होरी
होरी न तो जलाने का पर्व है
और न ही जल-भुनने का।
होरी होरा करने का जश्न है,
चना-मटर, गेहूं की बालियों का।
होरी किसी की चिता नहीं है,
यह तो आग का खज़ाना है।
यह ख़जाना खेतों बीच बनाया जाता है मरघट पर नहीं।
इसकी तैयारी तीस दिन पहले से होती है,
डांढ़ा (स्तम्भ) गाड़ा जाता है, बरबूले बनाए जाते हैं।
होरी की लकड़ी एरण्ड आदि की,
बरबूले गोबर के गोल-गोल चक्रनुमा।
होरी हर घर में जलती है।
सेकी जाती हैं गकरियां।
रोटी नहीं बनती।
गुण से खाई जाती हैं।
रंग गुलाल लगाया जाता है।
दूसरे दिन पशुशाला के दरवाजे पर दोज बनाई जाती हैं।
जिसमें दरवाजे के दोनों ओर स्तूप की आकृति, एक पिसनारी, गाय, बैल,भैंस बछड़े बनाए जाते हैं।
खोड़ के दरवाजे पर बरेदी बैठाया जाता है।
रई, मथानी हसिआ, खुरपी की पूजा होती है।
अधिक जानकारी हेतु
संपर्क करें।
डॉ रामहेत गौतम सहायक प्राध्यापक संस्कृत विभाग डॉ हरीसिंह गौर विश्वविद्यालय सागर मप्र।
8827745548
No comments:
Post a Comment