जिद में ओढ़ा जाय
या ओढ़ने पर मजबूर किया जाये
इंसानियत का दम घुटना तय है।
भगुआ झंडा
काले बुर्के की ओट
अक्ल की बंधी।
तालीबानी नहीं आये
सोच आ घुसी है भारत में
रंग-रूप बदल कर।
समझ को खाती है
फिर टूट पड़ते हैं एक-दूसरे पर
नासमझ चीटों की तरह
पकड़ लेते हैं एक-दूसरे की गर्दन
और मरते दम तक नहीं छोड़ते।
फिर कोई चिड़िया आकर
उन लाशों को खा जाती है।
लाशों का ढेर
महान सभ्यता थी
कहेगा कोई?
गौतम रामहेत
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