हितोपदेश
आख्यान यथा- 'यम-यमी. 'पुरुरवा-उर्वशी', 'सनत्कुमार-नारद आ कहानी के ही प्राचीन रूप हैं।
वीरों तथा राजाओं के शौर्य, प्रेम, न्याय, ज्ञान, वैराग्य, साहस आदि की कथाएँ संस्कृत साहित्य के ग्रंथों में वर्णित हैं। संस्कृत साहित्य में बाल मनोरञ्जक कथाओं 'पंचतंत्र', 'हितोपदेश', 'बेताल पच्चीसी', 'सिंहासन-बत्तीसी', 'शुक-सप्तति' आदि कलात्मक एवं नीतिपरक, शिक्षाप्रद मनोरञ्जक कहानियों का संग्रह भी प्राप्त होता है।
इन कहानियों से मनोरंजन के साथ नीति का उपदेश भी प्राप्त होता है।
प्रायः इन कहानियों में लोक व्यवहार के पात्र पशु-पक्षियों को बनाया गया है। ये सभी मनुष्यों की तरह बातचीत करते हैं, जो बच्चों के लिए मनमोहक एवं आकर्षण का विषय बनता है। इनमें असत्य पर सत्य की, अन्याय पर न्याय की और अधर्म पर धर्म की विजय दिखलाई गई है व नीति एवं मूल्यपरक शिक्षा दी गई है।
1.2 श्री नारायण पण्डित का जीवन परिचय
श्री नारायण पण्डित नीतिपरक संस्कृत कथा साहित्य 'हितोपदेश' नामक ग्रन्थ के रचयिता हैं। इस ग्रन्थ के लेखक होने का प्रमाण उनकी इसी रचना के अन्तिम श्लोकों में प्राप्त होता है: जहाँ वे स्वयं ही कहते हैं कि - नारायणेन प्रचरतु रचितः संग्रहोऽयं कथानाम्। अर्थात् श्री नारायण द्वारा यह कथाओं का संग्रह रचा गया है।
संस्कृत के अन्य आचार्यों की तरह हितोपदेश की रचना का समय एवं इसके लेखक श्री नारायण पण्डित का जीवनकाल निर्धारण हेतु कोई प्रमाण उपलब्ध नहीं है।
पाश्चात्य विद्वान् डॉ. फ्लीट ने हितोपदेश की कथाओं में प्राप्त साक्ष्यों के आधार पर इसका रचना काल ग्यारहवीं शताब्दी के आस पास स्वीकार किया है। गढ़वाल विश्वविद्यालय के प्रसिद्ध विद्वान् वाचस्पति गैरोला ने 1373 ईसवी में प्राप्त हितोपदेश के एक नेपाली हस्तलेख के आधार पर इनका काल चौदहवीं शताब्दी के आस पास माना है। इन दोनों प्रमाणों के आधार पर श्री नारायण पण्डित का काल ग्यारहवीं से चौदहवीं (11वीं-14वीं) के मध्य निर्धारित किया जा सकता है।
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ऐतिहासिक साक्ष्यों के आधार पर इनके आश्रयदाता का नाम बंगाल के माण्डलिक के राजा धवलचन्द्र थे। नारायण पण्डित इनके दरबार के राजकवि थे।
नारायण पंडित ने ग्रन्थ के मंगलाचरण एवं अन्तिम श्लोक में भगवान् शिव की स्तुति की है। इस आधार पर यह कहा जा सकता है कि इनकी शिव में विशेष आस्था रही होगी अर्थात् वे शैव के अनुयायी थे।
हितोपदेश भारतीय जन मानस तथा संस्कृति से प्रभावित उपदेशात्मक कथाओं का संग्रह है। विभिन्न पशु पक्षियों पर आधारित कहानियों में संवाद अत्यंत सरल, सरस एवं शिक्षाप्रद हैं। अत्यन्त रुचिकर माध्यम से नारायण पण्डित ने प्रत्येक कथा की रचना की है, जो कि सभी एक-दूसरे से जुड़ी हुई हैं।
इस ग्रन्थ के सन्दर्भ में एक किम्वदन्ती प्रचलित है कि प्राचीन मगध प्रदेश में पाटलिपुत्र नामक नगर गङ्गा नदी के तट पर एक ऐतिहासिक नगर था। किसी समय इस नगर पर सुदर्शन नामक राजा का शासन था। विद्या एवं साहित्य के प्रेमी होने के कारण उसके राजदरबार में विद्वानों का जमघट लगा रहता था। एक बार किसी विद्वान् ने वहाँ एक श्लोक सुनाया जिसका राजा के हृदय पर गहरा प्रभाव पड़ा-
अनेक संशयोच्छेदि परोक्षार्थस्य दर्शकम् सर्वस्य लोचनं शास्त्रं यस्य नास्त्यन्ध एव सः। यौवनं धनसम्पत्तिः प्रभुत्वमविवेकता एकैकमप्यनर्थाय किमु यत्र चतुष्टयम् ।।
अर्थात् शास्त्र मनुष्य के नेत्र होते हैं। इन नेत्रों की सहायता से मनुष्य यथार्थ ज्ञान ही नहीं अपितु परोक्ष ज्ञान भी प्राप्त कर लेता है। इसके बिना आँखों वाला आदमी भी अन्धा ही रहता है। यौवन, धन, अधिकार और अविवेकः इनमें से प्रत्येक दुर्गुण मनुष्य को पाप कर्म में गिरा सकता है। जिसके पास ये चारों हों: वह पाप के गर्त में कितना गिरेगा, इसका अनुमान करना भी अत्यंत कठिन है। इस श्लोक के भाव से राजा का मन व्याकुल हो उठा। कारण यह था कि उसके राजकुमार पुत्र राजसी वैभव में
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पलने व लाड़-प्यार के कारण अविवेकी एवं मूर्ख थे। राजा को ऐसा लगा मानो यह श्लोक उनके पुत्रों के भविष्य को प्रदर्शित कर रहा है। उन्हें ऐसा लगा कि इन दुर्व्यसनी एवं मूर्ख कुपुत्रों से अच्छा तो एक ही गुणी पुत्र अच्छा होता। हजारों टिमटिमाते तारों से अच्छा तो एक अकेला चन्द्रमा होता है जिसकी चांदनी से निशा दूध सी धवल जगमगाती है। उस राजा का कोई भी राजकुमार सुपुत्र की श्रेणी में नहीं है. ऐसा सोचकर राजा विचलित हो उठे।
उन्होंने मन्त्रियों से विचार-विमर्श करके अपने पुत्रों को नीति एवं लोक व्यवहार तथा जीवनोपयोगी चारित्रिक एवं नैतिक शिक्षा देने के लिए योग्य आचार्य का प्रबन्ध करने का आदेश दिया। राजकुमारों की उद्दण्ड प्रवृत्ति के कारण कोई भी आचार्य उनको प्रशिक्षित करने में अधिक दिन तक टिक नहीं पाता था। मूर्ख एवं राज-विलास में डूबे राजकुमार सबको परेशान करके भगा दिया करते थे। तभी सभा में एक अस्सी से अधिक उम्र के वृद्ध आचार्य ने आकर राजकुमारों को प्रशिक्षित करने, नीतिवान् एवं बुद्धिमान् बनाने की चुनौती को स्वीकार किया। यह थे आचार्य नारायण स्वामी। इनकी अवस्था को देखकर राजा एवं सभासदों को उन पर दया का भाव आया। राजकुमारों के चरित्र से सभी परिचित थे। लेकिन राजा के सामने और कोई विकल्प भी नहीं था, अतः राजा ने आचार्य को अपने राजकुमारों को शिक्षित एवं नीतिज्ञ बनाने हेतु अपनी सहमति दे दी।
आचार्य ने राजकुमारों को एक आचार्य अथवा गुरु के रूप में अपना परिचय नहीं दिया और उनको यह कहा कि मैं तुमको कुछ पढ़ाने अथवा सीखाने आया हूँ। उन्होंने स्वयं को राजकुमारों के मनोविनोद अर्थात् मनोरञ्जन हेतु कथा सुनाने वाले वृद्ध पुरुष के रूप में प्रस्तुत किया। कौतुक एवं जिज्ञासा प्रधान बालमन वाले राजकुमारों ने भी आचार्य को सहर्ष ही अपने साथ रहने की अनुमति दे दीः क्योंकि इनकी पशु पक्षियों पर आधारित कथाएँ अत्यन्त ही मनोरञ्जक हुआ करती थी। राजकुमारों को ये कथाएँ सरस एवं लुभावनी लगती थी। आचार्य नारायण पण्डित ने पशु-पक्षियों को पात्र बनाकर जीवन के प्रत्येक व्यवहार, सुख-दुःख, लाभहानि, लोभ त्याग, धर्म-अधर्म, विवेक अविवेक, क्रोध प्रसन्नता, ईर्ष्या द्वेष, मित्र-शत्रु, अहङ्कार-स्वाभिमान, पुण्य-पाप आदि समस्त
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धर्मशास्त्रों, नीतिग्रन्थों, वेद-पुराण की शिक्षाओं को राजकुमारों के अन्तर्मन में प्रविष्ट करा दिया। यही ग्रन्थ हितोपदेश नाम से प्रचलित है।
हितोपदेश में कुल 41 कथाएँ और 679 नीति विषयक पद्य हैं। हितोपदेश में ये सभी पद्य महाभारत, धर्मशास्त्र, पुराण, चाणक्य नीति, शुक्रनीति और कामन्दक नीति से लिए गए हैं। वस्तुतः हितोपदेश का आधार ग्रंथ आचार्य विष्णु शर्मा द्वारा रचित पञ्चतन्त्र है, यह आचार्य ने स्वयं ही अपने गन्थ की प्रस्तावना में स्वीकार किया है-
मित्रलाभः सुहृदभेदो विग्रहः सन्धिरेव च। पञ्चतन्त्रात् तथाऽन्यस्माद् ग्रन्थादाकृष्य लिख्यते ।।
हितोपदेश की कथाओं को चार प्रमुख भागों में विभाजित किया गया है-
1. मित्रलाभ
2. सुहृद्वंद्व
3. विग्रह
4. सन्धि