घोड़ी से उतारना,
सिखाया है किसने?
राजनीति ने!
नहीं।
मेड़ से न निकलने देना,
सिखाया है किसने?
राजनीति ने!
नहीं।
काम करा के मजदूरी न देना,
सिखाया है किसने?
राजनीति ने!
नहीं।
सामान उठा लेना, वापिस न करना,
सिखाया है किसने?
राजनीति ने!
नहीं।
वस्ती में जाकर गाली देना,
सिखाया है किसने?
राजनीति ने!
नहीं।
बेगार से मना करें तो,
मार-पीट करना,
सिखाया है किसने?
राजनीति ने!
नहीं।
घरों में आग लगाना,
सिखाया है किसने?
राजनीति ने!
नहीं।
बहू-बेटी उठालेना,
सिखाया है किसने?
राजनीति ने!
नहीं।
सबाल करें तो वहिष्कार करना,
सिखाया है किसने?
राजनीति ने!
नहीं।
हक मांगें तो औकात दिखाना,
सिखाया है किसने?
राजनीति ने!
नहीं।
जात पूछकर कमरा देना,
सिखाया है किसने?
राजनीति ने!
नहीं।
जात पूछकर नौकर रखना
सिखाया है किसने?
राजनीति ने!
नहीं।
जात पूछकर प्रवेश देना,
सिखाया है किसने?
राजनीति ने!
नहीं।
जात पूछकर NFS करना,
सिखाया है किसने?
राजनीति ने!
नहीं।
खेल यह अब शुरूं हुआ है?
नहीं।
जब था राजतंत्र,
राजा ही भगवान था,
किसी को वरदान था,
किसी को शैतान था,
कोई षड़यंत्री शैतान था,
बहका देता राजा को,
लपेट आस्था ईश्वर की,
बच्चा मर गया है उसका,
किसी शूद्र के तपने से,
डर राजा को भी था,
धूर्त कलमकारों से,
मरबूरी भवभूति सी,
उछल रहीं गर्दन-पगड़ियां,
तब से अब तक,
सोचता है अब भी दलित-
रौंद! धूल हूं, रौंदेगा कब तक?
दलित की आवाज दबा दी जाती रही है
सिर्फ सुनाने का हुनर वालों के द्वारा।
सुनना उन्हें अब भी नहीं आया।
डरते हैं वे कि कहीं दलितों की चीख दुनिया न सुन ले।
इसलिए छुपा देते हैं सबाल।
खैर छुपा दें दुनिया से,
पर सत्य के सवाल हैं,
आत्मा में तो उतर ही जायेंगे,
आत्मा होगी तो कचोटेगी,
झकझोर का असर होगा,
झुंझलाहट हो सकती है सुनकर,
जैसे झुंझलाहट में वाजश्रवस
कह गया था-
मृत्यवे त्वा ददामीति।
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