Friday, 5 December 2025

अम्बेडकर ने क्या किया?

अम्बेडकर ने क्या किया?

कसत कसौटी गुणन की, परखत पण्डित लोग।

जात कसौटी जन कसें, गौतम! धूरत लोग।।  

पितृसत्ता को चुनौति देकर स्त्री की आवाज को ताकत प्रदान की।

नारीवाद का चेहरा है अम्बेडकर।

मैटरनिटी लीव- कामकाजी महिलाओं के लिए।

महिला शिक्षा- 1913 न्यूयार्क अमेरिका भाषाण-

माँ बाप बच्चों को जन्म देते हैं, कर्म नहीं देते। माँ बच्चों के जीवन को उचित मोड़ दे सकती है। यह बात अपने मन पर अंकित कर यदि हम लोग अपने लड़को साथ अपनी लड़कियों को भी शिक्षित करें तो हमारे समाज की उन्नति और तेज होगी।

आज द्रोपदी मुर्मू राष्ट्रपति हैं।

अपने पिता के एक करीबी दोस्त को मंत्र में लिखा था-

बहुत जल्द भारत प्रगति की दिशा स्वयं तय करेगा लेकिन इस चुनौती को पूरा करने से पहले हमें भारतीय स्त्रियों की शिक्षा की दिशा में सकारात्मक कदम उठाने होंगे।

कल्पना चावला, इंदिरा, माया

18.07.1927 तीन हजार महिलाओं की गोष्ठी को संबोधित करने हुए बाबा साहब ने कहा-

आप अपने बच्चे स्कूल भेजिए। शिक्षा महिलाओं के लिए भी उतनी ही जरूरी है जितनी कि पुरुषों के लिए। यदि आपको लिखना पढ़ना आता है तो समाज में आपका उद्धार संभव है।

सावित्री बाई, रमा बाई, भागवती देवी इसके उदाहरण हैं।

17.07.1927 को ही बाबा साहब कहते हैं कि –

एक पिता का पहला काम अपने घर में स्त्रियों को शिक्षा से वंचित न रखने के संबन्ध में होना चाहिए। शादी के बाद महिलाएं खुद को गुलाम की तरह महसूस करती हैं। इसका सबसे बड़ा कारण निरक्षरता है। यदि स्त्रियाँ भी शिक्षित हो जाएं तो उन्हें ये कभी महसूस नहीं होगा।

महिलाओं की शिक्षा की आजादी के लिए प्रयास किये।

जड़-मूर्ख कपटी मानने वाले शास्त्रों तक का विरोध व खण्डन किया।

स्त्री-शूद्रो न धीयतांके सिद्धान्त को उखाड़ फेका।

मैटरनिटी लीव(26 हफ्तों की)

18.11.1938 को बाम्बे लेजिलेटिव असेंबली में महिलाओं के मुद्दे उठाते हुए प्रसव के दौरान स्वास्थ्य जुड़ी चिन्ता व्यक्ति की।

1942 में सबसे पहले मैटरनिटी बैनिफिट बिल असेम्बली में लाये।

1948 के कर्मचारी वीमा अधिनियम के माध्यम से मातृत्व अवकाश मिला। जबकि अमेरिका में यह 1987 में कोर्ट के दखल के बाद मिला।

अमेरिका ने 1993 में परिवार और चिकित्सा अवकाश अधिनियम बनाया।

भारत में 1940 के दशक में ही बाबा साहब कर दिये।

लैंगिक समानता- स्त्री-पुरुष समानता-

आर्टिकल 14-16 में स्त्री समान अधिकार - किसी भी महिला को सिर्फ महिला होने की बजह से किसी अवसर से वंचित नहीं रखा जायेगा। और न ही उसके साथ लिंग के आधार पर कोई भेदभाव किया जा सकता है।

स्त्री-खरीद-फरोख्त व शोषण के विरुद्ध कानून-

स्त्री की पीठ पर नहाता ब्राह्मण

महिलाओं व बच्चों के लिए विशेष कदम उठाने के लिए राज्यों को संवैधानिक स्वीकृति प्रदान की।

मताधिकार-

दोयम दर्जे से निकालकर बराबरी से मताधिकार –

मनुस्मृति 9.2-3 में स्त्री की पराधीनता

स्विटजरलैंड 1971 स्त्री को मताधिकार मिला वहीं भारत में 26.01.1950 से ही असमानता की खायी को पाटा गया।

स्वरा भास्कर का वीडियो लगायें।

हिन्दू कोड बिल- तलाक, संपत्ति, बच्चे गोद लेने का अधिकार


'जिस दिन सम्राट असोक बौद्ध धम्म में बाकायदे दीक्षित हुए थे, ठीक उसी दिन बाबा साहब भी बौद्ध धम्म में बाकायदे दीक्षित हुए.


बाबा साहब ने धम्मदीक्षा के लिए प्राचीन बौद्ध - स्थल नागपुर को चुना.

बाबा साहब ने पुस्तकालय का नाम प्रथम बौद्ध संगीति स्थल राजगृह के नाम पर रखा.

बाबा साहब ने अपनी आखिरी किताब लिखने के लिए बुद्ध और उनके धम्म को चुना.

बाबा साहब ने धम्म पर लिखी किताब को अष्टांगिक मार्ग की भाँति आठ खंडों में विभाजित किया.

बाबा साहब को बौद्ध परंपराओं की बेहद गंभीर समझ थी.

भारत के राजनेताओं में सर्वाधिक पुस्तकें लिखने और पढ़ने का श्रेय बाबा साहब अंबेडकर को है.

उनका ज्ञान समुद्र की भाँति गहरा और आसमान की भाँति विस्तृत था.

पुरानी बाइबिल में 5642, नई बाइबिल में 4800, मिल्टन में 8000 और 

डाॅ. अंबेडकर की अंग्रेजी में लगभग 8500 शब्दों का प्रयोग हुआ है.'

आज बोधिसत्व बाबा साहब को विनम्र श्रद्धांजलि!

Friday, 14 November 2025

दलित

विस्तृत जानकारी
शब्द दलित

दलित शब्द का सही अर्थ क्या है?
दलित (संस्कृत: दलित, रोमानी: डैलिट), जिसका अर्थ संस्कृत और हिंदी में "टूट / बिखरा हुआ" है, भारत में जातियों से संबंधित लोगों के लिए इस्तेमाल किया जाने वाला एक शब्द है जो अस्पृश्यता के अधीन है। [१] दलितों को हिंदू धर्म की चार गुना वर्ण व्यवस्था से बाहर रखा गया था और उन्हें पंचम वर्ण के रूप में देखा जाता था, जिसे पंचम के नाम से भी जाना जाता है। दलित अब हिंदू, बौद्ध, सिख, ईसाई, इस्लाम और विभिन्न अन्य विश्वास प्रणालियों सहित विभिन्न धार्मिक विश्वासों को स्वीकार करते हैं।

दलित शब्द 1935 से पहले डिप्रेस्ड क्लासेस के ब्रिटिश राज जनगणना वर्गीकरण के लिए एक अनुवाद के रूप में इस्तेमाल किया गया था। इसे अर्थशास्त्री और सुधारक बीआर अंबेडकर (1891-1956) द्वारा लोकप्रिय बनाया गया था, जिन्होंने अपनी जाति के सभी अवसादग्रस्त लोगों को परिभाषा में शामिल किया था। दलितों के। [२] इसलिए उन्होंने जो पहला समूह बनाया, उसे "लेबर पार्टी" कहा गया और इसके सदस्यों में समाज के सभी लोगों को शामिल किया गया, जिन्हें महिलाओं, छोटे पैमाने पर किसानों और पिछड़ी जातियों के लोगों सहित, उदास रखा गया। कन्हैया कुमार जैसे वामपंथी "दलितों" की इस परिभाषा का समर्थन करते हैं; इस प्रकार एक ब्राह्मण सीमांत किसान जीवित रहने की कोशिश कर रहा है, लेकिन ऐसा करने में असमर्थ भी "दलित" श्रेणी में आता है। [३] [४] अम्बेडकर स्वयं एक महार थे, और 1970 के दशक में दलित पैंथर्स एक्टिविस्ट ग्रुप द्वारा अपनाया जाने पर "दलित" शब्द के इस्तेमाल को हटा दिया गया था। धीरे-धीरे, राजनीतिक दलों ने इसका उपयोग लाभ प्राप्त करने के लिए किया।

भारत का राष्ट्रीय अनुसूचित जाति आयोग दलित के आधिकारिक उपयोग को "असंवैधानिक" मानता है क्योंकि आधुनिक कानून अनुसूचित जातियों को पसंद करता है; हालाँकि, कुछ सूत्रों का कहना है कि दलित ने अनुसूचित जातियों के आधिकारिक कार्यकाल की तुलना में अधिक समुदायों को शामिल किया है और कभी-कभी भारत के सभी उत्पीड़ित लोगों का उल्लेख किया जाता है। नेपाल में ऐसी ही एक सर्वव्यापी स्थिति बनी हुई है।

अनुसूचित जाति समुदाय पूरे भारत में मौजूद हैं, हालांकि वे ज्यादातर चार राज्यों में केंद्रित हैं; वे एक भी भाषा या धर्म साझा नहीं करते हैं। 2011 की भारत की जनगणना के अनुसार, उनमें भारत की 16.6 प्रतिशत आबादी शामिल है। इसी तरह के समुदाय पूरे दक्षिण एशिया में, नेपाल, पाकिस्तान, बांग्लादेश और श्रीलंका में पाए जाते हैं, और वैश्विक भारतीय प्रवासी का हिस्सा हैं।

1932 में, ब्रिटिश राज ने सांप्रदायिक पुरस्कार में दलितों के लिए नेताओं का चयन करने के लिए पृथक निर्वाचकों की सिफारिश की। यह अंबेडकर का पक्षधर था लेकिन जब महात्मा गांधी ने इस प्रस्ताव का विरोध किया तो इसका परिणाम पूना पैक्ट हुआ। बदले में, भारत सरकार अधिनियम, 1935 से प्रभावित हुआ, जिसने डिप्रेस्ड क्लास के लिए सीटों का आरक्षण शुरू किया, जिसे अब अनुसूचित जाति के रूप में बदल दिया गया।

1947 में अपनी स्वतंत्रता के तुरंत बाद, भारत ने राजनीतिक प्रतिनिधित्व करने और नौकरी और शिक्षा प्राप्त करने के लिए दलितों की क्षमता बढ़ाने के लिए एक आरक्षण प्रणाली की शुरुआत की। [स्पष्टीकरण की आवश्यकता] 1997 में, भारत ने अपना पहला दलित राष्ट्रपति, के आर नारायणन को चुना। कई सामाजिक संगठनों ने शिक्षा, स्वास्थ्य सेवा और रोजगार के माध्यम से दलितों के लिए बेहतर परिस्थितियों को बढ़ावा दिया है। बहरहाल, जबकि भारत के संविधान द्वारा जाति-आधारित भेदभाव को निषिद्ध और अस्पृश्यता को समाप्त कर दिया गया था, इस तरह की प्रथाएं अभी भी व्यापक हैं। इन समूहों के खिलाफ उत्पीड़न, हमले, भेदभाव और इसी तरह के कृत्यों को रोकने के लिए, भारत सरकार ने 31 मार्च 1995 को अत्याचार निवारण अधिनियम, जिसे SC / ST अधिनियम भी कहा जाता है, लागू किया।

बॉम्बे उच्च न्यायालय के आदेश के अनुसार, भारत सरकार के सूचना और प्रसारण मंत्रालय (I & B मंत्रालय) ने सितंबर 2018 में सभी मीडिया चैनलों को एक सलाह जारी की, जिसमें उन्हें "दलित" शब्द के बजाय "अनुसूचित जाति" का उपयोग करने के लिए कहा गया। "। [5]

व्युत्पत्ति और उपयोग संपादित करें

मुख्य लेख: दलित अध्ययन

दलित शब्द संस्कृत के दलित (दलित) का एक शाब्दिक रूप है। शास्त्रीय संस्कृत में, इसका अर्थ है "विभाजित, विभाजित, टूटा हुआ, बिखरा हुआ"। इस शब्द का 19 वीं शताब्दी के संस्कृत में अर्थ "एक व्यक्ति" था जो चार ब्राह्मण जातियों में से एक से संबंधित नहीं था। "[6] संभवतः इस अर्थ में पहली बार पुणे स्थित समाज सुधारक ज्योतिराव फुले ने अन्य हिंदुओं की तत्कालीन "अछूत" जातियों द्वारा उत्पीड़न के संदर्भ में इसका इस्तेमाल किया था। [in]

दलित का उपयोग ज्यादातर उन समुदायों का वर्णन करने के लिए किया जाता है जो अस्पृश्यता के अधीन हैं। [mostly] [९] ऐसे लोगों को हिंदू धर्म के चार गुना वर्ण व्यवस्था से बाहर रखा गया था और खुद को पंचम के रूप में वर्णित करते हुए खुद को पांचवा वर्ण बनाने के बारे में सोचा था। [१०]

यह शब्द ब्रिटिश राज की जनगणना के लिए 1935 से पहले के वर्गीकरण के अनुवाद के रूप में इस्तेमाल किया गया था। [8] यह अर्थशास्त्री और सुधारक बी। आर। अम्बेडकर (1891-1956) द्वारा लोकप्रिय था, जो खुद एक दलित थे, [11] और 1970 के दशक में जब दलित पैंथर्स एक्टिविस्ट ग्रुप द्वारा इसे अपनाया गया था, तब इसका उपयोग बंद कर दिया गया था। [8]

दलित एक राजनीतिक पहचान बन गया है, उसी तरह जैसे कि एलजीबीटीक्यू समुदाय ने एक तटस्थ या सकारात्मक स्व-पहचानकर्ता के रूप में और एक राजनीतिक पहचान के रूप में अपने पीजोरेटिव उपयोग से कतार को पुनः प्राप्त किया। [१२] सामाजिक-कानूनी विद्वान ओलिवर मेंडेलसोहन और राजनीतिक अर्थशास्त्री मारिका विस्ज़नी ने 1998 में लिखा था कि यह शब्द "अत्यधिक राजनीतिक हो गया था ... जबकि शब्द का उपयोग अछूत राजनीति के समकालीन चेहरे के साथ एक उचित एकजुटता व्यक्त करने के लिए हो सकता है, इसमें प्रमुख समस्याएं हैं।" इसे एक सामान्य शब्द के रूप में अपनाते हुए। हालांकि यह शब्द अब काफी व्यापक है, लेकिन बीआर अंबेडकर की छवि से प्रेरित राजनीतिक कट्टरपंथ की परंपरा में अभी भी इसकी जड़ें गहरी हैं। " उन्होंने इसके उपयोग का सुझाव दिया कि भारत में अछूतों की पूरी आबादी को एक कट्टरपंथी राजनीति द्वारा एकजुट करने के लिए गलत तरीके से लेबल लगाने का जोखिम है। आनंद तेलतुम्बडे भी राजनीतिक पहचान को नकारने की दिशा में एक प्रवृत्ति का पता लगाते हैं, उदाहरण के लिए शिक्षित मध्यवर्गीय लोग, जिन्होंने बौद्ध धर्म में धर्मांतरण किया है और तर्क देते हैं कि, बौद्ध होने के नाते वे दलित नहीं हो सकते। यह उनकी सुधरी हुई परिस्थितियों के कारण हो सकता है कि जिस इच्छा के साथ वे विचार कर रहे हैं उससे संबंधित होने की इच्छा को जन्म दिया जाए, जो कि जनता को अपमानित करने वाला है। [१३]

अन्य शर्तें

आधिकारिक शब्द संपादित करें

अनुसूचित जाति, अनुसूचित जाति (एनसीएससी) के लिए भारत के राष्ट्रीय आयोगों की राय में दलितों के लिए आधिकारिक शब्द है, जिन्होंने कानूनी सलाह ली जो संकेत देती है कि आधुनिक कानून दलित को संदर्भित नहीं करता है और इसलिए, यह कहता है, यह आधिकारिक दस्तावेजों के लिए "असंवैधानिक" है। ऐसा करने के लिए। 2004 में, NCSC ने उल्लेख किया कि कुछ राज्य सरकारों ने दस्तावेज़ों में अनुसूचित जातियों के बजाय दलितों का इस्तेमाल किया और उन्हें हटाने के लिए कहा।

कुछ स्रोतों का कहना है कि दलित आधिकारिक अनुसूचित जाति की परिभाषा की तुलना में समुदायों की व्यापक श्रेणी को शामिल करता है। इसमें खानाबदोश जनजातियों और एक अन्य आधिकारिक वर्गीकरण शामिल हो सकता है, जो 1935 में अनुसूचित जनजाति होने के नाते ब्रिटिश राज सकारात्मक भेदभाव प्रयासों के साथ उत्पन्न हुआ था। [15] यह कभी-कभी भारत के उत्पीड़ित लोगों की संपूर्णता को भी संदर्भित करता है, [8] जो कि नेपाली समाज में इसके उपयोग पर लागू होता है। [९] अनुसूचित जाति श्रेणी की सीमाओं का एक उदाहरण यह है कि भारतीय कानून के तहत, ऐसे लोग केवल बौद्ध, हिंदू या सिख धर्म के अनुयायी हो सकते हैं, [16] फिर भी ऐसे समुदाय हैं जो दलित ईसाई और मुस्लिम होने का दावा करते हैं, [17] आदिवासी समुदाय अक्सर लोक धर्मों का पालन करते हैं। [१ practice]

हरिजन संपादित करें

महात्मा गांधी ने 1933 में अछूतों की पहचान करने के लिए भगवान के लोगों के रूप में अनूदित रूप से अनुवादित हरिजन शब्द को गढ़ा। इस नाम को अंबेडकर ने नापसंद किया क्योंकि इसने दलितों को मुसलमानों की तरह एक स्वतंत्र समुदाय होने के बजाय ग्रेटर हिंदू राष्ट्र से संबंधित माना। इसके अलावा, कई दलितों ने इस शब्द को संरक्षण और अपमानजनक माना। कुछ ने यह भी दावा किया है कि यह शब्द वास्तव में देवदासियों, दक्षिण भारतीय लड़कियों के बच्चों को संदर्भित करता है, जिनकी शादी एक मंदिर में हुई थी और सवर्ण हिंदुओं के लिए वेश्या और वेश्या के रूप में सेवा की गई थी, लेकिन इस दावे को सत्यापित नहीं किया जा सकता है। [१ ९] [२०] जरूरत है]। जब भारतीय स्वतंत्रता के बाद छुआछूत को गैरकानूनी घोषित कर दिया गया था, तो पूर्व-अछूतों का वर्णन करने के लिए हरिजन शब्द का उपयोग स्वयं दलितों की तुलना में अन्य जातियों में अधिक आम था। [२१]

क्षेत्रीय शब्द संपादित करें

दक्षिणी भारत में, दलितों को कभी-कभी आदि द्रविड़, आदि कर्नाटक और आदि आंध्र के रूप में जाना जाता है, जिसका शाब्दिक अर्थ है पहले द्रविड़, कन्नडिगा और अंधरा। इन शब्दों का पहली बार 1917 में दक्षिणी दलित नेताओं द्वारा उपयोग किया गया था, जो मानते थे कि वे भारत के मूल निवासी थे। [22] ये शब्द क्रमशः तमिलनाडु, कर्नाटक और आंध्र प्रदेश / तेलंगाना राज्यों में दलित जाति के किसी भी व्यक्ति के लिए एक सामान्य शब्द के रूप में उपयोग किए जाते हैं। [उद्धरण वांछित] [स्पष्टीकरण की आवश्यकता]

महाराष्ट्र में, इतिहासकार और महिला अध्ययन अकादमिक शैलजा पाइक के अनुसार, दलित एक शब्द है जिसका इस्तेमाल ज्यादातर महार जाति के सदस्यों द्वारा किया जाता है, जिसमें अंबेडकर का जन्म हुआ था। अधिकांश अन्य समुदाय अपनी जाति के नाम का उपयोग करना पसंद करते हैं। [२३]

नेपाल में, हरिजन से अलग और, आमतौर पर, दलित, हरिस (मुसलमानों के बीच), अचूत, बहिष्कृत और नीच जाति जैसे शब्दों का इस्तेमाल किया जाता है। [११]

Thursday, 13 November 2025

खरोष्ठीतील

खरोष्ठी लिपि : खरोष्ठी लिपीचे नाव अन्वर्थक आहे. गाढवाच्या ओठासारखी लपेटी असलेली ही लिपी, नॉर्थ सेमिटिक लिपीतून उत्पन्न झालेल्या ⇨ ॲरेमाइक लिपीपासून उत्पन्न झाली, असे ब्यूलर इ. विद्वानांचे मत आहे. कनिंगहॅम व इतर काही तज्ञांच्या मते खरोष्ठो हे नाव फा-वान-शु-लिन (६६८) या चिनी कोशात आणि इ. स. पू. तिसऱ्या शतकातील ललितविस्तार या बौद्ध ग्रंथात उल्लेखिलेले आहे. सेस्तान, कंदाहार, अफगाणिस्तान, स्वात, लडाख, चिनी तुर्कस्तान, तक्षशिला या भागांत खरोष्ठी लिपीतील लेख सापडतात. हिंदुकुश पर्वताच्या उत्तरेला मात्र या लिपीचा प्रसार झालेला दिसून येत नाही. तिच्या या मर्यादित क्षेत्रामुळे संशोधकांनी तिला निरनिराळी नावे दिली आहेत. सी. लासेन (१८००-७६) याने ‘काबुली लिपी’, विल्सन याने ‘ॲरिॲनियन लिपी’ आणि ए. कनिंगहॅम याने ‘गांधार लिपी’ असे तिचे नामकरण केले. खरोष्ठी लिपीतील लेख प्राकृत भाषेत असल्यामुळे ‘बॅक्ट्रा-पाली’ किंवा ‘ॲरिॲनो-पाली’ ही नावेसुद्धा तिला मिळाली आहेत. बॅक्ट्रियन-ग्रीक राजांच्या नाण्यांवर ही लिपी आढळून आल्यामुळे तिला ‘बॅक्ट्रियन लिपी’, ‘इंडो-बॅक्ट्रियन लिपी’ अशीही नावे मिळाली आहेत. फ्रेंच प्रवासी द्यूत्र्य द रॅन्स (१८४६-९४) तसेच स‌र आउरेल स्टाइन (१८६२-१९४३) आणि स्टेन कॉनॉव्ह (१८६७-१९४८) यांना खरोष्ठी लिपीतील लेख सापडले. स्टेन कॉनॉव्ह याने खरोष्ठीतील लेख कॉर्पस इन्स्क्रिप्शनम् इंडिकॅरम (खंड दुसरा, भाग पहिला, १९२९) या ग्रंथात प्रसिद्ध केले. पश्चिम पाकिस्तानमधील हझार जिल्ह्यातील मानसेहरा व पेशावर जिल्ह्यातील शाहबाझगढी येथे अशोकाचे खरोष्ठीमधील लेख सापडले असून हे लेख स‌र्वांत जुने (इ. स‌. पू. तिसरे शतक) आहेत. कंदाहारजवळ खरोष्ठी आणि ॲरेमाइक अशा दोन लिपींत असलेला अशोकाचा लेख सापडला आहे. कुशाणांच्या राजवटीतील खरोष्ठी-लेख मथुरेला सापडले आहेत. खरोष्ठी लिपी क्षत्रपांच्या नाण्यांवर तसेच शहरात राजांच्या नाण्यांवर आढळून येते. हूणांच्या स्वाऱ्यांनंतर (इ.स. पाचवे शतक) मात्र खरोष्ठीचा भारतात मागमूसही उरला नाही.

ब्राह्मीप्रमाणेच खरोष्ठीचे लेख प्रस्तर, धातूचे पत्रे, नाणी, उंटाचे कातडे, भूर्जपत्र यांवर सापडतात. खोतान येथे दुसऱ्या शतकातील खरोष्ठी लिपीत लिहिलेले भूर्जपत्रावरील हस्तलिखित सापडले आहे. कोरणे आणि लेखणीने उंटाच्या कातड्यावर अगर भूर्जपत्रावर लिहिणे, अशा खरोष्ठी लेखनाच्या दोन पद्धती आहेत. खरोष्ठी लिपीच्या अभ्यासावरून असे दिसते, की तीत एक प्रकारचा साचेबंदपणा आहे. एकच ठरीव साच्याची अक्षरवटिका खरोष्ठीमध्ये असली, तरी कोणत्याही भाषेतील उच्चारवैचित्र्य अक्षरांकित करण्याचे सामर्थ्य या लिपीत आहे. या लिपीतील उच्चारचिन्हांमुळे कोणत्याही शब्दातील ध्वनीची अभिव्यक्ती करण्याचे सामर्थ्य तिच्यात असल्याचे दिसून येते. ती उजवीकडून डावीकडे लिहिली जाई. धातूमध्ये फरक पडला, तर अक्षरवटिकेत थोडाफार फरक आढळतो परंतु एकदा एखाद्या धातूवर लिहिण्याची पद्धत पडून गेली, तर तीच पद्धत कसोशीने पाळली जाई. त्यामुळे खरोष्ठी लेखांची कालानुरूप परंपरा लावणे कठीण आहे. ब्यूलरच्या मते खरोष्ठी लिपी ब्राह्मी लिपीपेक्षाही अधिक लोकप्रिय होती. ती तत्कालीन ग्रांथिक लिपी होती. १८३३ मध्ये जनरल व्हेंटुरा यांनी माणिक्याल स्तूपाचे उत्खनन केले. त्यात खरोष्ठी आणि ग्रीक या दोन्ही लिपींमध्ये नावे असलेली इंडो-ग्रीक राजांची नाणी सापडली. ती ई. नॉरिस, कर्नल मॅसन, कनिंगहॅम व जेम्स प्रिन्सेप यांनी वाचली आणि अशा तऱ्हेने खरोष्ठी लिपी वाचण्याची गुरुकिल्ली इंडो-ग्रीक राजांच्या द्वैभाषिक नाण्यांमुळे उपलब्ध झाली.

संदर्भ : 1. Buhler, George, Indian Palaeography, Calcutta, 1962.

          2. Dani, A. H. Indian Palaeography, Oxford, 1963.

          3. Dasgupta, C. C. Development of the Kharosthi Script, Calcutta, 1958.

          4. ओझा, गौरीशंकर, भारतीय प्राचीन लिपिमाला, दिल्ली, १९५९.                         

गोखले, शोभना ल.

पाण्डुलिपि

शिलालेखाचा नमुना : पळसदेव (ता. दौंड, जि. पुणे) येथील सरडेश्वराच्या देवळातील खांबावर खोदलेला मराठी शिलालेख, शक १०७९ (इ. स. ११५७).
लेखनसाहित्य : ज्यावर, वा ज्याच्या साहाय्याने लेखन केले जाते, अथवा कोरले जाऊ शकते, असे

लेखनसाहित्य : ज्यावर, वा ज्याच्या साहाय्याने लेखन केले जाते, अथवा कोरले जाऊ शकते, असे साहित्य वा सामग्री. लेखन हे केवळ विचारप्रकटनाचे साधन नसून भाषाप्रसाराचे माध्यम मानले जाते. लेखनासाठी प्राचीन काळापासून निरनिराळी माध्यमे वारपलेली आढळतात. प्रारंभी लेखन भूर्जपत्र, कातडी, शंख, मातीच्या विटा, कापड, प्रस्तर, लोखंड, कथिल, कासे, रुपे, सुवर्णपत्र, पितळ इत्यादींवर केले जाई. पुढे लेखणी, शाई यांच्या साहाय्याने कागदावर लेखन केले जाऊ लागले व मुद्रणकलेचा शोध लागून त्याचा प्रसार झाला. अशा लेखनावरून तत्कालीन साहित्याचा व विकासाचा आढावा घेता येतो.

प्राचीन लेखनसाहित्यांत प्रस्तराचे अनन्यसाधारण महत्त्व आहे, याचे कारण त्याचे चिरस्थायित्व. धातू झिजतात ऊन, वारा व पाऊस यांमुळे ते गंजतात. प्रस्तर गंजत नाहीत धातूंच्या तुलनेत त्यांची झीज अत्यल्प असते. त्यामुळे प्राचीन कालीन प्रस्तराची लोकप्रिय लेखन साहित्यांत गणना करावी लागेल. दगडावर लेख लिहिण्यापूर्वी तो गुळगुळीत करण्यात येई. त्यावर काळ्या शाईने अगर खडूने मजकूर लिहीत. नंतर कोरक्या छणीने खोदून तो मजकूर पक्का केला जाई. अशा तऱ्हेने लेखरचना करणारा विद्वान, अक्षरे वळणदार काढणारा आणि कोरक्याचे काम करणारा, अशी तीन माणसे शिलालेखासाठी लागत. 
भारतातील सर्वांत प्राचीन शिलालेख सम्राट अशोकाचे आहेत. शैलस्तंभांवरही त्याचे लेख आढळतात. देवळासमोर स्तंभ उभारतात, त्याला ध्वजस्तंभ किंवा दीपमाळ म्हणतात. बेसनगर येथील ध्वजस्तंभावर हेलिओडोरस या ग्रीक राजदूताचा लेख आहे. प्राचीन काळी दिग्विजयानंतर राजे कीर्तिस्तंभ उभारीत. मंदसोर व ताळगुंद येथील अनुक्रमे यशोधर्मा आणि कदंबराज काकुस्थवर्मा यांचे कीर्तिस्तंभ प्रसिद्ध आहेत. अलाहाबाद येथे अशोकस्तंभावरच समुद्रगुप्ताचा दिग्विजय लेख आहे. अशा कीर्तिलेखास ‘प्रशस्ति’ म्हणतात. एखादा शूर वीर युद्धात मारला गेल्यास, त्याच्या नावाने त्याच्या गावी शिला उभारली जात असे तीवर त्याचे नाव, कालखंड कोरलेले असत. अशा शिलेला ‘वीरगळ’ म्हणतात. मृत वीराची पत्नी सती जात असे. तिच्यासाठी उभारलेल्या शिळेवर पति-पत्नींची नावे कोरली जात. त्या शिळेस ‘सतीचा दगड’ असे संबोधतात. तीर्थक्षेत्राच्या ठिकाणी यात्रेकरू पुण्यप्राप्तीसाठी स्तंभावर आपली नावे कोरवीत त्याला ‘दानस्तंभ’ म्हणतात. नागार्जुनकोंडा, भारहूत येथील बौद्धकालीन स्तूपांच्या भग्नावशेषांत अशा तऱ्हेचे स्तंभ सापडतात. मृत नातेवाईकांच्या नावानेही स्तंभ उभारले जात त्यांना ‘गोत्रशैलिका’ म्हणतात. काही वेळा स्तंभावर मृताची प्रतिकृती दाखविलेली असते त्या स्तंभास ‘छायास्तंभ’ म्हणतात. यज्ञस्तंभावर लेख असतात त्या स्तंभास ‘यूप’ असे संबोधतात. एका अक्षरापासून सबंध ग्रंथ दगडांवर कोरल्याची उदाहरणे आहेत. मेवाडमध्ये विजौत्याच्या जैन मंदिराजवळ १२२६ मध्ये उन्नतपुराण कोरलेली एक शिला आहे. शिलालेखामध्ये लेखाच्या आंरभी आणि शेवटी एखादे मंगलसूचक स्वस्तिकासारखे चिन्ह असते. तसेच इष्ट देवतेला वंदन केलेले असते. कित्येक वेळा ‘सिद्धम्’ हा शब्द सुरुवातीला आढळतो. विषय समाप्तीनंतर कमळ, वर्तुळही दाखविण्याची प्रथा होती. शिलालेखाचे दोन प्रकार आहेत : एक खोदलेल्या अक्षरांचे आणि दोन उठावाच्या अक्षरांचे. अरबी, फार्सी लेख उठावाच्या अक्षरांनी लिहिलेले असतात. दगडी भांडी, मूर्तीची आसनपट्टी, विहिरीची अगर मंदिराची कोनशिला यांवर लेख आढळून येतात. 

ताम्रपटावरील कोरीव लेखनाचा नमुना : सामंत नागदेव याचा पल्लिका (गाव) संस्कृत-मराठी ताम्रपट (पत्रा दुसरा), शक १२७४ (इ. स. १३५२). 
ताम्रपटावरील कोरीव लेखनाचा नमुना : सामंत नागदेव याचा पल्लिका (गाव) संस्कृत-मराठी ताम्रपट (पत्रा दुसरा), शक १२७४ (इ. स. १३५२).
ताम्रपट : प्रस्तराप्रमाणेच प्राचीन काळात ताम्रपट अतिशय
 शय लोकप्रिय असल्याचे दिसून येते. बौद्धविहारांत ताम्रपत्रे असल्याचा चिनी यात्रेकरू फाहियान याने उल्लेख केलेला आहे. ताम्रपत्रांचे आकार लहानमोठे असले, तरी लांबट-चौकोनी आकार वैशिष्ट्यपूर्ण आढळतो. राजमुद्रा ओतीव असून तिची कडी शासनपत्राच्या बाजूला असलेल्या वर्तुळाकार छिद्रांतून घातलेली असते. राज्यशासनाची पत्रे तीन असली, तर पहिल्या पत्राच्या आतील बाजूस लिहीत असत वरची बाजू तशीच मोकळी ठेवीत. मधल्या पत्रावर दोन्ही बाजूंनी लिहीत.तिसऱ्या पत्रावरील बाहेरील बाजूला लिहीत नसत. त्यामुळे लिहिलेला मजकूर सुरक्षित राही. पत्राच्या कडा बाजूने थोड्या वर करीत त्यामुळे अक्षरे झिजत नसत. ताम्रपटावर शाईने किंवा कोरणीने लेख लिहीत नंतर छणीने ते लेख कोरीत. कित्येक वेळा भांड्यांवर नावेघातल्याप्रमाणे वरील लेख लिहिले जात. लेखनातील अक्षरांची चूक छणीने रेघा ओढून बरोबर करण्यात येई. एखादे अक्षर गळले, तर ते समासात लिहीत. केवळ राजेलोक ताम्रपटावर लिहीत असे नाही, तर ब्राह्मणांची आणि जैनांची यंत्रे ताम्रपटांवर आढळतात. कुशाणराजा कनिष्काने बौद्ध धर्मग्रंथ ताम्रपटांवर कोरवून घेतले होते. ते लेख आज अस्तित्वात नाहीत. ताम्रपत्राचा आकार ताडपत्राप्रमाणे लांबट-चौकोनी असला, तरी त्रिकोणाकृती आणि चतुष्कोणाकृती आकारांचीही ताम्रपत्रे आढळतात. त्यांचे वजन सु. ५०० ग्रॅम असे. पूर्वीचे धर्मशील राजे सूर्यग्रहण, चंद्रग्रहण, मकरसंक्रांत, कर्कसंक्रांत अशा पर्वकाली विद्वान ब्राह्मणांना जमिनी दान करीत, त्याचा सर्व तपशील या ताम्रपटांत असे. राजाची वंशावळ, दान दिलेल्या ब्राह्मणांची वंशावळ दानप्रसंगी उपस्थित असलेल्या सरदारांची नावे-गावे इ. माहिती त्या तपशिलात असे. ताम्रमूर्तीच्या आसनपटावर वरील लेख आढळून येतात. सोने व रूपे या धातूंप्रमाणे तांबे दुर्मिळ नसल्यामुळे ताम्रपट लेखनसाहित्य म्हणून लोकप्रिय झाले.

भुर्जपत्र : लेखनासाठी भूर्जपत्राचा उपयोग करण्याची कला भारतात फार प्राचीन काळापासून आहे. स्वारीच्या वेळी सिकंदरासोबत आलेल्या क्यू कर्टिअस ह्या सेनापतीने भारतीय लोक भूर्जपत्रांचा लेखनासाठी उपयोग करीत असल्याचे नमूद केले आहे. हिमालयामध्ये भूर्जवृक्ष विपुलतेने आढळतात. भूर्जवृक्षाच्या अंतर्साली काढून त्या घासून गुळगुळीत करण्याची, त्यांना चकाकी आणण्याची कला काश्मिरी पंडितांना अवगत होती. संस्कृत वाङ्मयामध्ये भूर्जपत्राचे कितीतरी उल्लेख आहेत. चीनमधील खोतान येथे दुसऱ्या शतकातील खरोष्ठी लिपीत भूर्जपत्रावर लिहिलेली धम्मपदाची पोथी आहे. ताडपत्राच्या पोथीप्रमाणेच मध्यभागी गोल भोक पाडून दोन लाकडी पाट्यांत भूर्जपत्रांची ही पोथी ठेवीत. बक्शाली येथे सापडलेले अंकगणिताचे पुस्तक आठव्या शतकातील असून ते भूर्जपत्रावर लिहिलेले आहे. व्हिएन्ना, बर्लिन तसेच पुणे येथील भांडारकर प्राच्यविद्या संशोधन मंदिरात आणि डेक्कन कॉलेजमध्ये भूर्जपत्रांवरील पंधराव्या शतकातील पोथ्या आढळतात.

ताडपत्र : ताडपत्रांचा लेखनासाठी प्रामुख्याने दक्षिण भारतात उपयोग केला जाई. तक्षशिला येथे पहिल्या शतकातील ताम्रपट सापडला. त्याचा आकार ताडपत्रासारखा होता. गौतम बुद्धाच्या मृत्यूनंतर लगेच भरलेल्या मेळाव्यातील विधिनियम ताडपत्रांवर लिहिले होते, असे चिनी यात्रेकरू ह्युएनत्संगने आपल्या प्रवासवृत्तातलिहून ठेवले आहे. ताडपत्रांचा उपयोग करण्यापूर्वी ती वाळवीत नंतर पाण्यात उकळून काढून पुन्हा वाळवीत. पानाला गुळगुळीतपणा येण्यासाठी शंखाने अगर दगडाने घासून ते योग्य आकाराचे कातरीत असत. काश्मीर आणि पंजाबचा काही भाग सोडला, तर भारतात ताडपत्रांचा लेखनासाठी बराच उपयोग लोक करीत असत. दक्षिण भारतात ताडपत्रांवर लोखंडी अणकुचीदार सुईने टोचून अक्षरे लिहीत नंतर त्यावर कोळसा अगर शाई लावीत. ताडपत्रांच्या पोथीला पानांच्या मध्यभागी गोल भोक पाडीत. त्यामध्ये दोरा ओवून लिहिलेली सर्व पाने एकत्र बांधीत. पानांची लांबी जास्त असेल, तर दोन भोके ठेवीत. त्याच आकाराच्या दोन लाकडी पाट्या करून त्यांमध्ये पोथी ठेवीत असत. नेपाळच्या ताडपत्राच्या पोथीसंग्रहात सातव्या शतकातील स्कंदपुराण आणि लंकावतार या प्राचीन पोथ्या आहेत.

कातडी : भारतामध्ये कातड्यांवर लिहिलेले लेख अद्याप सापडले नाहीत. धार्मिक दृष्ट्या कातडे निषिद्ध मानल्यामुळे कदाचित त्याचा लेखनासाठी फारसा उपयोग करीत नसत. सुबंधूच्या (इ. स. सू. आठव्या शतकाचा पूर्वार्ध) वासवदत्ता नाटकात कातड्याचा लेखनासाठी उपयोग करीत, असा उल्लेख आहे. उंटाच्या कातड्यावर खरोष्ठीतील लेख आढळतात. कातड्यावरील लेख प्रामुख्याने पश्र्चिम आशिया आणि यूरोपमध्ये सापडतात.

कापड : इ. स. पू. तिसऱ्या शतकात भारतातील लोक कापडाचा लेखनासाठी उपयोग करीत, असा उल्लेख नीआर्कसने केला आहे. लेखनाच्या कापडाला पट, पटिका आणि कार्पासिक पट असे संबोधतात. कर्नाटकातील काही व्यापारी अजूनही कापडावर लिहितात. प्राचीन काळी कापडाला चिंचोक्याची अगर कणकेची पातळ खळ लावून शंखाने गुळगुळीत करीत आणि त्यावर खडूने अगर काळ्या पेन्सिलीने लिहीत असत. ह्युएनत्संगाच्या प्रवासवृत्तात व हर्षचरितात कापडावरील लेखाचा उल्लेख आहे. अशा तर्‍हेची कापडी पुस्तके शृंगेरीच्या मठात उपलब्ध आहेत. सुती कापडाप्रमाणेच रेशमी कापडाचा लेखनासाठी उपयोग करीत असल्याचे दिसून येते. अर्थात रेशमी कापडाचा सर्रास उपयोग करीत नसत. जैसलमीर येथे चौदाव्या शतकातील रेशमी कापडावर लिहिलेली जैन सूत्रांची यादी सापडलेली आहे [→ कापड उद्योग].

फलक : लाकडी फळ्यांवर लिहिण्याचा फार प्राचीन काळापासून प्रघात आहे. विनयपिटकात धर्मसंमत देहत्यागाचे विधिनियम काष्ठफलकावर लिहू नयेत, असे सांगितले आहे. क्षहरातराजा नहपान याच्या नासिक येथील लेखात लाकडी फळ्यांचा उल्लेख आहे. दंडीच्या दशकुमारचरितात अपहारवर्म्याने गुळगुळीत केलेल्या लाकडी फळ्यांचा उल्लेख आहे. शाळेत जाणारी मुले प्रारंभी धुळपाटीचा उपयोग करीत. मध्य आशियात खरोष्ठी लिपी असलेल्या लाकडी फळ्या सापडलेल्या आहेत. भाजे येथे लाकडी तुळईवर ब्राह्मी लिपीतील लेख आढळले आहेत.

सुवर्णपत्र : प्राचीन काळी श्रीमंत, सावकार आपला कुलवृत्तांत, महत्वाच्या घटना सुवर्णपत्रांवर लिहीत. धार्मिक नीतिनियमही त्यांवर कोरवून घेत. सुवर्ण अतिशय दुर्मिळ असल्यामुळे सुवर्णपत्राचे नमुने सुलभतेने आढळत नाहीत. तक्षशिलेजवळील गंगू येथील स्तूपात सुवर्णपत्रावर खरोष्ठी लिपीत लिहिलेले दानपत्र सापडले आहे.

रुपे : सोन्याप्रमाणेच रौप्यपत्रे दुर्मिळ आहेत. भट्टिप्रोलू येथील स्तूपात आणि तक्षशिला येथे रौप्यपत्रावरील लेख असून जैनमंदिरांतून रौप्यपत्रांवरील यंत्रेही आढळून येतात. 

लोखंड : लोखंड गंजत असल्यामुळे लोहपत्रे आढळत नाहीत. दिल्लीजवळ मेहरोली येथे चंद्र नावाच्या राजाचा लेख सापडलेला आहे तो बहूधा द्वितीय चंद्रगुप्तकालीन असावा, असा विद्वानांचातर्क आहे अबूपासून ६ किमी.वर असलेल्या अचलगढ येथील अचलेश्र्वराच्या मंदिरात लोंखडी त्रिशूलावर पंधराव्या शतकातील लेख असून त्यापुढील काळात लोखंडी तोफांवर लेख आढळून येतात.

 

कथिल : या धातूचा उपयोग क्वचितच आढळतो, ब्रिटिश संग्रहालयात कथिलाच्या पत्र्यांवरील लेख आहेत.

पितळ : पितळी पत्र्याचा लेखनासाठी होत असलेला उपयोग प्राचीन नाही. पितळी घंटांवर आजही देणगीदारांची नावे आढळून येतात.

कासे (ब्राँझ) : पितळेप्रमाणे काशाच्या घंटा करीत व त्यांवर देणगीदारांची नावे लिहीत. काशाच्या मूर्तीच्या आसनपटावर मूर्तीचे नाव, लेख किंवा कोरक्याचे नाव लिहिलेले असते. मणिक्यला येथे कुशाणकाळातील खरोष्ठी लिपी असलेला काशाचा लहान करंडक सापडला आहे. सोहगौरा येथे सापडलेला लेख काशाच्या पातळ पत्र्यावर लिहिलेला आहे तो लेख सम्राट अशोकपूर्व-काळातील आहे, असे काही विद्वानांचे मत आहे.

शंख : आंध्र प्रदेशात श्रीकाकुलम जिल्ह्यातील शालिहुडंम येथे सापडलेल्या बौद्ध अवशेषांत शंखावरील लेख आढळतो. तसेच हस्तिदंताच्या पट्ट्या, कासवाची पाठ यांचाही लेखनासाठी उपयोग केल्याचे प्रत्ययास येते.

मातीच्या विटा : मातीच्या विटांवर लिहिण्याचा प्रघात भारतात फार प्राचीन काळापासून आहे. बौद्ध धर्मीय सूत्रे विटांवर लिहिलेली आढळून येतात. पहिल्या शतकातील राजे दाममित्र आणि शीलवर्मा यांनी यज्ञ केल्याचा लेख मातीच्या विटेवर आहे व दाममित्राचा लेख असलेली वीट लखनौ येथे संग्रहालयात आहे. मातीच्या विटांवर लिहिलेले लेख भिंतीमध्ये किंवा यज्ञवेदीवर बसवीत असत. मृत्कुंभ ओले असताना त्यांवर कुंभार एखादे वेळी आपले नाव लिहीत किंवा एखादी खूण करीत. तक्षशिला, कौशाम्बी आणि नालंदा येथील उत्खननांत मृण्मय मुद्रा सापडलेल्या आहेत. या मुद्रांवर व्यक्तिनामे, बोधशब्द अथवा वाक्ये असत. मातीच्या विटांवर अगर दानमुद्रांवर त्या ओल्या असताना वरील बोधशब्द लिहीत व नंतर त्या भाजून काढीत.

कागद : चिनी इतिहासातील नोंदीप्रमाणे कागद तयार करण्याच्या कृतीचा शोध इ. स. १०५ साली त्साइ लुन यांनी लावला. पुढे चिनी प्रवाशांच्याबरोबर ही कला भारतात आली. परंतु ख्रि. पू. ३२७ च्या सुमारास अलेक्झांडरबरोबर हिंदुस्थानात आलेल्या नीआर्कसने भारतीय लोक कापसाचा लगदा करून कागद तयार करीत, असे नमूद केले आहे. हातकागद तयार करण्याची कला भारतीयांना अवगत होती. या कागदाला तांदळाची खळ लावून शंखाने घोटीत असत. भोज राजाच्या कारकीर्दीत (१०००-१०५५) माळव्यात कागदाच्या कलेचा प्रसार झाला होता, असे काही संशोधकांचे मत आहे. काश्मीरमध्ये अकराव्या शतकातील आणि गुजरातेत तेराव्या शतकातील कागदांवरील हस्तलिखिते सापडली आहेत. मध्य आशियात यार्कंद येथे पाचव्या शतकातील कागदावरील लेख सापडला आहे. एवढे मात्र खरे, की मुसलमानी अमदानीपासून भारतात प्रसाद जादा प्रमाणात झाल्याचे आढळते. [→ कागद].

शाई : प्राचीन काळापासून लेखनासाठी शाईचा उपयोग होत असल्याचे दिसून येते. झाडाच्या अंतर्सालींचा लिहिण्यासाठी उपयोग केला जाई,असे कर्टिअस याने स्पष्टपणे नमूद केले आहे. इ. स. पू. ४ पासून लोक शाईचा उपयोग करीत, असा काही संशोधकांचा तर्क आहे. पक्की शाई तयार करण्यासाठी पिंपळाच्या डिंकाची बारीक भुकटी पाण्यात मिसळून व ती मडक्यात घालून उकळीत. नंतर त्यात टाकणखार आणि लोघ्र मिसळून फडक्याने गाळीत. भूर्जपत्रावर लिहिण्यासाठीबदामाच्या साली जाळून त्यांची वस्त्रगाळ पूड करीत व ती गोमूत्रात उकळून शाई तयार करीत. या शाईने लिहिलेला मजकूर पाण्याने नाहीसा होत नसे. मोहरीच्या तेलाच्या दिव्याची काजळी धरून काळी शाई तयार करीत. अलित्यापासून लाल शाई आणि हरताळापासून पिवळी शाई तयार करीत. सोनेरी आणि रूपेरी शाईसाठी सोन्याची आणि रुप्याची भुकटी शाईत मिसळीत. पाणिनीच्या अष्टाध्यायीमध्ये आणि अशोकाच्या शिलालेखांत ‘लिपि’ हा शब्द आलेला आहे. त्यावरून शाईने लिहिण्याची प्रथा फार प्राचीन होती, असे स्पष्ट होते. अजिंठ्याच्या लेण्यांतून पाचव्या शतकातील रंगाने लिहिलेली अक्षरेआहेत.

लेखणी : या शब्दात कोरणी, कुंचला, बोरू या सर्वांचा अंतर्भाव केलेला दिसून येतो. ललितविस्तरमध्ये ‘वर्णक’ हा शब्द आलेला आहे. दशकुमारचरितामध्ये ‘वर्णवर्तिका’ हा रंगीत लेखनीसाठी शब्द आढळतो. राजशेखराच्या काव्यमीमांसेत लिहिण्यासाठी लोहकंटकाचा, लाकडी फळ्याचा आणि खडूचा उपयोग करीत असल्याचा स्पष्ट उल्लेख आहे. अजिंठ्याच्या गुंफांत कुंचल्याने रंगीत अक्षरे लिहिली आहेत.

रेखापाटी : ओळी सरळ येण्यासाठी लोक रेखापाटीचा उपयोग करीत. लाकडी पाटीवर एका बाजूला दोरे बांधून समांतर ओळी तयार करीत. त्याच्या मध्यभागी एक पट्टी घालीत. ती पट्टी फिरविली, की समांतर रेषा तयार होत. कित्येक वेळा पाटीच्या दोन्ही बाजूंना छिद्रे पाडून व त्यांत दोरा ओवून समांतर रेषा तयार करीत. शाईच्या रेघा ओढण्यासाठी आजही लोक रूळाचा अगर पट्टीचा उपयोग करतात.

पहा : कोरीव लेख.

संदर्भ : 1. Britt, K. W. Ed. Handbook of Pulp and Paper Technology, New York, 1964. 2. Dani, A. H. Indian Palaeography, Oxford, 1963.

           3. Diringer, David, Writing, New York, 1962. 4. Driver, Godfrey R. Semitic Writing from Pictograph to Alphabet, London, 1976.

           5. Hall, A. J. A Handbook of Textile Dyeing and Printing, London, 1955.

           6. Hawkes, Jaquetta Woolley, Leonard, Ed. History of Mankind, Vol. 1, London, 1963.

           7. Hultzsch, E. Corpus Inscriptionium Indicarum, Vol. 1, Varanasi, 1969.

           8. Mcmurtrie, D. C. The Book, The Printing and Bookmaking, London, 1957.  

           ९. ओझा, गौरीशंकर, भारतीय प्राचीन लिपिमाला, दिल्ली, १९५९.  

गोखले, शोभना

Tuesday, 4 November 2025

शूद्रनाम

Shashikant Mishra 
माङ्गल्यं ब्राह्मणस्योक्तं क्षत्रियस्य बलान्वितम्।
वैश्यस्य धनसंयुक्तं शूद्रस्य तु जुगुप्सितम्॥

ये थोड़ा विवादित श्लोक हो जाता है क्योंकि इसका सतही अर्थ लगाना थोड़ा अनुचित होता है। यह श्लोक भविष्य पुराण में आधा, मनुस्मृति में थोड़ा परिवर्तित और विष्णुधर्मोत्तरपुराण में भी आया है। 

ब्राह्मण का नाम मंगलवाचक, क्षत्रिय का नाम बलसम्बन्धी, वैश्य का नाम धन सम्बन्धी होना चाहिए। शूद्र का नाम जुगुप्सा सम्बन्धी होना चाहिए। जुगुप्सा का सामान्य अर्थ निंदनीय या घृणित होता है, किन्तु साहित्य दर्पण के अनुसार दोषेक्षणादिभिर्गर्हा जुगुप्सा विषयोद्भवा। भौतिक विषय वासना में लिप्त दोषदृष्टि के कारण जन्य अनुचित बात को जुगुप्सा कहते हैं।

शूद्र चतुर्थ वर्ण में आते हैं, उन्हें आगे अभी और उन्नति की आवश्यकता है। दोषयुक्त जीव को शूद्रयोनि मिलती है, उसे कर्मशीलता से शुद्ध होते रहने की आवश्यकता है, शुद्ध होने पर जब उसे ऊपर के वर्ण मिलेंगे तो वेदाध्ययन आदि से सम्पन्न होकर और भी श्रेष्ठता को प्राप्त करेगा। 

पाराशर गीता में वर्णन है,

विकर्मावस्थिता वर्णाः पतन्ति नृपते त्रयः।
उन्नमन्ति यथा सन्तमाश्रित्येह स्वकर्मसु॥
शेष तीन वर्ण अपने कर्म से भ्रष्ट होने पर नीचे गिर जाते हैं। वैसे ही वर्णगत कर्म में स्थित शेष वर्ण की वर्णोन्नति भी होती है।

न चापि शूद्रः पततीति निश्चयो
न चापि संस्कारमिहार्हतीति वा।
श्रुतिप्रवृत्तं न च धर्ममाप्नुते
न चास्य धर्मे प्रतिषेधनं कृतम्॥

शूद्र का पतन भी नहीं होता और उसे शूद्रयोनि में रहते हुए (उपनयन आदि) संस्कारों की भी आवश्यकता नहीं है, इसीलिए वेदाध्ययन से उसे धर्म की प्राप्ति नहीं होती, और वेदरहित होकर भी वह धर्म से निष्कासित नहीं होता, उसका निषेध नहीं है।

जुगुप्सा से युक्त नाम रहेगा तो उसे दोष का बोध होता रहेगा, इससे वह कठोर सदाचरण करेगा और आगे उन्नति होगी। यह तात्पर्य है। वैसे शूद्रों के नाम भी कोई निंदनीय नहीं रहे हैं इतिहास में, उदाहरण धर्मव्याध, गुह (स्वामी कार्तिकेय का भी यही नाम है), शबरी, कर्णोदर, सुवर्णकार, आदि।

कलाज्ञः स तु शूद्रो हि
(भविष्य पुराण)
शूद्र को सभी कलाओं में दक्ष होना चाहिए, ऐसे निर्देश हैं।

Friday, 31 October 2025

चमार संघर्ष

Rishikant Pandey जी अपनी फेसबुक वॉल पर लिखते है कि समय के साथ खुद को इवॉल्व करने के मामले में अगर मैं सर्वाधिक किसी जाति से प्रभावित हूं तो चमार जाति( जिसमें उनकी जाटव ,कुरील ,अहिरवार ,मेघवाल आदि सभी उपजातियां शामिल हैं ) से । 
 शिक्षा , राजनीतिक समझ , सामाजिक उत्थान,आर्थिक विकास इन सभी मामलों उन्होंने खुद को समय के साथ बहुत तेजी से अपडेट किया है ।  
  शिक्षा पर सर्वाधिक ध्यान दिया । शिक्षा के लिए ग्रामीण क्षेत्रों से शहर की तरफ प्रवास किया । आर्थिक कष्ट उठाये।दिहाड़ी मजदूर के तौर पर भी कार्य किया ,मगर अपनी आने वाली पीढ़ी को शिक्षित बनाने पर जोर दिया । आज शिक्षा का जो प्रसार इनमें है वो तारीफ के काबिल है ।
  सामाजिक आत्मसम्मान के लिए उन्होंने एक लंबी लड़ाई लड़ी । अपना जमा जमाया पुश्तैनी चमड़े का व्यवसाय छोड़ने के पीछे सबसे बड़ा कारण था आत्म सम्मान की लड़ाई । सामाजिक अत्याचारों के मामले में भी डटकर प्रत्युत्तर देने की सफल रणनीति उन्होंने अपनाई । और ऐसा नहीं है कि उन्होंने ये लड़ाई गैर कानूनी तरीके से लड़ी हो । ज्यादातर मामलों में उन्होंने कानूनी तरीके से ही इस लड़ाई को जीता है । धर्म के मामले में भी उन्होंने उत्पीड़न का रोना रोने और दूसरों को गाली देने कि जगह बाबा साहब डॉ भीमराव अम्बेडकर जी द्वारा दिखाए गये रास्ते पर चलते हुए बौद्ध मत की तरफ रुख कर लिया । कोई चिक-चिक झिक झिक नहीं। समाज में अन्य जातियों के साथ भी उन्होंने समानता के साथ बेहतर सामाजिक संबंध बनाये। 
  
 आर्थिक तौर पर रोजगार के नये साधन अपनाये। आर्थिक उन्नति पर ध्यान दिया । और सबसे बड़ी बात की जुआ शराब सट्टा जैसी उन कुरीतियों से दूरी बनाई जो आर्थिक रूप से आदमी को पंगु बनातीं हैं ।

 सबसे ज्यादा जो बात मुझे प्रभावित करती है वो है उनकी राजनीतिक समझ । भारतीय राजनीति में बहुजन विचारधारा की न सिर्फ उन्होंने स्थापना की अपितु उस विचारधारा को एक राष्ट्रीय पार्टी के तौर पर खड़ा करके दिखाया । दलितों की एक स्वतंत्र राजनीतिक पहचान खड़ी की । कांग्रेस की तरफ से ब्राह्मण दलित मुस्लिम समीकरण के अंतर्गत ब्राह्मण डॉमिनेशन की पॉलिटिक्स की जा रही थी जिसमें दलितों को मात्र वोट बैंक के तौर पर यूज किया जा रहा था । उन्होंने बहुजन राजनीति के माध्यम से इस समीकरण को हमेशा के लिए खत्म करके दलितों को वोट बैंक पॉलिटिक्स से आजादी दिलाई । मगर ऐसा भी नहीं होने दिया कि बहुजन के नाम पर कोई और फायदा उठाकर उनका शोषण करने लगे । 
   जब उन्होंने देखा कि जमींदार जातियां बहुजन राजनीति के नाम पर उन्हें मात्र यूज करना चाह रहीं हैं तो उन्होंने इसका भी प्रतिकार किया । बहुजन राजनीति को उन्होंने जड़ता का शिकार नहीं होने दिया । जिन प्रतीकों और नारों के साथ उन्होंने इस राजनीतिक यात्रा की शुरुआत की समय आने पर उनमें बदलाव भी किया। हमेशा टकराव की राजनीति न करके सत्ता में आने पर सृजनात्मक राजनीति को बढ़ावा दिया ।आज आम्बेडकरवादी राजनीतिक विचारधारा पूरे देश में मजबूती से खड़ी दिखाई दे रही है जो उसका श्रेय चमार जाति को ही जाता है ।
  अपनी जाति ब्राह्मण को मैं यही सलाह दूंगा कि इन मामलों में इनसे सीख लेने की कोशिश करनी चाहिए।

आलोक महान की फेसबुक वॉल से