Friday, 11 July 2025

हितोपदेश

उदारता, परजनों के प्रति दया, दुष्टों के प्रति शठता, सज्जनों के प्रति प्रेम, नीच जनों के प्रति औद्धत्य, विद्वानों के प्रति सरलता, शत्रुओं के प्रति वीरता, गुरुजनों के प्रति क्षमाभाव, स्त्रियों के प्रति धूर्तता जो पुरुष उक्त व्यवहारिक कलाओं में कुशल-दक्ष-है, वही इस विचित्र संसार में निभ सकता है।" (२२) सन्तों को परोपकार करने के लिए प्रेरित करने की आवश्यकता नहीं होती, उनमें परोपकार करने की भावना निसर्गतः ही रहती है- 'सन्तः स्वयं परहितेषु कृताभियोगाः' । (७३) यहाँ यह ध्यातव्य है कि 'नीतिशतक' में केवल नैतिक आदर्शों का ही प्रतिपादन नहीं किया गया है, उसमें इस विचित्र संसार की निष्ठुरता और हृदयहीनता के प्रति स्पष्ट विद्रोह की भावना भी मुखर हो उठी है। वह संसार के इस व्यवहार के कारण अत्यन्त दुःखी है-

'बोद्धारो मत्सरग्रस्ताः प्रभवः स्मयदूषिताः । अबोधोपहताश्चान्ये जीर्णमंगे सुभाषितम् ।।'

'जिनमें समझने की शक्ति है, वे ईर्ष्या द्वेष की भावना से ग्रस्त है, जिनमें प्रभुता या अधिकार केन्द्रित है, वे अहंकार से अभिभूत है, शेष सभी अज्ञान में निमग्न हैं, इसीलिए तो मेरी समस्त उपदेशपूर्ण सूक्तियाँ मेरे अन्दर ही जीर्ण हुई जा रही है।'-

'राजाओं का औद्धत्य, धन का मद, दासता का अपमान, शिक्षा और शिष्टता से दम्भ और अभिमान का संघर्ष, दुष्टों और मूर्खे के द्वारा सज्जनों और विद्वानों का अपमान (मखौल) ये बानगी के रूप में उपन्यस्त बातें कवि के हृदय में शूल की तरह चुभती हैं।

उक्त तीनों शतकों का अनुशीलन कवि के सांसारिक विविधतापूर्ण एवं गहरे अनुभव को, मानव मन की वृत्तियों के सूक्ष्म निरीक्षण को एवं चित्त में उत्पन्न होनेवाली विरक्ति के अन्वेषित स्रोत को स्पष्टांकित कर देता है।

उक्त तीनों शतकों में प्रयुक्त एक जैसी प्रांजल शैली और मनोहर पद-लालित्य कवि की काव्य-प्रतिभा को प्रदर्शित करता है। उपन्यस्त उदाहरणों की विषयानुरूपता और सूक्तियों का भाव सौन्दर्य तथा उनकी रसाप्लुत कमनीयता के कारण ही भर्तृहरि के शतकत्रय की साहित्य जगत् में आज विशेष प्रसिद्धि है। यदि यह कहा जाय कि भर्तृहरि के रससिद्ध सुभाषितों के सम्मुख सुधा तिरस्कृत होने के

भय से भूतल को छोडकर दिव्यलोक को चली गई तो, कोई अत्युक्ति नहीं होगी-'सुभाषितरसस्याग्रे सुधा भीता दिवं गता' ।

नीतिशतकम् की डॉ. राजेश्वर शास्त्री मुसलगाँवकर द्वारा संस्कृत के साथ अंग्रेजी तथा हिन्दी भाषा में की गई व्याख्या अबतक चली आ रही बहुत बड़ी कमी को पूरा करने का एक सार्थक प्रयास है। डॉ. राजेश्वर मुसलगाँवकर का संस्कृत साहित्य के गहन अध्ययन में स्वयं के प्रयत्नों के साथ परिवार की विद्वत् परम्परा का भी महत्त्वपूर्ण योगदान है। लम्बे काल से अनुभव किया जा रहा है कि प्राचीन ज्ञान को वर्तमान पीढ़ी तक पहुंचाने के दायित्व निर्वाह में विद्वज्जनों ने अपेक्षित ध्यान नहीं दिया है। मैं समझता हूँ कि डॉ. राजेश्वर ने इस कमी की भारपायी करने की ओर ध्यान दिया है। इस सम्बन्ध में बहुत कार्य किये जाने की आवश्यकता है और मैं आशा करता हूँ कि डॉ. राजेश्वर इस कमी को पूरा करने को एक अभियान के रूप में ग्रहण करके इसे आगे भी चालू रखेंगे। इसी विश्वास के साथ।

हितोपदेश भूभिका

भूमिका

हितोपदेश ग्रन्थ का अर्थ है वह पुस्तक जो भलाई का ज्ञान दे। यथार्थ में इस पुस्तक के पढ़ने वालों को भलाई-बुराई का ज्ञान होकर; भलाई करना, बुराई से दूर रहना, इसका उपदेश मिलता है। इस पुस्तक के प्रारम्भ में ही कहा गया है कि इसके पढ़ने से संस्कृत में पटुता तथा भिन्न-भिन्न प्रकार की वाक्-चातुरी एवं नीतिशास्त्र का ज्ञान होता है। जिस प्रकार कच्चे घड़ पर जो ही रंग लगा दिया जाता है वही रंग बना रहता है उसी प्रकार कथाओं के द्वारा बालकों के मन में जो नीतिशास्त्र का ज्ञान भर दिया जाता है वह उनके मन में सदा के लिए बैठ जाता है। बाल्यावस्था में न बुद्धि ही इतनी परिपक्व रहती है कि कठिन विषय को समझ सके तथा न धैर्य ही उतना रहता है कि उस कठिन विषय को सुनने में मन लगाये, किन्तु सरल कथाएँ सुनने को उनका जी चाहता है और वे उन कथाओं को समझ भी सकते हैं, इसलिए महाविद्वान् विष्णु शर्मा ने कौवे, कछुए, गीदड़, बैल, हरिण और चूहों की कथाओं के द्वारा लड़कों को अमृतपान कराया है। औषधि खाने में कड़वी होती है, इसलिये औषधि खाने को जी नहीं चाहता, किन्तु जब मधु के साथ औषधि दी जाती है तो वह खाने के योग्य होती है और उसका परिणाम भी अच्छा होता है। इसी प्रकार कथारूप मधु के द्वारा नीतिशास्त्र-रूप औषधि पिलाई जाती है। विष्णु शर्मा ने राजपुत्त्रों को शिक्षित करने के लिए पञ्चतन्त्र का प्रणयन किया । उसी पञ्चतन्त्र का सार लेकर यह हितोपदेश बना है। हितोपदेश का संग्रह किसने किया यह विषय निश्चित नहीं है, किन्तु मूल पुस्तक पञ्चतन्त्र के लेखक विष्णु शर्मा के विषय में लोगों का मत यही है कि वे ही चाणक्यापर नामक अर्थशास्त्र के लेखक कौटिल्य हैं। ये चन्द्रगुप्त मौर्य के मन्त्री थे। इन्हीं का अपर नाम वात्स्यायन भी है जिन्होंने गौतम के न्यायसूत्र पर भाष्य लिखा है।

दो हजार वर्ष से ऊपर हुए जबसे यह पुस्तक प्रचलित है, करोड़ों बालकों को इस ग्रन्थरत्न के द्वारा उपदेश मिलता आ रहा है। इस ग्रन्थ का अनुवाद,

जगत् की जितनी समृद्धिशाली भाषायें हैं, उनमें हुआ है। इसी ग्रन्थ के आधार पर अन्य भाषाओं में भी उपदेशप्रद कथायें लिखी गयी हैं। इस प्रकार इस ग्रन्थ को संसार भर से यह प्रतिष्ठापत्त्र (Certificate) मिल गया है कि बालकों के लिए उपदेशप्रद ऐसा ग्रन्थ संसार में विरल है।

यह ग्रन्थ न केवल नीतिशास्त्र का उपदेश देता है; किन्तु बालकों को संस्कृत सिखाने के लिए यह अद्वितीय पुस्तक है। इसके सरल सुन्दर वाक्य अभ्यास के योग्य हैं, जिनके अभ्यास से अनायास संस्कृत आ जाती है। एक ही विषय को भिन्न-भिन्न व्यक्ति अपनी युक्ति से कैसे समर्थन करते हैं तथा ऐसी परिस्थिति में तत्त्व विषय ग्रहण कैसे करना, इसमें बड़ी बुद्धिमत्ता है। इस हितोपदेश का मित्नलाभ प्रकरण बहुमूल्य वस्तु है। इस प्रकार इस पुस्तक के अभ्यास से अनेक गुण प्राप्त होते हैं।

पं० श्री विश्वनाथ झा व्याकरणाचार्य ने इस पुस्तक के मित्रलाभ प्रकरण की सरल संस्कृत व्याख्या तथा हिन्दी व्याख्या लिखकर बिना गुरु के ही अध्ययन योग्य बना दिया है। मुझे पूर्ण आशा है कि इस सरल व्याख्या से छात्रों का परम उपकार साधित होगा ।

hitopdesh

हितोपदेश

आख्यान यथा- 'यम-यमी. 'पुरुरवा-उर्वशी', 'सनत्कुमार-नारद आ कहानी के ही प्राचीन रूप हैं।
वीरों तथा राजाओं के शौर्य, प्रेम, न्याय, ज्ञान, वैराग्य, साहस आदि की कथाएँ संस्कृत साहित्य के ग्रंथों में वर्णित हैं। संस्कृत साहित्य में बाल मनोरञ्जक कथाओं 'पंचतंत्र', 'हितोपदेश', 'बेताल पच्चीसी', 'सिंहासन-बत्तीसी', 'शुक-सप्तति' आदि कलात्मक एवं नीतिपरक, शिक्षाप्रद मनोरञ्जक कहानियों का संग्रह भी प्राप्त होता है।

इन कहानियों से मनोरंजन के साथ नीति का उपदेश भी प्राप्त होता है।

प्रायः इन कहानियों में लोक व्यवहार के पात्र पशु-पक्षियों को बनाया गया है। ये सभी मनुष्यों की तरह बातचीत करते हैं, जो बच्चों के लिए मनमोहक एवं आकर्षण का विषय बनता है। इनमें असत्य पर सत्य की, अन्याय पर न्याय की और अधर्म पर धर्म की विजय दिखलाई गई है व नीति एवं मूल्यपरक शिक्षा दी गई है।

1.2 श्री नारायण पण्डित का जीवन परिचय

श्री नारायण पण्डित नीतिपरक संस्कृत कथा साहित्य 'हितोपदेश' नामक ग्रन्थ के रचयिता हैं। इस ग्रन्थ के लेखक होने का प्रमाण उनकी इसी रचना के अन्तिम श्लोकों में प्राप्त होता है: जहाँ वे स्वयं ही कहते हैं कि - नारायणेन प्रचरतु रचितः संग्रहोऽयं कथानाम्। अर्थात् श्री नारायण द्वारा यह कथाओं का संग्रह रचा गया है।

संस्कृत के अन्य आचार्यों की तरह हितोपदेश की रचना का समय एवं इसके लेखक श्री नारायण पण्डित का जीवनकाल निर्धारण हेतु कोई प्रमाण उपलब्ध नहीं है।

पाश्चात्य विद्वान् डॉ. फ्लीट ने हितोपदेश की कथाओं में प्राप्त साक्ष्यों के आधार पर इसका रचना काल ग्यारहवीं शताब्दी के आस पास स्वीकार किया है। गढ़वाल विश्ववि‌द्यालय के प्रसिद्ध विद्वान् वाचस्पति गैरोला ने 1373 ईसवी में प्राप्त हितोपदेश के एक नेपाली हस्तलेख के आधार पर इनका काल चौदहवीं शताब्दी के आस पास माना है। इन दोनों प्रमाणों के आधार पर श्री नारायण पण्डित का काल ग्यारहवीं से चौदहवीं (11वीं-14वीं) के मध्य निर्धारित किया जा सकता है।
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ऐतिहासिक साक्ष्यों के आधार पर इनके आश्रयदाता का नाम बंगाल के माण्डलिक के राजा धवलचन्द्र थे। नारायण पण्डित इनके दरबार के राजकवि थे।

नारायण पंडित ने ग्रन्थ के मंगलाचरण एवं अन्तिम श्लोक में भगवान् शिव की स्तुति की है। इस आधार पर यह कहा जा सकता है कि इनकी शिव में विशेष आस्था रही होगी अर्थात् वे शैव के अनुयायी थे।

हितोपदेश भारतीय जन मानस तथा संस्कृति से प्रभावित उपदेशात्मक कथाओं का संग्रह है। विभिन्न पशु पक्षियों पर आधारित कहानियों में संवाद अत्यंत सरल, सरस एवं शिक्षाप्रद हैं। अत्यन्त रुचिकर माध्यम से नारायण पण्डित ने प्रत्येक कथा की रचना की है, जो कि सभी एक-दूसरे से जुड़ी हुई हैं।

इस ग्रन्थ के सन्दर्भ में एक किम्वदन्ती प्रचलित है कि प्राचीन मगध प्रदेश में पाटलिपुत्र नामक नगर ग‌ङ्गा नदी के तट पर एक ऐतिहासिक नगर था। किसी समय इस नगर पर सुदर्शन नामक राजा का शासन था। वि‌द्या एवं साहित्य के प्रेमी होने के कारण उसके राजदरबार में विद्वानों का जमघट लगा रहता था। एक बार किसी विद्वान् ने वहाँ एक श्लोक सुनाया जिसका राजा के हृदय पर गहरा प्रभाव पड़ा-

अनेक संशयोच्छेदि परोक्षार्थस्य दर्शकम् सर्वस्य लोचनं शास्त्रं यस्य नास्त्यन्ध एव सः। यौवनं धनसम्पत्तिः प्रभुत्वमविवेकता एकैकमप्यनर्थाय किमु यत्र चतुष्टयम् ।।

अर्थात् शास्त्र मनुष्य के नेत्र होते हैं। इन नेत्रों की सहायता से मनुष्य यथार्थ ज्ञान ही नहीं अपितु परोक्ष ज्ञान भी प्राप्त कर लेता है। इसके बिना आँखों वाला आदमी भी अन्धा ही रहता है। यौवन, धन, अधिकार और अविवेकः इनमें से प्रत्येक दुर्गुण मनुष्य को पाप कर्म में गिरा सकता है। जिसके पास ये चारों हों: वह पाप के गर्त में कितना गिरेगा, इसका अनुमान करना भी अत्यंत कठिन है। इस श्लोक के भाव से राजा का मन व्याकुल हो उठा। कारण यह था कि उसके राजकुमार पुत्र राजसी वैभव में
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पलने व लाड़-प्यार के कारण अविवेकी एवं मूर्ख थे। राजा को ऐसा लगा मानो यह श्लोक उनके पुत्रों के भविष्य को प्रदर्शित कर रहा है। उन्हें ऐसा लगा कि इन दुर्व्यसनी एवं मूर्ख कुपुत्रों से अच्छा तो एक ही गुणी पुत्र अच्छा होता। हजारों टिमटिमाते तारों से अच्छा तो एक अकेला चन्द्रमा होता है जिसकी चांदनी से निशा दूध सी धवल जगमगाती है। उस राजा का कोई भी राजकुमार सुपुत्र की श्रेणी में नहीं है. ऐसा सोचकर राजा विचलित हो उठे।
उन्होंने मन्त्रियों से विचार-विमर्श करके अपने पुत्रों को नीति एवं लोक व्यवहार तथा जीवनोपयोगी चारित्रिक एवं नैतिक शिक्षा देने के लिए योग्य आचार्य का प्रबन्ध करने का आदेश दिया। राजकुमारों की उद्दण्ड प्रवृत्ति के कारण कोई भी आचार्य उनको प्रशिक्षित करने में अधिक दिन तक टिक नहीं पाता था। मूर्ख एवं राज-विलास में डूबे राजकुमार सबको परेशान करके भगा दिया करते थे। तभी सभा में एक अस्सी से अधिक उम्र के वृद्ध आचार्य ने आकर राजकुमारों को प्रशिक्षित करने, नीतिवान् एवं बुद्धिमान् बनाने की चुनौती को स्वीकार किया। यह थे आचार्य नारायण स्वामी। इनकी अवस्था को देखकर राजा एवं सभासदों को उन पर दया का भाव आया। राजकुमारों के चरित्र से सभी परिचित थे। लेकिन राजा के सामने और कोई विकल्प भी नहीं था, अतः राजा ने आचार्य को अपने राजकुमारों को शिक्षित एवं नीतिज्ञ बनाने हेतु अपनी सहमति दे दी।

आचार्य ने राजकुमारों को एक आचार्य अथवा गुरु के रूप में अपना परिचय नहीं दिया और उनको यह कहा कि मैं तुमको कुछ पढ़ाने अथवा सीखाने आया हूँ। उन्होंने स्वयं को राजकुमारों के मनोविनोद अर्थात् मनोरञ्जन हेतु कथा सुनाने वाले वृद्ध पुरुष के रूप में प्रस्तुत किया। कौतुक एवं जिज्ञासा प्रधान बालमन वाले राजकुमारों ने भी आचार्य को सहर्ष ही अपने साथ रहने की अनुमति दे दीः क्योंकि इनकी पशु पक्षियों पर आधारित कथाएँ अत्यन्त ही मनोरञ्जक हुआ करती थी। राजकुमारों को ये कथाएँ सरस एवं लुभावनी लगती थी। आचार्य नारायण पण्डित ने पशु-पक्षियों को पात्र बनाकर जीवन के प्रत्येक व्यवहार, सुख-दुःख, लाभहानि, लोभ त्याग, धर्म-अधर्म, विवेक अविवेक, क्रोध प्रसन्नता, ईर्ष्या द्वेष, मित्र-शत्रु, अहङ्‌कार-स्वाभिमान, पुण्य-पाप आदि समस्त
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धर्मशास्त्रों, नीतिग्रन्थों, वेद-पुराण की शिक्षाओं को राजकुमारों के अन्तर्मन में प्रविष्ट करा दिया। यही ग्रन्थ हितोपदेश नाम से प्रचलित है।
हितोपदेश में कुल 41 कथाएँ और 679 नीति विषयक पद्य हैं। हितोपदेश में ये सभी पद्य महाभारत, धर्मशास्त्र, पुराण, चाणक्य नीति, शुक्रनीति और कामन्दक नीति से लिए गए हैं। वस्तुतः हितोपदेश का आधार ग्रंथ आचार्य विष्णु शर्मा द्वारा रचित पञ्चतन्त्र है, यह आचार्य ने स्वयं ही अपने गन्थ की प्रस्तावना में स्वीकार किया है-

मित्रलाभः सुहृदभेदो विग्रहः सन्धिरेव च। पञ्चतन्त्रात् तथाऽन्यस्माद् ग्रन्थादाकृष्य लिख्यते ।।

हितोपदेश की कथाओं को चार प्रमुख भागों में विभाजित किया गया है-
1. मित्रलाभ
2. सुहृ‌द्वंद्व
3. विग्रह
4. सन्धि

Wednesday, 2 July 2025

चौपाई चौपाल

राम! जातंक या दव दबदबा, लूटि धन मान, बनावत हवा।
पुनि डरा समझा व ललचावा, अह! अहि महि एकहि कब्जावा।।

दोस्त! जो चालें चल रहे हो, 
आंख मींच मनहि खिल रहे हो।
ज्यों गिद्ध मगन गगन गमन में,
पारखी चूकौ कब? परखन में।।

शीर्ष पद धारन करन वाला,
जब रक्त मोह वह ले पाला।
बिकट फूट फटी फिर अंश में,
धृतराष्ट्र कहलाया वंश में।।

बोली सत्ता सुनाओ संजय,
खोलो तो खबरों का संचय।
स्मील् स्मिति विखेर फिर वह बोला।
सत्ता श्रोत्र वज्र विष घोला।।

सञ्जय जरा सच बोल देता,
अंधावृत आँख खोल देता।
रुक सकता ताण्डव डायनों का,
न नाश शहलता कुरुनयनों का।।

सचाई सामने आयेगी, 
घटना दोहराई जायेगी।
बेईमानी तो नस्ल में है,
सचाई गायी जायेगी।।

लख-चख परख पतंग उचारी
अतिप्रकाश ही संकट भारी।
मृग-मोहक नव-गेरु-पट-धारी
राग मनोहर व्याध निकारी।।rg

लात मार पाले में रखना, 
रावणगिरी हि स्वाद चखना।
प्रेम अंगुलिमाल पिघलावा, 
आम्रपालि ही मान दिलावा।।

चित भी मेरी पट भी मेरी,
मेरी बुद्धि सब सुख चितेरी।
जवन चाहूँ वैराग धारूँ
जवन चाहूँ रग राग चारूँ।।rg

लेखनी तव लेख तुम्हारा, 
लिख लियौ 'सब उत्तम हमारा'।
तुम धूर्त कुटिल चल सब चाली, 
देते हो गा-गा करि गाली।। 
02/7/25 RG 



Tuesday, 1 July 2025

दोहा दसदशक - रामहेत गौतम

रामहेत गौतम गुजर्रा 

𑆯𑆫𑆢 𑆢𑆼𑆯 𑆬𑆴𑆥𑆴 𑆯𑆳𑆫𑆢𑆳, 
𑆅𑆯𑆶 𑆯𑆢𑆳𑆧𑇀𑆢𑆴 𑆢𑆯 𑆑𑆳𑆬𑇅
𑆩𑆳𑆀 𑆑𑆶𑆛𑆴𑆬 𑆧𑆲𑆴𑆤 𑆛𑆳𑆑𑆫𑆵, 
𑆃𑆫𑇀𑆢𑇀𑆣𑆯𑆠𑆑 𑆮𑆫𑇀𑆟𑆩𑆳𑆬𑇅𑇅 
𑆫𑆳𑆩𑆲𑆼𑆠 𑆓𑆿𑆠𑆩 𑆓𑆶𑆘𑆫𑇀𑆫𑆳 

भारत जलाने वाले
जला रहे आज भी।
नफ़रत करने वाले,

अखि लेश सहो न रिदास, 
करो भद्द द्रोही। 
जय रविदास रटै न कछु,
न भर झूठहि मोही।।rg

संविधान विधाता का
और जनता का भी।
प्रथम तो पीसता है
दूसर पोसता है।।rg

आदिम मतबल बाहु बल,
पर जनमत सममान।
आदम अतीत बात सब,
अद्यतन सब संज्ञान।।rg

पागल पाल गुमान मन,
मानल ऊंच खुद ही।
चाह इलाज मनोरोग,
लोकहित सबन सधहि।।rg

वर्चस्व को नकारना,
विरोधि होना नहीं।
आतंकी कहेगा ही,
जी हजूरी अब नहीं।।rg

वेद पुराण लिक्खा सब, 
थोपा थोक हि भाव।
आपन हृदय न लिख सका, 
सदा सबहि सम भाव।।rg

कमजोर वो अभिमानी, 
नित थोपत मनमान।
जो जन जाहिर असहमति, 
करत नहीं सम्मान।।rg

कमजोर वो अभिमानी, 
थोपत नित् मनमान
गौतम! जाहिर असहमति, 
करत नहीं सम्मान।।rg

ह! हुड़दंग! निकरि मुहाल, घर बिच बन्द रहिए। 
मस्जिद मण्डित त्रिपाल, काल को का कहिए।।

दिखता है आम आदमी, पर आदम ना होय।
आदमखोर चूकत कब? देखत सज्जन होय।। 

बांट भुरके भाभी जब, तब भैया दूध दोय।
अब दूध दाम कम लगे, गौतम दाम बढ़ि सोय।।

बुलडोजर धूम धड़ाका, धूमिल घर व द्वार।
बेटी बुक्स बकोटी, सुन उन की चीत्कार।।

अखंड भारत बनहि जब,
जुड़ि पाक व अफगान। 

बुरा भला होय राजा, 
होय न कोई जात।
देखा जो जन जात जब, 
न उ राजा रह जात।।

चाह राजा बिना जात,
न्याय न देखे जात।
हुई जात जात राजन
सामन्त सब न भात।।

संभव पासपोर्ट फोटु, 
जूतों के भी साथ। 
जूते हों राम जैसे 
व भरत सा हो माथ।।rg

वकील नेता अभिनेता, और ऊंट की जात।
कब कौन करवट पैठे, घरी भर न रइ पात।।

शतरंज नहीं अयोध्या 

पुलस्त कुल कलंक काट, 
रामबल अधम जात।
कुलीन राक्षस सब भ्रष्ट, 
दुष्टतावश मर जात।।rg

दलित हिन्दू ही नाहीं,
हिन्दू करते सिद्ध।
घोड़ी, दाड़ी व मौड़ी,
देखत नोचत गिद्ध।।rg

जजिया से स्तनकर बुरा, मुसल पेशवा पूत। 
विदेशी नशल ही पहल , दूसर मंतर पूत।।

गिन रहा अंतिम सांसें, 
सामन्तों का खौफ।
साया संगीन हि सही, 
जातंक होइ साफ।।rg

चप्पल भी चिढ़ाती है, 
जबभि दलित पग पाय।
ठकरासी का काम की? 
जो मानव ठग खाय।।rg

शतरंज का खिलाड़ी 
नहीं हूँ मैं।
सब कुछ खोल के रख दिया है,
होगा यह कि 
या तो कुछ हाथ लगेगा
या फिर कुछ सीख, 
काम आयेगी जो 
समाज को समझाने के लिए। 
खाली हाथ कोई नहीं रहेगा,
न वे जिन पर भरोसा है मुझे,
और न मैं 
भरोसा टूटने के बाद भी।rg

सिन्दूर लाने वाले, 
कह चूड़ी ले जाय।
लुट रहे दलित स्त्री जब, 
तब नौटंकी काय।।rg

ज्ञानी न उलझत मूढ़हि,
बकता ऊल-जलूल।
कभी न उलझते दिग्गज, 
भोंकत कूकर-ऊल।।rg

जातंकवाद आबाद, 
 मारत रत दिनरात। 
भारत तरु घुन घनघोर,
नित् करत व्याघात।।rg

चनाचोर शरम बाबू,
करो न जात कुजात।
मानो बातें वेद कीं
रक्खो सबको साथ।।rg

संविधान पे जातंकी
रहे खूब खिजाय।
भिन्नाकर कहें माखीं
दवा रोग फैलाय।।rg

Sunday, 29 June 2025

श्रीमद्भागवत कथा व्यासः

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व्यास पीठ और अधिकार
व्यास पीठ पर बैठने की पात्रता

कथावाचक या उपदेशक के लिए व्यासपीठ वह स्थान है, जिसके माध्यम से वह किसी भी संदेश या उपदेश को समाज तक सहजता से प्रेषित करता है।
दुर्भाग्य से यह माध्यम अनेक प्रकार से प्रदूषित होता जा रहा है। इस प्रदूषण का कारण है इस माध्यम का उपयोग ब्राह्मणेतर और सदाचार - हीन लोगों द्वारा करना ।
व्यास पद पर बैठने का कौन पात्र माना गया है,
इसका स्पष्ट विवेचन शास्त्रों में मिलता है।
वास्तव में व्यासपीठ पर बैठने के अधिकारी सच्चरित्र, वेद-धर्मशास्त्रज्ञ, भगवद्भक्त ब्राह्मण को ही माना गया हैं। 
इस विषय में श्रीमद्भागवत माहात्म्य का श्लोक प्रमाण के रूप में उद्धृत है-

विरक्तो वैष्णवो विप्रो वेदशास्त्र विशुद्धिकृत् ।
दृष्टान्त - कुशलो धीरो वक्ता कार्यो ऽतिनिस्पृहः ॥

1. विरक्तः - अर्थात 'धनाद्यभिलाषशून्य : ' यानी जो सांसारिक प्रपंचों से विरक्त और भगवत्प्रेम में अनुरक्त हो, उसी विद्वान ब्राह्मण को विरक्त कहा गया है। इसी बात का समर्थन करते हुए पद्मपुराण में लिखा है कि-

आचार्यो वेदसम्पन्नो विष्णुभक्तो विमत्सरः ।
ब्राह्मणो वीतरागश्च क्रोधलोभ विवर्जितः ॥

2. वैष्णवः - पद्मपुराण के वृंदावन माहात्म्य में विभिन्न सम्प्रदायों के साथ समस्त ब्राह्मणों को वैष्णव कहा गया है। विष्णुदीक्षाविहीनानांनाधिकारः कथाश्रवे का तात्पर्य है कि वैष्णव को ही कथा सुनने - सुनाने का अधिकार है-

ब्राह्मणावैष्णवामुख्यायतो विष्णुमुखोद्भवाः ।
अंगेषु देवताः सर्वाः मुखे वेदाः व्यवस्थिताः ॥
विप्रैः कृता वैष्णवास्तु त्रयो वर्णा भवन्ति हि ॥

3. विप्रः - यद्यपि विप्र शब्द त्रैवर्णिक में घटित हो सकता है, तथापि यहाँ पुराणवक्ता के रूप में केवल वेद-शास्त्रज्ञ सद्गृहस्थ ब्राह्मण ही ग्राह्य हैं, गृहस्थेतर में श्रोत्रिय या विप्र शब्द का व्यवहार अमान्य है-

श्रोत्रियो ब्राह्मणो ज्ञेयो न वैश्यो नैव बाहुजः ।
वेदाध्ययन साम्येऽपि पुरुषोत्तम शब्दवत्॥

पद्मपुराण में भी यही बात स्पष्ट रूप से कही है- वक्तारं ब्राह्मणं कुर्यान्नान्यवर्णजमादरात् जन्मना ब्राह्मण को ही वक्ता के रूप में पवित्र व्यासपीठ पर बैठाना चाहिए।हेमाद्रि में उद्धृत नन्दिपुराण का भी वचन देखें- वाचको ब्राह्मणः प्राज्ञः श्रुतशास्त्रो महामनाः वेदज्ञ गृहस्थ ब्राह्मण ही कथावाचक के रूप में व्यासपीठ पर विराजमान हो सकते हैं। कौशिकसंहिता के भागवत माहात्म्य के अनुसार- विप्र से अतिरिक्त वर्णों में शास्त्र का शास्त्रत्व ही विनष्ट हो जाता है-

यावद्विप्रगतं शास्त्रं शास्त्रत्वं तावदेव हि ।
विप्रेतरगतं शास्त्रम् अशास्त्रत्वं विदुर्बुधाः ॥

4. वेदशास्त्रविशुद्धकृत्- वेदादिशास्त्रों में टंकण आदि दोषों को दूर कर अपनी विद्या से शुद्ध कर व्याख्यान देनेवाला वक्ता हो सकता है।

5. अतिनिस्पृहः- यानी धन आदि संग्रह से रहित विरक्त गृहस्थ ब्राह्मण ही कथाव्यास हो सकते हैं।


Tuesday, 24 June 2025

अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ता

जब देश को धर्मशास्त्र के हिसाब से चलाने वाले लोग बुलन्दियों पर हों और जनता को उनके हिसाब से चलाने में सरकारें सहयोग करती हों तो भक्त जनता उसी ओर हांक दी जाती है। धर्मशास्त्रों से चलने वाले अन्य एशियाई देशों की डगर पर चल दिए हैं क्या हम? आज हमें आत्ममूल्यांकन की सख़्त जरूरत है। भारत बुद्ध की धरती है। जहाँ युद्ध है वहाँ विनाश है। सारे संसाधन ताकतवरों के कब्जे में होते हैं।जो लोग यह भ्रम पाले बैठे हैं कि वे बहुत ताकतवर हैं और वे 90% जनता को संसाधन वंचित कर वर्ण व्यवस्था के हिसाब से जीवन जीने के लिए मजबूर कर राज करेंगे। वे भूल रहे हैं कि पशुओं को लाठी से हांका जा सकता है। यहां तक तो ठीक है 
पर 
जब बरेदी पर शासन करने के लिए बंदूक वाला, 
और बंदूक बाले पर तोप बाला 
और तोप बाले पर बम बाला, 
और बम बाले पर परमाणु बम बाला, 
और परमाणु बम बाले पर हाइड्रोजन बम बाला 
शासन करने की ताक में बैठा है। 
अतः हे लाठी बाले बाले भैया अपने आस-पास के लोगों को पशु मत बना।
उन्हें इंसान बना अगर तू इंसान है तो। 
अगर तू अपने आप को इंसान से ऊपर का मान बैठा है तो मानने से क्या होता है कोई और भी है जो तुझसे भी ऊपर अपने आप को मानता है। 
बस इस ताक में वह भी है कि तू किसी का सम्मान तो छीन ताकि अपमानित लोग मान के भूखे हों और तुझसे त्रस्त हो चुकें।
फिर कोई रक्षक का वेश धारण कर टूट पड़े तुझ पर। 
तू ऐसी गलती करने बच। 
सबके लिए तेरे जैसा विद्वान्, बलवान् धनवान् बनने के रास्ते बन्द मत कर।
सबको बराबर का विद्वान् बनने दे। 
सबको बलवान् बनने दे। 
सबको धनवान् बनने दे। 
जो नहीं बन रहे हों तो ढूँढ ढूँढ़ कर बना। 

'अकेला चना भाड़ नहीं भोड़ता'
फूट जाता है।
भिर बिना दांतो बाला भी खा लेता है।
खाने के लिए दुनिया बैठी है।