आर्टिकल 15 : एक पुलिस प्रोसीजरल कहानी के बहाने जातिवाद की बारीक चीरफाड़ करती फिल्म
जैसे ‘जूठन’ और ‘मुर्दहिया’ हिंदी साहित्य की धरोहर हैं और वैसे ही जातिवाद की सड़ांध दिखाने वाली ‘आर्टिकल 15’ को हिंदी सिनेमा की धरोहर माना जा सकता है
29 जून 2019
'आर्टिकल' 15 के एक दृश्य में आयुष्मान खुराना
निर्देशक : अनुभव सिन्हा
लेखक : अनुभव सिन्हा, गौरव सोलंकी
कलाकार : आयुष्मान खुराना, ईशा तलवार, कुमुद मिश्रा, मनोज पाहवा, मोहम्मद जीशान अय्यूब, शायोनी गुप्ता
रेटिंग : 4/5
हिंदुस्तानियों से जाति नहीं जाती! ‘स्वदेश’ फिल्म का एक संवाद है जिसमें गांव का एक प्रभावशाली बुजुर्ग शाहरुख के किरदार मोहन भार्गव द्वारा जाति व्यवस्था की आलोचना करने पर भड़क उठता है और पलटकर कहता है - ‘और सुनो! जो कभी नहीं जाती उसी को जाति कहते हैं.’ यह संवाद मुख्यधारा के सिनेमा में जाति व्यवस्था की दलदल में धंसे हिंदुस्तान की मानसिकता का सच दिखाने वाली शायद अब तक की सबसे सटीक व्याख्या रही है.
अनुभव सिन्हा की ‘आर्टिकल 15’ इसी ‘मानसिकता’ की नए सिरे से चीर-फाड़ करती है और एक मनोरंजक व दिल थमा देने वाली पुलिस प्रोसीजरल थ्रिलर के बहाने जातिवाद के मवाद का सूक्ष्मतम निरीक्षण करने का बीड़ा उठाती है. जाति व्यवस्था नामक सामाजिक सड़ांध पर इतनी बेबाकी से बात करने वाली फिल्म शायद हिंदी सिनेमा में इससे पहले कभी नहीं बनी. हमें तो याद नहीं आ रही।
दलित उत्पीड़न पर बनी फिल्मों की बात करते वक्त हम ‘अछूत कन्या’, ओम पुरी की ‘आक्रोश’, श्याम बेनेगल की ‘अंकुर’ से लेकर मौजूदा समय की ‘सैराट’, ‘न्यूटन’ और पा.रंजीत की ‘काला’ की बात करते हैं. इन फिल्मों ने जाति व्यवस्था को एक सच्चाई मानकर अपनी आगे की कहानी कही थी, कभी-कभी क्रांतिकारी तरीकों से भी कही थी, लेकिन ‘आर्टिकल 15’ तो मूलत: जाति व्यवस्था की ही कहानी कहती है. यह एक ‘आउटसाइडर पर्सपेक्टिव’ के साथ बनी फिल्म है जिसमें विदेश से पढ़कर आए नायक को जाति व्यवस्था का पता तो है, लेकिन उसकी जड़ें कितनी गहरी हमारे समाज में उतरी हैं इसका भान नहीं है.
इस ‘बाहरी दृष्टिकोण’ की कई लोग ट्रेलर देखने के बाद आलोचना कर रहे थे. लेकिन फिल्म देखते वक्त आपको समझ आता है कि यह एप्रोच ही मौजूदा समय में इस फिल्म को किस तरह घोर प्रासंगिक बना देती है. यह हमारे वक्त का कड़वा सच है कि ऊंची जाति का अर्बन शहरी जातिवाद से उपजी असमानता और अत्याचार के प्रति उदासीन है और दलित-पिछड़ी जातियों को सिर्फ रिजर्वेशन के चश्मे से देखता है. इस चश्मे पर भी इतनी धुंध चढ़ी है कि उसे दलित मुद्दे नजर ही नहीं आते और समाज में धर्म के नाम पर कटुता फैलने के साथ-साथ रिजर्वेशन के नाम पर भी जहर बोने की सियासत खूब फल-फूल रही है.
ऐसे में अनुभव सिन्हा और गौरव सोलंकी की लिखी ‘आर्टिकल 15’ की एप्रोच एकदम साफ है कि वह देहात की जातिगत संरचना दिखाकर हर उस अर्बन शहरी तक पहुंचना चाहती है जो जाति व्यवस्था के सच को स्वीकारता नहीं है, या फिर स्वीकारता भी है तो उसकी वीभत्सता से अंजान बना हुआ है. चाहे जानकर या फिर अनजाने में ही.
दिलचस्प यह है कि इस अलहदा एप्रोच को फिल्म में खुलते हुए देखते वक्त बरबस ओमप्रकाश वाल्मीकि की ‘जूठन’ और डॉ तुलसी राम की ‘मुर्दहिया’ नामक दलित साहित्य याद आ जाता है! हिंदी साहित्य की ये दोनों आत्मकथाएं हर उस ऊंची जाति के शख्स को पढ़नी चाहिए जो जाति व्यवस्था नामक सामाजिक सड़ांध को बेहतर समझना चाहता है. उन ऊंची जात वालों को भी जो जातिवाद को पसंद करते हैं और अपनी ऊंची जातियों के नेरेटिव को ही पूरा सच मानकर बरसों पहले निगल चुके हैं.
कई दफा हो चुका है कि आप ‘जूठन’ किसी प्रिवलेज्ड जाति के युवा पाठक को पढ़ने को दो तो उसे लौटाते वक्त वह आश्चर्य से पूछता जरूर है कि क्या सच में ऐसा ‘इन लोगों’ के साथ हुआ होगा? पिछली पीढ़ी के ऊंची जाति के ही किसी रिश्तेदार या जान-पहचान वाले को दो तो वह पढ़कर कहता है कि हां ‘उन लोगों’ पर अत्याचार होता तो था, लेकिन इतना भी नहीं यार!
प्रिवलेज्ड लोगों की यह जो अज्ञानता है, जो नादानी है, इसे दूर करने के लिए ‘जूठन’ और ‘मुर्दहिया’ जैसा हिंदी साहित्य आज के दौर में बहुत काम की किताबें हैं. और आज के दौर में अगर हिंदी सिनेमा में ऐसी कोई फिल्म ढूंढ़ें जो इन किताबों के आसपास की जागरूकता लाने का काम कर सकती है तो वो ‘काला’ या ‘न्यूटन’ नहीं, शर्तिया ‘आर्टिकल 15’ है. ‘जूठन’ और ‘मुर्दहिया’ अगर हिंदी साहित्य की धरोहर हैं तो यह साहसिक फिल्म हिंदी सिनेमा की धरोहर जरूर बननी चाहिए.
पुलिस प्रोसीजरल सब-जॉनर को उसके पूरे नियम-कायदों के साथ अपनाने वाली यह फिल्म 2014 के बदायूं रेप केस को आधार बनाकर एक काल्पनिक कहानी कहती है जिसे देखकर लगता है कि जैसे दुनिया का सबसे खौफनाक यथार्थ यही है. जो ट्रेलर दिखा चुका है उसकी तफ्तीश करने का जिम्मा आयुष्मान खुराना के प्रिवलेज्ड आईपीएस अफसर किरदार अयान रंजन को मिलता है और यह ब्राह्मण नायक लड़कियों के कातिल का पता लगाने की कोशिश में जाति व्यवस्था के दुश्च्रक में भी फंसता चला जाता है.
ऐसा नहीं है कि फिल्म का पुलिस प्रोसीजरल वाला यह एलीमेंट बेहद उम्दा हो और कुछ भौचक कर देने वाला अप्रत्याशित ही हमारी नजर कर देता हो. यह फिल्म एक दर्शनीय, मनोरंजक, आखिर तक बांधकर रखने वाला इनवेस्टिगेटिव ड्रामा जरूर है जो कि अपना वातावरण बेहद कुशलता से रचने की वजह से खासी प्रभावी बनती है. लेकिन बदायूं रेप केस के बारे में अगर आप सबकुछ जानते हैं तो ज्यादातर वक्त मोटा-मोटा अंदाजा आपको रहता है कि फिल्म कहां जाएगी और क्या दिखाएगी. हालांकि, ये भी सच है कि जब-जब अंदाजा नहीं रहता, तब यह फिल्म जैसे आत्मा पर हथौड़ा मारकर दहला देती है.
मगर, फिल्म की सबसे खास बात है कि वह मुख्यधारा के दर्शकों को लुभाने का माद्दा रखने वाली दर्शनीय पुलिस प्रोसीजरल कहानी के बहाने हमारे वक्त की बेहद प्रभावी सामाजिक और राजनीतिक कमेंट्री करती है. इवान मुलीगन की सिनेमेटोग्राफी तो इस कदर उच्च की है कि धुंध, धूसर रंगों और मुर्दा सन्नाटे का उपयोग कर ऐसा अतीत में अटका देहात रच देती है जहां जैसे कभी सूरज उगा ही न हो और केवल अंधेरे व अन्याय का वास हो.
उनके द्वारा गंदगी से लबालब भरे मेनहोल में से एक सफाई कर्मचारी के बार-बार बाहर आने और अंदर जाने का बेहद प्रभावी तरीके से फिल्माया गया सीन तो इस कदर हृदयविदारक है कि लगता है जैसे निर्देशक ने ‘जूठन’ पढ़ने के ठीक बाद ही इसे गढ़ा होगा. फिल्म की सबसे पावरफुल और लंबे समय तक याद रहने वाली इमेजरी यही सीन देता है.
जाति व्यवस्था की कुरूपता को चेहरा देने के लिए अनुभव सिन्हा ने कमाल के अभिनेताओं का चयन किया है. कुमुद मिश्रा से लेकर सुशील पांडे, शुभ्रज्योति भारत, आशीष वर्मा और मनोज पाहवा अलग-अलग जातियों से ताल्लुक रखते हैं और इनके आपसी समीकरण देखकर आपको पटकथा की महीन लिखाई का अंदाजा होता है. वह सीन तो शायद इस फिल्म का सर्वश्रेष्ठ सीन है जब सभी अपनी-अपनी जाति बताते हैं और चमार जाति वाला भी खुद को एक दूसरी जाति से ऊंचा बताकर खुश होता है. कसम से, जाति को लेकर समाज ने जो हमारी ‘कंडीशनिंग’ की है न, वह वाकई अविश्वसनीय है!
मनोज पाहवा यहां ‘मुल्क’ से एकदम मुख्तलिफ भूमिका में हैं और इतना शानदार अभिनय करते हैं कि ‘मुल्क’ वाले स्तर को ही छूते हैं. रियल लगते दलित किरदारों के बीच मेकअप के साथ खड़ी शायोनी गुप्ता शुरुआत में थोड़ा संशय पैदा करती हैं लेकिन जल्द ही अपने अभिनय से सारी शंकाएं दूर कर देती हैं. दलित और महिला उत्पीड़न को उनकी बड़ी-बड़ी आंखें जिस तरह एक्सप्रेस करती हैं वह अद्भुत है.
बहुत छोटे-से रोल में होने के बावजूद मोहम्मद जीशान अय्यूब भी अद्भुत हैं. उनके मोनोलॉग, वॉयस-ओवर, दूसरों को दी गई समझाइश और फिर शायोनी गुप्ता की गोदी में फफकते हुए कहना कि मैंने कभी प्रेम का इजहार नहीं किया, चांद टकटकी लगाकर नहीं देखा, न सिर्फ मजबूत लिखाई है बल्कि एक अभिनेता के उस लिखाई के पीछे की भावना को समझने का दुर्लभ गुण भी है.
आयुष्मान खुराना जाहिर तौर पर फिल्म की रीढ़ हैं, जो आखिर तक सीधी रहती है. अब तक बिंदास और हाजिरजवाब युवा की भूमिकाएं निभाने वाला यह अभिनेता अपने करियर की इस पहली गंभीर, मैच्योर और आक्रोश व हताशा की सतत अभिव्यक्ति मांगने वाली भूमिका निभाते वक्त अपनी इंटेन्सिटी से हतप्रभ कर देता है. लगता ही नहीं कि मुख्यधारा के हिंदी सिनेमा का कोई स्थापित हीरो अयान रंजन बना है. लगता है जैसे थियेटर बैकग्राउंड से आने वाला कोई नवोदित परिपक्व अभिनेता है जिसकी शारीरिक मुरकियों से लेकर सारी अभिव्यक्तियां हमें पहली बार परदे पर देखने को मिल रही हैं.
आपकी सारी लिखाई और निर्देशकीय क्षमता पानी में बह जाती है, अगर अभिनेता आपकी कहानी और उस कहानी के पीछे की ईमानदारी को परदे पर सही तरीके से अभिव्यक्त न कर सके तो. आयुष्मान खुराना ने सही तो छोड़िए, सबसे उम्दा तरीके से जातिवाद से घिरे अयान रंजन को ‘आर्टिकल 15’ में जीवंत किया है. इतनी साहसी फिल्म करने के लिए उन्हें सलाम!
‘आर्टिकल 15’ को अनुभव सिन्हा के साथ गौरव सोलंकी ने लिखा है. ऐसा भान होता है कि उनके होने की वजह से ही शायद फिल्म को पाश मिले होंगे, भीम आर्मी के चंद्रशेखर आजाद रावण से प्रभावित एक दलित नायक मिला होगा, उसके कई सारे कंटीले मोनोलॉग मिले होंगे और मौजूदा राजनीति से जुड़ी ढेर सारी मारक पॉलिटिकल कमेंट्री मिली होगी. दो लेखकों के होने से समझना मुश्किल हो जाता है कि किसने क्या और कितना लिखा, लेकिन इस सजग गीतकार और कहानीकार के पुराने काम से इत्तेफाक रखने वाले दर्शक और पाठक उनकी छाप फिल्म में साफ देख पाएंगे.
‘आर्टिकल 15’ एक मजबूत दलित सह-नायक गढ़कर खुद ही एक सवाल भी छोड़ जाती है. क्या होता अगर इस फिल्म का मुख्य नायक प्रिवलेज्ड ब्राह्मण न होकर शहरी दलित होता और उसे गांव के जातिवाद से जूझना पड़ता?
ऐसी पटकथा लिखना मुश्किल और चुनौतीपूर्ण जरूर होता लेकिन वह फिल्म भी कमाल ही बनती! हॉलीवुड को अक्सर ‘व्हाइट सेवियर कॉम्पलेक्स’ के चलते आलोचनाओं से दो-चार होना पड़ता है और इस बार के ऑस्कर्स में एक बार फिर यह विषय बेहद चर्चामें रहा था. बॉलीवुड को इसलिए कोशिश करनी चाहिए कि दलित अस्मिता की कहानियां कहते वक्त वह भी ऐसी आलोचनाओं से पार पाने की कोशिश करे और दलित नायकों का मुख्यधारा की हिंदी फिल्मों में प्रतिनिधित्व बढ़ाता चले.
अपनी राय हमें इस लिंक या mailus@satyagrah.com के जरिये भेजें.
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