Thursday, 1 December 2022

समास - नरेश बत्रा जी

शब्दयात्रा- ५०
समास- कम्पाउण्ड Compound
सम् पूर्वक असु क्षेपणे (सि.कौ.दिवादि 1209) धातु से भाव में घञ् प्रत्यय होकर समास शब्द निष्पन्न होता है। संक्षेप या मिलाने को समास कहते हैं। यह शब्द संस्कृत व्याकरण में योगरूढ़ या पारिभाषिक माना गया है अतः प्रत्येक संक्षेप को समास नहीं कह सकते, अपितु जब दो या दो से अधिक पद मिलकर एक पद हो जाते हैं तो उसे समास कहते हैं। 
समास हो जाने पर उन समस्यमान पदों की प्रायः अपनी-अपनी विभक्तियां लुप्त हो जाती हैं, परन्तु उनका अर्थ तो रहता ही है, पुनः नये सिरे से समास को एक शब्द या प्रातिपदिक मान कर नई विभक्ति आती है, तब वह समूचा नया पद बन जाता है। स्वर प्रक्रिया में तब उसे एकपद समझकर ही स्वर लगाया जाता है। समास का उदाहरण यथा गंगायाः जलम् गंगाजलम् यहां गंगायाः तथा जलम् यह दो पद मिलकर गंगाजलम् एक पद बन गया है। समास का लक्षण संस्कृत वैयाकरणों ने सामान्यतः इस प्रकार किया है-
 विभक्तिर्लुप्यते यत्र तदर्थस्तु प्रतीयते।
 पदानामेकपद्यं च समासः सोऽभिधीयते।। 
जहां विभक्ति का लोप हो जाता है, पर उसके अर्थ का बोध हो रहा होता है और जहां अनेक पद मिलकर एक पद के रूप में परिणत हो जाते हैं, उसे समास कहा जाता है।
पाणिनि के प्राक्कडारात्समासः (अष्टाध्यायी 2.1.3.) सूत्र के अनुसार समास एक अन्वर्थ संज्ञा है। इसकी व्युत्पत्ति है- समस्यते एकीक्रियते प्रयोक्तृभिरिति समासः। यहां अकर्तरि च कारके संज्ञायाम् (अष्टाध्यायी 3.3.19) सूत्र द्वारा कर्म में घञ् प्रत्यय किया गया है।
कुछ आचार्य 'समास' शब्द में बहुल के कारण कर्तरि घञ् प्रत्यय स्वीकार कर समस्यते एकत्रीभवति- एकपदीभवति ऐसा व्याख्यान करते हैं। उनके मतानुसार 'समस्यते' में कर्तरि लट् होकर उपसर्गादस्त्यूह्योर्वेति वाच्यम् (वार्तिक 920) वार्तिक से आत्मनेपद हो गया है।
 समास शब्द का अक्षरार्थ लघुसिद्धान्तकौमुदीकार आचार्य वरदराज ने बताया है - तत्र समसनम् समासः अर्थात् एक साथ या पास पास रखना समास कहलाता है। मुख्य तत्व समास में यही होता है, इसके आगे जो होता है, वह इसी से ही प्रभावित एवं प्रेरित होता है। इस तत्व को महत्व न केवल संस्कृत में ही, अंग्रेजी में भी दिया गया है। संस्कृत के समास शब्द के सदृश अंग्रेजी में कम्पाउण्ड शब्द है, उस का भी यही अर्थ है। अंग्रेजी का कम्पाउण्ड शब्द लातिन भाषा के कॉम् पोनेरे शब्द से बना है। कॉम् शब्द संस्कृत के सम् शब्द का समानान्तर शब्द है। तालव्यीकरण सिद्धान्त के अनुसार जहां पाश्चात्य भाषाओं में कण्ठ्य ध्वनि होती है, वहां भारतीय भाषाओं में तालव्य ध्वनि का प्रयोग होता है। कॉम् का अर्थ वही है जो सम् का, अर्थात् एक साथ, पास पास। पोनेरे का अर्थ होता है- असनम्, रखना। दोनों ही शब्द समास तथा कम्पाउण्ड एक ही प्रकार के चिन्तन का प्रतिनिधित्व करते हैं।
 जब दो या दो से अधिक शब्द पास पास रख दिए जाते हैं तो संस्कृत भाषा के सन्दर्भ में पहला परिवर्तन उसमें यह आता है कि वे अपनी अपनी स्वतन्त्र सत्ता खो बैठते हैं। जिस विभक्ति के कारण उनकी पद संज्ञा बनी थी, उसी का लोप हो जाता है। भिन्न-भिन्न पदों के एक साथ मिल जाने पर उनके अपने अपने पदत्व के स्थान पर उन सभी का एक अलग ही पद के रूप में उदय होता है। इसी बात को किसी आचार्य ने इस श्लोक में बताया है-
पदानां लुप्यते यत्र प्रायः स्वाः स्वाः विभक्तयः।
पुनरेकपदीभावः समास उच्यते तदा।।
समास शब्द का एक अर्थ संक्षेप भी है। यथा-
एषा धर्मस्य वो योनिः समासेन प्रकीर्तिता। मनुस्मृति 2.25.
सर्वेषान्तु विदित्वैषां समासेन चिकीर्षितम् । स्थापयेत् तत्र तद्वंश्यं कुर्य्याच्च समयक्रियाम् ॥ मनुस्मृति 7.202. 
शिवः केशवः इसके स्थान पर जब शिवकेशवौ कहा जाता है, तब यहां इतना तो स्पष्ट ही है कि यह दो विभक्तियों का प्रयोग न होकर एक विभक्ति का प्रयोग हुआ है। कदाचित् यह संक्षेप की भावना ही समस्त पदों के प्रयोग में प्रयोजिका है। लोकोक्ति प्रसिद्ध ही है- संक्षेपरुचिर्हि लोकः।
यहां यह शंका की जा सकती है कि अलुक् समास में तथा इवेन समासो विभक्त्यलोपश्च आदि वार्त्तिक द्वारा किये जाने वाले समास में जहां अन्तर्वर्तिनी विभक्ति का लुक् ( लोप) होता ही नहीं, वहां कैसा संक्षेप? और फिर वहां समासत्व का प्रयोजन ही क्या? समास होने पर वागर्थाविव एक पद होगा, समास न होने पर वागर्थौ और इव दो पद होंगे। किञ्च समास होने पर इसका विशेष उपयोग वैदिक भाषा में ही है, लौकिक संस्कृत में नहीं। अत एव सिद्धान्त कौमुदी में जीमूतस्येव यह वेद का उदाहरण दिया गया है, लौकिक संस्कृत का नहीं। वस्तुतः सिद्धान्त कौमुदी में यह अधूरा वार्तिक दिया गया है, पूरा वार्त्तिक इस प्रकार है- 
इवेन समासो विभक्त्यलोपः पूर्वपदप्रकृतिस्वरत्वं च। यहां ध्यातव्य है कि इव अव्यय का समास होने पर इसे अव्ययीभाव समास नहीं कह सकते क्योंकि वार्त्तिकपठित इव में तृतीया विभक्ति है, प्रथमा नहीं। प्रथमा विभक्ति होने पर इस इव की उपसर्जन संज्ञा होकर पूर्वनिपात हो जाता, अब वागर्थौ इस प्रथमान्त सुबन्त की उपसर्जन संज्ञा होकर, इसका ही पूर्व निपात होने से वागर्थाविव प्रयोग बनता है। अतः वागर्थौ इस पूर्वपद की प्रकृति के अनुकूल पूरे समास में एक स्वर होगा अर्थात् पूरे समस्त पद का केवल एक ही अच् उदात्त, शेष भाग उसका सामान्यतया सब का सब अनुदात्तं पदमेकवर्जम् (अष्टाध्यायी 6.1.152) इस नियम के अनुसार अनुदात्त होगा। समास न होने पर प्रत्येक पद पर अपना-अपना अलग-अलग स्वर उदात्त होगा। अतः सिद्धान्त कौमुदीकार ने इस वार्तिक को अव्ययीभाव समास के प्रकरण में भी नहीं रखा। इसी कारण काशिका में समास के प्रयोजनों में कहा गया है- ऐकपद्यमैकस्वर्यञ्च समासत्वाद् भवति। (काशिका 2.1.25, 27)
 अलुक् को भी समास मानने से उसके एकपदत्व के कारण तद्धितोत्पत्ति में आदि अच् को वृद्धि सुलभ हो जाती है। यथा युधिष्ठिरस्येदं यौधिष्ठिरं राज्यम् यहां आदिवृद्धि एक पदत्व के कारण होती है।
संस्कृत वैयाकरण आचार्य वरदराज ने समास पांच प्रकार का बताया है तथा पांचों की परिभाषा भी अपने ग्रन्थ लघुसिद्धान्तकौमुदी में प्रस्तुत की है। तद्यथा-
समासः पञ्चधा। स च विशेषसञ्ज्ञाविनिर्मुक्तः केवलसमासः प्रथमः। प्रायेण पूर्वपदार्थप्रधानोऽव्ययीभावो द्वितीयः। प्रायेणोत्तरपदार्थप्रधानस्तत्पुरुषस्तृतीयः। तत्पुरुषभेदः कर्मधारयः। कर्मधारयभेदो द्विगुः। प्रायेणान्यपदार्थप्रधानो बहुव्रीहिश्चतुर्थः।प्रायेणोभयपदार्थप्रधानो द्वन्द्वः पञ्चमः। यहां तत्पुरुष के भेदों सहित सात प्रकार के समास कहे हैं किन्तु हिन्दी में केवल समास जिसका प्राचीन नाम सुप्सुपा समास है, की गणना नहीं की गई, पर नञ्, उपपद व अलुक् को भी पृथक् समास माना है। इस प्रकार कुल दस प्रकार के समास माने जाते हैं।
समासों के इन नामों पर दशम शताब्दी के आचार्य राजशेखर ने अपनी काव्यमीमांसा में एक रोचक उक्ति उद्धृत की है, जो बहुत प्रसिद्ध आर्या है-
द्वन्द्वोऽस्मि द्विगुरपि चाहं 
गृहे च मे नित्यमव्ययीभावः।
तत्पुरुष कर्म धारय
येनाहं स्यां बहुव्रीहिः।।
कोई निर्धन ब्राह्मण, राजा के दरबार में जाकर अपनी करुण गाथा का इस प्रकार वर्णन करता है- हे राजन्! मैं द्वन्द्व हूं- मैं अकेला नहीं बल्कि अपनी भार्या का भी मुझे भरण-पोषण करना पड़ता है। परन्तु मैं द्विगु भी हूं- मेरे घर पर दो बैल भी हैं , जिनको प्रतिदिन खिलाना पड़ता है। परन्तु मेरी दशा यह है कि मेरे पास नित्य-निरन्तर अव्ययीभाव अर्थात् खर्च करने को फूटी कौड़ी भी नहीं है। इसलिए पुरुष- श्रेष्ठ! तत् कर्म धारय- ऐसा काम करो जिससे मैं बहुव्रीहि- बहुत धन-धान्य वाला हो जाऊं ताकि मेरे पास खाने-पीने की कमी न रहे।
इस आर्या में छह समासों का नाम आया है, नित्य शब्द का प्रयोग करके अव्ययीभाव के नित्य समास होने की भी अभिव्यञ्जना की गई है, अन्यथा समास का प्रयोग वैकल्पिक होता है। अव्ययीभाव एक अन्वर्थ अर्थात् अर्थानुसारी संज्ञा है। इस समास में पूर्व पद अव्यय होता है और उत्तरपद अनव्यय परन्तु समास होने पर उत्तरपद भी अव्यय बन जाता है अतः इसका विग्रह बनता है- अनव्ययम् अव्ययं भवति इति अव्ययीभावः।
इन समासों का प्रयोग हिन्दी आदि भारतीय एवं अंग्रेजी आदि विदेशी भाषाओं में भी बहुधा देखा जाता है। यथा अंग्रेज़ी में - अव्ययीभाव In-side, Under- wood, life- long, World- wide, After-life, तत्पुरुष Rail-way, Ear- ring, Cooking- Stove, looking-glass, Bed- ridden, Heart-rending, Wood- cutter, Man- eater, Shoe-maker, कर्मधारय Grand-father, Black-board, Snow-white, Mid-night, द्विगु First-class, Second-hand, Two-seater, Four-wheeler , नञ् Non- vegetarian, Touch- me- not द्वन्द्व Husband-wife, Mother-father, Lap-top, Black and white बहुव्रीहि Well- known, One- eyed, Nobel- minded, Father- in-law, , Narrow- minded, Good- natured. इत्यादि समासों के उदाहरण हैं।
जैसा कि अभी कहा है कि किन्हीं विशेष परिस्थितियों के अतिरिक्त समास करने या न करने का विकल्प है, विभाषा (अष्टाध्यायी 2.1.11.) के द्वारा विकल्प का अधिकार प्रायः समस्त समास प्रकरण पर है तो भी लोक में संक्षेपरुचिहेतु होने से समास की ओर प्रवृत्ति सहज होने के कारण भाषा में समास का प्रचुर प्रयोग पाया जाता है। एक युग तो ऐसा आया था, जिसमें समास बहुल रचना पाण्डित्य का निकष मानी जाने लगी थी। अनेक पंक्तियों तक के सुदीर्घसमासों से विभूषित रचनाएं विद्वत्समाज के मनोविनोद का साधन बन गई थीं। संस्कृत वाङ्मय समस्तपदों से भरा हुआ है। दीर्घ समासावलि की रोमाञ्चक प्रौढता दण्डी के दशकुमारचरितम्, सुबन्धु की वासवदत्ता व बाणभट्ट की कादम्बरी व हर्षचरितम् तथा त्रिविक्रमभट्ट के नलचम्पू में देखी जा सकती है। संस्कृत के गद्य, पद्य तथा चम्पूसाहित्य में पाया जाने वाला समास का वैभवपूर्ण चमत्कार विश्व की किसी भाषा में नहीं पाया जाता।

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