Friday, 31 October 2025

चमार संघर्ष

Rishikant Pandey जी अपनी फेसबुक वॉल पर लिखते है कि समय के साथ खुद को इवॉल्व करने के मामले में अगर मैं सर्वाधिक किसी जाति से प्रभावित हूं तो चमार जाति( जिसमें उनकी जाटव ,कुरील ,अहिरवार ,मेघवाल आदि सभी उपजातियां शामिल हैं ) से । 
 शिक्षा , राजनीतिक समझ , सामाजिक उत्थान,आर्थिक विकास इन सभी मामलों उन्होंने खुद को समय के साथ बहुत तेजी से अपडेट किया है ।  
  शिक्षा पर सर्वाधिक ध्यान दिया । शिक्षा के लिए ग्रामीण क्षेत्रों से शहर की तरफ प्रवास किया । आर्थिक कष्ट उठाये।दिहाड़ी मजदूर के तौर पर भी कार्य किया ,मगर अपनी आने वाली पीढ़ी को शिक्षित बनाने पर जोर दिया । आज शिक्षा का जो प्रसार इनमें है वो तारीफ के काबिल है ।
  सामाजिक आत्मसम्मान के लिए उन्होंने एक लंबी लड़ाई लड़ी । अपना जमा जमाया पुश्तैनी चमड़े का व्यवसाय छोड़ने के पीछे सबसे बड़ा कारण था आत्म सम्मान की लड़ाई । सामाजिक अत्याचारों के मामले में भी डटकर प्रत्युत्तर देने की सफल रणनीति उन्होंने अपनाई । और ऐसा नहीं है कि उन्होंने ये लड़ाई गैर कानूनी तरीके से लड़ी हो । ज्यादातर मामलों में उन्होंने कानूनी तरीके से ही इस लड़ाई को जीता है । धर्म के मामले में भी उन्होंने उत्पीड़न का रोना रोने और दूसरों को गाली देने कि जगह बाबा साहब डॉ भीमराव अम्बेडकर जी द्वारा दिखाए गये रास्ते पर चलते हुए बौद्ध मत की तरफ रुख कर लिया । कोई चिक-चिक झिक झिक नहीं। समाज में अन्य जातियों के साथ भी उन्होंने समानता के साथ बेहतर सामाजिक संबंध बनाये। 
  
 आर्थिक तौर पर रोजगार के नये साधन अपनाये। आर्थिक उन्नति पर ध्यान दिया । और सबसे बड़ी बात की जुआ शराब सट्टा जैसी उन कुरीतियों से दूरी बनाई जो आर्थिक रूप से आदमी को पंगु बनातीं हैं ।

 सबसे ज्यादा जो बात मुझे प्रभावित करती है वो है उनकी राजनीतिक समझ । भारतीय राजनीति में बहुजन विचारधारा की न सिर्फ उन्होंने स्थापना की अपितु उस विचारधारा को एक राष्ट्रीय पार्टी के तौर पर खड़ा करके दिखाया । दलितों की एक स्वतंत्र राजनीतिक पहचान खड़ी की । कांग्रेस की तरफ से ब्राह्मण दलित मुस्लिम समीकरण के अंतर्गत ब्राह्मण डॉमिनेशन की पॉलिटिक्स की जा रही थी जिसमें दलितों को मात्र वोट बैंक के तौर पर यूज किया जा रहा था । उन्होंने बहुजन राजनीति के माध्यम से इस समीकरण को हमेशा के लिए खत्म करके दलितों को वोट बैंक पॉलिटिक्स से आजादी दिलाई । मगर ऐसा भी नहीं होने दिया कि बहुजन के नाम पर कोई और फायदा उठाकर उनका शोषण करने लगे । 
   जब उन्होंने देखा कि जमींदार जातियां बहुजन राजनीति के नाम पर उन्हें मात्र यूज करना चाह रहीं हैं तो उन्होंने इसका भी प्रतिकार किया । बहुजन राजनीति को उन्होंने जड़ता का शिकार नहीं होने दिया । जिन प्रतीकों और नारों के साथ उन्होंने इस राजनीतिक यात्रा की शुरुआत की समय आने पर उनमें बदलाव भी किया। हमेशा टकराव की राजनीति न करके सत्ता में आने पर सृजनात्मक राजनीति को बढ़ावा दिया ।आज आम्बेडकरवादी राजनीतिक विचारधारा पूरे देश में मजबूती से खड़ी दिखाई दे रही है जो उसका श्रेय चमार जाति को ही जाता है ।
  अपनी जाति ब्राह्मण को मैं यही सलाह दूंगा कि इन मामलों में इनसे सीख लेने की कोशिश करनी चाहिए।

आलोक महान की फेसबुक वॉल से

Friday, 24 October 2025

दलितः

पाणिनीय धातुवृत्तिः-
दलँ (दल्) विशरणे
मूलधातुः - दलँ
धातुः - दल्
अर्थः -विशरणे
गणः - भ्वादिः
पदि - परस्मैपदी
इट्से - ट्

मानवीयता 336
दल 
विशरणे
 (दलति णौ घटादित्वात (दलयति) दाडिमम् दालशब्दात् घञन्तात्तेन निवृत्तमित्यत्र विषये [ भावचप्रत्ययान्तादिमज्वक्तव्यः ] इतीमच् इलयोश्चाभेदः कुं दलतीति (कुद्दालः) पृषोदरादिः अयं घटादावपि 541

क्षीरतरङ्गिणी

 
352
दल
 
विशरणे
 - दलति उषिकुटिदलिकचिखजिभ्यः कपन् (उ0 3142) दलपः दलम् मित्त्वाद् (धा0 सू0 1553 व्याख्याने) दलयति चुरादौ (10199) दालयति 537

धातुप्रदीपः
 
354
दल
 
विदारणे
 - दलति । ददाल । दालः । दलनम् । दाडिनम् (68) । कुद्दालः (69)।। 549 ।।

दलँ (दल्) विशरणे
मूलधातुः
दलँ

धातुः
दल्

अर्थः
विशरणे

गणः
भ्वादिः

पदि
परस्मैपदी

इट्
सेट्

वृत्तयः

माधवीयधातुवृत्तिः
 
336
दल
 
विशरणे
 (दलति णौ घटादित्वात (दलयति) दाडिमम् दालशब्दात् घञन्तात्तेन निवृत्तमित्यत्र विषये [ भावचप्रत्ययान्तादिमज्वक्तव्यः ] इतीमच् इलयोश्चाभेदः कुं दलतीति (कुद्दालः) पृषोदरादिः अयं घटादावपि 541

क्षीरतरङ्गिणी
 
352
दल
 
विशरणे
 - दलति उषिकुटिदलिकचिखजिभ्यः कपन् (उ0 3142) दलपः दलम् मित्त्वाद् (धा0 सू0 1553 व्याख्याने) दलयति चुरादौ (10199) दालयति 537

धातुप्रदीपः
 
354
दल
 
विदारणे
 - दलति । ददाल । दालः । दलनम् । दाडिनम् (68) । कुद्दालः (69)।। 549 ।।
तिङन्त-रूपाणि

कर्तरि
लट् (वर्तमान)
परस्मै एक द्वि बहु
प्रथम दलति दलतः दलन्ति
मध्यम दलसि दलथः दलथ
उत्तम दलामि दलावः दलामः
लिट् (परोक्ष)
परस्मै एक द्वि बहु
प्रथम ददाल देलतुः देलुः
मध्यम देलिथ देलथुः देल
उत्तम ददाल/ददल देलिव देलिम
लुट् (अनद्यतन भविष्यत्)
परस्मै एक द्वि बहु
प्रथम दलिता दलितारौ दलितारः
मध्यम दलितासि दलितास्थः दलितास्थ
उत्तम दलितास्मि दलितास्वः दलितास्मः
लृट् (अद्यतन भविष्यत्)
परस्मै एक द्वि बहु
प्रथम दलिष्यति दलिष्यतः दलिष्यन्ति
मध्यम दलिष्यसि दलिष्यथः दलिष्यथ
उत्तम दलिष्यामि दलिष्यावः दलिष्यामः
लोट् (आज्ञार्थ)
परस्मै एक द्वि बहु
प्रथम दलतु/दलतात् दलताम् दलन्तु
मध्यम दलतात्/दल दलतम् दलत
उत्तम दलानि दलाव दलाम
लङ् (अनद्यतन भूत)
परस्मै एक द्वि बहु
प्रथम अदलत् अदलताम् अदलन्
मध्यम अदलः अदलतम् अदलत
उत्तम अदलम् अदलाव अदलाम
विधिलिङ्
परस्मै एक द्वि बहु
प्रथम दलेत् दलेताम् दलेयुः
मध्यम दलेः दलेतम् दलेत
उत्तम दलेयम् दलेव दलेम
आशीर्लिङ्
परस्मै एक द्वि बहु
प्रथम दल्यात् दल्यास्ताम् दल्यासुः
मध्यम दल्याः दल्यास्तम् दल्यास्त
उत्तम दल्यासम् दल्यास्व दल्यास्म
लुङ् (अद्यतन भूत)
परस्मै एक द्वि बहु
प्रथम अदालीत् अदालिष्टाम् अदालिषुः
मध्यम अदालीः अदालिष्टम् अदालिष्ट
उत्तम अदालिषम् अदालिष्व अदालिष्म
लृङ् (भविष्यत्)
परस्मै एक द्वि बहु
प्रथम अदलिष्यत् अदलिष्यताम् अदलिष्यन्
मध्यम अदलिष्यः अदलिष्यतम् अदलिष्यत
उत्तम अदलिष्यम् अदलिष्याव अदलिष्याम

कर्मणि
लट् (वर्तमान)
आत्मने एक द्वि बहु
प्रथम दल्यते दल्येते दल्यन्ते
मध्यम दल्यसे दल्येथे दल्यध्वे
उत्तम दल्ये दल्यावहे दल्यामहे
लिट् (परोक्ष)
आत्मने एक द्वि बहु
प्रथम देले देलाते देलिरे
मध्यम देलिषे देलाथे देलिध्वे/देलिढ्वे
उत्तम देले देलिवहे देलिमहे
लुट् (अनद्यतन भविष्यत्)
आत्मने एक द्वि बहु
प्रथम दलिता दलितारौ दलितारः
मध्यम दलितासे दलितासाथे दलिताध्वे
उत्तम दलिताहे दलितास्वहे दलितास्महे
लृट् (अद्यतन भविष्यत्)
आत्मने एक द्वि बहु
प्रथम दलिष्यते दलिष्येते दलिष्यन्ते
मध्यम दलिष्यसे दलिष्येथे दलिष्यध्वे
उत्तम दलिष्ये दलिष्यावहे दलिष्यामहे
लोट् (आज्ञार्थ)
आत्मने एक द्वि बहु
प्रथम दल्यताम् दल्येताम् दल्यन्ताम्
मध्यम दल्यस्व दल्येथाम् दल्यध्वम्
उत्तम दल्यै दल्यावहै दल्यामहै
लङ् (अनद्यतन भूत)
आत्मने एक द्वि बहु
प्रथम अदल्यत अदल्येताम् अदल्यन्त
मध्यम अदल्यथाः अदल्येथाम् अदल्यध्वम्
उत्तम अदल्ये अदल्यावहि अदल्यामहि
विधिलिङ्
आत्मने एक द्वि बहु
प्रथम दल्येत दल्येयाताम् दल्येरन्
मध्यम दल्येथाः दल्येयाथाम् दल्येध्वम्
उत्तम दल्येय दल्येवहि दल्येमहि
आशीर्लिङ्
आत्मने एक द्वि बहु
प्रथम दलिषीष्ट दलिषीयास्ताम् दलिषीरन्
मध्यम दलिषीष्ठाः दलिषीयास्थाम् दलिषीध्वम्/दलिषीढ्वम्
उत्तम दलिषीय दलिषीवहि दलिषीमहि
लुङ् (अद्यतन भूत)
आत्मने एक द्वि बहु
प्रथम अदालि अदलिषाताम् अदलिषत
मध्यम अदलिष्ठाः अदलिषाथाम् अदलिध्वम्/अदलिढ्वम्
उत्तम अदलिषि अदलिष्वहि अदलिष्महि
लृङ् (भविष्यत्)
आत्मने एक द्वि बहु
प्रथम अदलिष्यत अदलिष्येताम् अदलिष्यन्त
मध्यम अदलिष्यथाः अदलिष्येथाम् अदलिष्यध्वम्
उत्तम अदलिष्ये अदलिष्यावहि अदलिष्यामहि
वृत्तिषु पाठितानि कानिचन कृदन्त-प्रातिपदिकानि

Thursday, 23 October 2025

‎आइए महसूस करिए ज़िन्दगी के ताप को
‎मैं चमारों की गली तक ले चलूँगा आपको

आइए महसूस करिए जिन्दगी के रौब को
मैं वामनों की गली में ले चलूंगा आपको।rg
‎जिस गली में भुखमरी की यातना से ऊब कर
‎मर गई फुलिया बिचारी एक कुएँ में डूब कर

जिस गली में पांड़े पड़े छप्पन भोग भोग कर
चार-छह जनमान बैठे हुए भेंट का संयोग पर।rg
‎है सधी सिर पर बिनौली कंडियों की टोकरी
‎आ रही है सामने से हरखुआ की छोकरी
‎चल रही है छंद के आयाम को देती दिशा
‎मैं इसे कहता हूं सरजूपार की मोनालिसा
‎कैसी यह भयभीत है हिरनी-सी घबराई हुई
‎लग रही जैसे कली बेला की कुम्हलाई हुई
‎कल को यह वाचाल थी पर आज कैसी मौन है
‎जानते हो इसकी ख़ामोशी का कारण कौन है
‎थे यही सावन के दिन हरखू गया था हाट को
‎सो रही बूढ़ी ओसारे में बिछाए खाट को
‎डूबती सूरज की किरनें खेलती थीं रेत से
‎घास का गट्ठर लिए वह आ रही थी खेत से
‎आ रही थी वह चली खोई हुई जज्बात में
‎क्या पता उसको कि कोई भेड़िया है घात में
‎होनी से बेखबर कृष्णा बेख़बर राहों में थी
‎मोड़ पर घूमी तो देखा अजनबी बाहों में थी
‎चीख़ निकली भी तो होठों में ही घुट कर रह गई
‎छटपटाई पहले फिर ढीली पड़ी फिर ढह गई
‎दिन तो सरजू के कछारों में था कब का ढल गया
‎वासना की आग में कौमार्य उसका जल गया
‎और उस दिन ये हवेली हँस रही थी मौज में
‎होश में आई तो कृष्णा थी पिता की गोद में
‎जुड़ गई थी भीड़ जिसमें जोर था सैलाब था
‎जो भी था अपनी सुनाने के लिए बेताब था
‎बढ़ के मंगल ने कहा काका तू कैसे मौन है
‎पूछ तो बेटी से आख़िर वो दरिंदा कौन है
‎कोई हो संघर्ष से हम पाँव मोड़ेंगे नहीं
‎कच्चा खा जाएँगे ज़िन्दा उनको छोडेंगे नहीं
‎कैसे हो सकता है होनी कह के हम टाला करें
‎और ये दुश्मन बहू-बेटी से मुँह काला करें
‎बोला कृष्णा से बहन सो जा मेरे अनुरोध से
‎बच नहीं सकता है वो पापी मेरे प्रतिशोध से
‎पड़ गई इसकी भनक थी ठाकुरों के कान में
‎वे इकट्ठे हो गए थे सरचंप के दालान में
‎दृष्टि जिसकी है जमी भाले की लम्बी नोक पर
‎देखिए सुखराज सिंग बोले हैं खैनी ठोंक कर
‎क्या कहें सरपंच भाई क्या ज़माना आ गया
‎कल तलक जो पाँव के नीचे था रुतबा पा गया
‎कहती है सरकार कि आपस मिलजुल कर रहो
‎सुअर के बच्चों को अब कोरी नहीं हरिजन कहो
‎देखिए ना यह जो कृष्णा है चमारो के यहाँ
‎पड़ गया है सीप का मोती गँवारों के यहाँ
‎जैसे बरसाती नदी अल्हड़ नशे में चूर है
‎हाथ न पुट्ठे पे रखने देती है मगरूर है
‎भेजता भी है नहीं ससुराल इसको हरखुआ
‎फिर कोई बाँहों में इसको भींच ले तो क्या हुआ
‎आज सरजू पार अपने श्याम से टकरा गई
‎जाने-अनजाने वो लज्जत ज़िंदगी की पा गई
‎वो तो मंगल देखता था बात आगे बढ़ गई
‎वरना वह मरदूद इन बातों को कहने से रही
‎जानते हैं आप मंगल एक ही मक़्क़ार है
‎हरखू उसकी शह पे थाने जाने को तैयार है
‎कल सुबह गरदन अगर नपती है बेटे-बाप की
‎गाँव की गलियों में क्या इज़्ज़त रहे्गी आपकी
‎बात का लहजा था ऐसा ताव सबको आ गया
‎हाथ मूँछों पर गए माहौल भी सन्ना गया था
‎क्षणिक आवेश जिसमें हर युवा तैमूर था
‎हाँ, मगर होनी को तो कुछ और ही मंजूर था
‎रात जो आया न अब तूफ़ान वह पुर ज़ोर था
‎भोर होते ही वहाँ का दृश्य बिलकुल और था
‎सिर पे टोपी बेंत की लाठी संभाले हाथ में
‎एक दर्जन थे सिपाही ठाकुरों के साथ में
‎घेरकर बस्ती कहा हलके के थानेदार ने -
‎"जिसका मंगल नाम हो वह व्यक्ति आए सामने"
‎निकला मंगल झोपड़ी का पल्ला थोड़ा खोलकर
‎एक सिपाही ने तभी लाठी चलाई दौड़ कर
‎गिर पड़ा मंगल तो माथा बूट से टकरा गया
‎सुन पड़ा फिर "माल वो चोरी का तूने क्या किया"
‎"कैसी चोरी, माल कैसा" उसने जैसे ही कहा
‎एक लाठी फिर पड़ी बस होश फिर जाता रहा
‎होश खोकर वह पड़ा था झोपड़ी के द्वार पर
‎ठाकुरों से फिर दरोगा ने कहा ललकार कर -
‎"मेरा मुँह क्या देखते हो ! इसके मुँह में थूक दो
‎आग लाओ और इसकी झोपड़ी भी फूँक दो"
‎और फिर प्रतिशोध की आंधी वहाँ चलने लगी
‎बेसहारा निर्बलों की झोपड़ी जलने लगी
‎दुधमुँहा बच्चा व बुड्ढा जो वहाँ खेड़े में था
‎वह अभागा दीन हिंसक भीड़ के घेरे में था
‎घर को जलते देखकर वे होश को खोने लगे
‎कुछ तो मन ही मन मगर कुछ जोर से रोने लगे
‎"कह दो इन कुत्तों के पिल्लों से कि इतराएँ नहीं
‎हुक्म जब तक मैं न दूँ कोई कहीं जाए नहीं"
‎ 
‎यह दरोगा जी थे मुँह से शब्द झरते फूल से
‎आ रहे थे ठेलते लोगों को अपने रूल से
‎फिर दहाड़े, "इनको डंडों से सुधारा जाएगा
‎ठाकुरों से जो भी टकराया वो मारा जाएगा
‎इक सिपाही ने कहा, "साइकिल किधर को मोड़ दें
‎होश में आया नहीं मंगल कहो तो छोड़ दें"
‎बोला थानेदार, "मुर्गे की तरह मत बांग दो
‎होश में आया नहीं तो लाठियों पर टांग लो
‎ये समझते हैं कि ठाकुर से उलझना खेल है
‎ऐसे पाजी का ठिकाना घर नहीं है, जेल है"
‎पूछते रहते हैं मुझसे लोग अकसर यह सवाल
‎"कैसा है कहिए न सरजू पार की कृष्णा का हाल"
‎ 
‎उनकी उत्सुकता को शहरी नग्नता के ज्वार को
‎सड़ रहे जनतंत्र के मक्कार पैरोकार को
‎धर्म संस्कृति और नैतिकता के ठेकेदार को
‎प्रांत के मंत्रीगणों को केंद्र की सरकार को
‎मैं निमंत्रण दे रहा हूँ- आएँ मेरे गाँव में
‎तट पे नदियों के घनी अमराइयों की छाँव में
‎गाँव जिसमें आज पांचाली उघाड़ी जा रही
‎या अहिंसा की जहाँ पर नथ उतारी जा रही
‎हैं तरसते कितने ही मंगल लंगोटी के लिए
‎बेचती है जिस्म कितनी कृष्ना रोटी के लिए!
‎- अदम गोंडवी 
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Tuesday, 21 October 2025

आदेश (10.07.2025 को सुरक्षित) (12.08.2025 को सुनाया गया) वर्तमान याचिका 14.11.2022 के अनुलग्नक पी-11 की बैठक के कार्यवृत्त को चुनौती देते हुए दायर की गई है जिसके तहत प्रतिवादी संख्या 1-विश्वविद्यालय की कार्यकारी परिषद ने मद संख्या ECXXVIII-(iv)-(xiv) में प्रस्ताव पारित किया है। 2. याचिकाकर्ता के विद्वान वकील ने दृढ़ता से तर्क दिया है कि उपरोक्त प्रस्ताव पारित करने में विश्वविद्यालय की कार्रवाई कानून में अत्यधिक अनुचित है और यह उन सहायक प्रोफेसरों को अनुचित लाभ प्रदान करने के समान है, जिन्हें कानून की किसी भी ज्ञात प्रक्रिया का पालन किए बिना अवैध रूप से विश्वविद्यालय में नियुक्त किया गया है। याचिकाकर्ता के विद्वान वकील ने प्रस्तुत किया कि प्रारंभ में 30.10.2010 का एक विज्ञापन (अनुलग्नक पी-1)
प्रतिवादी नंबर 1-विश्वविद्यालय में विभिन्न संकाय पदों पर नियुक्ति के लिए जारी किया गया था और केवल उक्त विज्ञापन में विषयों का उल्लेख किया गया था और प्रत्येक विषय के खिलाफ कोई उपलब्ध पद नहीं था और प्रत्येक पद का उल्लेख किया गया था। प्रत्येक विषय या अनुशासन में पदों की संख्या या प्रत्येक विषय के तहत सहायक प्रोफेसर, एसोसिएट प्रोफेसर या प्रोफेसर जैसे पदों की संख्या का उल्लेख किए बिना इसे केवल एक रोलिंग / खुला विज्ञापन बताया गया था। कुल पदों की संख्या का भी खुलासा नहीं किया गया था। इसके बाद 02.11.2012 को एक शुद्धिपत्र जारी किया गया (अनुलग्नक पी -2) जिसमें सहायक प्रोफेसरों, एसोसिएट प्रोफेसरों और प्रोफेसरों के कुल पदों का खुलासा किया गया था। इसमें से सहायक प्रोफेसरों की रिक्तियों की संख्या 76 बताई गई थी, जिनमें से 9 यूआर थीं, 15 एससी थीं, 10 एसटी थीं, 42 ओबीसी के लिए थीं और 02 पीडब्ल्यूडी के लिए थीं। 3. चूंकि याचिका केवल सहायक प्रोफेसर के पद पर रिक्तियों को भरने के संबंध में दायर की गई है, इसलिए इस आदेश में तथ्य और विचार केवल सहायक प्रोफेसर के पद तक ही सीमित होंगे। 4. यह तर्क दिया गया है कि हालांकि अधिसूचित रिक्तियां सहायक प्रोफेसर के 76 पदों के लिए थीं, लेकिन यह उल्लेख न करके कि किस विषय में प्रत्येक श्रेणी के अंतर्गत कितनी रिक्तियां हैं, विश्वविद्यालय ने अपने हाथों में एक बड़ी छूट रख ली और जहां भी वे किसी विशेष श्रेणी के उम्मीदवार को लाभ पहुंचाना चाहते थे तो उक्त पद को उस श्रेणी में परिवर्तित कर दिया गया क्योंकि विज्ञापन में ऐसा स्पष्ट नहीं किया गया था। यह भी तर्क दिया गया है कि यूजीसी द्वारा बनाए गए नियमों के अनुसार, विश्वविद्यालयों और कॉलेजों में शिक्षकों और अन्य शैक्षणिक कर्मचारियों की नियुक्ति के लिए न्यूनतम योग्यता पर यूजीसी विनियम और उच्च शिक्षा में मानकों के रखरखाव के उपाय, 2010 (संक्षेप में
विनियम 2010'), खंड 6.0.0 के अनुसार चयन प्रक्रिया निर्धारित की गई है और परिशिष्ट (iii) के अनुसार, तालिका ii (सी) सहायक प्रोफेसर के लिए चयन मानदंड न्यूनतम योग्यता है जैसा कि विनियमों में निर्धारित है और चयन समिति द्वारा मूल्यांकन के लिए एक विशेष पद्धति निर्धारित की गई है, जो निम्नानुसार है: - चयन समिति मानदंड / वेटेज (कुल वेटेज = 100) (ए) शैक्षणिक रिकॉर्ड और अनुसंधान प्रदर्शन (50%) (बी) डोमिन ज्ञान और शिक्षण कौशल का आकलन (30%) (सी) साक्षात्कार प्रदर्शन (20%) 5. यह तर्क दिया जाता है कि तीन मापदंडों के अनुसार उम्मीदवारों का कोई मूल्यांकन नहीं किया गया था, जिसके आधार पर चयन समिति को उम्मीदवारों का आकलन करना था। 6. यह आगे तर्क दिया गया है कि नियुक्त उम्मीदवारों की वास्तविक संख्या 76 रिक्तियों के मुकाबले 156 थी। जब कुछ अभ्यर्थियों ने न्यायालय में यह कहते हुए याचिका दायर की कि विश्वविद्यालय ने उन्हें सेवा में स्थायीकरण का लाभ नहीं दिया है, तो विश्वविद्यालय ने याचिका संख्या 2372/2017 में अपना बचाव प्रस्तुत किया कि यूजीसी विनियम, 2010 के अनुसार कोई अंक प्रदान नहीं किए गए थे और इसलिए चयन समिति द्वारा कोई मेरिट सूची तैयार नहीं की गई थी, इसलिए चयन प्रक्रिया इतनी अवैधताओं से दूषित और दूषित है कि चयनित अभ्यर्थियों की सेवाओं को स्थायी करना संभव नहीं है। तत्पश्चात, इस न्यायालय की खंडपीठ ने अपने आदेश (अनुलग्नक P-6) दिनांक 08.03.2018 के तहत उक्त याचिका का निपटारा कर दिया और न्यायालय ने इसमें विस्तृत निर्देश पारित किए। निर्देशों का सार यह था कि न्यायालय इस निष्कर्ष पर पहुंचा कि चयन प्रक्रिया
अत्यधिक प्रदूषित और अवैध है और याचिकाकर्ताओं ने अपनी नियुक्ति के मामले में किसी भी जांच को रोकने के लिए याचिका दायर की है ताकि वे अपनी अवैध नियुक्ति को जारी रख सकें। इस न्यायालय ने उक्त आदेश के पैरा-13 में स्पष्ट रूप से माना है कि बिना आवेदन के भी नियुक्तियां की गई हैं और यहां तक ​​कि साक्षात्कार भी ठीक से नहीं हुए हैं। विज्ञापित 82 पदों के मुकाबले 157 नियुक्तियां की गई हैं। 7. यह भी तर्क दिया गया है कि इसके बाद इस मामले को विश्वविद्यालय ने अपने हाथ में लिया और मामले को मानव संसाधन विकास मंत्रालय, भारत सरकार को पत्र अनुलग्नक पी-8 के जरिए विजिटोरियल जांच समिति गठित करने की सिफारिश के साथ भेज दिया गया यानी विजिटर को विश्वविद्यालय में अवैध तरीके से अतिरिक्त सहायक प्रोफेसरों के चयन की प्रक्रिया में अनियमितताओं की जांच के लिए एक जांच समिति गठित करने की आवश्यकता थी। 8. यह भी तर्क दिया गया है कि हालांकि विजिटोरियल जांच रिपोर्ट रिकॉर्ड में नहीं है लेकिन विजिटोरियल जांच की सिफारिश प्रतिवादी संख्या 5 से 11 (दस्तावेज संख्या 5977/2025) के जवाब के साथ रिकॉर्ड में है और उक्त सिफारिशों के अनुसार विजिटोरियल जांच समिति ने मुद्दों को हल करने के लिए चार वैकल्पिक सुधारात्मक उपाय सुझाए थे। 9. इसके बाद विश्वविद्यालय ने 18.02.2020 की कार्यकारी परिषद की बैठक में इस मामले को उठाया और इसे एजेंडा आइटम संख्या ECXXVI (III)-(vi) के रूप में माना गया जो कि रिट याचिका पेपर बुक के पृष्ठ 70 पर है। यह तर्क दिया गया है कि कार्यकारी परिषद के उक्त प्रस्ताव द्वारा विश्वविद्यालय ने निर्णय लिया कि एक नई मेरिट सूची तैयार की जाए जिसके आधार पर सहायक प्रोफेसरों की रिक्तियों की सीमा तक सिफारिशें की जा सकें यह भी निर्णय लिया गया कि जो संकाय पहले से ही पिछली भर्ती प्रक्रिया के अनुसार काम कर रहे हैं, उन्हें जारी रखने की अनुमति दी जा सकती है और यदि वे अभी भी नई प्रक्रिया में चयनित होते हैं तो उन्हें सेवा में निरंतरता का लाभ दिया जा सकता है।

high court orders

परिणामस्वरूप, याचिका विचारणीय है और इसके द्वारा अनुमति दी जाती है। कार्यकारी परिषद की दिनांक 14.11.2022 की बैठक (अनुलग्नक पी/11) में लिए गए विवादित निर्णय को रद्द किया जाता है। इसके परिणामस्वरूप, पहले का निर्णय (अनुलग्नक पी/9) दिनांक 07.02.2020 बहाल रहेगा। प्रक्रिया को तीन महीने की अवधि के भीतर पूरा किया जाए, यदि प्रक्रिया तीन महीने के भीतर पूरी नहीं होती है तो 2010 की प्रक्रिया के अनुसरण में वर्ष 2013 में नियुक्त सहायक प्रोफेसर 15.11.2025 से अपने पद पर नहीं रहेंगे। यदि प्रक्रिया उस तिथि से पहले पूरी हो जाती है, तो केवल उन सहायक प्रोफेसरों को रखा जाएगा जो कार्यकारी परिषद की दिनांक 07.02.2020 की बैठक में लिए गए निर्णय के अनुसार आयोजित किए जाने वाले पुनर्मूल्यांकन और पुनः साक्षात्कार में योग्य पाए जाते हैं। 46. ​​चूंकि यह पाया गया है कि विश्वविद्यालय ने इस मामले में पूरी तरह से अवैधानिक तरीके से काम किया है, इसलिए, छूटे हुए उम्मीदवारों के अधिकारों को हराने और अवैध रूप से चयनित उम्मीदवारों को बचाने और बचाने की कोशिश करने के लिए विश्वविद्यालय पर उचित लागत लगाई जानी चाहिए। इसलिए, प्रतिवादी संख्या 3 और 4 पर संयुक्त रूप से और अलग-अलग 5.00 लाख रुपये (केवल पाँच लाख रुपये) का अनुकरणीय जुर्माना लगाया जाता है, जिसे विश्वविद्यालय द्वारा इस आदेश की तारीख से 45 दिनों की अवधि के भीतर निम्नलिखित तरीके से जमा किया जाएगा:- मप्र पुलिस कल्याण निधि राष्ट्रीय रक्षा निधि सशस्त्र सेना झंडा दिवस निधि मप्र राज्य विधिक सेवा प्राधिकरण उच्च न्यायालय बार एसोसिएशन, जबलपुर 2,00,000.00 रुपये 1,00,000.00 रुपये 1,00,000.00 रुपये 50,000.00 रुपये

Sunday, 12 October 2025

हिन्दी समास

समास

समास का शाब्दिक अर्थ है छोटा रूप। अतः जब दो या दो अधिक शब्द अपने बीच की विभक्तियों का लोप कर जो छोटा रूप् बनाते है, उसे समास, सामाजिक शब्द समास पर कहते है।
सामाजिक पदों को अलग करना समास विग्रह कहलाता है।
समास छः प्रकार के होते है –
1.अव्यवी समास
2.तत्पुरूष समास
3.द्वन्द्व समास
4.बहुव्रीहि समास
5.द्विगुसमास
6.कर्म धारय समास
1. अव्ययी समास:- प्रथम पद प्रधान होता है या पूरा पद अव्यय होता है। यदि शब्दों की पुनरावृति हो।
उदाहरण:-
सामाजिक शब्द/पद समास विग्रह
यथा शक्ति – शक्ति के अनुसार
यथा क्रम – क्रम के अनुसार
यथेच्छा – इच्छा के अनुसार
प्रतिदिन – प्रत्येक दिन
प्रत्येक – हर-एक
प्रत्यक्ष – अक्षि के समान
यथार्थ – जैसा वास्तव में अर्थ है
आमरण – मरण तक
आजीवन – जीवन भर
प्रतिदिन – प्रत्येक दिन
प्रतिक्षण – प्रत्येक क्षण
यावज्जीवन – जब तक जीवन है
लाजवाब – जिसका जबाब न हो
भर तक – सक भर
दुस्तर – जिसको तैराना कठिन हो
अत्यधिक – उत्तम से अधिक
प्रतिशत – प्रत्येक सौ पर
प्रत्याघात – घात के बदले आघात
मरणोपरांत – मरण के उपंरात
दिन भर – पूरे दिन
भर पेट – पेट भरकर
अवसरानुसार – अवसर के अनुसार
सशर्त – शर्त के अनुसार
हरवर्ष – प्रत्येक वर्ष
नीरव – बिना ध्वनि के
सपत्नीक – पत्नी के साथ
पहले पहल – सबसे पहल
चेहरे चेहरे – हर चेहरे पर
– वे उदाहरण जिसमें पहला पद उपसर्ग या अव्यय न होकर संज्ञा या विषेषण शब्द होता है, ये संज्ञा विषेषण शब्द अन्यत्र तो लिंग वचन कारक में अपना रूप लेते है किंतु समास में आने पर उनका रूप स्थिर रहता है।
विवेक-पूर्ण – विवेक के साथ
भागम भाग – भागने के बाद भाग
मंद भेद – मंद के बाद मंद
हाथों हाथ – हाथ ही हाथ में
कुशलतापूर्वक – कुशलता के साथ
घर-घर – घर के बाद घर
दिनों- दिन – दिन के बाद दिन
घड़ी-घड़ी – घड़ी के बाद घड़ी
2. तत्पुरूष समासः-में दूसरा प्रधान होता है इसमें प्रथम पद विशेषण व दुसरा शब्द विशेष्य का कार्य करता है।
लुप्त-कारक समास में कारक की विभक्तियों का लोप होता है सिर्फ कर्ता व सम्बोधन को छोड़कर शेष सभी कारक की विभक्तियों का लोप हो जाता है।
कर्म तत्पुरूष समास ( को विभक्ति का लोप) –
स्वर्गप्राप्त – स्वर्ग को प्राप्त
चिड़ीमार – चिड़ी को मारने वाला
तिलकुटा – तिल को कूटकर बनाया हुआ
प्राप्तोदक – उदक को प्राप्त
कृष्णार्पण – कृष्ण को अर्पण
जेबकतरा – जेब को कतरने वाला
हस्तगत – हस्त को गया हुआ
गिरहकट – गाँठ को काटने वाला
गगन चुंबी – गगन को चूमने वाला
कर्णतत्पुरूष:- ‘सेः का लोप या द्वारा का लोप, जुड़ने का भाव। हस्त लिखित, रेखांकित, अकाल पीड़ित, रत्नजड़ित, बाढ़ग्रस्त, तुलसीकृत, ईष्चरदत्त, नीतियुक्त।
सम्प्रदान तत्पुरूष:- ‘ के ‘ लिए ‘ का ‘ लोप ।
देषभक्ति, रसोईद्यर, गुरूदक्षिणा, सत्याग्रह, दानपात्र, डाकद्यर, छात्रावास, चिकित्सालय।
अपादन तत्पुरूष:- ‘ से ‘ (अलग होना) का लोप।
गुणरहित, देषनिकाला, पथभ्रष्ट, पापमुक्त, धर्मविमुख, नगरागत ।
सम्बन्ध तत्पुरूषः- ‘ का, की, के ‘ का लोप ।
राजपुत्र, सूर्यास्त, संसदसदस्य, गंगाजल, दीपषिखा, शास्त्रानुकूल ।
अधिकरण तत्पुरूष:- ‘ में ‘ पर का लोप ।
रथारूढ़, आपबीति, पदासीन, शीर्षस्थ, स्वर्गवास, लोकप्रिय, ब्रह्मलीन, देषाटन, शरणागत।
अन्य भेद
अलुक तत्पुरूष:- कारक चिह्न या विभक्ति का किसी न किसी रूप में मौजूद रह जाना । जैसे:- धनंजय, मृत्युंजय, मनसिज ।
नञ तत्पुरूष:- अंतिम शब्द प्रत्यय होता है और इस प्रत्यय का स्वतंत्र रूप से प्रयोग नहीं होता है। जलज – जल ़ ज
लुप्तपद तत्पुरूष/मध्यपद लोपी तत्पुरूष:- कारक चिह्नों के साथ शब्दों का भी लोप हो जाता है ।
दही बड़ा:- दही में डूबा हुआ बड़ा,
मालगाड़ी:- माल ले जाने वाली गाड़ी
पवनचक्की:- पवन से चलने वाली चक्की
3. कर्मधारय समास:- इसमें दूसरा पद प्रधान होता है तथा दोनों पदों में उपमेय-उपमान अथवा विषेषण-विषेष्य का सम्बन्ध होता है।
नीलकमल में – नील (विषेषण) तथा कमल (विषेष्य) है।
महासागर, महापुरूष, शुभागमन, नवयुवक, अल्पाहार, भलामानुष, बहुसंख्यक(हिन्दु), बहुमूल्य, भ्रष्टाचार, शीतोष्ण- शीत है जो उष्ण है।
उपमेय-उपमान:- चन्द्रमुख, कमलनयन, मृगनयनी-मृग, के नयनों के समान नयन है जिसके, कंजमुख
4. द्विगु समास:-इसमें एक पद संख्यावाची विषेषण होता है तथा शेष पद समूह का बोध कराता है, इसमें दूसरा पद प्रधान होता है, ऐसे समास में एक ही संख्या वाले शब्द सम्मिलित होते है जैसे:-
एकांकी:- एक अंक का
इकतारा:- एक तार का
चौराहा:- चार राहों का समाहार, सप्तर्षि, नवरत्न, सतसई, अष्टाध्यायी, पंचामृत(घी, दूध, दही, शहद)
5. द्वन्द्व समास:- इसमें दोनों पद प्रधान होते है, दोनों पदो ंके मध्य ‘ और ‘ या ‘ या ‘ आदि का लोप होता है। जैसे:- माता-पिता, अन्नजल, गुरू-षिष्य
पच्चीस:- पाँच और बीस अड़सठ:- आठ और सा�
धनुर्बाण, धर्माधर्म, हरिहर, दाल रोटी- दाल रोटी आदि ।
भला बुरा- बुरा आदि, अडौसी-पड़ौसी:- पड़ौसी आदि ।
एक-दो:- एक या दो, दस-बारह:- दस या बारह, दस से बारह तक।
6. बहुव्रीहि समास:-दोनों पक्षों में से कोई पद प्रधान नहीं होता है, अपितु तीसरे पद की कल्पना की जाती है। जैसे:- लम्बोदर, दषानन, पवनपुत्र, भालचंद्र(षिव), चन्द्रमौलि, सूपकर्ण(गणेष), षडानन (कार्तिकेय)

Sunday, 5 October 2025

 

संस्कृत, अम्बेडकर और भारतीय

गया 

20 जुलाई 2019 को, आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत ने बाबासाहेब आंबेडकर का स्मरण करते हुए कहा: "संस्कृत के बिना भारत को पूरी तरह से समझा नहीं जा सकता। 30% भारतीय भाषाएँ संस्कृत से ली गई हैं। आंबेडकर ने कहा कि उन्हें दुख है कि वे संस्कृत नहीं सीख पाए और उन्हें पश्चिमी अनुवादित संस्करणों से पढ़ना पड़ा, जो शायद गलत भी हों। उन्होंने संस्कृत को भारत की राष्ट्रीय भाषा बनाने का समर्थन किया।"

हालाँकि किसी नेता के लिए यह राय रखना कोई समस्या नहीं है कि कोई विशेष भाषा अन्य भाषाओं से ज़्यादा महत्वपूर्ण है, लेकिन अपने तर्कों को पुष्ट करने के लिए बाबासाहेब का नाम संदर्भ से बाहर, सफ़ेद झूठ के साथ उछालना निंदनीय है। दक्षिणपंथी या मध्य-दक्षिणपंथी नेताओं को बाबासाहेब आंबेडकर का ज़िक्र करते देखना हमेशा दिलचस्प होता है। वे लगभग हर उस बात के पक्ष में खड़े होते हैं जिसका उन्होंने कड़ा विरोध किया था।

श्री भागवत के इस बयान के पीछे कई धारणाएं और तथ्य हैं जिन्हें संदर्भ से बाहर लिया गया है, जिन्हें कुछ तथ्यों और कुछ प्रश्नों के माध्यम से दूर किया जा सकता है।


कुछ तथ्य:

1. अंबेडकर संस्कृत (हिंदी, अंग्रेजी, मराठी, गुजराती और पाली सहित) में धाराप्रवाह थे और उन्होंने 'रिडल्स इन हिंदूइज़्म' लिखी है । यह पुस्तक अंबेडकर की मृत्यु के 3 दशक बाद प्रकाशित हुई थी। मराठा मंडल ने इसकी प्रतियां जलाईं और शिवसेना ने 'राम और कृष्ण' पर एक अध्याय को हटाने के लिए अदालतों में रैली की। अंबेडकर ने अपनी पुस्तक में वेदों, उपनिषदों, रामायण, महाभारत से सटीक छंद उद्धृत किए हैं। यह खोजना मुश्किल है कि अंबेडकर ने पश्चिमी विद्वानों को पढ़ने के लिए अपना अफसोस कहां व्यक्त किया है; जो उनके जैसे ही वेदों की ब्राह्मण व्याख्याओं के आलोचक थे। वह उद्धृत करते हैं (पृष्ठ 18) प्रोफेसर मैक्स मुलर (प्राचीन संस्कृत साहित्य का इतिहास): "ब्राह्मण ग्रंथों में वैदिक भजनों के मूल उद्देश्य की पूरी तरह से गलतफहमी है

2. अंबेडकर ने पहले लालकृष्ण मैत्रा के संस्कृत को भारत की राष्ट्रभाषा बनाने के प्रस्ताव का समर्थन किया था, लेकिन युवा सदस्यों के असहमत होने के कारण इसे छोड़ दिया। 1950 में, जब राष्ट्रभाषा के लिए अंतिम बहस हुई, तो हिंदी बनाम अंग्रेजी का मामला था। नेहरू हिंदी के पक्ष में थे और अंबेडकर अंग्रेजी के।

3. इस तथ्य की क्या प्रासंगिकता है कि आंबेडकर ने 60 साल पहले संस्कृत का समर्थन किया था, जबकि भारत (2011) का 0.00198% हिस्सा संस्कृत समझता है। दरअसल, आंबेडकर की पुस्तक 'द अनटचेबल्स एंड पैक्स ब्रिटानिका' में , उन्होंने 1840 में बॉम्बे के सरकारी स्कूलों में संस्कृत पढ़ने वाले विद्यार्थियों की संख्या के स्पष्ट आँकड़े उद्धृत किए हैं। यह संख्या 12170 में से 283 थी। वे इस बात के प्रमाण प्रस्तुत करते हैं कि कैसे इस पहलू में भी निचली जातियों का व्यवस्थित बहिष्कार किया गया था।

4. वे कौन से स्रोत हैं जो साबित करते हैं कि 30% भारतीय भाषाओं में संस्कृत है? मुझे एक भी ऐसा स्रोत नहीं मिला जो यह आँकड़ा दे सके।

कुछ प्रश्न:

1. क्या संस्कृत समझने से भारत की स्पष्ट समझ की गारंटी मिल सकती है? एक ऐसी भाषा जो लगभग 100% भारतीयों द्वारा बोली या लिखी भी नहीं जाती, भारत को समझने का पैमाना कैसे हो सकती है? हो सकता है कि हिंदू धर्मग्रंथ संस्कृत में लिखे गए हों। लेकिन हमारी कोई भी पाठ्यपुस्तक - इतिहास, विज्ञान, कुछ भी उस भाषा में नहीं है। 2019 में संस्कृत कैसे प्रासंगिक है?

2. हालाँकि मैंने दसवीं कक्षा की बोर्ड परीक्षा में संस्कृत में 97/100 अंक प्राप्त किए थे, फिर भी आज मैं संस्कृत का एक शब्द भी नहीं बोल सकता। मैंने संस्कृत (ज़्यादातर दूसरे छात्रों की तरह) इसलिए चुनी क्योंकि इसमें हिंदी (दूसरा विकल्प) से ज़्यादा अंक मिल सकते थे। ज़ाहिर है कि आज मुझे संस्कृत बोलना या लिखना नहीं आता। ऐसा इसलिए नहीं है कि मैं संस्कृत का अनादर करता हूँ, बल्कि इसलिए कि मुझे संस्कृत में न तो कुछ बोलना है और न ही पढ़ना/देखना है।

3. किसान आत्महत्याएँ, बाढ़, गिरती मुद्रा, बढ़ती बेरोज़गारी, फ़ेक न्यूज़, महिला सुरक्षा, मॉब लिंचिंग। संस्कृत का राष्ट्रीय भाषा न होना आज भारत के सबसे बड़े मुद्दों में से एक कैसे है? ऐसा नहीं है। लेकिन यह ऊपर बताए गए विषयों से ध्यान भटकाने का एक अच्छा ज़रिया है।

4. मान लीजिए कि मैं भारत को ठीक से नहीं समझ पाता क्योंकि मैं संस्कृत नहीं जानता, तो क्या इससे मैं भारतीय नागरिक नहीं रह जाता?

5. भारतीय भाषाएँ भी उर्दू और फ़ारसी से काफ़ी कुछ उधार लेती हैं। तो?

6. अगर अंबेडकर जिस बात का समर्थन करते थे, वह इतनी ही महत्वपूर्ण है, तो उनकी सबसे बड़ी इच्छा भारत से 'जाति व्यवस्था' (जाति का विनाश) को हटाकर सभी असमानताओं को दूर करना था । यह कैसा रहेगा?

ये विचार एक ऐसे व्यक्ति के हैं, जो न तो सत्ता का साधन रहा है और न ही महानता का चापलूस। ये विचार एक ऐसे व्यक्ति के हैं, जिसका लगभग पूरा सार्वजनिक परिश्रम गरीबों और शोषितों की मुक्ति के लिए एक सतत संघर्ष रहा है और जिसका एकमात्र प्रतिफल राष्ट्रीय पत्रिकाओं और राष्ट्रीय नेताओं द्वारा निरंतर निंदा और गाली-गलौज की बौछार रहा है, और इसका कोई और कारण नहीं, बल्कि केवल यही है कि मैं उनके साथ उस चमत्कार—मैं इसे चाल नहीं कहूँगा—को करने में शामिल होने से इनकार करता हूँ, जिसमें अत्याचारी के सोने से शोषितों को मुक्ति दिलाई जाती है और अमीरों के धन से गरीबों को ऊपर उठाया जाता है।

—डॉ. अम्बेडकर, 'जाति का विनाश'