान पड़ता है"- यह समझकर, तत्काल. जल में बला गया।

लघुपतनकोऽपि तीरस्थतरुकोटरे हिरण्यकं मुक्त्वा शाखाग्रमारुह्य तारस्वरेण प्रोवाच - "भो मन्यरक ! आगच्छागच्छ, तव मित्रमहं लघुपतनको नाम वायसश्चिराद् सोत्कण्ठः समायातः, तदागत्याखिङ्ग माम् । उक्तञ्च-

किं चन्दनः सकर्पूरै स्तुहिनैः किं च शीतलैः ? ।

सर्वे ते मित्रगात्रस्य कलां नाईन्ति षोडशीम् ॥ ६१ ॥

तथा च-

केनास्मृतमिदं सृष्टं मित्रमित्यक्षरद्वयम् । शोकसन्तापभेषजम्" ॥ ६२ ॥ आपदां च परित्राणं

व्याख्या-तरुकोटरे = वृक्षनिष्कुडे, चिरात् बहुकालानन्तरं, सोत्कण्ठः तव दर्शनो-शुकः । तुहिनैः- हिमैः, मित्रगात्रस्य मित्रशरीरस्य, पोडची कलां षोडशांशमात्रामपि कलान्,

नाप्नुवन्ति ॥ ६१ ॥ पदवितीनां परिवार शोकसन्तापमे हसायचम्॥ ६२ ॥

हिन्दी-तालाब के किनारे पर स्थित एक वृक्ष के कोटर में हिरण्यक को बैठाने के सहा लघुपतनक ने उस वृक्ष की एक शाखा पर बैठकर मन्चरक को बुलाते हुये जोर से कहा-मित्र मन्धरक। आओ । आओ, मैं तुम्हारा मित्र लघुपतनक नाम का वायस है। काज बहुत दिनों के बाद तुम्हें देखने की इच्छा से तुम्हारे पास आया हूं। अतः आकर मेर। आलिङ्गन तो हर हो। कहा भी गया है कि-

कपूरयुक्त चन्दन एवं दिम आदि पदार्थों की शीतलता मित्र के शरीरस्पर्श से उत्पत्त तेने बाली शीतलता की सोल‌द्दों कला को भी नहीं पा सकतीं। (नित्र के शरीर को स्पर्श करने से को शान्ति मिलती है वह कपूरयुक्त चन्दन एवं शीतल हिम से नहीं मिल सकती १) ॥६१॥

और भी--मित्र इन दो अक्षरों के रूप में अमृत का निर्माण किसने कर दिया है कि जो मापत्तियों से तो मनुष्य की रक्षा करता ही है, शोक और सन्ताप रूपी रोगों के लिये महौषधि का भी कार्य करता है" ।॥ ६२ ॥

तच्छत्वा निपुणतरं परिज्ञाय सत्वरं सलिलाश्चिष्क्रम्य पुलकिततनुरानन्दाश्रुपूरि-तनयनो मन्थरकः प्रोवाच - "एह्येहि मित्र ! आलिङ्ग माम् । चिरकालान्मया त्वं न सम्यकू - परिशातः । तेनाहं सलिलान्तः प्रविष्टः । उक्तञ्च-

यस्य न ज्ञायते वार्य न कुलं न विचेष्टितम् ।

न तेन सङ्गति कुर्यादित्युवाच बृहस्पतिः ॥ ६३ ॥

एवमुक्ते लघुपतनको वृक्षादवतीयं तमालङ्गितवान् । अथवा, साध्विदमुच्यते--

अमृतस्य प्रवाहैः किं

कायज्ञालनसम्भवैः ।

चिरान्मिन्त्रपरिष्वङ्गो योऽसौ मूल्यविवर्जितः ॥ ६७ ॥

व्याख्या- निपुणतरं - सम्यग्ररूपेण, पुलकिततनुः रोमाञ्चितरारीरः, रोहि आगच्छा-गच्छा, बीयं = कलं, विचेष्टितं मनोव्यापार, सङ्गति सम। गर्म, न कुर्यादिति ।। ६३ ।। चायक्षा-कनसम्म हैः देइक्षालनयोग्यः, मित्रपरिष्वङ्गः मित्रस्यालिङ्गनं, मूल्यविजितः अमूल्यो मूल्य-रक्षितध ।। ६४ ।।

हिन्दी-वायस की वाणी को सुनने के बाद उसे भलीभाँति पहचानकर वह कूर्म जल से बाहर निकल आया और प्रेमाश्रपूर्ण नयनों से युक्त एवं पुलकित होकर उसने सदा- 'आभो, बाबी मित्र! आकर मेरे बक्ष के लग जाओ। मैंने इधर बहुत दिनों से तुम्हें नहीं देखा था. इसीलिये ने जल में चला गया था। कहा भी गया है कि-

आचार्य बृहस्पति का यह मत है कि मनुष्य जिसके बीर्य कुछ तथा मनोगत भाव भादि को न जानता हो, उसके साथ उसे सङ्गति नहीं करनी चाहियेः॥ ६३ ॥

२६६

पश्चतन्त्रे

मन्धरक के उपर्युक्त कथन के बाद लघुपतनक ने वृक्ष से उतर कर उसका आलिङ्गन किया। अथवा यह ठीक ही कहा गया है कि-

अमृत के उस प्रवाह का महत्व ही क्या है, जो केवल मनुष्य के शरीर मात्र को ही पो सकता है। बहुत दिनों के पश्चात् मिलने वाले मित्र के शरीर का आलिङ्गन उस अमृत से अधिक में महत्त्वपूर्ण होता है; क्योंकि उससे मनुष्य का बाह्य और आभ्यन्तर दोनों शुद्ध हो जाता है। उसकी एक और भी विशेषता होती है कि वह अमूल्य होते हुए भी निःशुल्क होता है ॥ ६४ ॥

एवं द्वावपि तो विहितालिङ्गनी परस्परं पुलकितशरीरौ वृक्षाद्धः समुपविष्टी, प्रोचतुरात्मचरित्रवृत्तान्तम् । हिरण्यकोऽपि मन्थरकं प्रणम्य वायसाम्याशे समुपविष्टः। अथ तं समालोक्य मन्थरको लघुपतनकमाह- "भोः ! कोऽयं मूषकः ? कस्मात्त्वया भक्ष्यभूतोऽपि पृष्ठमारोप्यानीतः ? तन्नात्र स्वल्पकारणेन भाव्यम् ।"

तच्छ श्वा लघुपतनक आह- "भो ! हिरण्यको नाम मूषकोऽयं मम सुहृद् द्वितीयमिव जीवितम् । तत्किं बहुना -

पर्जन्यस्य यथा धारा यथा च दिवि तारकाः ।

सिकतारेणवो यद्वत् सङ्ख्यया परिवर्जिताः ॥ ६५ ॥

व्याख्या-वृक्षादधः = पादपादधः, वायसाभ्यारो काकस्य समीपे, द्वितीयमिव जीवनं = प्राणभूतः, पर्जन्यस्य = मेघस्य, दिवि आकाशे, तारकाः नक्षत्राणि, सिकतारेणवः = बालुका-कणाः, सङ्ख्यया परिवर्जिताः असङ्ख्यगुणाः सन्तीति भावः ॥ ६५ ॥

हिन्दी-उक्तप्रकार से पारस्परिक आलिङ्गन के पश्चात् प्रेमपुलकित होकर दोनों उस वृक्ष के नीचे बैठ गये और एक दूसरे से अपना-अपना समाचार कहने-सुनने लगे। हिरण्यक भी आकर मन्धरक को प्रणाम करने के बाद बायस के बगल में बैठ गया। उसको देखकर मन्धरक ने लघुपतनक से पूछा- "मित्र! यह चूहा कौन है! अपना मध्य होते हुये भी तुम इसे अपनी पीठ पर बैठाकर क्यों ले आये हो? इसमें कोई विशेष रहस्य जान पड़ता है।"

मन्थरक के प्रश्नों को सुनकर लघुपतनक ने कहा- "मित्र! यह चूदा मेरा मित्र है और मेरे द्वितीय प्राण के समान मुझे अत्यन्त प्रिय है। जैसे-आकाश में स्थित मेघधाराओं तथा नक्षत्रों और पृथ्वीपर स्थित गणना नहीं की जा सकती, वे असंख्य होते है ।। ६५ ॥ हिरण्यक नाम का अधिक क्या कहूँ, बालुका-कर्णी की

गुणाः सङ्ख्यापरित्यक्तास्तद्वदस्य महात्मनः ।

परं निर्वेदमापन्नः सम्प्राप्तोऽयं तवान्तिकम् ॥ ६६ ॥ मन्थरक आह- "क्रिमस्य वैराग्यकारणम् ?"

वायस आह- "पृष्टो मया तत्रैव, परमनेनाभिहितं यद्-बहु वक्तव्यमस्ति, तत्तत्रैव गत्वा कथयिष्याभि इति ममापि न निवेदितम् । तद् भद्र हिरण्यक ! इदानी निवेद्यता मुभयोरप्यावयोस्तदात्मनो वैराग्यकारणम्।"

सोऽब्रवीत् -

मित्रसम्प्राप्तिः

२६७

व्याख्या- सङ्ख्यापरित्यक्ताः सन्ख्याविवर्तिताः (असख्याः) निर्वेदमापन्नः शोकमुपगतः सन् तवान्तिकं तब समीपं सम्प्राप्तः समागतः ॥ ६६ ॥

हिन्दी-उसी प्रकार हिरण्यक के गुण भी असंख्य है, उनकी गणना नहीं हो सकती, कत्थना सज्जन तथा असङ्ख्य गुणों से युक्त है, किन्तु किसी विशेष कारण से विरक्त होकर तुम्हारे पास चले आये और अपने स्थान का परित्याग कर दिया ॥ ६६ ॥

मन्धरक ने पूछा- "इनके वैराग्य का क्या कारण है?"


दायस ने अधर में कहा- मैंने इनसे वहीं कारण पूछा था, किन्तु इन्होंने यह कहकर मेरे आग्रह को टाल दिया कि इस विषय में बहुत कहना है। चलो, वहाँ पहुँचने पर जी सब कहूँगा। मुझसे भी वहाँ इन्होंने नहीं कहा था"। पुनः उसने हिरण्यक को सम्बोधित करते हुए कहा- 'भद्र हिरण्यक! अब तो तुम यहाँ पहुँच गये हो। अब तुम अपने वैराग्य का कारण हम दोनों को बता दो।"

बायस के आग्रह को सुनकर हिरण्यक

ने कहा-

[१]

(हिरण्यकताम्रचूड-कथा)

अरित दाक्षिणात्ये जनपदे महिलारोप्यं नाम नगरन् । तस्य नातिदूरे मठायतनं भगवतः श्रीमहादेवस्य । तत्र च ताम्रचूडो नाम परियाजकः प्रतिवसति स्म। सच न नगरे भिक्षाटनं कृत्या प्राणयात्रां समाचरांत । मिक्षाशेपञ्च तत्रैत्र भिक्षापात्रे निधाय तद्भिक्षापात्र नागदन्तेऽवलम्ब्य पश्चाद्रात्रौ स्वपिति । प्रत्यूषे च तदन्नं कर्मकराणां दत्वा सम्यक् तत्रव देवतायतने संमार्जनापनमण्डनादिकं सनाज्ञापयति ।

व्याख्या-मठायतनं = देवगृहं, प्रापयात्रां जीवकोपार्जनं, पात्रे भाण्डे, नागदन्ते = नित्तिकीलक (खूंटी मे), प्रत्यूषे प्रातःकाले, कर्मकराणां भृत्यानां, समाज्ञापयति =

नातापयति स्म ।

हिन्दी- दक्षिण के किसी राज्य में महिलारोप्य नाम का ही दूरपर भगवान् शङ्कर का एक मन्दिर (मठ) बना हुआ है। एक नगर है। उससे थोड़ी उस मठ में कभी ताम्रचूड नाम का एक संन्यासी निवास करता था जो नगर से भिक्षाटन करके अपनी जीविका चलाया करता था। भोजन से अवशिष्ट बचे हुये अन्न को वह निक्षापात्र में रखकर उस पात्र को छूटी पर लटका दिया करता था और रात्रि में निश्चिन्त होकर सो जाया करता था। प्रातपाल सोकर उठने के बाद भिक्षापात्र में रहे हुये अवशिष्ट अन्न से मजदूरों की मजदूरी शादि बेकर उस मन्दिर में झाडू, लिपाई-पुताई तथा सजावट आदि करने के लिये भृत्यों २। वौदेश दिया करता था।

अस्मिन्नहनि मम बान्धवैनिंवेदितम् - "स्वामिन् ! मडायतने सिद्धमचं मूषक-भयाटर्स व भिक्षापात्र निहितं नागदन्तेऽवलम्बितं तिष्ठति सदैव । तद् वयं भायतुं

Monday, 2 June 2025

पंचतंत्र

R

मित्रभेदः

१०

पकयकर हिलाने के कारण उसके निकल जाने से खम्भे के मध्य में लटका हुआ उसका अण्डकोष दब गया। पुनः जो घटना घटी, उसका वर्णन मैं पीछे कर चुका हूँ। अतएव मैं कहता हूँ कि व्यर्थ का कार्य करने के परिणामस्वरूप बानर की सी दशा होती है।

आवयोर्भक्षितशेष आहारोऽस्त्येव, तत्किमनेन व्यापारेण ?" दमनक आह-"भवानाहारार्थी केवलमेव ! तन युक्तम् । उक्तं च-सुहृद। सुपकारकारणाद, द्विपदामप्यपकारकारणात् । नृपसंध्य इष्यते बुधेर्जठरं को न बिभर्ति केवलम् ॥ २२ ॥

किस-

तथा च-

यस्मिन्जीवत्ति जीवन्ति बहवः सोऽत्र जीवतु । वयांसि किं न कुर्वन्ति चन्च्वा स्वोदरपूरणम् ? ॥ २३ ॥ 3

यज्जीव्यते क्षणमपि प्रथितं मनुष्यविज्ञानशौर्यविभवार्यगुणैः समेतम् । तनाम जीवितमिह प्रवदन्ति तज्ज्ञाः, काकोऽपि जीवति चिराय बलिञ्च भुङ्क्ते ॥२४॥ यो नात्मना न च परेण च बन्धुवर्ग, दीने दयां न कुरुते न च नृत्यवर्ग । किं तस्य जीवितफलं हि मनुष्यलोके, काकोऽपि जीवति चिराय बलिञ्च भुङ्‌क्ते ॥२५॥

व्याख्या-भक्षितशेषः = मुक्तावशिटः, आहारार्थी भोजनार्थी, न युक्तम्, उपकारकार-णात् = उपकारश्य, सुहृदाम् मित्राणाम्, द्विषतां शत्रूणां, बुधैः पण्डितैः, नृपसंश्रयः = भूपाश्रयः, नृपसेवा, जठरम् उदरम् ।। २२ ॥ वयांसि पक्षिणः, स्वोदरपूरणम् उदपूर्तिम्, कुर्वन्ति ॥ २३ ॥ विज्ञानैः शिल्पादिभिः, शौर्यः वीरोचितकार्यः, विभवैः धनैः, आर्यगुणैः = श्रेष्ठगुणैः, समेतं युक्तम्, प्रथितं कीर्तितं, क्षणमपि मुहूर्तमपि, तज्ज्ञाः जीवनशाः, विद्वांसः, तन्नाम जीवितम् तदेव जीवनम् इति, प्रवदन्ति कथयन्ति, चिराय चिरकालं यावत्, जीवति ॥ २४ ॥ आत्मना स्वात्मना, परेण अन्येन, दीने असहाये, जीवितफलं - जीवनस्य फलम् ॥ २५ ॥

हिन्दी- "राजा के भोजन से अवशिष्ट भोजन जब हम को मिल ही जाता है तो व्यर्थ के प्रपञ्च में पढ़ने क्या लाभ है ?"

करटक के उक्त वचन को सुनकर दमनक ने कहा- "जान पड़ता है कि आप केवल भोजन के लिए ही जीते हैं। यह बात ठीक नहीं है, क्योंकि बुद्धिमान् व्यक्ति मित्रों के उपकारार्थ और शत्रुओं के अपकारार्थ राजा का आश्रय ग्रहण करते है। अपने पेट को कौन नहीं भर लेता है, किन्तु जीने का अर्थ पेट भरना मात्र नहीं है ।। २२ ॥

पक्षी भी अपनी चोंच से पेट को भर लेते हैं। क्या उनका जीवन कोई महत्त्व रखतो है ? इस विश्व में उसी व्यक्ति को दीर्घायु होना चाहिये जिसके जीने से अनेक व्यक्तियों का जीवन चलता है ॥ २३ ॥