Friday, 11 July 2025

हितोपदेश

उदारता, परजनों के प्रति दया, दुष्टों के प्रति शठता, सज्जनों के प्रति प्रेम, नीच जनों के प्रति औद्धत्य, विद्वानों के प्रति सरलता, शत्रुओं के प्रति वीरता, गुरुजनों के प्रति क्षमाभाव, स्त्रियों के प्रति धूर्तता जो पुरुष उक्त व्यवहारिक कलाओं में कुशल-दक्ष-है, वही इस विचित्र संसार में निभ सकता है।" (२२) सन्तों को परोपकार करने के लिए प्रेरित करने की आवश्यकता नहीं होती, उनमें परोपकार करने की भावना निसर्गतः ही रहती है- 'सन्तः स्वयं परहितेषु कृताभियोगाः' । (७३) यहाँ यह ध्यातव्य है कि 'नीतिशतक' में केवल नैतिक आदर्शों का ही प्रतिपादन नहीं किया गया है, उसमें इस विचित्र संसार की निष्ठुरता और हृदयहीनता के प्रति स्पष्ट विद्रोह की भावना भी मुखर हो उठी है। वह संसार के इस व्यवहार के कारण अत्यन्त दुःखी है-

'बोद्धारो मत्सरग्रस्ताः प्रभवः स्मयदूषिताः । अबोधोपहताश्चान्ये जीर्णमंगे सुभाषितम् ।।'

'जिनमें समझने की शक्ति है, वे ईर्ष्या द्वेष की भावना से ग्रस्त है, जिनमें प्रभुता या अधिकार केन्द्रित है, वे अहंकार से अभिभूत है, शेष सभी अज्ञान में निमग्न हैं, इसीलिए तो मेरी समस्त उपदेशपूर्ण सूक्तियाँ मेरे अन्दर ही जीर्ण हुई जा रही है।'-

'राजाओं का औद्धत्य, धन का मद, दासता का अपमान, शिक्षा और शिष्टता से दम्भ और अभिमान का संघर्ष, दुष्टों और मूर्खे के द्वारा सज्जनों और विद्वानों का अपमान (मखौल) ये बानगी के रूप में उपन्यस्त बातें कवि के हृदय में शूल की तरह चुभती हैं।

उक्त तीनों शतकों का अनुशीलन कवि के सांसारिक विविधतापूर्ण एवं गहरे अनुभव को, मानव मन की वृत्तियों के सूक्ष्म निरीक्षण को एवं चित्त में उत्पन्न होनेवाली विरक्ति के अन्वेषित स्रोत को स्पष्टांकित कर देता है।

उक्त तीनों शतकों में प्रयुक्त एक जैसी प्रांजल शैली और मनोहर पद-लालित्य कवि की काव्य-प्रतिभा को प्रदर्शित करता है। उपन्यस्त उदाहरणों की विषयानुरूपता और सूक्तियों का भाव सौन्दर्य तथा उनकी रसाप्लुत कमनीयता के कारण ही भर्तृहरि के शतकत्रय की साहित्य जगत् में आज विशेष प्रसिद्धि है। यदि यह कहा जाय कि भर्तृहरि के रससिद्ध सुभाषितों के सम्मुख सुधा तिरस्कृत होने के

भय से भूतल को छोडकर दिव्यलोक को चली गई तो, कोई अत्युक्ति नहीं होगी-'सुभाषितरसस्याग्रे सुधा भीता दिवं गता' ।

नीतिशतकम् की डॉ. राजेश्वर शास्त्री मुसलगाँवकर द्वारा संस्कृत के साथ अंग्रेजी तथा हिन्दी भाषा में की गई व्याख्या अबतक चली आ रही बहुत बड़ी कमी को पूरा करने का एक सार्थक प्रयास है। डॉ. राजेश्वर मुसलगाँवकर का संस्कृत साहित्य के गहन अध्ययन में स्वयं के प्रयत्नों के साथ परिवार की विद्वत् परम्परा का भी महत्त्वपूर्ण योगदान है। लम्बे काल से अनुभव किया जा रहा है कि प्राचीन ज्ञान को वर्तमान पीढ़ी तक पहुंचाने के दायित्व निर्वाह में विद्वज्जनों ने अपेक्षित ध्यान नहीं दिया है। मैं समझता हूँ कि डॉ. राजेश्वर ने इस कमी की भारपायी करने की ओर ध्यान दिया है। इस सम्बन्ध में बहुत कार्य किये जाने की आवश्यकता है और मैं आशा करता हूँ कि डॉ. राजेश्वर इस कमी को पूरा करने को एक अभियान के रूप में ग्रहण करके इसे आगे भी चालू रखेंगे। इसी विश्वास के साथ।

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