रे सरिक! सूखी नहीं है मेरी टहनियां भूलता कब है! तेरा रसास्वाद,
अब भी खड़ा हुआ है वो घरोंदा भी
जो बनाया था मनमोहन ने।
चारों ओर बीरानगी है,
तब भी
तेरे वो प्रेम के घरोंदे,
मालूम पड़ते हैं।
जब-जब गुजरता हूँ
इस बीरानगी से
तब-तब उभरता है
वो दृश्य
जो उकेरे थे तुमने कभी।
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