Sunday, 22 November 2020

संस्कृति व्याख्यान

संस्कृति विकास के लिए है या ठहराव के लिए?
वैश्विक संपर्क से पहले धर्म, विवाह आदि 
मानव समान परिस्थितयों मे समान व्यवहार 
भाषा विकास 
मातृ सत्तात्मक परिवार 
आत्मा
देवीय शक्ति
वायु देवता वैश्विक है क्या?
प्रकृति पूजा
बुद्धिस्ट से पहले ?
सिन्धु सभ्यता 
पशुपतिनाथ 
विवाह संसर्ग का नियन्त्रण?
शारीरिक व न्यायिक शक्ति की न्यूनाधिक?
विज्ञान ने धर्म को रिप्लेस किया?
भाषाई पवित्रता?
संस्कृति तत्वों का विकास क्रम?
खेती व सम्पत्ति चीटियों में?
डाकू बीएड छोड़कर ऑनलाइन 



Thursday, 19 November 2020

 https://aryamantavya.in/shambuk-vadh-ka-satya/

शम्बूक वध कंवल भारती

शम्बूक / कंवल भारती

शम्बूक
हम जानते हैं तुम इतिहास पुरुष नहीं हो
वरना कोई लिख देता
तुम्हें भी पूर्वजन्म का ब्राह्मण
स्वर्ग की कामना से
राम के हाथों मृत्यु का याचक

लेकिन शम्बूक
तुम इतिहास का सच हो
राजतन्त्रों में जन्मती
असंख्य दलित चेतनाओं का प्रतीक
व्यवस्था और मानव के संघर्ष का विम्ब

शम्बूक
तुम हिन्दुत्व के ज्ञात इतिहास के
किसी भी काल का सच हो सकते हो
शम्बूक जो तुम्हारा नाम नहीं है
क्योंकि तुम घोघा नहीं थे,
घृणा का शब्द है जो दलित चेतना को
व्यवस्था के रक्षकों ने दिया था

शम्बूक (हम जानते हैं)
तुम उलटे होकर तपस्या नहीं कर रहे थे
जैसाकि वाल्मीकि ने लिखा है
तुम्हारी तपस्या एक आन्दोलन थी
जो व्यवस्था को उलट रही थी

शम्बूक (हम जानते हैं)
तुम्हें सदेह स्वर्ग जाने की कामना नहीं थी,
जैसाकि वाल्मीकि ने लिखा है
तुम अभिव्यक्ति दे रहे थे
राज्याश्रित अध्यात्म में उपेक्षित देह के यथार्थ को

शम्बूक (हम जानते हैं)
तुम्हारी तपस्या से
ब्राह्मण का बालक नहीं मरा था
जैसाकि वाल्मीकि ने लिखा
मरा था ब्राह्मणवाद
मरा था उसका भवितव्य।

शम्बूक
सिर्फ़ इसलिए राम ने तुम्हारी हत्या की थी।
तुम्हें मालूम नहीं
जिस मुहूर्त में तुम धराशायी हुए थे
उसी मुहूर्त में जी उठा था
ब्राह्मण-बालक
यानी ब्राह्मणवाद
यानी उसका भवितव्य

शम्बूक
तुम्हें मालूम नहीं
तुम्हारे वध पर
देवताओं ने पुष्प-वर्षा की थी
कहा था-- बहुत ठीक, बहुत ठीक
क्योंकि तुम्हारी हत्या
दलित चेतना की हत्या थी,
स्वतन्त्रता, समानता, न्यायबोध की हत्या थी

किन्तु, शम्बूक
तुम आज भी सच हो
आज भी दे रहे हो शहादत
सामाजिक-परिवर्तन के यज्ञ में

शम्बूक ऋषि आर पी शंखवार

 June 7, 2016

शम्बूक ऋषि : एक साहित्यिक विश्लेष्ण

शम्बूक ऋषि : एक साहित्यिक विश्लेष्ण

आर.पी. शंखवार

मैंने शंबूक के पक्ष में किसी का ब्लॉग पढ़ा, तो तमाम ब्राह्मणवादियों ने शंबूक के सारांश पर ऊलजलूल टिप्पणी कीं। ब्लॉग पर उत्तर व संवाद खरे नहीं लगे, सत्यता कुछ और ही है। मेरी प्रतिक्रिया इस प्रकार से है –

शम्बूक कथा का वर्णन “वाल्मीकि रामायण” के उत्तरकांड के 73-76 सर्ग में मिलता है। एक दिन एक ब्राह्मण का इकलौता लड़का मर गया जिसका शव लाकर राम के राजद्वार पर डाल कर ब्राह्मण विलाप करने लगे। आरोप था कि अकाल मृत्यु का कारण राम का कोई दुष्कृत्य है। ऋषि-मुनियों की परिषद ने विचार करके निर्णय लिया कि राज्य में कहीं कोई अनधिकारी तप कर रहा है, क्योंकि राजा के अहितकर होने पर ही प्रजा में अकाल मृत्यु होती है। राम ने इस विषय पर विचार करने के लिए मंत्रियों को बुलवाया। नारद ने कहा “राजन! सतयुग में केवल ब्राह्मण तपस्या करते थे, त्रेतायुग में दृढ़ काया वाले क्षत्रिय भी तपस्या करने लगे। उस समय अधर्म ने अपना एक पांव पृथ्वी पर रखा था। सतयुग में लोगों की आयु अपरिमित थी, त्रेतायुग में परिमित हो गई। द्वापरयुग में अधर्म ने अपना दूसरा पांव भी पृथ्वी पर रखा। इससे वैश्य भी तपस्या करने लगे। द्वापर में शूद्रों का यज्ञ करना वर्जित है। निश्चय ही इस समय कोई शूद्र तपस्या कर रहा है, अत: इस कारण ही ब्राह्मण बालक की अकाल मृत्यु हो गई। अतः आप अपने राज्य में खोज करिये और जहाँ कोई दुष्ट कर्म होता दिखाई दे, वहाँ उसे रोकने का यत्न कीजिये।” (74/8/28-32)। सुनते ही राम शम्बूक की खोज में निकल पड़ा और दक्षिण दिशा में शैवल पर्वत के उत्तर भाग में एक सरोवर पर तपस्या करते हुए एक तपस्वी को देख कर राम उसके पास जाकर बोला, “उत्तम तप का पालन करने वाले तापस! तुम धन्य हो! तपस्या में बढ़े-चढ़े सुदृढ़ पराक्रमी परुष तुम किस जाति में उत्पन्न हुए हो? मैं दशरथ कुमार राम तुम्हारा परिचय जानने के लिए पूछ रहा हूँ। तुम्हें किस वस्तु के पाने की इच्छा है? तपस्या द्वारा संतुष्ट हुए इष्टदेव से तुम कौन सा वर पाना चाहते हो- स्वर्ग या कोई दूसरी वस्तु? कौन सा ऐसा पदार्थ है जिसे पाने के लिए तुम ऐसी कठोर तपस्या कर रहे हो जो दूसरों के लिए दुर्लभ है। तापस! जिस वस्तु के लिए तुम तपस्या में लगे हो उसे मैं सुनना चाहता हूँ। इसके सिवा यह भी बताओ कि तुम ब्राह्मण हो या अजेय क्षत्रिय? तीसरे वर्ण के वैश्य हो या शुद्र?” राम के वचन सुन कर तपस्वी बोला, “हे श्रीराम! मैं झूठ नहीं बोलूंगा। देवलोक को पाने की इच्छा से ही तपस्या में लगा हूँ! मुझे शूद्र ही जानिए, मेरा नाम शम्बूक  है।” शूद्र सुनते ही राम ने ब्राह्मणों द्वारा उकसाए जाने के बाद तलवार से शंबूक की हत्या कर दी।

 

टिप्पणी : ब्राह्मणों को जातिवाद, शोषणवाद, प्रथावाद, आडंबरवाद, निम्नोच्च्वाद, अंधविश्वास का दोष दो, तो तमाम सवर्ण शूद्रों को सबक सिखाने की धमकी देते हैं, औकात समझाते हैं, वेदों-पुराणों तथा ब्राह्मण साहित्य के पठन-पाठन को मना करते हैं, शूद्रों को 200 वर्ष पीछे के काल में जाने की बात करते हैं, शूद्र तो पिटने के लिए ही हैं, शुद्रों को शिक्षा का अवसर देकर हिन्दुओं ने अच्छा नहीं किया, शिक्षित होकर शूद्रों के दिमाग खराब हो गये हैं, अंबेडकर विघटनकारी थे, शंबूक-राम का सारांश तो कहीं नहीं है, शंबूक ब्राह्मण था व मांस खाने के कारण मारा गया था, आदि-आदि।

सवर्ण व ब्राह्मण जान लें कि शिक्षा का अवसर तुमने नहीं दिया है, तुम ब्राह्मण अपने को ब्रह्मा के मुख से पैदा मानते हो तो अपनी माँ के गर्भ में 9 महीने क्या करते हो, कबड्डी खेलते हो या माँ का खून पीते हो? जिस माता से पैदा होते हो, उसे तुम नर्क का द्वार कहते हो, तब तुम क्या समझोगे कि तुम्हारी बेटी, पत्नी, मौसी, दादी, नानी के क्या-क्या एहसान हैं तुम्हारे ऊपर? तुम्हारी माँ माँ नहीं, पिता पिता नहीं। ऐसे शैतान महागद्दार हैं जो परायों को माता-पिता कहते हैं। इससे महापाप क्या हो सकता है।

शिक्षा, धर्म, समाज, प्रथाएँ, संस्कार, धार्मिक आयोजन, प्रवचन या व्यासगद्दी, सारांश का अनर्थ करने, अछूतों को चौथा वर्ण स्वीकार न करने की ब्राह्मण की मनमानी व बपौती अब खत्म हो गई है, तो ये बौखला गये हैं, पागल हो गये हैं। अंबेडकर अकेले थे, तुम कुछ नहीं कर पाए, अब तो घर-घर में अंबेडकर फूल-फल रहे हैं, अब तुम किसी अधिकार से वंचित करना तो दूर, तुम खुद ही अपने अधीन फ़ालतू के अधिकार त्यागने को विवश हो जाओगे, क्योंकि ब्राह्मणवाद अब ढलती उम्र पर है। खुद हरिजन होकर शूद्रों को हरिजन कहना, खुद नीच होकर शूद्रों को नीच-म्लेच्छ कहना तुम्हारी शैतानी फितरत रही है, अभी है, आगे रहेगी, परन्तु आगे घर-घर में अंबेडकर होने से तुम अब नीच सिद्ध होकर रहोगे। हम कहते हैं कि राम ने शंबूक की हत्या की, जिसे तुम ‘मोक्ष’ कहते हो। शबरी के बेर राम द्वारा खाए जाना सिर्फ राम को अस्पृश्यता के आरोप से बचाना है, तुम राम को मर्यादापुरुषोत्तम कहते हो। अस्पृश्यता के सन्दर्भ में आज भी मनुवाद को जीवित रखने की बात ब्राह्मण करते हैं। राम (प्रभु) के हाथों से मरना मोक्ष की प्राप्ति है, तो शूद्रों के भारत से सारे ब्राह्मण क्यों न किसी प्रभु के हाथों मरकर मोक्ष पा लेते हैं? छि: ऐसे धर्म पर, तुम्हारे भगवान तो इतने भी नहीं कि मेरे जैसा कोई मनुष्य उस पर थूके भी। आस्तिकों का दावा है कि राम या किसी भगवान के विरुद्ध जाने का कोई दुस्साहस नहीं कर सकता। यह कितना सत्य है, बताने की जरूरत नहीं है, क्योंकि भारत में घर-बाहर कोई सुरक्षित नहीं है, सभी भयभीत हैं, यौनाचारी, दुराचारी, दबंग, आतंकवादी, भ्रष्टाचारी, बलात्कारी, हत्यारे, चोर-डकैत, भूमाफिया भारत में गली-मुहल्लों व कार्यालयों में पाप, उपद्रव और अपराध कर रहे हैं, यह सब किस राम से डरते हैं। क्या राम दुस्साहस कर सकता है इन सबका सामना करने का?

 

ब्राह्मण शास्त्रों में शूद्र : मनुस्मृति के 10/65 से ‘चारों वेदों का विद्वान किन्तु चरित्रहीन ब्राह्मण शुद्र से न्रिकृष्ट होता है, अग्निहोत्र करने वाला जितेन्द्रिय ही ब्राह्मण कहलाता है।’ महाभारत (अनुगीता पर्व, 91/37) से ‘ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शुद्र सभी तपस्या के द्वारा स्वर्ग प्राप्त करते हैं।’ गीता (5/18) में ‘ज्ञानी जन विद्या और विनय से भरपूर ब्राह्मण गौ, हाथी, कुत्ते और चंडाल सबको समान भाव से देखते हैं अर्थात् सबके प्रति एक जैसा व्यवहार करते हैं’। महर्षि वाल्मीकि को राम का परिचय देते हुए नारद ने बताया ‘रामश्रेष्ठ सबके साथ सामान व्यवहार करने वाले और सदा प्रिय दृष्टिवाले थे’ (बाल कांड, 1/16)। तब वह तपस्या जैसे शुभकार्य में प्रवृत्त शम्बूक की शूद्र कुल में जन्म लेने के कारण हत्या कैसे कर सकता था? श्री कृष्ण (9/12) ने कहा ‘मेरी शरण में आकर स्त्रियाँ वैश्य, शुद्र, अन्त्यज आदि पापयोनि तक सभी परमगति अर्थात् मोक्ष को प्राप्त करते हैं। वहीं 9/32 में ‘हे पार्थ! जो पापयोनि स्त्रियाँ, वैश्य और शुद्र हैं, ये भी मेरी उपासना कर परमगति को प्राप्त होते हैं।’ अयोध्या कांड (अ. 63, श्लोक 50-51 तथा अ. 64, श्लोक 32-33) में रामायण को श्रवण करने का वैश्यों और शूद्रों दोनों के समान अधिकार का वर्णन है।

यह शुद्र वर्ण पूषण अर्थात् पोषण करने वाला है और साक्षात् इस पृथ्वी के समान है, क्योंकि जैसे यह पृथ्वी सबका भरण-पोषण करती है वैसे शुद्र भी सबका भरण-पोषण करता है (सन्दर्भ-बृहदारण्यकोपनिषद, 1/4/13)।

कर्ण ने सूदपुत्र होने के कारण स्वयंवर में अयोग्य ठहराये जाने पर कहा था- ‘जन्म देना तो ईश्वर के अधीन है, परन्तु पुरुषार्थ के द्वारा कुछ का कुछ बन जाना मनुष्य के वश में है।’ इसी कर्ण का राजतिलक करके दुर्योधन ने उसे राजा (क्षत्रिय) का दर्जा दिया था। आपस्तम्ब धर्मसूत्र (2/5/11/10-11) में ‘जिस प्रकार धर्माचरण से निकृष्ट वर्ण का मनुष्य अपने से उत्तम वर्ण को प्राप्त होता है जिसके वह योग्य हो, इसी प्रकार अधर्म आचरण से उत्तम वर्ण वाला मनुष्य अपने से नीचे वर्ण को प्राप्त होता है।’ मनु. (10/65) से ‘जो शूद्र कुल में उत्पन्न होके ब्राह्मण के गुण, कर्म, स्वभाव वाला हो वह ब्राह्मण बन जाता है, उसी प्रकार ब्राह्मण कुल में उत्पन्न होकर भी जिसके गुण-कर्म-स्वभाव शुद्र के सदृश हों वह शुद्र हो जाता है।’ महाभारत (अनुगीता पर्व 91/37) से ‘ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र सभी तपस्या के द्वारा स्वर्ग प्राप्त करते हैं।’ वन पर्व (180/21-26) से ‘सत्य, दान, क्षमा, शील अनृशंसता, तप और दया जिसमें हो वह ब्राह्मण है और जिसमें ये न हों वह शुद्र होता है।’ महाभारत (वनपर्व 313/111) से ‘चारों वेदों का विद्वान, किन्तु चरित्रहीन ब्राह्मण शुद्र से निकृष्ट होता है, अग्निहोत्र करने वाला जितेन्द्रिय ही ब्राह्मण कहलाता है।’

इन प्रमाणों से स्पष्ट है कि वर्ण-व्यवस्था का आधार गुण, कर्म, स्वाभाव है जन्म नहीं और तपस्या करने का अधिकार भी सबको प्राप्त है।

 

शंबूक दोषी या राम : रावण के ब्राह्मण होने पर उसकी हत्या का दोष राम पर नहीं आता है, क्योंकि दोनों के बीच “सीता की मुक्ति” के मसले पर युद्ध हुआ था। युद्ध में किसी की भी मृत्यु हो सकती थी, इसलिए म्रत्यु का दोष विजयी पर नहीं लग सकता है। दशरथ को श्रवण कुमार की हत्या का दोष इसलिए लगा था, क्योंकि हिरन या किसी पशु के लिए छोड़ा गया बाण मनुष्य श्रवण कुमार को लगा और वह मर गया। शिकारी को भली-भाँति शिकार को परख लेना चाहिए था, जो दशरथ से चूक (अपराध) हो गई थी। राम के चहेते कहते हैं कि शंबूक शूद्र होने के नाते तपस्या का अनाधिकारी था और उसे तपस्या करने का अनुभव नहीं था जिससे उसके कुप्रभाव से ब्राह्मण पुत्र मर गया था। हिन्दूधर्म अपने सिद्धांतों के विपरीत है। “अहिंसो परम: धर्म:” के सिद्धांत से तो तो जीवहत्या पाप है, फिर वह शंबूक हो, श्रवण कुमार, बालि, मारीचि या भस्मासुर या लंका के 14 हजार राक्षस। तपस्या उल्टी नहीं होती है, ब्राह्मणों ने ही (ब्राह्मणों को यह अधिकार है कि किसे ब्राह्मण घोषित करना है किसे शूद्र) वाल्मीकि को राम-राम के स्थान पर मरा-मरा जपने की सलाह दी, जिससे किसी को हानि नहीं पहुंची, तब ईश्वर के नाम की तपस्या पद्मासन में करे या शीर्षासन में, तपस्या तो ईश्वर के नाम है, न कि किसी ब्राह्मण के पुत्र की मृत्यु का उपक्रम।

 

शंबूक कथा सत्य या असत्य : एक बार ब्राह्मणों के कहने पर मान लें कि चर्चित विषय मिथ्या है, तब हिन्दुओं के सबसे विश्वसनीय “गीता प्रेस” पर दृष्टि जाती है जो रामायण का उत्तरकाण्ड और शंबूक की कथा “वाल्मीकि रामायण”, पृष्ठ 1025-1027 पर प्रकाशित की। इस सारांश से राम को हत्या का दोष लगता है, इसलिए ब्राह्मण इसे झूठ बताते हैं। शबरी के सारांश से राम को ब्राह्मणधर्म के विरुद्ध जाने का दोष लगता है, तब क्यों राम को जातिवाद से अछूता सिद्ध करते हैं? इसे उचित मान लें तो ब्राह्मण राम की तरह उसके सम्मान व भक्ति में जातिवाद पूर्णतया समाप्त कर दें, क्योंकि जातिविहीनता से ओतप्रोत उनके ईष्ट राम का चरित्र यही था, तब उसके भक्त उसके दर्शन के विरुद्ध क्यों? कथाएँ सभी हैं, कहीँ न कहीं हैं, परन्तु कौन सी सत्य है कौन सी मिथ्या, यह ब्राह्मणों के हाथ में है। ऐसा है तो मिथ्या कथाओं को साहित्य से या तो निकाल दें या साहित्य को ही जला दें। आपत्तिजनक साहित्य देश व मनुष्यों का बंटवारा करने वाला हो, तो उसे मनुस्मृति की तरह जला ही देना उचित है।

 

राम का चरित्र : वाल्मीकि रामायण में राम द्वारा वनवास काल में निषाद राज द्वारा लाये गए भोजन को ग्रहण करना (बालकांड, 1/37-40) एवं शबर (कोल/भील) जाति की शबरी से बेर खाना (अरण्यककांड, 74/7) से सिद्ध होता है कि उस काल में राम शूद्र वर्ण से कोई भेदभाव नहीं रखता था। जातिवाद तो सिर्फ मक्कार व मानवद्रोही ब्राह्मणों के षड्यंत्रपूर्ण दिमाग का फितूर है जो भगवानों तथा ईश्वर का मालिक बना बैठा है, यह निश्चय करता है कि कौन उसके मंदिर में प्रवेश करेगा और कौन नहीं। तब शिव, विष्णु, राम, कृष्ण, दुर्गा, काली, लक्ष्मी, सरस्वती, हनुमान सहित सभी देवी-देवता व भगवान ब्राह्मणों के हाथ की पुतलियाँ हैं और ऐसे गुलाम देवी-देवता व भगवान एक मनुष्य का भी भला नहीं कर सकते हैं। फिर किस बात के देवी-देवता व भगवान? तब राम का चरित्र गधे के सींग से ज्यादा नहीं है।

कोई कहता है कि राम अछूत शबरी के बेर खा सकता है, केवट का लाया हुआ खाना खा सकता है, तब शंबूक की हत्या कैसे कर सकता है? अगर शंबूकवध किया है तो उसे तपस्या की विधि ठीक से नहीं आती थी, इसलिए किया था। भागीरथ को 12 साल पाँव के एक अंगूठे पर खड़े रहकर शिव को प्रसन्न करने की तपस्या का प्रशिक्षण किसने दिया था? ब्राह्मणवादी बताएं कि भोजन दायें हाथ से खाने का सिद्धांत है, कोई बाएं से खाए तो क्या उसकी हत्या कर देनी चाहिए? यदि हाँ, तो भारत के तमाम क्रिकेटर, मंत्री और अधिकारी लेफ्टी हैं, उनकी हत्या कर देनी चाहिए! राम इस बहस से निर्दोष साबित नहीं हो सकता है। ऐसे ब्राह्मणवादियों के खून व भक्ति में बल है तो राम को प्रकट कराएं और वह सत्य को सबके सामने रखे। रही बात साहित्य के द्रोह व दोष की, तो उसे ब्राह्मणवादियों की कट्टरता नहीं छुपा सकती। आसाराम की तपस्या में दोष था तो ब्राह्मणों ने न कोई नाटक किया, न ही कोई ब्राह्मण बालक मरा, न ही किसी भगवान से उसे हत्या की सजा दिलवाई। इस प्रकार ब्राह्मणवादी तो दोमुहां हुआ। तब उसके धर्म को शूद्र क्यों ढोएं? रावण ने भी गलत इस्तेमाल के लिए शिव को प्रसन्न करके तमाम वरदान हासिल किये थे, ब्राह्मणों ने उसके खिलाफ क्यों नहीं कोई नाटक किया था? किया होता तो सीता जैसी देवी का अपहरण और युद्ध का खून-खराबा बचता जो सद्धर्म की पहचान दिलाता। किसी ब्राह्मण को सद्धर्म से तात्पर्य नहीं है, बल्कि उसे उसके वर्चस्व, स्वार्थ तथा अपनी सर्वोच्चता से तात्पर्य है।

 

वाल्मीकि : वाल्मीकि को कोई-कोई ब्राह्मण बताता है तो कोई-कोई शूद्र। “वाल्मीकि रामायण” में स्वयं वाल्मीकि ने श्लोक संख्या 7/93/16, 7?/16/18 व 7/111/11 में लिखा है कि वे प्रचेता के पुत्र हैं। मनुस्मृति में प्रचेता को वशिष्ठ, नारद, पुलस्त्य आदि का भाई बताया गया है। प्रचेता का एक नाम वरुण भी है और वरुण ब्रह्माजी का पुत्र था तथा वाल्मीकि वरुण अर्थात् प्रचेता के 10वें पुत्र थे और उन दिनों के प्रचलन के अनुसार उनके भी दो नाम ‘अग्निशर्मा’ एवं ‘रत्नाकर’ थे। इस प्रकार जन्म से तो वाल्मीकि ब्राह्मण थे। शायद इसीलिए राम ने उन्हें सम्मान दिया और उनके लिखे अनुसार रामायण के राम का अभिनय किया।

 

विवेचना : ब्राह्मणों ने क्यों नहीं अधर्म को पृथ्वी पर आने से रोका? ब्राह्मणधर्म इतना सब कर सकता है तो पाप, अधर्म को कैसे आने दिया। एक शंबूक को मार कर क्या अधर्म नष्ट हो सकता है? क्या राम ने रावण सहित लंका के राक्षसों का वध करके भारत के राक्षसों का खात्मा कर दिया? कोई ब्राह्मण भगवान मेरे सामने आये तो मैं उससे कहूँगा कि तू भारत को ब्राह्मणविहीन कर दे तो यह देश विश्व में सर्वोपरि हो जाए।

अब तो शूद्रों व अछूतों के घर-घर में ब्राह्मण के भगवानों की पूजा-पाठ होती है, सारे धार्मिक आयोजन होते हैं, तब इस अधर्म को ब्राह्मण कैसे रोकेंगे? ब्राह्मण का पुत्र इतना नाज़ुक कि एक शंबूक के तप से मर गया, वहीं लाखों ब्राह्मणों की तपस्या के प्रभाव से उसकी जान नहीं बची। फिर एक शंबूक की हत्या का इतना प्रभाव कि उसको जीवन दान मिल गया। ब्राह्मणों की तपस्या का क्या लाभ? ब्राह्मणों को भयभीत होना चाहिए कि कहीं कलियुग में अधर्म का चौथा पाँव और शूद्रों की तपस्या व भक्ति से भारत के सारे ब्राह्मणों की ही मृत्यु न हो जाए। यदि शंबूक के तप से एक ब्राह्मण बालक मर सकता है, तो ब्राह्मण बताएं कि शूद्र आसाराम की तपस्या व भक्ति से कितने ब्राह्मण मरे? लगता है कि आसाराम जैसे संतों की तपस्या व भक्ति राम क्या हिन्दुओं के सारे भगवानों के लिए धर्म है, इसलिए उसका कुप्रभाव ब्राह्मणों पर नहीं पड़ रहा है। आसाराम की तपस्या से ब्राह्मणों को अवश्य लाभ था। दरअसल, हिन्दूधर्म में सद्धर्म को अधर्म और अधर्म को सद्धर्म की स्वीकारिता है, जिससे अंग्रेज हारे थे और अब तो पूरा विश्व हारा है। “नंगा खुदा से बड़ा” की कहावत ब्राह्मणों पर चरितार्थ होती है, इसमें कोई संशय नहीं है, न ही कोई अतिश्योक्ति।

मूर्ख कहते हैं कि भगवान ने स्वर्ग का अधिकार सिर्फ द्विजों (ब्राह्मणों) को ही दिया है। शंबूक जैसे शूद्र ऋषियों को नहीं। आसाराम के लिए भगवान ने क्या दिया-स्वर्ग या नर्क? फिर क्षत्रिय, वैश्य तपस्या करके कहाँ जायेंगे? ब्राह्मण क्या बाकी वर्णों के मनुष्यों की तरह गंदे मार्ग से नहीं, क्या माँ का पेट चिरवाकर साफ़ मार्ग से जन्म लेते हैं।

मौत के साये में भी असत्य भाषण न करने वाला शंबूक धार्मिक व सदाचारी पुरुष था, परन्तु राम राजा होकर प्रजा का पालक था या संहारक, पापी? सभी तपस्वी देवलोक की प्राप्ति के लिए ही तपस्या करते थे, किसी के लिए जातिबंधन नहीं था, तपस्वी की कोई जाति नहीं होती है, वह केवल ईश्वर का भक्त व किसी भी ब्राह्मण से उच्च होता है। गुरुओं व शास्त्रों की ऐसी शिक्षा की अनदेखी और ब्राह्मण की दासता में मनुष्य की हत्या जैसा घृण्य पाप करते मर्यादापुरुषोत्तम राम को लाज नहीं आई थी! राम को भगवान मानने वाला मानवता तथा ईश्वर को हाज़िर-नाज़िर जानकर या गीता/अपनी माता की सौगंध खाकर कोई ब्राह्मण शंबूक का दोष तो सिद्ध करे। वह मृत्युदंड का अपराधी कैसे? तपस्या अर्थात् ईश्वर का कार्य करने वाला शम्बूक ब्राह्मण से भी ऊपर हो गया था। तब राम किस हैसियत से उस तपस्वी से सबसे पहले उसकी जाति पूछता है? जिस प्रकार मृत्युलोक में किसी भक्त की तपस्या से इंद्र अपने सिंहासन छीन जाने के भय से कांपकर धृष्टता से उसकी तपस्या को भंग करके प्रसन्न होता था, उसी प्रकार किसी शूद्र की भक्ति से अपनी हार समझकर ब्राह्मण उसकी हत्या करके प्रसन्न होते हैं। शूद्र कर्मठ हैं, कर्मवादी हैं, कमाकर खाते हैं, अपनी कमाई पर प्रसन्न होते हैं, वहीं अकर्मण्य ब्राह्मण भाग्यवादी ढोंग का प्रचार-प्रसार करके आम मनुष्यों का शोषण, हत्याचार, यौनाचार, दान-चढ़ौती लेकर, दुःख देकर व अय्याशी करके प्रसन्न होते हैं। लिहाजा ब्राह्मणवाद बिना सोचे-समझे त्याज्य है।

ब्राह्मणवाद का कोई जमीर नहीं है, वजूद भी नहीं है। वर्तमान में ब्राह्मण के जमीर व वजूद को पहचान देने वाला भारत का शूद्र/अतिशूद्र वर्ग है, यही वर्ग “पत्थर में देवता” तथा “कण-कण में भगवान” को चरितार्थ करता है। इसी बल पर ब्राह्मण इतना गिर चुका है कि “धोबी का कुत्ता, न घर का न घाट का” से प्रोन्नत होकर “चमार” के पाँव छू रहा है, भंगी के घर खाता-पीता है, अछूतों के घर जाकर धार्मिक व सामाजिक संस्कारों को संपन्न कराने जाता है, मन्दिरों में अछूतों के हाथ का परसाद व चढ़ौती स्वीकार करता है, क्योंकि शूद्रों/अतिशूद्रों के बिना उसकी रोजी-रोटी न चलने से वह मर जाएगा। इसलिए वह अपने स्वार्थ में जहाँ लाभ देखता है, उसे ही अपना लेता है। मृत्यु के बाद साईं बाबा का महिमामंडन करके उसे सोने-चांदी के सिंहासन पर बिठाया है, जबकि जिंदा रहते मुसलमान फकीर मानकर अपने किसी मंदिर में नहीं घुसने दिया। अपने ही लिखे वेदों, शास्त्रों, पुराणों, काव्यों, साहित्यों के अनुरूप सिद्धांतों को भी नहीं माना, न ही उन पर चला। इसलिए यह आंख बंद समझ लेना चाहिए कि यदि एक लीटर दूध में 10 ग्राम जहर मिलाने पर उसे कोई इसलिए नहीं पी सकता है, कि उसमें दूध की मात्रा जहर से 100 गुना अधिक है, 100वां भाग जहर ही 20 लोगों को मार सकता है। इसके विपरीत ब्राह्मणधर्म में तो दूध है ही नहीं, सारा विष ही विष। फिर तो  ब्राह्मणधर्म दूध की मक्खी की तरह त्याज्य है।

*******इति*******


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शम्बूक शोध


लघु-काव्य 'शम्बूक' में समसामयिकता बोध

निशा शर्मा

निशा शर्मा

अध्यक्ष, हिन्दी विभाग, भारतीदासन गवर्नमेंट कालेज फॉर वीमेन, पाण्डिचेरी, भारत  

रचनाकार समाज का सर्वाधिक संवेदनशील प्राणी होता है । वह निरंतर अपने आस -पास की स्थितियों -परिस्थितियोंघटनाओं-आपदाओं से प्रेरित -प्रभावित होता रहता है। तथा उनसे ही भाव ग्रहण कर अपनी अनुभूति की सार्थकता को सर्जनात्मक अभिव्यक्ति देता है। इस दृष्टि से यदि ‘शम्बूक’ लघु काव्य पर विचार करें तो ज्ञात होता है कि रचनाकार ने कथा- सन्दर्भ भले ही पौराणिक लिया हो लेकिन वह किसी भी दृष्टिकोण से एक पूर्णतया समकालीन रचना है। डॉ जगदीश गुप्त ने सन1970 ई० में ‘पुरावृत्त’ नाम से कुछ ऐसी कविताएँ लिखने की योजना बनायीं- ‘जिनमें प्राचीन तथा पौराणिक प्रसंग को नयी अर्थवत्ता के साथ नए रूप में प्रस्तुत करने का संकल्प निहित था’।1

शम्बूक का आधार भले ही पौराणिक गाथा रहा हो लेकिन परंपरा से उद्भूत इस पौराणिकता में समसामयिक संदर्भों का सर्जनात्मक समावेश कर कवि वर गुप्त ने न केवल अपने कलात्मक कौशल को दर्शाया है वरन समसामयिक चिंतन, मनोवैज्ञानिकता, वर्तमान मानव की बौध्दिक तर्क शीलता का सहज एवं स्वाभाविक चित्रण कर इसके काव्य सौष्ठव को व्यापक एवं उदात्त रूप भी प्रदान किया है इसीलिए आचार्य विश्वनाथ प्रसाद ने हिंदी साहित्य सम्मलेन, प्रयाग के अध्यक्ष पद से दिए गए अभिभाषण में परंपरा के अनुशीलन का तात्पर्य स्पष्ट करते हुए कहा कि – ‘परंपरा का सम्मान प्रसाद तक जो निरंतर था, किन्तु आगे चलकर इससे हटना भी श्रेय मार्ग माना गया। साम्प्रतिक युग में ‘नयी कविता’ के समर्थक डॉ जगदीश गुप्त का परंपरा से सम्बन्ध बहुत गहरा है।परंपरा से उद्भूत इसी पौराणिकता को तत्कालीन परिस्थितियों में गुप्त जी ने एक अस्त्र के रूप में प्रयोग किया। सन 1975 ई० में भारतीय लोकतंत्रात्मक व्यवस्था में आपात काल की घोषणा की गई और अभिव्यक्ति की संवैधानिक स्वतंत्रता पर प्रतिबन्ध लगा दिया था जिससे सत्ता एवं सत्ताधारियों के खिलाफ़ कुछ कहा जाना घातक सिद्ध हो सकता था; ऐसे में एक संवेदनशील रचनाकार सामान्य व्यक्ति के अधिकारों का हनन होते देख कैसे मौन रह सकता था? यही कारण है कि अभिव्यक्ति पर लगे प्रतिबन्ध का विरोध करने के लिए जगदीश गुप्त ने ‘शम्बूक’ के माध्यम से अपनी बात कहने का साहस प्रकट किया और वे इसे स्वीकारते भी हैं –‘जो बात सीधे या किसी अन्य प्रकार से कहना संभव न हो उसे कह सकने में ऐसी कथात्मक संयोजना निश्चित रूप से सहायक होती है3

शम्बूक के कथा सूत्र जहाँ पौराणिक प्रसंगों से जुड़े हुए हैं वहीं  नवीन उद्भावनाओं से भी उद्भूत हैं; इस तथ्य-सत्य का अवलोकन इन बिन्दुओं के अंतर्गत किया जा सकता है ---

प्राचीन सूत्र --   रचनाकार डॉ गुप्त ने फादर कामिल बुल्के द्वारा घोषित उत्तरकाण्ड के प्रक्षिप्त अंश (सर्ग 72-82) में वर्णित शम्बूक-वध की कथा से प्रेरणा ग्रहण की। ‘कवि-कथन के अंतर्गत इसका उल्लेख भी हुआ है –‘देश-विदेश तक फ़ैली रामकथा में शम्बूक का प्रश्न कहाँ किस रूप में आया है, इसकी सुव्यवस्थित सूचना डॉ फादर कामिल बुल्के ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘रामायण में कई अनुच्छेदों (618 तथा 628 -32) में दे दी है। साथ ही उन्होंने वाल्मीकि रामायण के समस्त उत्तर कांड को प्रक्षिप्त घोषित किया है। शम्बूक -वध भी उसी के प्रक्षिप्त सर्गों (72-82) में संभवतः: सर्वप्रथम वर्णित हुआ है आगे यह कथा ‘पद्मपुराण’ के सृष्टि खंड और उत्तर खंड, महाभारत के शांति-पर्व (अध्याय 149), रघुवंश के पन्द्रहवें सर्गउत्तर रामचरित के द्वितीय अंक तथा आनंद-रामायण के भी अनेक अध्यायों में मिलती है ।3

इनके अतिरिक्त डॉ जगदीश गुप्त ने शम्बूक के इन कथा सूत्रों के अतिरिक्त ‘सर्पदंश’ का वृत्त फादर कामिल बुल्के द्वारा संकेतित कन्नड़ भाषा के आधुनिक कवि कुवेम्पु के ‘शूद्र तपस्वी’ नमक काव्य से भी ग्रहण किया है

नवीन कथा सूत्र   --  भले ही डॉ गुप्त ने वाल्मीकि रामायण, पद्मपुराण, महाभारत, रघुवंश, आनंद रामायण के कथासूत्रों के संदर्भों को अपनी रचना का प्रतिपाद्य विषय बनाया हो लेकिन इन सूत्रों के माध्यम से बड़े विश्वसनीय ढंग से समाज- सह्रदय के सम्मुख इन चरित्रों को इस ढंग से रखा कि वह अपनी पौराणिक इयत्ता को छोड़कर सार्वकालिक, सार्वभौमिक और सार्वजनिक हो गया। कवि ने अपनी सर्जनात्मक प्रतिभा के बल पर अनेक नवीन कथा-सूत्रों की उद्भावना भी की है जिनके अंतर्गत सर्पदंश, नारद द्वारा वशिष्ठ से मार्ग में भेंट और भावी घटनाओं की सूचना, वन-देवता, दण्डक वन में शिलाचित्रों का अस्तित्व, इंद्रजाल के रूप में दावाग्नि की व्याप्ति और उसमें राम की क्रोधाग्नि का आभास, अग्नि में सोयी सीता के प्रतिबिम्ब का प्राकट्य, शम्बूक के पूर्व जीवन के समस्त प्रसंग, प्रेत द्वारा ब्राह्मण-पुत्र के पुनर्जीवन के यथार्थ कारण का संकेत तथा ऐसी ही अन्य अनेक उद्भावनाएँ सर्जित की हैं।

उपरोक्त सूत्रों-सन्दर्भों के आधार पर कवि की समसामयिक चेतना को निम्न बिन्दुओं में सुरेखित किया जा सकता है –
·         विद्रोह का स्वर
·         स्वत्व की प्रतिष्ठा
·         मानवतावादी दृष्टिकोण
·         यथार्थ चिंतन
·         आत्मोत्थान : जन्मसिद्ध अधिकार

1.   विद्रोह का स्वर – व्यक्ति में अपार शक्ति है, अपरम्पार सामर्थ्य है। व्यक्ति ही सारी शक्तियों और सन्दर्भों के रूपायन का केंद्र होता है, व्यक्ति की सत्ता को अस्वीकार करना इतिहास को अस्वीकार करना है और यही अस्वीकार, विद्रोह का स्वर बनकर जब उभरता है तो उसमें बड़ी से बड़ी सत्ता की जड़ें हिलानी लगती हैं –
                      जो व्यवस्था
                      व्यक्ति के सत्कर्म को भी
                      मान ले अपराध
                      जो व्यवस्था फूल को खिलने न दे
                      निर्बाध जो व्यवस्था
                      वर्ग – सीमित स्वार्थ से हो ग्रस्त
                      वह विषम घातक व्यवस्था
                      शीघ्र ही हो अस्त 4
                                          यही नहीं, वह सीधे शासक श्रीराम से उनके कर्त्तव्य-अकर्त्तव्य के भी प्रश्न करता है –
        राम तुम राजा बने किस हेतु हो? व्यष्टि और समष्टि मन के सेतु हो?
        शूद्र घाती बने करके क्रोध। क्या तुम्हारा यही समता बोध?5

2.  स्वत्व की प्रतिष्ठा – आज मनुष्य के सामने पहचान बनाने का बहुत बड़ा संकट है। वह संसार की इस अपार भीड़ में खो-सा गया है इसीलिए वह अपनी पहचान, अपना स्वत्व बनाए रखने की निरंतर कोशिश करता रहता है –
                 शूद्र हूँ मैं
                    मानव समाज में
                    मेरा अस्तित्व बहुत अल्प है
                    फिर भी
                    जाने क्यों मेरे मन में
                    युग-युग से परिभाषित
                    व्यक्ति के चरित्र को
                    मानव भविष्य को
                    नए सन्दर्भों में
                    जानने-समझने का आधार संकल्प है 6
                       x          x          x
                    मेधा से मुझको
                    पराजित नहीं कर पाए
                    केवल व्यवस्था के तर्क की
                    पैनायी धार से
                    काटकर मेरा अस्तित्व
                    वध की क्रूर भाषा में
                    कर दिया मेरी शंकाओं का समाधान
                    लेकिन निरुत्तर मैं नहीं हुआवही हुए 7 

3.  भूमि पुत्र की सार्थकता –    गुप्त जी नए मानवीय मूल्यों के पक्षधर थे इसीलिए वे एक वर्ण रहित समाज की कल्पना करते हैं जहाँ न कोई ब्राह्मण है, न शूद्र वे तो सब भूमि पुत्र हैं, धरती पुत्र हैं। उनका अभिमत है – ‘वर्ण-व्यवस्था का मानवता –विरोधी जड़ रूप अब किसी भी जागरूक तथा प्रगतिशील समाज द्वारा स्वीकृत नहीं कराया जा सकता। कृषि – सभ्यता की पृष्ठभूमि में उपजी हुई वस्तु को यन्त्र-युग एवं अणु-युग पर किसी प्रकार आरोपित नहीं किया जा सकता।8 मेरी दृष्टि में शम्बूक ही नहीं, सारे मनुष्य भूमि पुत्र कहलवाकर नयी सार्थकता पाने के अधिकारी हैं ...........आधुनिक युग की प्रजातांत्रिक समाजवादी विचारधारा इसी बिंदु पर प्राचीन भारतीय सांस्कृतिक परम्परा से मेल खा जाती है। दोनों की उद्देश्य गत एकता, एक कवि की दृष्टि में उपेक्षणीय नहीं है9 ---
                      मैं धरा का पुत्र हूँ
                      तुम ब्रह्म के अवतार
                      एक खाई है
                      हमारे बीच यह दुर्वार10   

4.  समसामयिक यथार्थ चिंतन –   पौराणिक कथा-सूत्रों के माध्यम से डॉ गुप्त ने समसामयिक सन्दर्भों को स्वर देने का प्रयास किया है सन ’75 में लगे आपात काल ने भारतीय संविधान द्वारा प्रदत्त अधिकार अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर प्रतिबन्ध लग जाने का समसामयिक यथार्थ इस लघु काव्य में चित्रित हुआ है। शम्बूक के माध्यम से नए मानव-मूल्यों की स्थापना, वर्ण-रहित समाज की कल्पना आदि कुछ ऐसे घटक थे जो नयी कविता के आन्दोलन की गहरी आस्था का प्रतीक बनकर उभरे थे जिस समाजवादी समाज की परिकल्पना जवाहर लाल नेहरू ने की थी वास्तविकता उसके ठीक विपरीत थी सत्ता का एकाधिकार, आम जन की निस्सहायता, अभिव्यक्ति पर लगे प्रतिबन्ध ने तत्कालीन युग जीवन के यथार्थ को चित्रित किया। वर्तमान सत्ताधारियों को संबोधित करते हुए वे कहते हैं कि –
                        जड़ समाज मनुष्य की रचना नहीं है
                        गति रहित जीवन कभी अपना नहीं है
                        कौन शासक भूल अपनी मानता
                        सदा अपराधी प्रजा को मानता 11
ऐसी व्यवस्था का वह विरोधी है जो व्यवस्था उससे उसके मौलिक अधिकारों को छीन ले
उसके लिए तो ---
                         लोक नायक वही
                         जो विश्वास अर्जित कर सके 
                         प्रत्येक का
                         और जो सारी प्रजा के
                         चित्त का प्रतिरूप हो 12

5.  आत्मोथान: जन्मसिद्ध अधिकार --  लोकतंत्र में सभी को समान संवैधानिक अधिकार प्राप्त हैं और यही नयी कविता के दर्शन की मौलिक धारा भी है। स्वतन्त्र देश का स्वतन्त्र नागरिक अपने ढंग से आत्मोथान कर सकता है मनुष्य- मनुष्य के बीच कोई भेदभाव स्वीकार्य नहीं है –
                          सभी पृथ्वी पुत्र है तब जन्म से
                          क्यों भेद माना जाए
                          जन्मजात समानता के तथ्य पर
                          क्यों खेद माना जाए 13
इस भेद- बुद्धि का दंश शम्बूक ने भी सहा था , इसीलिए वह कहता है –
                          नीचे गिरे होने का दुःख झेल
                          मैंने भी चाहा था
                          इसी भाँति जीवन में 
                          अपनी स्वाभाविक गति
                          पा लेना 14
                                 सार रूप में अवधेय है कि शम्बूक में रचनाकार ने मानवता वादी, यथार्थ वादी दृष्टि से पुराण कथा का आधार लेकर नयी समसामयिक दृष्टि और सरोकारों से जोड़ मानव को मानव के स्तर पर मानवीय मूल्यों में विश्लेषित करने का सुप्रयास किया है डॉ गुप्त भूमिका के अंत में कहते हैं –
               मेरी कृति में मनुष्यता से श्रेष्ठ नहीं कुछ15 
                     यही नहीं, एक सभ्य, सुसंस्कृत समाज का डॉ गुप्त जी के मन में एक स्वप्न है जो सभी समस्याओं का निदान कर पाने में समर्थ होगा –
                       है समाज वही सुसंस्कृत
                       जहाँ होता व्यक्ति का सम्मान
                       कर सकेगा वही
                       मानव की समस्या का
                       सटीक निदान 16                  
             =======================================
सन्दर्भ
1.  शम्बूक, डॉ गुप्त, पृष्ठ 8
2.  हिन्दी साहित्य की समस्याएं, रघुवंश, पृष्ठ 345
3.  शम्बूक, डॉ गुप्त, पृष्ठ 8
4.  वही, पृष्ठ 45
5.  वही, पृष्ठ 51
6.  वही, पृष्ठ 83-84
7.  वही, पृष्ठ 100
8.  वही, पृष्ठ 13
9.  वही, पृष्ठ 14-15
10. वही, पृष्ठ 76
11. वही, पृष्ठ 51
12. वही, पृष्ठ 45
13. वही, पृष्ठ 48
14. वही, पृष्ठ 83
15. वही, पृष्ठ 15
16. वही, पृष्ठ 97 

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