कुछ कहकर कुछ कमाने की।
ठगों ने खूब कहा मेरा कहकर,
ठगा राजाओं को देवता कहकर।
राजतंत्र में कथायें राजा सुनते थे,
फिर दिव्यता के सपने बुनते थे।
ठग पूजे जायें, लठैत लूटते जाएं,
गठजोड़ में जनता की पड़ी नाएं।
जनता जीती थी अपने तरीके से,
कहती-सुनती थी अपने तरीके से।
ठग शम्बूक रच राजा को सुनाते रहे,
लुटेरे खुद को राम मान मारते रहे।
ठग न वाल्मीकि थे कि लंगोटी में जीते,
लुटेरे न राम थे कि बोधिसत्व हो जीते।
कथा छोड़कर इंसान की व्यथा देखो,
आज जीना कैसे है? कुछ तथा देखो।
घंटा-घंटी से कुछ कब निकला है?
हल समता का शिक्षा से निकला है।
आवाज बुलंद हो प्रतिनिधित्व की,
बात नौकरी, व्यापार, राजनीति की।
बात घर, कुएं, खेत, खलिहान की
बात दरवाज़े, गली, गूल, सड़क की।
बात, आंगनबाड़ी, स्कूल, कॉलेज की,
बात, कक्षा, सभा, सेमिनार में मंच की।
बात वार्ड, पंचायत, विधान, संसद की,
बात थाने, अस्पताल व न्यायालय की।
बात रोटी, रोज़गार, इलाज सुरक्षा की,
बात संसाधनों के समान वितरण की।
बात सर्वत्र अबसर की बराबरी की,
बात समान सम्मान पाने व देने की।
और इससे अधिक क्या? कहा जाए,
दुनिया आगे है, पीछे क्यों रहा जाए?
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