Wednesday, 1 November 2023

संविधान पढ़ूं या पाखण्ड करूं।

जब दादा-दादी को रौंदा तो 
परदादे चिल्लाए- 
हे देव बचा ले!
पर, कोई नहीं आया।
दादा-दादी भी बेगार करने लगे, 
लगा सब ठीक हो गया।

माता-पिता ने किया विरोध बेगारी का फिर, 
फिर कुछ झड़पें हुईं,
फिर दादा-दादी ने दुबकाया,
विरोध, व झड़पों से बदला कुछ 
और कुछ कानून के डर से 
अब बेगार नहीं मजदूरी पाये।

फिर गांव में पंचायतें हुईं
बात रखी गई कि
कोई अंबेडकर हैं
उन्होेंने कहा है कि 
गन्दे व गुलाम मत रहो,
गंदा व उतरन मत पहनो,
गंदा व झूठन मत खाओ,
नशा व कर्ज मत करो।

कुछ  बचत होने लगी, 
कुछ अनाज, 
कुछ कपड़े, 
कुछ ईंटें तो जमा पाये,
पर न ले पाए भीम प्रतिज्ञाऐं और शिक्षा।  

कुछ आजादी,
कुछ वक्त, 
कुछ धन आया ही था कि
धूर्तविद्या का आकर्षण 
और धूर्तों को भी लालच बढ़ा।

देखा-देखी दे खर्चा सब,  
कथा कराए, 
भलें कथा का सामान न छू पाये।
दूर से ही पैंड़ भर अशीष लिया
और धूर्त ने लिया छींछा।

पाखंड में बीता समय 
और फिर पैदा हुए हम, 
जैसे हमेसां होते आए दलित।
फिरें पहने ताबीज-धागे, 
मदिरा की धार वही, 
और बली बकरों-मुर्गों की।

कालचक्र घूमा 
और हम घूमे मैले-कुचैले खेत-खदान पै।
एक दिन आदेश आया,
और मास्टर जी घबराये। 
दौड़े-भागे हांपते-भांपते, 
दलित वसती में आये और बोले-
भेजो बालक विद्यालय, 
हमारी नौकरी बच जाए।

फिर डरे सहमे से हम 
साथ पिता के स्कूल आये।
पंडित जी का लंबा सोटा 
और दलित बच्चों की लाइन अलग।
मुँह से कहते पढ़ो पर सोटे से भगो।

जैसे-तैसे पढ़ निकरें बाहर
फिर टूटे जातंकी बच्चों का कहर।
जैसे काम पै पिता,  बैसे ही स्कूल में हम, पिट आते।
हमने भी विनती करी खूब देवों से 
पर कहाँ और कब? वे बचाने आते।

एक दिन आदेश पाकर 
फिर पुलिस ने समझाया।
 मत मारो दलितों को, 
भाई! सजा का एक्ट है आया।

 मौका मिला तो 
हमने पढ़ लिया।
सुरक्षा मिली तो 
हमने बढ़ लिया।

गंडे ताबीज पहन कर भी  
बच्चे अनगिनत मर गए। 
इलाज मिल गय वक्त पर,  
और हम उनमें से बच गए।

कुछ नेक इंसान भी थे 
वे हमको राह दिखा गए।
लुढ़कते-लुढ़कते ही सही 
शिक्षा हम भी पा गए।

संविधान का सरकार पर 
और सरकार का प्रशासन पर दबाव बढ़ा।
दबाव में ही सही 
नौकरी में प्रतिनिधित्व देना पड़ा।

मेरी मजदूरी छूट गई। 
मुझे नौकरी मिल गई। 
अब सब बोल रहे हैं 
कि कुछ दान-पुण्य करो।
मेरा मन कह रहा है कि 
सबसे पहले कर्जा भरो।
अब तुम ही बताओ, 
मैं क्या करूँ?

तीर्थ करूं या 
समाज में जाऊं?
धूर्त पूंजूं या 
समाज को लौटाऊं?
पाखण्ड करूं या
संविधान पढ़ूं?

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