Saturday, 6 November 2021

दीपावलीअथवा 'दीपदानोत्सव' की ऐतिहासिकता:—

आयु,. पंकज कुमार की एक पोस्ट 
के कॉमेंट से नीचे उधृत जानकारी मिली है।
Upendra Prasad दीपावलीअथवा 'दीपदानोत्सव' की ऐतिहासिकता:—
(डॉ० राहुल राज, असि० प्रोफेसर, बी०एच०यू०, वाराणसी)
ऐतिहासिक दृष्टि से देखा जाय तो 'दीपावली' को 'दीपदानोत्सव' नाम से जाना जाता था और यह वस्तुतः एक बौद्ध पर्व है जिसका प्राचीनतम वर्णन तृतीय शती ईसवी के उत्तर भारतीय बौद्ध ग्रन्थ 'अशोकावदान' तथा पांचवीं शती ईस्वी के सिंहली बौद्ध ग्रन्थ 'महावंस' में प्राप्त होता है। सांतवी शती में सम्राट हर्षवर्धन ने अपनी नृत्यनाटिका 'नागानन्द' में इस पर्व को 'दीपप्रतिपदोत्सव' कहा है। कालान्तर में इस पर्व का वर्णन पूर्णतः परिवर्तित रूप में 'पद्म पुराण' तथा 'स्कन्द पुराण' में प्राप्त होता है जो कि सातवीं से बारहवीं शती ईसवी के मध्य की कृतियाँ हैं। तृतीय शती ईसा पूर्व की सिंहली बौध्द 'अट्ठकथाओं' पर आधारित 'महावंस' पांचवीं शती ईस्वी में भिक्खु महाथेर महानाम द्वारा रचित महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है। इसके अनुसार बुद्धत्व की प्राप्ति के बाद तथागत बुद्ध अपने पिता शुद्धोदन के आग्रह पर पहली बार कार्तिक अमावस्या के दिन कपिलवस्तु पधारे थे। कपिलवस्तु नगरवासी अपने प्रिय राजकुमार, जो अब बुद्धत्व प्राप्त करके 'सम्यक सम्बुद्ध' बन चुका था, को देख भावविभोर हो उठे। सभी ने बुद्ध से कल्याणकारी धम्म के मार्गों को जाना तथा बुद्धा की शरण में आ गए। रात्रि को बुद्ध के स्वागत में अमावस्या-रुपी अज्ञान के घनघोर अन्धकार तो प्रदीप-रुपी धम्म के प्रकाश से नष्ट करनें के सांकेतिक उपक्रम में नगरवासियों नें कपिलवस्तु को दीपों से सजाया था। किन्तु 'दीपदानोत्सव' को विधिवत रूप से प्रतिवर्ष मनाना 258 ईसा पूर्व से प्रारम्भ हुआ जब 'देवनामप्रिय प्रियदर्शी' सम्राट अशोक महान ने अपने सम्पूर्ण साम्राज्य, जो कि भारत के अलावा उसके बाहर वर्तमान अफ़ग़ानिस्तान और मध्य एशिया तक विस्तृत था, में बनवाए गए चौरासी हज़ार विहार, स्तूप और चैत्यों को दीपमाला एवं पुष्पमाला से अलंकृत करवाकर उनकी पूजा की थी। 'थेरगाथा' के अनुसार तथागत बुद्ध ने अपने जीवनकाल में बयासी हज़ार उपदेश दिये थे। अन्य दो हजार उपदेश बुद्ध के शिष्यों द्वारा बुद्ध के उपदेशों की व्याख्या स्वरुप दिए गए थे। इस प्रकार भिक्खु आनंद द्वारा संकलित प्रारम्भिक 'धम्मपिटक' (जो कालान्तर में 'सुत्त' तथा 'अभिधम्म' में विभाजित हुई) में धम्मसुत्तों की संख्या चौरासी हज़ार थी। अशोक महान ने उन्हीं चौरासी हज़ार बुद्धवचनॉ के प्रतिक रूप में चौरासी हज़ार विहार, स्तूप और चैत्यों का निर्माण करवाया था। पाटलिपुत्र का 'अशोकाराम' उन्होंने स्वयं अपने निर्देशन में बनवाया था। इस ऐतिहासिक तथ्य की पुष्टि 'दिव्यावदान' नामक ग्रन्थ के उपग्रन्थ 'अशोकावदान' से भी हो जाती है जो कि मथुरा के भिक्षुओं द्वारा द्वितीय शती ईस्वी में लिखित रचना है और जिसे तृतीय शती ईस्वी में फाहियान ने चीनी भाषा में अनूदित किया था। पूर्व मध्यकाल में हिन्दू धर्म के पुनरुत्थान के साथ इस बौद्ध पर्व में मूल तथ्य के स्थान पर अनेक नवीन कथानक जोड़कर इसे हिन्दू धर्म में सम्मिलित कर लिया गया तथा शीघ्र ही यह हिन्दुओं का प्रचलित त्यौहार बन गया।
सन्दर्भ -
K.R. Norman (Tr.) 'Elders Verses' translation of Theragatha,Pali Text Society, Oxford,1995, verse- 1022
T.W. Rhys Davids (1901), 'Ashoka and the Buddha Relics', Journal of the Royal Asiatic Society, Cambridge University Press, UK, pp.397-410
John S. Strong (1989), 'The Legend of King Aśoka: A Study and Translation of the Aśokāvadāna', Motilal Banarsidass, New Delhi ISBN 978-81-208-0616-0
John S. Strong (2004), 'The Relics of the Buddha', Motilal Banarsidass, New Delhi, ISBN 978-81-208-3139-1, p.136

MP ahirwar bhu
सोसल मीडिया में दीवाली और दीप दानोत्सव की बहस के बीच मेरे गांव की दीवाली का स्मरण
आज हिन्दुओं में दीवाली के उत्सव की धूम मची है तो दूसरी ओर बौद्धों और अम्बेडकरवादियों द्वारा व्यापक पैमाने पर दीप दानोत्सव मनाये जाने और उसके विरोध की खबरें सोसल मीडिया में छायी हुई हैं।
हिन्दुओं की दीवाली मनाये जाने की अनेक कपोल कल्पित अवधारणाएं हैं जिनमें से एक यह है कि जब श्रीराम 14 वर्ष के वनवास और लंका विजय के बाद अयोध्या लौटे तो वहां के लोगों ने उनके आगमन पर दीप जलाये यद्यपि, रामायण में आये उल्लेख के अनुसार राम की अयोध्या वापसी बैशाख में हुई थी न कि कार्तिक मास में। इसका मतलब साफ है कि इस कहानी में कहीं झोल है।
वहीं बौद्ध-अम्बेडकरवादियों द्वारा आज के दिन को 2260 वें दीपदानोत्सव के रूप में मनाया जा रहा है। उनके आज के दिन को उत्सव के रूप में मनाये जाने के दो आधार हैं। पहली मान्यता और उसका तार्किक आधार यह है कि "तथागत बुद्ध ने ज्ञान प्राप्ति के 17 वर्ष बाद पहली बार जब अपने गृह नगर कपिलवस्तु लौटे तो नगर वासियों ने उनके स्वागत में दीप जलाये।" बौध्द-अम्बेडकरवादियों द्वारा दीपोत्सव मनाने का दूसरा आधार बताया जाता है कि "सम्राट अशोक ने अपनी धम्म विजय की उद्घोषणा के बाद भगवान बुद्ध के दिये 84 हजार उपदेशों को जीवंत और चिरस्थायी बनाये रखने के लिए 84 हजार स्तूपों, विहारों आदि का निर्माण करवाया और कार्तिक अमावस्या के ही के दिन उन सभी स्तूपों को दीप और फूलमालाओं से सजाकर उनका उद्घाटन किया। उस दिन सभी नगर और गाँवों को भी दीपों और फूलमालाओं से सजाया गया और पूरे साम्राज्य में उत्सव मनाया गया।" तभी से पूरे देश में इस दिन त्यौहार के रूप में मनाया जाने लगा। 
पहली मान्यता का कोई तार्किक आधार नहीं है और न ही इससे जुड़े तथ्य प्राप्त होते हैं क्योंकि भगवान बुद्ध के प्रथम नगरागमन का समय और कार्तिक अमावस्या की तिथि से कोई मेल नहीं है।
दूसरी घटना अर्थात सम्राट अशोक के निर्माण कार्यों के उद्घाटन समारोह को उत्सव के रूप में मनाये जाने की प्रामाणिकता असंदिग्ध है किन्तु तिथि को लेकर अभी भी असमंजस बना हुआ है। यह भी कि क्या तथागत बुद्ध के कपिलवस्तु आगमन की तिथि और सम्राट अशोक के स्तूपों के निर्माण कार्य पूर्ण होने की तिथि कार्तिक अमावश्या ही थी या फिर कोई अन्य।
यहाँ पर एक खास बात जिसपर किसी का ध्यान अभी तक नहीं गया है और न ही कोई चर्चा करता है, वह यह कि इस बात की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता है कि कलिंग युद्ध की विजय के बाद सम्राट अशोक महान ने जिस धम्म विजय की घोषणा की उसके और दीवाली में मात्र 20 दिनों का अंतर है। अतः बहुत संभव है कि कलिंग विजय से राजधानी लौटने के बाद सम्राट ने धम्म विजय का उत्सव भी किया हो। उसे वहां से भारी भरकम फौज के साथ लौटने में कुछ समय तो लगा होगा और अनेक ऐतिहासिक तथ्यों से पता चलता है कि राजागण अपने अभियान से जब लौटते थे तो वह पहले नगर के बाहर छावनी डालते थे तदुपरांत नगरवासी उनके आगमन का उत्सव और अभिनंदन समारोह करते थे। "धम्मविजय की घोषणा" अपने आप में अभूतपूर्व थी ऐसे में सम्राट की नगर वापसी भी खास बन गयी होगी इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता। चूँकि, धम्म विजया दशमी और दीवाली के बीच समय का बहुत अंतर नहीं है अतः इस बात की संभावना को नजरअंदाज भी नहीं किया जा सकता है। कि सम्राट अशोक ने कालांतर में जो निर्माण कार्य सम्पन्न किया उनके उद्घाटन के लिए उसी तिथि का चुनाव किया हो जब उसने धम्म विजय की घोषणा के बाद नगर वापसी की थी। हो सकता है और इस बात की संभावना है कि सम्राट अशोक के धम्म विजय के बाद राजधानी में वापसी की घटना को श्रीराम की अयोध्या वापसी की घटना से जोड़कर प्रचारित किया गया हो। प्रत्यक्षतः श्रीराम के अधर्म पर धर्म की विजय (तथाकथित) के बाद नगर वापसी की कहानी उक्त ऐतिहासिक घटना की नकल प्रतीत होती है। दूसरी ओर हिन्दू मान्यता के अनुसार श्रीराम का अयोध्या आगमन बैशाख माह में बताया जाता है यदि ऐसा है तो फिर कार्तिक मास की अमावस्या को उनके आगमन की घटना पर दीवाली का जश्न न तो तार्किक है और न ही तथ्यपरक।

 कतिपय लोग अन्य देशों में इस दिन दीवाली नहीं मनाये जाने और बाबा साहब डॉ आंबेडकर द्वारा दीवाली नहीं मनाये जाने को भी अपने ठोस तर्क के रूप में प्रस्तुत करके दीपदानोत्सव मनाने वाले बौद्धों व अम्बेडकरवादियों को खरी खोटी सुनाते हैं तथा उन्हें छद्म बौद्ध-अम्बेडकरवादी कहकर हिन्दुओं की दीवाली मनाने के बहाना ढूंढ़ने वाले ढोंगी करार देते हैं। इस दिशा में अभी भी प्रामाणिक शोध अपेक्षित है, हाँ इतना जरूर कहा जा सकता है कि एक प्रतीक के रूप में दीपक और पुण्य तिथियों के रूप में किसी भी अमावश्या, पूर्णिमा और अष्टमी तिथियां बौद्ध धम्म और संस्कृति का अभिन्न हिस्सा हैं। यह भी की बौद्ध धम्म और श्रमण परंपरा के उत्सवों, त्यौहारों और प्रतीकों को विकृत अथवा आत्मसात करके हिन्दू धर्म परम्परा ने पूरी तरह ध्वस्त कर दिया है जिससे उनके वास्तविक स्वरूप एवं महत्व को ढूंढना और समझना आज के युग में बहुत कठिन हो गया है। बहरहाल, यहाँ मेरा मकसद बचपन से लेकर अभी तक मेरे परिवार और गांव की दीवाली कैसी होती है उसका पुनरावलोकन करना है-

मेरे परिवार और पैतृक गाँव की दीवाली जिस रूप में मनायी जाती रही है वह बिना किसी परिवर्तन के आज भी उसी रूप में मनायी जाती है। कार्तिक मास मुख्यत: खरीफ फसलों के आगमन का मास होता है। गाँव में नई फसल के आगमन से पूरा वातावरण उल्लासमय होता है किन्तु विशेष बात यह है कि किसी भी घर में दीवाली के पहले किसी भी नये खाद्यान्न को भोजन के लिए नहीं पकाया जाता है। कार्तिक अमावश्या को शाम को गोधूलि के समय में गाँव के प्रत्येक घर आंगन में जगह-जगह तेल अथवा घी के दिये जलाये जाते हैं। दिये रखने की शुरुआत या पहला दिया अपने पूर्वजों/आराध्य देवी-देवताओं (इनमें कोई भी हिन्दू धर्म के देवी-देवता शामिल नहीं हैं) के लिये बनाये गये प्रतीकों के पास रखा जाता है। इन देवी देवताओं का निर्धारण कुल अथवा गोत्र के आधार पर होता है। यह देवी-देवता स्वाभाविक तौर पर कुल, गोत्र और परिवारिक परंपरा के अनुरूप एक दूसरे कुल, गोत्र अथवा परिवार से भिन्न होते हैं और इनकी पूजा भी भिन्न-भिन्न तरीके से होती है। इन देवी-देवताओं की मूर्तियां किसी भी घर में नहीं होती हैं बल्कि उनके प्रतीक मिट्टी के बने छोटे-छोटे ढूहों के रूप में अथवा लकड़ी के खंभों के रूप में प्रत्येक घर के भीतरी कक्ष में एक कोने में अथवा आंगन में बने होते हैं। यहाँ पर जलाये गये दिये न बुझने पायें इसका विशेष ध्यान रखा जाता है। रात को इन पूर्वजों और आराध्यों की विशेष पूजा होती है जिसमें विशेष तौर पर नये धान के चावल के आटे से बने 'फरे' (फरा= नये चावल के आटे को गूँथकर बनाया गया विशेष व्यंजन जिसे भाप में पकाया जाता है) चढ़ाये जाते हैं। माना जाता है कि खेत से नई फसल आने के बाद उसे अपने आराध्य देवताओं को अर्पण के बाद ही ग्रहण करना शुभ एवं फलदायी है। यह प्रकृति के प्रति विशेष सम्मान का द्योतक भी है। उसके बाद परिवार के सभी लोग रात्रि का भोजन करते हैं इसी के साथ रबी में बोए जाने वाले नये फसलों से प्राप्त खाद्यान्नों को भोजन के रूप में ग्रहण करने की शुरुआत हो जाती है। रात को प्रत्येक गाँव का ग्वाला अपने दल के साथ बांसुरी व अन्य विभिन्न वाद्य यंत्रों के साथ ग्राम देवता, खेर माता के स्थान पर जाकर खीर चढ़ाता है और देव जागरण के बाद घर घर जाकर विशेष नृत्य (अहीरी नृत्य) और गीतों के माध्यम से जागरण करते हैं। उसके हाथों में बांस के बने एक बड़े से डंडे के एक सिरे पर विभिन्न प्रकार की वनस्पतियों की टहनियां गाय की पूंछ के बाल से बनाई रस्सी से बंधी हुई होती हैं। जिसे वे प्रत्येक घर के हर कमरे अथवा घर के कोने कोने में ले जाकर घूमाते हुए तेज आवाज में "हुई भूली" कहते हैं।
अमावश्या के दूसरे दिन दोपहर को नये धान अथवा कोदो के चावल से भात (पका चावल) पकाया जाता है और उसे बैलों को सुसज्जित कर (सींगों को रंगे जाते हैं, शरीर में छाप आदि लगाकर और फूलों की मालाएं गले में बांधी जाती हैं) ससम्मान खिलाया जाता है। इसके अलावा और भी कई तरह के विशेष व्यंजन बनाये जाते हैं। इसके बाद सभी लोग दोपहर में अपने-अपने पशुओं को लेकर खेरखा(वह स्थान जहां प्रतिदिन सुबह के वक्त गाँव वाले अपने पशुओं को खड़ा करते हैं) पर पहुंचते हैं। गाँव की महिलाएं सिर पर कलश लिए गीत गाते हुए जाती हैं और कुछ किशोरवय के युवक नई धोती पहने, गले में फूलों की माला पहने तथा हाथों में जानवरों के पूँछ से बनी हुई विशेष रस्सी धारण किये व अन्य प्रकार से सुसज्जित होकर पहुंचते हैं। ऐसे युवक उस दिन उपवास रखते हैं। जब गाँव के प्रत्येक घर के लोग अपने पशुओं के साथ नियत स्थान पर पहुँच जाते हैं तो ये युवक वहां अगरबत्ती वगैरह जलाकर ग्राम देवता को स्मरण करते हैं और बछिया (she calf) को माला पहनाकर उसके चारों पैरों के नीचे से तीन बार झुक कर या फिर लेटकर गुजरते हैं। इस प्रक्रिया को पूर्ण करने के साथ वे सभी किशोरवय युवक मौन धारण कर लेते हैं। इसके बाद गाँव का ग्वाला जो वर्षपर्यंत गांव वालों के मवेशी चराता है वह आता है, उसका नृत्यगीत होता है तदुपरांत वह एकत्र मवेशियों को विभिन्न वनस्पतियों की टहनियों से युक्त विशाल बांस के डंडे को घूमते हुए "हू हा.." कहते हुए तितर-बितर करता है। मौन धारी किशोर/युवक सभी पशुओं को लेकर जंगल की ओर उन्हें चराने ले जाते हैं। इसे मौनी चराना कहते हैं। (इसे वे बारह वर्षों तक प्रत्येक दीवाली में करते हैं)। इसके बाद गाँववासी वापस लौट जाते हैं और फिर किसी एक स्थान पर एकत्र होकर पुरुष "सैला" और महिलाएं ''रीना" नाचती-गाती हैं। ये दोनों नृत्य मध्य्प्रदेश के प्रमुख आदिवासी नृत्य के रूप में जाने जाते हैं। इस तरह वे शाम होने तक हर्षोल्लास में डूबे रहते हैं। शाम को सभी ग्रामवासी स्त्री, पुरुष बच्चे पुनः कलश धारण किये पारंपरिक लोकगीत गाते हुए अपने मवेशियों और ग्वाले की भूमिका निभाने गये किशोरों युवकों की अगवानी के लिए उसी स्थान पर पहुंचते हैं जहाँ से उन्होंने उन्हें जंगल के लिए बिदा किया था। वापसी में युवक बछिया के पैरों के नीचे से लेटकर चार बार गुजरने के बाद अपना मौन तोड़ते हैं और ग्रामदेवता के समक्ष नारियल फोड़कर जंगल से अपने साथ लाये विभिन्न प्रकार के जंगली फल प्रसाद के रूप में सभी को बांटते हैं। तत्पश्चात सभी ग्रामवासी हर्षोल्लास के साथ लोकगीत गाते हुए वापस लौट आते हैं। घरों में लौटकर मौनी चराने वाले किशोर/युवक अपने परिजनों, निकट संबंधियों और पड़ोसियों के यहां जाकर वही प्रसाद वितरण करते हैं और उनसे शुभकामनाएं प्राप्त करते हैं। रात्रि को हर परिवार अपनी हैसियत के अनुरूप विशेष रूप से तैयार व्यंजनों को ग्रहण कर रात्रि विश्राम करते हैं और अगली सुबह फिर से अपने खेती बाड़ी के काम में लग जाते हैं।
दीवाली के नाम पर मेरे गाँव में इसके अलावा और कुछ भी नहीं होता है न गणेश पूजा और न ही लक्ष्मी पूजा और न ही हिन्दू धर्म के किसी भी देवी देवता की पूजा। इसे आप कौन सी दीवाली का नाम देंगे यह मैं आपके ऊपर छोड़ता हूँ। किन्तु यह बात मेरे समझ से परे है कि आज कार्तिक अमावस्या अथवा दीवाली ही सही अगर कोई व्यक्ति हिन्दू धर्म के अंधविश्वास और कर्मकांडों से मुक्त होकर बुद्ध और बाबा साहब अम्बेडकर की तस्वीरों के समक्ष मोमबत्तियां जलाकर त्रिशरण और पंचशील का पाठ करने लगा है तो क्या उससे बौद्ध परंपरा में दीवाली मनाये जाने का प्रमाण माँगा जाना अपेक्षित है? बहुत से लोग कहते हैं कि अगर दीवाली के दिन बुद्ध के प्रति सम्मान व्यक्त करना है तो बुद्ध विहारों में जाकर दिये जलाओ। आज कुछ गिने चुने शहरों और गांवों को छोड़कर भला कहाँ मिलेंगे बुद्ध विहार जबकि हिन्दू अंधविश्वासों, कर्मकांडों और मंदिरों में प्रवेश पर प्रतिबंध और नाना प्रकार के उत्पीड़न से तंग आकर लोग गांव-गांव में बुद्ध और बाबा साहब के अनुयायी बन चुके हैं। ऐसे में अगर लोग अपने घर पर भी दीप प्रज्वलित कर बुद्ध और बाबा साहब के विचारों का अनुगामी होने और उनपर चलने की प्रतिज्ञा लेते हैं तो भला वे कौन सा गुनाह करते हैं ?
(यह आलेख पुराना है इस बार इसे आंशिक रूप से इसे संपादित किया गया है। सभी छायाचित्र गूगल से लिये गये हैं)

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