मित्रभेदः
१०
पकयकर हिलाने के कारण उसके निकल जाने से खम्भे के मध्य में लटका हुआ उसका अण्डकोष दब गया। पुनः जो घटना घटी, उसका वर्णन मैं पीछे कर चुका हूँ। अतएव मैं कहता हूँ कि व्यर्थ का कार्य करने के परिणामस्वरूप बानर की सी दशा होती है।
आवयोर्भक्षितशेष आहारोऽस्त्येव, तत्किमनेन व्यापारेण ?" दमनक आह-"भवानाहारार्थी केवलमेव ! तन युक्तम् । उक्तं च-सुहृद। सुपकारकारणाद, द्विपदामप्यपकारकारणात् । नृपसंध्य इष्यते बुधेर्जठरं को न बिभर्ति केवलम् ॥ २२ ॥
किस-
तथा च-
यस्मिन्जीवत्ति जीवन्ति बहवः सोऽत्र जीवतु । वयांसि किं न कुर्वन्ति चन्च्वा स्वोदरपूरणम् ? ॥ २३ ॥ 3
यज्जीव्यते क्षणमपि प्रथितं मनुष्यविज्ञानशौर्यविभवार्यगुणैः समेतम् । तनाम जीवितमिह प्रवदन्ति तज्ज्ञाः, काकोऽपि जीवति चिराय बलिञ्च भुङ्क्ते ॥२४॥ यो नात्मना न च परेण च बन्धुवर्ग, दीने दयां न कुरुते न च नृत्यवर्ग । किं तस्य जीवितफलं हि मनुष्यलोके, काकोऽपि जीवति चिराय बलिञ्च भुङ्क्ते ॥२५॥
व्याख्या-भक्षितशेषः = मुक्तावशिटः, आहारार्थी भोजनार्थी, न युक्तम्, उपकारकार-णात् = उपकारश्य, सुहृदाम् मित्राणाम्, द्विषतां शत्रूणां, बुधैः पण्डितैः, नृपसंश्रयः = भूपाश्रयः, नृपसेवा, जठरम् उदरम् ।। २२ ॥ वयांसि पक्षिणः, स्वोदरपूरणम् उदपूर्तिम्, कुर्वन्ति ॥ २३ ॥ विज्ञानैः शिल्पादिभिः, शौर्यः वीरोचितकार्यः, विभवैः धनैः, आर्यगुणैः = श्रेष्ठगुणैः, समेतं युक्तम्, प्रथितं कीर्तितं, क्षणमपि मुहूर्तमपि, तज्ज्ञाः जीवनशाः, विद्वांसः, तन्नाम जीवितम् तदेव जीवनम् इति, प्रवदन्ति कथयन्ति, चिराय चिरकालं यावत्, जीवति ॥ २४ ॥ आत्मना स्वात्मना, परेण अन्येन, दीने असहाये, जीवितफलं - जीवनस्य फलम् ॥ २५ ॥
हिन्दी- "राजा के भोजन से अवशिष्ट भोजन जब हम को मिल ही जाता है तो व्यर्थ के प्रपञ्च में पढ़ने क्या लाभ है ?"
करटक के उक्त वचन को सुनकर दमनक ने कहा- "जान पड़ता है कि आप केवल भोजन के लिए ही जीते हैं। यह बात ठीक नहीं है, क्योंकि बुद्धिमान् व्यक्ति मित्रों के उपकारार्थ और शत्रुओं के अपकारार्थ राजा का आश्रय ग्रहण करते है। अपने पेट को कौन नहीं भर लेता है, किन्तु जीने का अर्थ पेट भरना मात्र नहीं है ।। २२ ॥
पक्षी भी अपनी चोंच से पेट को भर लेते हैं। क्या उनका जीवन कोई महत्त्व रखतो है ? इस विश्व में उसी व्यक्ति को दीर्घायु होना चाहिये जिसके जीने से अनेक व्यक्तियों का जीवन चलता है ॥ २३ ॥
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