#हाँ। मैं #शरीक था।
मैं #अब भी शरीक हूँ,
उस #कब्र को #गहरा खोदने में,
जिसमे #दफन किया है
इन्ही हाथों से.... मैंने।।
मैं #मूकदर्शक था
मैं मूकदर्शक हूँ
हर उस #जुल्म का जो
हुआ था मेरी इन जिंदा #नज़रों के सामने।
मैं #बहरा था
मैं अब भी बहरा हूँ
जो नही सुन पाया उन #चीत्कारों को
जो #गूँज रही थी मेरे आसपास
मैं #लँगड़ा भी हूँ
जो दौड़ कर नही बचा पाया
खुद को, उस #कालिख़ से जो
पुत गयी हैं मेरे ज़मीर पर।
मैं #गूंगा भी हूँ
जो नही बन पाया #आवाज़
उस आवाज़ की, जो #दबा दी गई
#जयघोष के #कोलाहल तले।
मैं एक बुत हूँ
जिसकी पलकें #झपकती है
हृदय #धड़कता है, लेकिन
कोई प्रतिक्रिया नही दे पाता।
मैं लाचार हूँ
जिसकी आवाज़ #हलक में दब गई
आँखे #ठहर गई
शरीर बुत बन गया और
मस्तिष्क #अवचेतन में खो गया।
मैं ढोंगी हूँ
निष्पक्ष होने का #ढोंग करता हूँ
धर्म, जाति और #समुदाय की बात करता हूँ
सही #गलत पर मुँह फेर लेता हूँ
चुप्पी को रक्षाकवच समझता हूँ।
मैं #बदनसीब हूँ
जो रो रहा हूँ अपने भविष्य की ख़ातिर
मैंने ही दबाया था उसका गला,
हाँ! मैंने ही की थी उसकी हत्या
महज़ एक उंगली से, जिसके लहू का निशान
अभी भी है मेरे नाखून पर।
मैं बेबस हूँ।
शौक़ मना रहा हूँ
लुटते हुए अरमानों का,
मिटते हुए अधिकारों का
अब नही दिख रहा कोई आसार
मेरे विजयी होने का।
जानते हो क्यों?
क्योंकि!
मैं शरीक था
मैं अब भी शरीक हूँ
उस कब्र को गहरा खोदने में
जिसमे दफन किया है
इन्ही हाथों से लोकतंत्र मैंने।।
सुनील पंवार
स्वतंत्र युवा लेखक
राजस्थान
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