कौशल तिवारी की पोस्ट
आचार्य राधावल्लभ त्रिपाठी जी अहं राष्ट्री पुस्तक पर बोलते हुए
यह सौभाग्य है कि आचार्य श्री जैसे व्यक्तित्व आपकी पुस्तक पर बोले और उस पुस्तक से कुछ कविताओं का पाठ भी करें
सन्ति सन्तः कियन्तः
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अन्य टिप्पणियों के साथ
नरेश बत्रा जी की टिप्पणी-
दलिताख्या कवेः कोटिः संस्कृते नैव कल्प्यते।।
कौशल तिवारी-
नरेश बत्रा जी संस्कृत में भी दलित विमर्श काव्य लिखा और पढ़ा जा रहा है
प्रचेतस शास्त्री
Kaushal Tiwari जी लिखा जा रहा है आपकी कविताएं भी हम लोगों ने पढ़ी है। आप, हीरालाल शुक्ल, हर्षदेव माधव आदि संस्कृत कवि लिख रहे हैं।
रामहेत गौतमः
नास्ति बन्ध्या संस्कृतभाषा।
भवितुं सक्यते। यथा हिन्दीदलित-साहित्ये प्रेमचंदः तथैव संस्कृतदलित-साहित्ये हीरालालशुक्लः। दलितोदयः नाम इति महाकाव्यम्। सरलानुक्रमणिकायां 1048तमे क्रमे
https://archive.org/details/dli.language.1920/page/n72/mode/1up
प्रचेतस शास्त्री
डाॅ. रामहेतगौतमः सागरम् मप्र आप भी संस्कृत गद्य में विमर्श की कहानियों को लिखा कीजिए। संस्कृत जगत जल्दी स्वीकार नहीं करेगा फिर भी लिखिए आप।
रामहेत गौतमः
Prachetas Shastri जी लिखा जा रहा है।
नरेश बत्रा
नरेश बत्रा
प्राचीन/अधुनातन संस्कृत अलंकार शास्त्र में दलित कवि या दलित काव्य की कोई अवधारणा नहीं है। यह वामपंथियों की विकृत दृष्टि है जो समाज के साथ कवि/काव्य को भी दलित और सवर्ण कोटि में विभाजित कर रही है। विषय वस्तु कुछ भी हो रमणीयार्थप्रतिपादकता अथवा सहृदयहृदयाह्लादकता ही कवि/काव्य का एक मात्र विमर्श है। संस्कृत कवियों /रचनाकारों/समीक्षकों को इस पाश में फंसने से बचना चाहिए।
रामहेतः-
रमणीयार्थप्रतिपादकतया वा सहृदयहृदयाह्लादकतया साकं
नानाभावोपसम्पन्नं नानावस्थान्तरात्मकम्।
लोकवृत्तानुकरणं नाट्यमेतन्मया कृतम्।। ना.शा. 1.112
योsयं स्वभावो लोकस्य सुखदुःखसमन्वितः।
सोsङ्गाद्यभिनयोपेतो नाट्यमित्यभिधीयते।। नाट्य.शा. 1.119
भरतवचनमपि न विस्मरणीयम्।
संस्कृतजगति पुरातना नास्ति हाईकू, गजज्जलिका, फिल्मगीतानुवाद-परम्परा तदपि संस्कृतसरितायां गंगायां मिलति फलति च नवा विधा।
दलितानां विषयेsपि
स्वीकरणीयमिदं वेदान्तवचनं
,सर्वभूतेषु चात्मानं ततो न विजुगुप्सते'
लोके विजुगुप्सा विद्यते यदि तर्हि तस्या निवारणार्थं पीडितस्य पीडामनुभूय वाल्मीकिवदद्यापि करुणामवधारय निर्गतनिखिलकल्मषहृदय!
प्रणमामि।
नरेश बत्रा-
नानाभाव-नानावस्थासु सर्वमन्तर्भूतमिति संज्ञाविशेषकरणं दोषायते इति मत्पक्षः।
डाॅ. रामहेतगौतमः सागरम् मप्र -
यथा हिरण्यगर्भतैजसोः अभेदः तदपि उपाधिभेदेन भेदः स्वीक्रियते बुधैः तथैव संस्कृतसाहित्येपि जैनसाहित्यं, बौद्धसाहित्यं, वैदिकसाहित्यं, आर्षसाहित्यं इत्यादयः भेदा अपि दृश्यन्ते संस्कृतजगति तदा किं कारणं 'संस्कृतदलितसाहित्यभेदं स्वीकर्तुं न क्षमाः विद्वान्सः।
भवता सह मम वार्तेयं भवतः अवमानाय न, भवान् तु मे मान्यः कविः। इयं तु संस्कृतस्य मानाय एव। संस्कृतविदुषां मनसि नवोन्मेषाय एव।
पटलोsयं कौशलतिवारीमहोदयस्य न मम न भवतः। अतः तिवारीमहोदयं याचामि क्षमां। तथा प्रणमामि विरमामि च।