Thursday, 23 October 2025

‎आइए महसूस करिए ज़िन्दगी के ताप को
‎मैं चमारों की गली तक ले चलूँगा आपको

आइए महसूस करिए जिन्दगी के रौब को
मैं वामनों की गली में ले चलूंगा आपको।rg
‎जिस गली में भुखमरी की यातना से ऊब कर
‎मर गई फुलिया बिचारी एक कुएँ में डूब कर

जिस गली में पांड़े पड़े छप्पन भोग भोग कर
चार-छह जनमान बैठे हुए भेंट का संयोग पर।rg
‎है सधी सिर पर बिनौली कंडियों की टोकरी
‎आ रही है सामने से हरखुआ की छोकरी
‎चल रही है छंद के आयाम को देती दिशा
‎मैं इसे कहता हूं सरजूपार की मोनालिसा
‎कैसी यह भयभीत है हिरनी-सी घबराई हुई
‎लग रही जैसे कली बेला की कुम्हलाई हुई
‎कल को यह वाचाल थी पर आज कैसी मौन है
‎जानते हो इसकी ख़ामोशी का कारण कौन है
‎थे यही सावन के दिन हरखू गया था हाट को
‎सो रही बूढ़ी ओसारे में बिछाए खाट को
‎डूबती सूरज की किरनें खेलती थीं रेत से
‎घास का गट्ठर लिए वह आ रही थी खेत से
‎आ रही थी वह चली खोई हुई जज्बात में
‎क्या पता उसको कि कोई भेड़िया है घात में
‎होनी से बेखबर कृष्णा बेख़बर राहों में थी
‎मोड़ पर घूमी तो देखा अजनबी बाहों में थी
‎चीख़ निकली भी तो होठों में ही घुट कर रह गई
‎छटपटाई पहले फिर ढीली पड़ी फिर ढह गई
‎दिन तो सरजू के कछारों में था कब का ढल गया
‎वासना की आग में कौमार्य उसका जल गया
‎और उस दिन ये हवेली हँस रही थी मौज में
‎होश में आई तो कृष्णा थी पिता की गोद में
‎जुड़ गई थी भीड़ जिसमें जोर था सैलाब था
‎जो भी था अपनी सुनाने के लिए बेताब था
‎बढ़ के मंगल ने कहा काका तू कैसे मौन है
‎पूछ तो बेटी से आख़िर वो दरिंदा कौन है
‎कोई हो संघर्ष से हम पाँव मोड़ेंगे नहीं
‎कच्चा खा जाएँगे ज़िन्दा उनको छोडेंगे नहीं
‎कैसे हो सकता है होनी कह के हम टाला करें
‎और ये दुश्मन बहू-बेटी से मुँह काला करें
‎बोला कृष्णा से बहन सो जा मेरे अनुरोध से
‎बच नहीं सकता है वो पापी मेरे प्रतिशोध से
‎पड़ गई इसकी भनक थी ठाकुरों के कान में
‎वे इकट्ठे हो गए थे सरचंप के दालान में
‎दृष्टि जिसकी है जमी भाले की लम्बी नोक पर
‎देखिए सुखराज सिंग बोले हैं खैनी ठोंक कर
‎क्या कहें सरपंच भाई क्या ज़माना आ गया
‎कल तलक जो पाँव के नीचे था रुतबा पा गया
‎कहती है सरकार कि आपस मिलजुल कर रहो
‎सुअर के बच्चों को अब कोरी नहीं हरिजन कहो
‎देखिए ना यह जो कृष्णा है चमारो के यहाँ
‎पड़ गया है सीप का मोती गँवारों के यहाँ
‎जैसे बरसाती नदी अल्हड़ नशे में चूर है
‎हाथ न पुट्ठे पे रखने देती है मगरूर है
‎भेजता भी है नहीं ससुराल इसको हरखुआ
‎फिर कोई बाँहों में इसको भींच ले तो क्या हुआ
‎आज सरजू पार अपने श्याम से टकरा गई
‎जाने-अनजाने वो लज्जत ज़िंदगी की पा गई
‎वो तो मंगल देखता था बात आगे बढ़ गई
‎वरना वह मरदूद इन बातों को कहने से रही
‎जानते हैं आप मंगल एक ही मक़्क़ार है
‎हरखू उसकी शह पे थाने जाने को तैयार है
‎कल सुबह गरदन अगर नपती है बेटे-बाप की
‎गाँव की गलियों में क्या इज़्ज़त रहे्गी आपकी
‎बात का लहजा था ऐसा ताव सबको आ गया
‎हाथ मूँछों पर गए माहौल भी सन्ना गया था
‎क्षणिक आवेश जिसमें हर युवा तैमूर था
‎हाँ, मगर होनी को तो कुछ और ही मंजूर था
‎रात जो आया न अब तूफ़ान वह पुर ज़ोर था
‎भोर होते ही वहाँ का दृश्य बिलकुल और था
‎सिर पे टोपी बेंत की लाठी संभाले हाथ में
‎एक दर्जन थे सिपाही ठाकुरों के साथ में
‎घेरकर बस्ती कहा हलके के थानेदार ने -
‎"जिसका मंगल नाम हो वह व्यक्ति आए सामने"
‎निकला मंगल झोपड़ी का पल्ला थोड़ा खोलकर
‎एक सिपाही ने तभी लाठी चलाई दौड़ कर
‎गिर पड़ा मंगल तो माथा बूट से टकरा गया
‎सुन पड़ा फिर "माल वो चोरी का तूने क्या किया"
‎"कैसी चोरी, माल कैसा" उसने जैसे ही कहा
‎एक लाठी फिर पड़ी बस होश फिर जाता रहा
‎होश खोकर वह पड़ा था झोपड़ी के द्वार पर
‎ठाकुरों से फिर दरोगा ने कहा ललकार कर -
‎"मेरा मुँह क्या देखते हो ! इसके मुँह में थूक दो
‎आग लाओ और इसकी झोपड़ी भी फूँक दो"
‎और फिर प्रतिशोध की आंधी वहाँ चलने लगी
‎बेसहारा निर्बलों की झोपड़ी जलने लगी
‎दुधमुँहा बच्चा व बुड्ढा जो वहाँ खेड़े में था
‎वह अभागा दीन हिंसक भीड़ के घेरे में था
‎घर को जलते देखकर वे होश को खोने लगे
‎कुछ तो मन ही मन मगर कुछ जोर से रोने लगे
‎"कह दो इन कुत्तों के पिल्लों से कि इतराएँ नहीं
‎हुक्म जब तक मैं न दूँ कोई कहीं जाए नहीं"
‎ 
‎यह दरोगा जी थे मुँह से शब्द झरते फूल से
‎आ रहे थे ठेलते लोगों को अपने रूल से
‎फिर दहाड़े, "इनको डंडों से सुधारा जाएगा
‎ठाकुरों से जो भी टकराया वो मारा जाएगा
‎इक सिपाही ने कहा, "साइकिल किधर को मोड़ दें
‎होश में आया नहीं मंगल कहो तो छोड़ दें"
‎बोला थानेदार, "मुर्गे की तरह मत बांग दो
‎होश में आया नहीं तो लाठियों पर टांग लो
‎ये समझते हैं कि ठाकुर से उलझना खेल है
‎ऐसे पाजी का ठिकाना घर नहीं है, जेल है"
‎पूछते रहते हैं मुझसे लोग अकसर यह सवाल
‎"कैसा है कहिए न सरजू पार की कृष्णा का हाल"
‎ 
‎उनकी उत्सुकता को शहरी नग्नता के ज्वार को
‎सड़ रहे जनतंत्र के मक्कार पैरोकार को
‎धर्म संस्कृति और नैतिकता के ठेकेदार को
‎प्रांत के मंत्रीगणों को केंद्र की सरकार को
‎मैं निमंत्रण दे रहा हूँ- आएँ मेरे गाँव में
‎तट पे नदियों के घनी अमराइयों की छाँव में
‎गाँव जिसमें आज पांचाली उघाड़ी जा रही
‎या अहिंसा की जहाँ पर नथ उतारी जा रही
‎हैं तरसते कितने ही मंगल लंगोटी के लिए
‎बेचती है जिस्म कितनी कृष्ना रोटी के लिए!
‎- अदम गोंडवी 
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