हितोपदेश ग्रन्थ का अर्थ है वह पुस्तक जो भलाई का ज्ञान दे। यथार्थ में इस पुस्तक के पढ़ने वालों को भलाई-बुराई का ज्ञान होकर; भलाई करना, बुराई से दूर रहना, इसका उपदेश मिलता है। इस पुस्तक के प्रारम्भ में ही कहा गया है कि इसके पढ़ने से संस्कृत में पटुता तथा भिन्न-भिन्न प्रकार की वाक्-चातुरी एवं नीतिशास्त्र का ज्ञान होता है। जिस प्रकार कच्चे घड़ पर जो ही रंग लगा दिया जाता है वही रंग बना रहता है उसी प्रकार कथाओं के द्वारा बालकों के मन में जो नीतिशास्त्र का ज्ञान भर दिया जाता है वह उनके मन में सदा के लिए बैठ जाता है। बाल्यावस्था में न बुद्धि ही इतनी परिपक्व रहती है कि कठिन विषय को समझ सके तथा न धैर्य ही उतना रहता है कि उस कठिन विषय को सुनने में मन लगाये, किन्तु सरल कथाएँ सुनने को उनका जी चाहता है और वे उन कथाओं को समझ भी सकते हैं, इसलिए महाविद्वान् विष्णु शर्मा ने कौवे, कछुए, गीदड़, बैल, हरिण और चूहों की कथाओं के द्वारा लड़कों को अमृतपान कराया है। औषधि खाने में कड़वी होती है, इसलिये औषधि खाने को जी नहीं चाहता, किन्तु जब मधु के साथ औषधि दी जाती है तो वह खाने के योग्य होती है और उसका परिणाम भी अच्छा होता है। इसी प्रकार कथारूप मधु के द्वारा नीतिशास्त्र-रूप औषधि पिलाई जाती है। विष्णु शर्मा ने राजपुत्त्रों को शिक्षित करने के लिए पञ्चतन्त्र का प्रणयन किया । उसी पञ्चतन्त्र का सार लेकर यह हितोपदेश बना है। हितोपदेश का संग्रह किसने किया यह विषय निश्चित नहीं है, किन्तु मूल पुस्तक पञ्चतन्त्र के लेखक विष्णु शर्मा के विषय में लोगों का मत यही है कि वे ही चाणक्यापर नामक अर्थशास्त्र के लेखक कौटिल्य हैं। ये चन्द्रगुप्त मौर्य के मन्त्री थे। इन्हीं का अपर नाम वात्स्यायन भी है जिन्होंने गौतम के न्यायसूत्र पर भाष्य लिखा है।
दो हजार वर्ष से ऊपर हुए जबसे यह पुस्तक प्रचलित है, करोड़ों बालकों को इस ग्रन्थरत्न के द्वारा उपदेश मिलता आ रहा है। इस ग्रन्थ का अनुवाद,
जगत् की जितनी समृद्धिशाली भाषायें हैं, उनमें हुआ है। इसी ग्रन्थ के आधार पर अन्य भाषाओं में भी उपदेशप्रद कथायें लिखी गयी हैं। इस प्रकार इस ग्रन्थ को संसार भर से यह प्रतिष्ठापत्त्र (Certificate) मिल गया है कि बालकों के लिए उपदेशप्रद ऐसा ग्रन्थ संसार में विरल है।
यह ग्रन्थ न केवल नीतिशास्त्र का उपदेश देता है; किन्तु बालकों को संस्कृत सिखाने के लिए यह अद्वितीय पुस्तक है। इसके सरल सुन्दर वाक्य अभ्यास के योग्य हैं, जिनके अभ्यास से अनायास संस्कृत आ जाती है। एक ही विषय को भिन्न-भिन्न व्यक्ति अपनी युक्ति से कैसे समर्थन करते हैं तथा ऐसी परिस्थिति में तत्त्व विषय ग्रहण कैसे करना, इसमें बड़ी बुद्धिमत्ता है। इस हितोपदेश का मित्नलाभ प्रकरण बहुमूल्य वस्तु है। इस प्रकार इस पुस्तक के अभ्यास से अनेक गुण प्राप्त होते हैं।
पं० श्री विश्वनाथ झा व्याकरणाचार्य ने इस पुस्तक के मित्रलाभ प्रकरण की सरल संस्कृत व्याख्या तथा हिन्दी व्याख्या लिखकर बिना गुरु के ही अध्ययन योग्य बना दिया है। मुझे पूर्ण आशा है कि इस सरल व्याख्या से छात्रों का परम उपकार साधित होगा ।
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