Sunday, 28 February 2021

पाणिनिव्याकरणे कुत्सितानि

पाणिनिव्याकरणे कुत्सितानि
पाणिनि व्याकरण में गालियां --नरेश वत्रा जी

 आक्रोश को अभिव्यक्त करने के लिए अश्लील शब्दों का प्रयोग गाली कहलाता है। मनुष्य ने विश्व की सभी भाषाओं में अपशब्दों का आविष्कार किया हुआ है।
पाणिनि व्याकरण के अनुसार नादिन्याक्रोशे पुत्रस्य (अष्टाध्यायी 8.4.48.) गाली देने के मूल में आक्रोश होता है। आक्रोश को प्रहास तथा व्याज स्तुति द्वारा अनादर करके भी प्रकट किया जाता है।
 प्रहासे च मन्यकर्मण्यनादरे विभाषाऽप्राणिषु (अष्टा.2.3.17.) 
हताशा व नैराश्य भी कभी-कभी अपशब्द द्वारा अभिव्यक्त किए जाते हैं। 
तत्व कथन के रूप में प्रयुक्त शब्द या अपशब्द जब आक्रोश में बोले जाएं वे गालियां बन जाती हैं।
 दिल की भड़ास गालियों द्वारा अभिव्यक्त की जाती है। स्वयं को असहाय स्थिति में होने पर गालियां दी जाती हैं। व्याकरण शास्त्र में इन्हें आक्रोश अभिव्यंजक, गर्हा वाचक तथा कुत्सा वाचक या कुत्सितशब्द कहा है-
भावगर्हायाम् , कुत्सितानि कुत्सितैः(अष्टा.)।
यहां कुछ गालियों का संग्रह प्रस्तुत किया जा रहा है-
पाणिनि व्याकरण में स्त्रियों के लिए गाली वाचक शब्द-
 पुत्रादिनी, पुत्रहती, पुत्रजग्धी, वन्ध्या।
कौमारी भार्या-कुमार्यां भवः कौमारः पतिः, तस्य स्त्री कौमारी भार्या।
अगम्या-जो स्त्री संभोग के योग्य न हो।
 अग्रेदिधिषू-पहली पत्नी के रहते जो ब्याही जाए।
अधिविन्ना-जिसके रहते पति दूसरा विवाह कर ले।
अभिसारिका- ऐसी नारी जो कामवश होकर दिन या रात में छिपकर अपने प्रेमी से मिलने जाती है।
अजातव्यञ्जना-वह लड़की जिसके स्तन आदि स्त्री के चिह्न न उभरे हों।
अन्यपूर्वा- वह लड़की जिसकी पहले किसी और से मंगनी हुई हो। 
काकवन्ध्या- वह नारी जिसने केवल एक संतान जनी हो।
कुब्जिका-आठ वर्ष की आयु की दासी।
स्वैरिणी-वह मनचली स्त्री जो किसी की परवाह न करके अपनी मनमर्जी करती हो।

 पाणिनि व्याकरण में पुरुषों के लिए गाली वाचक शब्द-
खट्वा क्षेपे (अष्टाध्यायी 2.1.26.)
खट्वारूढः- खट्वारोहणं चेह विमार्गप्रस्थानस्योपलक्षणम्। सर्व एवाविनीतः खट्वारूढ इत्युच्यते।
खट्वाप्लुतः-अपथप्रस्थितः इत्यर्थः।
कृत्यैरधिकारार्थवचने (अष्टाध्यायी 2.1.33.) 
काकपेया नदी, श्वलेह्यः कूपः, वाष्पच्छेद्यानि तृणानि, कण्टकसंचेय ओदनः,
ध्वाङ्क्षेण क्षेपे (अष्टाध्यायी 2.1.42.)
तीर्थध्वाङ्क्षः, तीर्थकाकः, तीर्थवायसः।
क्षेपे (अष्टाध्यायी 2.1.47.)
अवतप्तेनकुलस्थितम्-चापलमेतत्,अनवस्थितत्वं तवैतदित्यर्थः।
उदकेविशीर्णम्, प्रवाहेमूत्रितम्, भस्मनिहुतम्। निष्फलं यत्क्रियते तदेवमुच्यते।
पात्रेसमितादयश्च(अष्टाध्यायी 2.1.48.)
पात्रेसमिताः, पात्रेबहुलाः, उदुम्बरमशकः, मातरिपुरुषः, पिण्डीशूरः, उदरकृमिः, कूपचूर्णकः, कूपमण्डूक, कुम्भमण्डूकः, उदपानमण्डूकः, कूपकच्छपः, अवटकच्छपः,‌ नगरकाकः, नगरवायसः, गेहेशूरः,गेहेनर्दी, गेहेविजिती, गेहेव्याडः, गेहेक्ष्वेडी, गेहेदृप्तः, गेहेधृष्टः, भवान् वृषलं याजयेत्।क्रमशः।

संस्कृत में गालियां

संस्कृत में गालियां   नरेश वत्रा जी 
 आक्रोश को अभिव्यक्त करने के लिए अश्लील शब्दों का प्रयोग गाली कहलाता है। मनुष्य ने विश्व की सभी भाषाओं में अपशब्दों का आविष्कार किया हुआ है।
अज्ञान/अविद्या जनित अहंकार के वशीभूत हो कर मनुष्य गालियां देता है।
पाणिनि व्याकरण के अनुसार नादिन्याक्रोशे पुत्रस्य (अष्टाध्यायी 8.4.48.) गाली देने के मूल में आक्रोश होता है। आक्रोश को प्रहास तथा व्याज स्तुति द्वारा साम्मुखीन व्यक्ति/वस्तु का अनादर करके भी प्रकट किया जाता है।
 प्रहासे च मन्यकर्मण्यनादरे विभाषाऽप्राणिषु (अष्टा.2.3.17.) 
हताशा व नैराश्य भी कभी-कभी अपशब्द द्वारा अभिव्यक्त किए जाते हैं। दिल की भड़ास गालियों द्वारा अभिव्यक्त की जाती है। स्वयं को असहाय स्थिति में होने पर, बुद्धि द्वारा साथ छोड़ देने पर, अपने अकेलेपन को सहन न कर पाने पर विवश मनुष्य के मुख से गालियां निकलने लग जाती हैं। अगर मानव शरीर को हम रसोई में प्रयुक्त होने वाला बर्तन प्रेशर कुकर मान लें तो सेफ्टी वाल्व द्वारा निकलने वाली अतिरिक्त वाष्प को अपशब्द कहना होगा। कभी-कभी आसमान से तारा टूटता सा दिखाई देता है, इसे अन्तरिक्ष द्वारा कहा गया अपशब्द मानना चाहिए। 
पुरुष के स्वभाव में महिलाओं पर शासन करने की प्रवृत्ति होती है। सम्मुख व्यक्तियों द्वारा शासन न मानने की आशंका से ग्रस्त होकर वह स्वतः आवेश में आकर गुस्सा करता है। अतः पुरुष ही अधिकतर गालियां बकते हैं। अत एव विश्व की सभी भाषाओं में अधिकांश अपशब्द महिलाओं से सम्बन्धित हैं। पुरुष समाज द्वारा महिलाओं के प्रति अन्याय किए जाने के कारण ही अपशब्दों का केन्द्र महिलाओं को बनाया गया है। जन्म देने वाली कोख को गालियों का उद्गम बनाना क्रूरता व अज्ञान की पराकाष्ठा है। मूल में अज्ञान कारण होने से गालियों के साथ बकना शब्द का प्रयोग होना उचित ही है। 
 महिलाओं में भी कुछ शासन करने की प्रवृत्ति वाली होती हैं। अतः महिलाओं की ओर से भी आक्रोश को अभिव्यक्त करने के लिए गालियां दी जाती हैं। हताशा के क्षणों में शिखर पर विराजे लोग भी अपशब्द का प्रयोग करते हैं। घनिष्ठ मित्रों के बीच परस्पर अभिवादन भी गालियों के द्वारा किया जाता है। रिश्तेदारों में परस्पर प्यार जताने व बच्चों को लाड़ दुलार करने में भी अपशब्दों का प्रयोग होता हुआ दिखाई देता है।
विशेषतः महिलाओं की ओर से पुरुषों को नपुंसक कहलाना सबसे बड़ी गाली लगती है। महिलाओं में परस्पर सबसे अधिक प्रयुक्त होने वाली गाली पंजाबी में 'खस्मा नूं खानी' है अर्थात् पति को खा जाने वाली जो संस्कृत में पुत्रादिनी त्वमसि अर्थात् पुत्र को खा जाने वाली गाली से विकसित हुई है। 
अपशब्दों की संख्या सीमित है और इसी कारण उन्हीं को बार-बार दोहराया जाता है। सदियों से किसी मौलिक अपशब्द का आविष्कार नहीं किया गया है। परन्तु अब शब्दों को नए मुखौटे दिए जाते हैं।     
 गाली देने का उद्देश्य अभिप्रेत व्यक्ति को अपमानित, तिरस्कृत, लज्जित व मानसिक आघात/ चोट पहुंचाना है। गाली देना हिंसा का एक प्रकार है। यह वाक् हिंसा है, वाणी द्वारा हिंसा है , यह शाब्दी हिंसा है। इसमें हाथ के स्थान पर जिह्वा से व अस्त्र-शस्त्र के स्थान पर शब्दों से प्रहार किया जाता है। शस्त्र के प्रहार की अपेक्षा शब्द के प्रहार मनुष्य के मन पर ज्यादा भारी चोट मारते हैं। अस्त्र-शस्त्र शरीर को घायल करते हैं, अपशब्द मन को ज्यादा घायल कर सकते हैं। प्ररोहति क्षतं शस्त्रैर्वाक्क्षतं न प्ररोहति(पञ्चतन्त्र)
मनुष्य मनुष्य का अपमान करने के लिए पशु पक्षियों को भी घसीट लाता है। लोमड़, लोमड़ी, सूअर, सूअर का बच्चा, कुत्ता, कुत्ते का पिल्ला, उल्लू, उल्लू का पट्ठा, कौआ, मुर्गा, कबूतर आदि। लालची व्यक्ति को कुत्ता कहा जाता है। प्रायः मूर्ख व्यक्ति को गधा कहा जाता है। कभी-कभी निकम्मे व्यक्ति को अपमानित करने के लिए कहा जाता है-धोबी का कुत्ता न घर का न घाट का जो वस्तुतः उस जानवर का ही अपमान होता है। 
  दैनन्दिन जीवन में अपशब्दों का मौखिक प्रयोग किया जाता है अतः भाषाओं के साहित्य में अपशब्दों का प्रयोग संख्या में बहुत कम पाया जाता है। 
संस्कृत भाषा अपनी सूक्तियों की संपत्ति से विश्व की सभी भाषाओं में आढ्यतम है। तथापि मानव जीवन से सम्बन्धित वह सब कुछ संस्कृत भाषा में उपलब्ध है चाहे वह दुरुक्तियां, दुर्वचन , गर्हाशब्द, कुत्सा शब्द, अपशब्द, अश्लीलशब्द अर्थात् गालियां ही क्यों न हों। 
गालिः गाली शब्द भी संस्कृत भाषा का है।
ददतु ददतु गालीर्गालिमन्तो भवन्तः
वयमपि तदभावाद् गालिदानेऽसमर्थाः।।भर्तृहरि वै.श.133.
संस्कृत के अलंकार शास्त्रियों ने साहित्य में या काव्य में गालियों के प्रयोग को वर्जित माना है अतः इन्हें दोषों की कोटि में रखा गया है।
संस्कृत के काव्यशास्त्राचार्यों ने गालियों को अश्लीलत्वदोष कहा है। ये अपशब्द व्रीडा, जुगुप्सा व अमंगल वाचक तीन प्रकार के होते हैं। व्याकरण शास्त्र में इन्हें आक्रोश अभिव्यंजक, गर्हावाचक तथा कुत्सावाचक या कुत्सितशब्द कहा है। 
भावगर्हायाम् , कुत्सितानि कुत्सितैः (अष्टाध्यायी )
संस्कृत भाषा में गालियां भी परिष्कृत पाई जाती हैं। इनका अनेक प्रकार का वर्गीकरण किया जा सकता है।
 वेदों, रामायण, महाभारत, मनुस्मृति, नीति ग्रन्थों आदि संस्कृत वाङ्मय में उपदेशात्मक गालियां पाई जाती हैं। जैसे-
आत्महनः-ये के चात्महनो जनाः।(यजुर्वेद 40.3)
अर्थात् जो अविद्या की उपासना करते हैं वे आत्म हन्ता होते हैं।
यश्च गां पदा स्फुरति प्रत्यङ्गः सूर्यं च मेहते।
तस्य वृश्चामि ते मूलं नच्छायां करवोऽपरम्।। अथर्व 13. 1.56. 
अर्थात् जो गाय को पैर से छूता है और सूर्य की ओर मुख करके मूत्र विसर्जन करता है, वह दण्डनीय है।
सबसे प्रसिद्ध गाली अथर्ववेद के इस मन्त्र में कही गई हैं-
उलूकयातुं शुशुलूकयातुं जहि श्वयातमुत कोकयातुम्। सुपर्णयातुमुत गृध्रयातुं दृषदेव प्र मृण रक्षा इन्द्र।। अथर्व 8.4.22.
इस मन्त्र में छह पशु-पक्षियों की चालों को गिना कर मनुष्य को अनेक शास्त्रों में परिगणित कामक्रोधादि छह शत्रुओं से बचने की प्रेरणा दी गई है कि तू इन चालों को छोड़ दे। उल्लू, भेड़िए कुत्ते, चिड़े, सुपर्ण और गीध की चालें अच्छी चालें नहीं हैं। ये चालें मनुष्य जीवन के पतन का कारण है इसलिए इनका छोड़ना ही मनुष्य के लिए श्रेयस्कर है।
  रामायण में भी सांस्कृतिक गालियां मिलती हैं। 
माता कौशल्या के सामने छोटे भाई भरत द्वारा बड़े भाई राम को वनवास भेजने के पीछे स्वयं को निर्दोष सिद्ध करने के लिए पचास-साठ शपथें उठाई गई हैं, इन्हें सांस्कृतिक गालियां कहा जा सकता है। यथा-
मद्ये प्रसक्तो भवतु स्त्रीष्वक्षेषु नित्यशः।
कामक्रोधाभिभूतस्तु यस्यार्योऽनुमते गतः।।
अर्थात् जो राम को वन भेजने में सहायक हो वह मद्यपान, स्त्रियों व जुआ खेलने में व्यसनी हो जाए। वह काम और क्रोध से अभिभूत हो जाए।
प्रेष्यं पापीयसां यातु सूर्यं च प्रतिमेहतु।
हन्तु पादेन सुप्तां गां यस्यार्योऽनुमते गतः।।
अर्थात् जो राम को वन भेजने में सहायक हो वह पापियों का नौकर बने, सूर्य के सामने मुख करके मूत्र विसर्जन करे, सोई हुई गाय को पैर से ठोकर मारे।
षड् रिपुओं से जो स्वयं को न बचा पाए उसे संस्कृत साहित्य में कामी, क्रोधी, लोभी, मोही, प्रमादी, अहंकारी, कहकर गाली दी गई है। महाभारत, मनुस्मृति, नीतिग्रन्थों में दान न देने वाले व आलसी व्यक्तियों को इसी प्रकार की सांस्कृतिक गालियां दी गई हैं। एक उदाहरण देना पर्याप्त रहेगा-
द्वावम्भसि प्रवेष्टव्यौ गले बद्ध्वा दृढां शिलाम्।
धनवन्तमदातारं दरिद्रं चातपस्विनम्।।
अर्थात् दो प्रकार के व्यक्तियों को गले में पत्थर बांधकर पानी में डुबा दिया जाना चाहिए जो धनवान होने पर भी दान नहीं देता तथा जो दरिद्र होने पर भी परिश्रम नहीं करता।
संस्कृत के कुछ नाटकों में अवश्य अन्य भाषाओं के समान स्त्रियों के जनन अंगों, यौन सम्बन्धों से जुड़ी गालियां मिलती हैं, वे भी अधिकतर शूद्रक के मृच्छकटिकम् में। यथा-
काणेलीमातः- रखैल का पुत्र (मृच्छकटिक 8.4) यह गाली तो मृच्छकटिकम् में पदे पदे प्राप्त होती है। 
मृच्छकटिकम् की अन्य गालियां यहां संगृहीत की जा रही हैं-
पुरुषों से सम्बन्धित-
जूर्णवृद्ध (मृच्छकटिक 1.आमुख), अनार्य, हताश,दुर्मुख, काकपदशीर्षमस्त-कौवे के पंजे के समान सिर वाले,
वेश्यापुत्र, पुंश्चलीपुत्रक,दुर्वर्ण, खण्डितवृत्त, दुर्विनीत(मृच्छकटिक द्वितीय अंक)
वृद्धश्रृगाल, दास्याः पुत्र, गर्भदास।
स्त्रियों से सम्बन्धित-
 दास्याः पुत्री- मृच्छकटिक (4.30)
गर्भदासी-जन्म से ही दासी।
बन्धुला, बन्धुली, बन्धुरा, बन्धुक, बन्धुकी- हरामी सन्तान।
परगृहललिताः परान्नपुष्टाः 
परपुरुषैर्जनिताः पराङ्गनासु।
परधननिरताः गुणेष्ववाच्या 
गजकलभा इव बन्धुला ललामः।।मृच्छक.4.28. 
वेश्या, विधवा,रण्डा, पुंश्चली, जघनचपला, दोषकरण्डिका, कपर्दडाकिनी।
अन्य नाटकों में-
अपसद,‌ दुरापसद, दुरासद, जारजात, जाल्म, दास्याः पुत्र, गुरुतल्पगामी, लालाटिक, स्त्रीप्रमाण, काक, षण्ढ।
 विशाल संस्कृत वाङ्मय में अनेक अपशब्द मिलते हैं। यहां उनका संग्रह अकारादिक्रम में प्रस्तुत किया जा रहा है-
अग्रेदिधिषु-पहली पत्नी के रहते दूसरी पत्नी से विवाह करने वाला। या
बड़ी बहन के कुंवारी रहते छोटी बहन से विवाह करने वाला।
अक्षधूर्त्त-जुआ खेलने में जो बेईमानी करता है।
अग्निकीट-ऐसा कीड़ा जो दीपक को बुझा देता है इस कीट के समान काम बिगाड़ने वाला।
अगम्यागामी-संभोग के अयोग्य नारी से संग करने वाला।
अजातव्यञ्जन-वह पुरुष जिसके दाढ़ी मूंछ न हों।
अपांक्तेय-वह ब्राह्मण जो दूसरे ब्राह्मणों के बीच बैठकर भोजन का अधिकारी न हो।
अधिविन्न- एक पत्नी के रहते जो पति दूसरा विवाह कर ले।
अनेडमूक- जो मनुष्य न सुन सके व न बोल सके, गूंगा बहरा।
अन्धकूप- अन्धे कुएं (जल रहित) के समान जो किसी काम का न हो।
कानीन- वह संतान जो कि माता के कुमारी रहते जन्मी हो
कुण्डः-पति के जीते जी दूसरे पुरुष से उत्पन्न हुआ पुरुष संतान।
कुञ्जकूर्च-ऐसा पुरुष जिसकी दाढ़ी केवल ठुड्डी पर हो।
कौलटेर, कौलटनेय-कुलटा की संतान
ज्येष्ठिनेय-पिता की पहली पत्नी से उत्पन्न हुआ पुत्र।
परिवृत्त-छोटे भाई का विवाह हो जाने पर कुंवारा रह गया बड़ा भाई।
ब्रह्मबन्धु-वह ब्राह्मण जो जन्म से ब्राह्मण कुल में हुआ हो पर आचरण नीचे रखता हो।
भ्रूकुंसक-स्त्री का वेश धारण करके नाचने वाला पुरुष।
मातरि गन्ता, दुहितरि गन्ता-हिन्दी/पंजाबी में मां चोद, धीचोद।
सतृणाभ्यवहारी-ऐसा लेखक या कवि जो दूसरे की रचना की ज्यों की त्यों नकल कर ले।

Friday, 26 February 2021

Thursday, 25 February 2021

धारा


धारा धाराधार के अधर का चुम्बन कर रही है।
चटोरी चाट-चाट तप्त-तट-ताप हर रही है।
गौतम रामहेत

Wednesday, 24 February 2021

पढ़ने न दिया

मन पढ़ने का हुआ पढ़ने न दिया,
मन पूछने का हुआ चुप कर दिया,
मन हुआ तुम सम होऊं होने न दिया,
हे सुहृद! तुमने बड़ा उपकार किया।
@गौतमरामहेत

Tuesday, 23 February 2021

करतूत भेद की

बात वेद की, 
करतूत भेद की, 
नहीं चलेगी।
गौतम रामहेत

Monday, 22 February 2021

संत गाडगे

संत गाडगे

न सगुण भक्ति न निर्गुण भक्ति
संत गाडगे की तो समाज मुक्ति।
न पूजा करते, न गंग नहाते
घर-घर जाकर शिक्षा फैलाते।
घर-द्वार साफ, वस्त्र-देह साफ
बुद्धि तार्किक मन भी हो साफ।
वाणी सरस, शब्द भी मोहक हों
हाथ अहिंसक कार्यसाधक हों।
आंख-कान सिर्फ रमें वहां पर
मानवता का व्यवहार जहां पर।
मान पशुता से भिन्न करता है
मनुष्य मान के लिए जीता है।
मान ही लेन-देन का विषय है
हिसाब से लो, हिसाब से दो।
सम्मान ही जीवन की पूंजी है
शिक्षा ही सम्मान की कुंजी है।
रोटी-लत्ता-घर में कटौती करो
पर शिक्षा में कटौती मत करो।

@गौतमरामहेत

Saturday, 20 February 2021

दलितः

पंकिलमकरोज्जम्बुं न: जातिपंक्तिपावन:। 
स्वातन्त्र्यं जाति देशात्यौवनमिव यौवने।।१
लिखितं बालभालेsत्र जातिचिह्नं प्रकृत्या न।
जातीयातंकवाद्या नित् द्वेषमस्पृश्यताया: नु।।२

सा कुसुमलता यास्ति विद्यावारिधि योग्या न।
देवताभीप्षितायां हा! राष्ट्रध्वजप्रसारितुम्।।३
मध्याह्नभोजनं भुक्त्वा कूपे पतिततृषया।
जाति: न याति भारतात् राष्ट्रं निमज्जयिष्यति।।४
शिक्षका: जातिवादीह, जातिचिह्नानि वर्धन्ते।
भेदं छात्रेषु कुर्वन्ति मानं घ्नन्ति दलितानाम्।।५

जातीयातंकवादोsयं  राष्ट्रं वम्रीव भिन्दति।
दलितः द्रुह्यतीतीमां जातिमिच्छति शोषकः।। ६
शोषकः शोषकः रौसि समाजे कोsत्र शोषकः।
रूपं मानं धनं नित् नित् शोषयति स शोषकः।।७
दलितः दलितः रौसि समाजे कोsत्र दलितः।
रूपं मानं धनं हृत्वा दलितः दल्यते य: स:।।८
श्मश्र्वश्वारोहणं सह्यन्नोत्तुंगमस्तकं येषां।
स्वाभिमानेन वाचा नु दलनहेतु सन्ति हा!!९
रक्षा मानः च समृद्धिः जनानां दलिताः कृताः।
ते शोषणं सहन्ते ते दलति हृदयन्न किम्।।१०
जातिंघातय शीघ्रं रे!, तमारक्षणहेतुन्नु
मा हिंस्यारक्षणं मूढ़! न्यायहेतुरिदं इहा।।११

कदलीपणयोर्मध्ये कदल्येव प्रधान ता।
'अन्नं ब्रह्म' नु वित्तं न, जानन्ति वानराः सदा।।१२
वानराणां वनं आयुः, सुजनानां राष्ट्रं आयुः।
जानन्ति जन्तवः सर्वे, आयुं त्यज्य कथं सुखम् ।।१३

परिवारजनानां नु वक्रोक्तिं सहते सदा।
सः यः धारति गेहे स्वे वृद्धपदस्य शासनम्।।१४

सा कुसुमलता यास्ति विद्यावारिधि योग्या न।

देवताभीप्षितायां हा! राष्ट्रध्वजप्रसारितुम्।।१५

भाले भाति सुसंकल्प: शोभते पुस्तकं करे।

प्रज्ञा बालमनोज्ञा या सा भाग्यम्भारतस्य नु।। १६

मा गच्छ मंदिरे तस्मिन् यत्र मानहर्ता शेते।

स देवता न योsरक्ष: आपणेssतंकीनाम्।।१७

रक्षणहन्तुमातंकी जाते: आन्दोलनं रचन्ति ते।

पदे-पदे कुचक्रं नित् शासनंं प्रभवन्ति नु।१८।

मत जाओ उस दर पर जहां मानहर्ता रहते।

आतंकियों की दुकान में देवता कहां रहते।।


डाॅ रामहेत-गौतमः

@गौतमरामहेतः।

Sunday, 14 February 2021

रामहोतुममुक्त:

कथावाचिका
रामहोतुममुक्त:
दलितलाल:
घटितमघटनीयम्
सोनभद्रे रे!
@गौतमरामहेत:

तानाशाह


तानाशाह चारों ओर डर पैदा करके अपने डर को उसमें खो देना चाहता है। पर डर तो डर है सोने नहीं देता।

Monday, 8 February 2021

घरोंदा

रे सरिक! सूखी नहीं है मेरी टहनियां भूलता कब है! तेरा रसास्वाद,
अब भी खड़ा हुआ है वो घरोंदा भी
जो बनाया था मनमोहन ने।

चारों ओर बीरानगी है,
तब भी
तेरे वो प्रेम के घरोंदे,
मालूम पड़ते हैं।
जब-जब गुजरता हूँ
इस बीरानगी से
तब-तब उभरता है 
वो दृश्य 
जो उकेरे थे तुमने कभी।

प्रेम

वाह!
चारों ओर बीरानगी है,
तब भी
तेरे वो प्रेम के घरोंदे,
मालूम पड़ते हैं।
जब-जब गुजरता हूँ
इस बीरानगी से
तब-तब उभरता है 
वो दृश्य 
जो उकेरे थे तुमने कभी।

Friday, 5 February 2021

सत्य दाव पर

असत् सत्ता के शतरंज में, 
सत्य दांव पर लगा हुआ।
जन-जन व परिवेश देश है, 
यह देश दांव पर लगा हुआ।
पल-पल विखरते विश्वास, 
ऐक्यभाव नित दरक रहा।
भाँति भाँति के नवफूल धरे
बाग-सा महकता देश रहा।
सीमाएं नित्-नित् बदलीं हैं 
सीमाओं से कब देश रहा?
ऐक्य न होगा देश न होगा
सदा ऐक्य की बात हो यहाँ।

Monday, 1 February 2021

हाँ मैं शरीक था।

#हाँ। मैं #शरीक था।
मैं #अब भी शरीक हूँ,
उस #कब्र को #गहरा खोदने में,
जिसमे #दफन किया है
इन्ही हाथों से.... मैंने।।

मैं #मूकदर्शक था
मैं मूकदर्शक हूँ
हर उस #जुल्म का जो
हुआ था मेरी इन जिंदा #नज़रों के सामने।

मैं #बहरा था
मैं अब भी बहरा हूँ
जो नही सुन पाया उन #चीत्कारों को
जो #गूँज रही थी मेरे आसपास

मैं #लँगड़ा भी हूँ
जो दौड़ कर नही बचा पाया
खुद को, उस #कालिख़ से जो 
पुत गयी हैं मेरे ज़मीर पर।

मैं #गूंगा भी हूँ
जो नही बन पाया #आवाज़
उस आवाज़ की, जो #दबा दी गई
#जयघोष के #कोलाहल तले।

मैं एक बुत हूँ
जिसकी पलकें #झपकती है
हृदय #धड़कता है, लेकिन
कोई प्रतिक्रिया नही दे पाता।

मैं लाचार हूँ
जिसकी आवाज़ #हलक में दब गई
आँखे #ठहर गई
शरीर बुत बन गया और 
मस्तिष्क #अवचेतन में खो गया।

मैं ढोंगी हूँ
निष्पक्ष होने का #ढोंग करता हूँ
धर्म, जाति और #समुदाय की बात करता हूँ
सही #गलत पर मुँह फेर लेता हूँ
चुप्पी को  रक्षाकवच समझता हूँ।

मैं #बदनसीब हूँ
जो रो रहा हूँ अपने भविष्य की ख़ातिर
मैंने ही दबाया था उसका गला,
हाँ! मैंने ही की थी उसकी हत्या
महज़ एक उंगली से, जिसके लहू का निशान
अभी भी है मेरे नाखून पर।

मैं बेबस हूँ।
शौक़ मना रहा हूँ 
लुटते हुए अरमानों का,
मिटते हुए अधिकारों का
अब नही दिख रहा कोई आसार
मेरे विजयी होने का।

जानते हो क्यों?

क्योंकि!
मैं शरीक था
मैं अब भी शरीक हूँ
उस कब्र को गहरा खोदने में
जिसमे दफन किया है
इन्ही हाथों से लोकतंत्र मैंने।।

सुनील पंवार 
स्वतंत्र युवा लेखक
राजस्थान