** ISSN 2475-1359 **
* Bilingual monthly journal published from Pittsburgh, USA :: पिट्सबर्ग अमेरिका से प्रकाशित द्वैभाषिक मासिक *
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लघु-काव्य 'शम्बूक' में समसामयिकता बोध
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निशा शर्मा |
- निशा शर्मा
अध्यक्ष, हिन्दी विभाग, भारतीदासन गवर्नमेंट कालेज फॉर वीमेन, पाण्डिचेरी, भारतरचनाकार समाज का सर्वाधिक संवेदनशील प्राणी होता है । वह निरंतर अपने आस -पास की स्थितियों -परिस्थितियों, घटनाओं-आपदाओं से प्रेरित -प्रभावित होता रहता है। तथा उनसे ही भाव ग्रहण कर अपनी अनुभूति की सार्थकता को सर्जनात्मक अभिव्यक्ति देता है। इस दृष्टि से यदि ‘शम्बूक’ लघु काव्य पर विचार करें तो ज्ञात होता है कि रचनाकार ने कथा- सन्दर्भ भले ही पौराणिक लिया हो लेकिन वह किसी भी दृष्टिकोण से एक पूर्णतया समकालीन रचना है। डॉ जगदीश गुप्त ने सन1970 ई० में ‘पुरावृत्त’ नाम से कुछ ऐसी कविताएँ लिखने की योजना बनायीं- ‘जिनमें प्राचीन तथा पौराणिक प्रसंग को नयी अर्थवत्ता के साथ नए रूप में प्रस्तुत करने का संकल्प निहित था’।1
शम्बूक का आधार भले ही पौराणिक गाथा रहा हो लेकिन परंपरा से उद्भूत इस पौराणिकता में समसामयिक संदर्भों का सर्जनात्मक समावेश कर कवि वर गुप्त ने न केवल अपने कलात्मक कौशल को दर्शाया है वरन समसामयिक चिंतन, मनोवैज्ञानिकता, वर्तमान मानव की बौध्दिक तर्क शीलता का सहज एवं स्वाभाविक चित्रण कर इसके काव्य सौष्ठव को व्यापक एवं उदात्त रूप भी प्रदान किया है इसीलिए आचार्य विश्वनाथ प्रसाद ने हिंदी साहित्य सम्मलेन, प्रयाग के अध्यक्ष पद से दिए गए अभिभाषण में परंपरा के अनुशीलन का तात्पर्य स्पष्ट करते हुए कहा कि – ‘परंपरा का सम्मान प्रसाद तक जो निरंतर था, किन्तु आगे चलकर इससे हटना भी श्रेय मार्ग माना गया। साम्प्रतिक युग में ‘नयी कविता’ के समर्थक डॉ जगदीश गुप्त का परंपरा से सम्बन्ध बहुत गहरा है।2 परंपरा से उद्भूत इसी पौराणिकता को तत्कालीन परिस्थितियों में गुप्त जी ने एक अस्त्र के रूप में प्रयोग किया। सन 1975 ई० में भारतीय लोकतंत्रात्मक व्यवस्था में आपात काल की घोषणा की गई और अभिव्यक्ति की संवैधानिक स्वतंत्रता पर प्रतिबन्ध लगा दिया था जिससे सत्ता एवं सत्ताधारियों के खिलाफ़ कुछ कहा जाना घातक सिद्ध हो सकता था; ऐसे में एक संवेदनशील रचनाकार सामान्य व्यक्ति के अधिकारों का हनन होते देख कैसे मौन रह सकता था? यही कारण है कि अभिव्यक्ति पर लगे प्रतिबन्ध का विरोध करने के लिए जगदीश गुप्त ने ‘शम्बूक’ के माध्यम से अपनी बात कहने का साहस प्रकट किया और वे इसे स्वीकारते भी हैं –‘जो बात सीधे या किसी अन्य प्रकार से कहना संभव न हो उसे कह सकने में ऐसी कथात्मक संयोजना निश्चित रूप से सहायक होती है’।3
शम्बूक के कथा सूत्र जहाँ पौराणिक प्रसंगों से जुड़े हुए हैं वहीं नवीन उद्भावनाओं से भी उद्भूत हैं; इस तथ्य-सत्य का अवलोकन इन बिन्दुओं के अंतर्गत किया जा सकता है ---
प्राचीन सूत्र -- रचनाकार डॉ गुप्त ने फादर कामिल बुल्के द्वारा घोषित उत्तरकाण्ड के प्रक्षिप्त अंश (सर्ग 72-82) में वर्णित शम्बूक-वध की कथा से प्रेरणा ग्रहण की। ‘कवि-कथन’ के अंतर्गत इसका उल्लेख भी हुआ है –‘देश-विदेश तक फ़ैली रामकथा में शम्बूक का प्रश्न कहाँ किस रूप में आया है, इसकी सुव्यवस्थित सूचना डॉ फादर कामिल बुल्के ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘रामायण’ में कई अनुच्छेदों (618 तथा 628 -32) में दे दी है। साथ ही उन्होंने वाल्मीकि रामायण के समस्त उत्तर कांड को प्रक्षिप्त घोषित किया है। शम्बूक -वध भी उसी के प्रक्षिप्त सर्गों (72-82) में संभवतः: सर्वप्रथम वर्णित हुआ है आगे यह कथा ‘पद्मपुराण’ के सृष्टि खंड और उत्तर खंड, महाभारत के शांति-पर्व (अध्याय 149), रघुवंश के पन्द्रहवें सर्ग, उत्तर रामचरित के द्वितीय अंक तथा आनंद-रामायण के भी अनेक अध्यायों में मिलती है ।3
इनके अतिरिक्त डॉ जगदीश गुप्त ने शम्बूक के इन कथा सूत्रों के अतिरिक्त ‘सर्पदंश’ का वृत्त फादर कामिल बुल्के द्वारा संकेतित कन्नड़ भाषा के आधुनिक कवि कुवेम्पु के ‘शूद्र तपस्वी’ नमक काव्य से भी ग्रहण किया है
नवीन कथा सूत्र -- भले ही डॉ गुप्त ने वाल्मीकि रामायण, पद्मपुराण, महाभारत, रघुवंश, आनंद रामायण के कथासूत्रों के संदर्भों को अपनी रचना का प्रतिपाद्य विषय बनाया हो लेकिन इन सूत्रों के माध्यम से बड़े विश्वसनीय ढंग से समाज- सह्रदय के सम्मुख इन चरित्रों को इस ढंग से रखा कि वह अपनी पौराणिक इयत्ता को छोड़कर सार्वकालिक, सार्वभौमिक और सार्वजनिक हो गया। कवि ने अपनी सर्जनात्मक प्रतिभा के बल पर अनेक नवीन कथा-सूत्रों की उद्भावना भी की है जिनके अंतर्गत सर्पदंश, नारद द्वारा वशिष्ठ से मार्ग में भेंट और भावी घटनाओं की सूचना, वन-देवता, दण्डक वन में शिलाचित्रों का अस्तित्व, इंद्रजाल के रूप में दावाग्नि की व्याप्ति और उसमें राम की क्रोधाग्नि का आभास, अग्नि में सोयी सीता के प्रतिबिम्ब का प्राकट्य, शम्बूक के पूर्व जीवन के समस्त प्रसंग, प्रेत द्वारा ब्राह्मण-पुत्र के पुनर्जीवन के यथार्थ कारण का संकेत तथा ऐसी ही अन्य अनेक उद्भावनाएँ सर्जित की हैं।
उपरोक्त सूत्रों-सन्दर्भों के आधार पर कवि की समसामयिक चेतना को निम्न बिन्दुओं में सुरेखित किया जा सकता है –
· विद्रोह का स्वर
· स्वत्व की प्रतिष्ठा
· मानवतावादी दृष्टिकोण
· यथार्थ चिंतन
· आत्मोत्थान : जन्मसिद्ध अधिकार
1. विद्रोह का स्वर – व्यक्ति में अपार शक्ति है, अपरम्पार सामर्थ्य है। व्यक्ति ही सारी शक्तियों और सन्दर्भों के रूपायन का केंद्र होता है, व्यक्ति की सत्ता को अस्वीकार करना इतिहास को अस्वीकार करना है और यही अस्वीकार, विद्रोह का स्वर बनकर जब उभरता है तो उसमें बड़ी से बड़ी सत्ता की जड़ें हिलानी लगती हैं –
जो व्यवस्था
व्यक्ति के सत्कर्म को भी
मान ले अपराध
जो व्यवस्था फूल को खिलने न दे
निर्बाध जो व्यवस्था
वर्ग – सीमित स्वार्थ से हो ग्रस्त
वह विषम घातक व्यवस्था
शीघ्र ही हो अस्त 4
यही नहीं, वह सीधे शासक श्रीराम से उनके कर्त्तव्य-अकर्त्तव्य के भी प्रश्न करता है –
राम तुम राजा बने किस हेतु हो? व्यष्टि और समष्टि मन के सेतु हो?
शूद्र घाती बने करके क्रोध। क्या तुम्हारा यही समता बोध?5
2. स्वत्व की प्रतिष्ठा – आज मनुष्य के सामने पहचान बनाने का बहुत बड़ा संकट है। वह संसार की इस अपार भीड़ में खो-सा गया है इसीलिए वह अपनी पहचान, अपना स्वत्व बनाए रखने की निरंतर कोशिश करता रहता है –
शूद्र हूँ मैं
मानव समाज में
मेरा अस्तित्व बहुत अल्प है
फिर भी
जाने क्यों मेरे मन में
युग-युग से परिभाषित
व्यक्ति के चरित्र को
मानव भविष्य को
नए सन्दर्भों में
जानने-समझने का आधार संकल्प है 6
x x x
मेधा से मुझको
पराजित नहीं कर पाए
केवल व्यवस्था के तर्क की
पैनायी धार से
काटकर मेरा अस्तित्व
वध की क्रूर भाषा में
कर दिया मेरी शंकाओं का समाधान
लेकिन निरुत्तर मैं नहीं हुआ, वही हुए 7
3. भूमि पुत्र की सार्थकता – गुप्त जी नए मानवीय मूल्यों के पक्षधर थे इसीलिए वे एक वर्ण रहित समाज की कल्पना करते हैं जहाँ न कोई ब्राह्मण है, न शूद्र वे तो सब भूमि पुत्र हैं, धरती पुत्र हैं। उनका अभिमत है – ‘वर्ण-व्यवस्था का मानवता –विरोधी जड़ रूप अब किसी भी जागरूक तथा प्रगतिशील समाज द्वारा स्वीकृत नहीं कराया जा सकता। कृषि – सभ्यता की पृष्ठभूमि में उपजी हुई वस्तु को यन्त्र-युग एवं अणु-युग पर किसी प्रकार आरोपित नहीं किया जा सकता।8 मेरी दृष्टि में शम्बूक ही नहीं, सारे मनुष्य भूमि पुत्र कहलवाकर नयी सार्थकता पाने के अधिकारी हैं ...........आधुनिक युग की प्रजातांत्रिक समाजवादी विचारधारा इसी बिंदु पर प्राचीन भारतीय सांस्कृतिक परम्परा से मेल खा जाती है। दोनों की उद्देश्य गत एकता, एक कवि की दृष्टि में उपेक्षणीय नहीं है9 ---
मैं धरा का पुत्र हूँ
तुम ब्रह्म के अवतार
एक खाई है
हमारे बीच यह दुर्वार10
4. समसामयिक यथार्थ चिंतन – पौराणिक कथा-सूत्रों के माध्यम से डॉ गुप्त ने समसामयिक सन्दर्भों को स्वर देने का प्रयास किया है सन ’75 में लगे आपात काल ने भारतीय संविधान द्वारा प्रदत्त अधिकार अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर प्रतिबन्ध लग जाने का समसामयिक यथार्थ इस लघु काव्य में चित्रित हुआ है। शम्बूक के माध्यम से नए मानव-मूल्यों की स्थापना, वर्ण-रहित समाज की कल्पना आदि कुछ ऐसे घटक थे जो नयी कविता के आन्दोलन की गहरी आस्था का प्रतीक बनकर उभरे थे जिस समाजवादी समाज की परिकल्पना जवाहर लाल नेहरू ने की थी वास्तविकता उसके ठीक विपरीत थी सत्ता का एकाधिकार, आम जन की निस्सहायता, अभिव्यक्ति पर लगे प्रतिबन्ध ने तत्कालीन युग जीवन के यथार्थ को चित्रित किया। वर्तमान सत्ताधारियों को संबोधित करते हुए वे कहते हैं कि –
जड़ समाज मनुष्य की रचना नहीं है
गति रहित जीवन कभी अपना नहीं है
कौन शासक भूल अपनी मानता
सदा अपराधी प्रजा को मानता 11
ऐसी व्यवस्था का वह विरोधी है जो व्यवस्था उससे उसके मौलिक अधिकारों को छीन ले
उसके लिए तो ---
लोक नायक वही
जो विश्वास अर्जित कर सके
प्रत्येक का
और जो सारी प्रजा के
चित्त का प्रतिरूप हो 12
5. आत्मोथान: जन्मसिद्ध अधिकार -- लोकतंत्र में सभी को समान संवैधानिक अधिकार प्राप्त हैं और यही नयी कविता के दर्शन की मौलिक धारा भी है। स्वतन्त्र देश का स्वतन्त्र नागरिक अपने ढंग से आत्मोथान कर सकता है मनुष्य- मनुष्य के बीच कोई भेदभाव स्वीकार्य नहीं है –
सभी पृथ्वी पुत्र है तब जन्म से
क्यों भेद माना जाए
जन्मजात समानता के तथ्य पर
क्यों खेद माना जाए 13
इस भेद- बुद्धि का दंश शम्बूक ने भी सहा था , इसीलिए वह कहता है –
नीचे गिरे होने का दुःख झेल
मैंने भी चाहा था
इसी भाँति जीवन में
अपनी स्वाभाविक गति
पा लेना 14
सार रूप में अवधेय है कि शम्बूक में रचनाकार ने मानवता वादी, यथार्थ वादी दृष्टि से पुराण कथा का आधार लेकर नयी समसामयिक दृष्टि और सरोकारों से जोड़ मानव को मानव के स्तर पर मानवीय मूल्यों में विश्लेषित करने का सुप्रयास किया है डॉ गुप्त भूमिका के अंत में कहते हैं –
मेरी कृति में मनुष्यता से श्रेष्ठ नहीं कुछ15
यही नहीं, एक सभ्य, सुसंस्कृत समाज का डॉ गुप्त जी के मन में एक स्वप्न है जो सभी समस्याओं का निदान कर पाने में समर्थ होगा –
है समाज वही सुसंस्कृत
जहाँ होता व्यक्ति का सम्मान
कर सकेगा वही
मानव की समस्या का
सटीक निदान 16
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सन्दर्भ
1. शम्बूक, डॉ गुप्त, पृष्ठ 8
2. हिन्दी साहित्य की समस्याएं, रघुवंश, पृष्ठ 345
3. शम्बूक, डॉ गुप्त, पृष्ठ 8
4. वही, पृष्ठ 45
5. वही, पृष्ठ 51
6. वही, पृष्ठ 83-84
7. वही, पृष्ठ 100
8. वही, पृष्ठ 13
9. वही, पृष्ठ 14-15
10. वही, पृष्ठ 76
11. वही, पृष्ठ 51
12. वही, पृष्ठ 45
13. वही, पृष्ठ 48
14. वही, पृष्ठ 83
15. वही, पृष्ठ 15
16. वही, पृष्ठ 97
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