Friday, 31 January 2020

रस

आचार्य भरत ने नाटयशास्त्र में रस माने है - उन्होंने नाटक में आठ रस माने है


नवां रस 'शांत रस' कब से स्वीकार किया गया - हर्षवर्ध्दन रचित नागानंद नाटक की रचना के बाद


वात्सल्य रस की स्थापना कब हुई - महाकवि सूरदास द्वारा वात्सल्य सम्बन्धित मधुर पद से


भक्ति को रस रूप माना गया - भक्ति रसामृत सिंधु और उवल नीलमणि नामक ग्रंथ की रचना के बाद


रसों की कुल संख्या है - वर्तमान में 11


रस शब्द किसके योग से बना है - रस् + अच्


नाटयशास्त्र के आधार पर रस की परिभाषा है - स्थाई भाव, विभाव, अनुभाव और संचारी भाव के संयोग से रस की निष्पति होती है।


आनंदवर्धन ने रस की परिभाषा दी है - रस का आश्रमय ग्रहण कर काव्य में अर्थ नवीन और सुंदर रूप धारण कर सामने आता है।


काव्य पढ़ने के बाद ह्दय में जो भाव जगते हैं उसे रस कहते हैं यह परिभाषा दी है - डॉ. दशरथ औझा ने


रस के अंग (अवयव) है - चार, विभाव, अनुभाव, संचारी और स्थाई


विभाव का अर्थ है - कारण। लोक में रति आदि स्थायी भावों की उत्पति के जो कारण होते हैं उन्हें विभाव कहते है।


विभाव के प्रकार है - 1 आलम्बन (विषयालम्बन और आश्रयालम्बन), 2 उद्दीपन (आलम्बन की चेष्टा और प्रकृति तथा वातावरण को उद्दीप्त करने वाली वस्तु)


विषयालम्बन कहते हैं - उन रति आदि भावों का जो आधार है वह आश्रय है।


आश्रयालम्बन कहते हैं - उन रति आदि भावों का जो आधार है वह आश्रय है।


उद्दीपन विभाव कहते हैं - स्थाई भाव को और अधिक उद्प्रबुध्द, उद्दीप्त और उत्तेजित करने वाले कारण को कहते है।


अनुभाव कहते हैं - विभावों के उपरांत जो भाव उत्पन्न होते हैं उन्हें अनुभाव कहते है।


""बतरस लालच लाल की, मुरली धरी लुकाई, सौंह करे, भौंहनि हंसे, दैन कहै नटि जाय"" में अनुभाव है?


- गोपियों की चेष्टाएं, सौंह करे, भौंहनि हंसे आदि अनुभाव है।

अनुभाव के प्रकार है - 1 कायिक (शारीरिक), 2 मानसिक, 3 आहार्य (बनावटी), 4 वाचिक (वाणी), 5 सात्विक (शरीर के अंग विकार)


सात्विक अनुभाव की संख्या है - आठ। स्तम्भ, स्वेद, रोमांच, स्वरभंग, वेपथु, वैवण्य, अश्रु, प्रलय


नायिका के अनुभाव माने गए है - 28 प्रकार के।


व्यभिचारी या संचारी भाव कहते हैं - वह भाव जो स्थायी भाव की ओर चलते है, जिससे स्थायी भाव रस का रूप धारण कर लेवे। इसे यो भी कह सकते हैं जो भाव रस के उप कारक होकर पानी के बुलबुलों और तरंगों की भांति उठते और विलिन होते है। उन्हें व्यभिचारी या संचारी भाव कहते है।


संचारी भाव के भेद है - भरत मुनि ने 33 संचारी भाव माने है (निर्वेद, ग्लानि, शंका, असूया, मद, श्रम, आलस्य, देन्य, चिंता, मोह, स्मृति, घृति, ब्रीडा, चपलता, हर्ष, आवेग, जड़ता, गर्व, विषाद, औत्सुक्य, निद्रा, अपस्मार, स्वप्न, विबोध, अमर्ष, अविहित्था, उग्रता, मति, व्याधि, उन्माद, मरण, वितर्क) महाकवि देव ने 34 वां संचारी भाव छल माना लेकिन वह विद्वानों को मान्य नहीं हुआ। महाराज जसवंत सिंह ने भारतभूषण में 33 संचारी भावों को गीतात्मक रूप में लिखा है।


स्थायी भाव का अर्थ है - जिस भाव को विरोधी या अविरोधी भाव आने में न तो छिपा सकते हैं और न दबा सकते हैं और जो रस में बराबर स्थित रहता है।


'हा राम! हा प्राण प्यारे। जीवित रहूं किसके सहारे' में रस है - करूण रस


हे खग मृग हे मधुकर श्रेणी। तुम देखी सीता मृगनैनी॥ में रस है - वियोग शृंगार रस


स्थायी भाव की विशेषताएं है - अन्य भावों को लीन करने की, विभाव, अनुभाव, संचारी भाव से पुष्ट होकर रस में बदलता है।


स्थायी भाव के भेद है- प्राचीन काव्यशास्त्रियों के अनुसार नौ तथा आधुनिक के अनुसार 11


स्थायी भाव के भेद के नाम - रति, शोक, क्रोध, उत्साह, ह्यास, भय, विस्मय, घृणा, निर्वेद, आत्म स्नेह और ईष्ट विषयक रति।


भाव और रस में अंतर है -


- भाव का सम्बन्ध रज, तम, सतो गुण से है रस में सत्व का उद्रेक होता है।- भाव का उदय मनुष्य ह्दय से, रस आस्वादन आनंद रूप में होता है।- रस की अनुभूति शाश्वत पर भावों की अनुभूति क्षणिक होती है।- रस का उदय अद्वेत रूप में जबकि भावों का उदय खण्ड रूप में होती है।

शृंगार रस का परिचय है - विभाव, अनुभाव, संचारी भाव के संयोग से पति-पत्नी का या प्रेमी-प्रेमिका का रति स्थायी भाव शृंगार रस कहलाता है। यह रस विष्णु देवता से सम्बन्धित है। इसके आश्रय और आलम्बन नायक-नायिका है।


शृंगार रस के भेद है- संयोग और वियोग


वियोग शृंगार के भेद है - पूर्वराग, मान, प्रवास, अभिशाप (करूण विरह)


हास्य रस का परिचयन है - हास्य रस का स्थायी भाव हास हे। इसका आलम्बन विलक्षण प्राणी या हंसी जगाने वाली वस्तु तथा आश्रय दर्शक है। इस रस के देवता प्रमथ है।


हास्य रस के भेद है - स्मित, हसित, विहसित, अपहसित, प्रतिहसित


अपहसित का अभप्राय है - हंसते-हंसते नेत्र से आंसू निकल पडे।


प्रतिहसित का अर्थ है - सारा शरीर हिले और लोटपोट हो जाए।


करूण रस का परिचय है - करूण रस का स्थायी भाव शोक है। दु:खी, पीड़ित या मृत व्यक्ति आलम्बन विभाव और उससे सम्बन्ध रखने वाली वस्तुओं को तथा अन्य सम्बन्धियों को देखना उद्दीपन विभाव है।


वियोग शृंगार और करूण रस में अंतर है -


- वियोग शृंगार में मिलन की आस रहती है किंतु करूण रस में आस समाप्त हो जाती है।- वियोग शृंगार के देवता श्याम है जबकि करूण रस के देवता यम है।- वियोग शृंगार सुखात्मक भी होता है जबकि करूण रस पूरी तरह दुखात्मक होता है।

वीर रस का परिचय है- कठिन कार्य (शत्रु के अपकर्ष, दीन दुर्दशा या धर्म की दुर्गती मिटाने) के करने का जो तीव्र भाव ह्दय में उत्पन्न होता है उसे उत्साह कहते है। यही उत्साह विभा, अनुभाव और संचारियों के योग से वीर रस में तब्दील हो जाता है।


वीर रस के भेद है -युध्द वीर, दानवीर, दयावीर और धर्मवीर


रोद्र रस की परिभाषा दीजिए- रोद्र रस का स्थायी भाव क्रोध है। अपने विरोधी अशुभ चिंतक आदि की अनुचित चेष्टा से अपने अपमान अनिष्ठ आदि कारणों से क्रोध उत्पन्न होता है वह उद्दीपन विभाव, मुष्टि प्रहार अनुभाव और उग्रता संचारी भाव से मेल कर रोद्र रस बन जाता है।


भयानक रस का परिचय है - भय इसका स्थायी भाव है। सिंह, सर्प, भंयकर जीव, प्राकृतिक दृश्य, बलवान शत्रु को देखकर या वर्णन सुनकर भय उत्पन्न होता है। स्त्री, नीच मानव, बालक आलम्बन है। व्याघ्र उद्दीपन विभाव और कम्पन अनुभाव, मोह त्रास संचारी भाव है।


बौरो सबे रघुवंश कुठार की, धार में वार बाजि सरत्थहिं। बान की वायु उडाय के लच्छन, लच्छ करौं अरिहा समरत्थहिं॥ में रस है - रोद्र रस


जौ तुम्हारि अनुसासन पावो, कंदूक इव ब्रह्माण्ड उठावों। काचे घट जिमि डारों फोरी संकऊं मेरू मूसक जिमि तोरी में रस है - रोद्र


'शोक विकल सब रोवहिं रानी, रूप शील बल तेज बखानी, करहिं विलाप अनेक प्रकारा, परहिं भूमि-तल बारहिं बारा' में रस है - करूण


वीभत्स रस की परिभाषा है - वीभत्स रस का स्थायई भाव जुगुप्सा है। दुर्गन्धयुक्त वस्तुओं, चर्बी, रूधिर, उद वमन आदि को देखकर मन में घृणा होती है।


अद्भूत रस का परिचय है - इस रस का स्थायी भाव विस्मय है। अलौकिक एवं आश्चर्यजनक वस्तुओं या घटनाओं को देखकर जो विस्मय भाव हृदय में उत्पन्न होता है उसमें अलौकिक वस्तु आलम्बन विभाव और माया आदि उद्दीपन विभाव है।


शांत रस की व्याख्या कीजिएि - शांत रस का विषय वैराग्य एवं स्थायी भाव निर्वेद है। संसार की अनित्यता एवं दुखों की अधिकता देखकर हृदय में विरक्ति उत्पन्न होती है। सांसारिक अनित्यता-दर्शन आलम्बन और सजन संगति उद्दीपन विभाव है।


शांत रस का उदाहरण है - हरि बिनु कोऊ काम न आवै, यह माया झूठी प्रपंच लगि रतन सौ जनम गंवायो


वात्सल्य रस का परिचय दीजिए- इसका स्थायी भाव वत्सल है। इसमें अल्पवयस्क शिशु आलम्बन विभाव, उसकी तोतली बोली एवं बाल चेष्टाएं उद्दीपन विभाव है।


भक्ति रस की परिभाषा है - स्थायी भाव देव विषयक रति आराध्य देव, आलम्बन, सांसारिक कष्ट एवं अतिशत दुख उद्दीपन विभाव है। दैन्य, मति, वितर्क, ग्लानि आदि संचारी भाव है।


रस को आनंद स्वरूप मानने वाले तथा अभिव्यक्तिवाद के संस्थापक है - अभिनव गुप्त


भट्टनायक ने किस रस सिध्दांत की स्थापना की - भुक्तिवाद की।


संयोग शृंगार का उदाहरण है - बतरस लालच लाल की, मुरली धरी लुकाय


वियोग शृंगार का उदाहरण है- कागज पर लिखत न बनत, कहत संदेश लजाय


'एक और अजगरहि लखि, एक और मृगराय, विकल बटोही बीच ही, परयो मूरछा खाय' में रस है - भयानक रस


आचार्य भट्लोल्लट का उत्पतिवाद है - आचार्य के अनुसार रस वस्तुत: मूल पात्रों में रहता। दर्शक में भ्रम होने से रस की उत्पति होती है।


आचार्य शंकुक का अनुमितिवाद है - रंगमंच पर कलाकार के कुशल अभिनय से उसमें मूल पात्र का कलात्मक अनुमान होता है, जैसे चित्र में घोड़ा वास्तविक नहीं होता है, देखने वाला अश्व का अनुमान लगाता है।


आचार्य अभिनवगुप्त के अभिव्यक्तिवाद के निष्पति का अर्थ है - विभव, अनुभाव आदि से व्यक्त स्थायी भाव रस की अभिव्यक्ति करता है। इस प्रक्रिया में काव्य पढ़ते या नाटक देखते हुए व्यक्ति स्व और पर का भेद भूल जाता है और स्वार्थवृति से परे पहुंचकर अवचेतन में अभिव्यक्त आनंद का आस्वाद लेने लगता है।


मन रे तन कागद का पुतला। लागै बूंद विनसि जाय छिन में गरब करै क्यों इतना॥ में रस है - शांत रस


अंखिया हरि दरसन की भूखी। कैसे रहे रूप रस रांची ए बतियां सुनि रूखी। में रस है - वियोग शृंगार


रिपु आंतन की कुण्डली करि जोगिनी चबात, पीबहि में पागी मनो, जुबति जलेबी खात॥ में निहित रस है - जुगुप्सा, वीभत्स


मेरे तो गिरधर गोपाल दूसरो न कोई में रस निहित है - ईश्वर रति, भक्ति


यह लहि अपनी लकुट कमरिया, बहुतहि नाच नचायौ। में रस निहित है - वत्सल, वात्सल्य


समस्त सर्पो संग श्याम यौ ही कढे, कलिंद की नंदिनि के सु अंक से। खडे किनारे जितने मनुष्य थे, सभी महाशंकित भीत हो उठे॥ में निहित रस है - भय, भयानक


देखि सुदामा की दीन दसा, करूणा करि के करूणानिधि रोये। में रस है - शोक, करूण


मैं सत्य कहता हूं सखे! सुकुमार मत जानो मुझे। यमराज से भी युद्ध में, प्रस्तुत सदा जानो मुझे॥ में रस है - उत्साह, वीर


'एक और अजगरहि लखि, एक ओर मृगराज। विकल बटोहीं बीच ही, परयो मूरछा खाय' में रस है - भयानक


पुनि-पुनि प्रभुहि चितव नरनाहू, पुलक गात, उर अधिक उछाहू। में कौनसा अनुभाव है - कायिक, सात्विक, मानसिक


रस के मूल भाव को कहते हैं - स्थायी भाव


चित्त के वे स्थिर मनोविकार जो विरोधी अथवा अविरोधी, प्रतिकू अथवा अनुकूल दोनों प्रकार की स्थितियों को आत्मसात कर निरंतर बने रहे रहते हैं कहलाते हैं - स्थायी भाव


वे बाह्य विकार जो सहृदय में भावों को जागृत करते हैं कहलाते हैं - विभाव


स्थायी भाव को उद्दीप्त या तीव्र करने वाले विभाव कहलाते हैं - उद्दीपन


जिसके मन में भाव या रस की उत्पति होती है उसे कहते हैं - आश्रय


रोमांच, स्वेद, अश्रु, कंप, वैवण्र्य आदि कौनसे अनुभाव है - सात्विक


जिनके द्वारा आलम्बन के मन में जागृत होने वाले स्थायी भाव की जानकारी होती है उन्हें कहते हैं - अनुभाव


करूण रस का स्थायी भाव है - शोक


देखन मिस मृग विहंग तरू, फिरति बहोरि-बहोरि, निरखि-निरखि रघुवीर-छवि। काव्यांश में आश्रय है - सीता


अधिक सनेह देह भई भोरी। सरद-ससिहि जनु चितव चकोरी।। लोचन मग रामहि उर आनी, दीन्हें पलक कपाट सयानी।। उक्त चौपाई में रस है - शृंगार


मधुबन तुम कत रहत हरे, विरह वियोग स्याम सुंदर के, ठाडे क्यो न जरे ? काव्यांश में आलम्बन है - श्याम सुंदर


सुन सुग्रीव मैं मारि हो, बालि हिं एकहि बान, ब्रह्मा रूद्र सरणागत, भयउ न उबरहि प्रान। काव्यांश में व्यक्त उत्साह भाव का आलम्बन कौन है - सुग्रीव


कामायनी कुसुम पर पडी, न वह मकरंद रहा। एक चित्र बस रेखाओं का, अब उसमें है रंग कहा। पंक्तियों में निहित स्थायी भाव व आश्रय है - शोक, मनु


समता लहि सीतल भया, मिटी मोह की ताप, निसि वासर सुख निधि लह्या, अंतर प्रगट्या आप में स्थायी भाव है - निर्वेद


भाषे लखन कुटिल भई भौहे। रद पद फरकत नयन रिसौहें। रघुबंसिन मंह जहं कोउ होई। तेहि समाज अस कहै न कोई। में रस है - उत्साह, वीर


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