Tuesday, 17 November 2020

डर

नाथ जब गुजरते हैं नत्थू की गलियों से
मूँछों पर ताव आवाज में हनक होती है।
नत्थू भटकता है जब नाथ की गलियों में
चहरे पे डर, स्वर में गिड़गिड़ाहट होती है।
नाथ जब गुजरते हैं नत्थू की गलियों से
हाथों में लाठी, पैरों में पन्हैंया होती हैं।
नत्थू जब गुजरता है नाथ की गलियों से
हाथों में चप्पल, कांपते पैर नंगे होते हैं।
नाथ की गलियों से गुजरता जब नत्थू
हाथ गही गईं चप्पलें पीठ बचा लेती हैं।
सोते-जागते, उठते-बैठते, आते-जाते 
नत्थू को डर लोकनाध का नहीं, नाथ का है।
नंगे, उतारे, भूख के टूटे असहाय हों जो
स्वघोषित नाथों को वो नत्थू पसन्द हैं।
नहीं हैं पसन्द उन्हें उनकी नकेलमुक्ति,
नहीं पसन्द है उन्हें मुक्तिदाता हो कोई।
गर साहस खड़े होने का करे कोई तो
वो द्रोही है, निर्मम सजा का पात्र है।
पिट रहा है, लुट रहा है, मर रहा है,
हो चला पतंगा है स्वाभिमानदीप का।



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