Monday, 30 September 2024

मूढ़

मूढ़ मूढ़ को खोजकर 
खुजात खुदईं खुद का मूड़।
मैं मूरख मूरख रहा, 
ढूँढ़त फिरत मूढ़ ही मूढ़। rg

Sunday, 29 September 2024

एकलव्य द्रोणाचार्य

हे आचार्य!
वख़्श दो अंगूठा मेरा, 
आदिवासियों के ही नहीं,
तुम्हारे भी काम आयेगा।
जब सत्ता के गलियारों में, 
झूठ की ढाल ले,
उतारे जा रहे होंगे सर,
यह अंगूठा तुम्हारे काम आयेगा।

यकीन करो,
आदिवासी दरख्त नहीं जलाते,
देखो कुछ देर में, 
माचिस लेकर, दरवान आ जायेगा।
पहले तुमसे 
मेरा घर उजड़वायेगा, 
फिर धीरे से विधर्मी! कह,
गर्दन तुम्हारी भी उड़वायेगा।

बचा रहेगा अगर अंगूठा यह,
हमारे ये वन भी वचे रहेंगे,
बचा रहेगा गुरुत्व आपका,
और आपका मस्तक ऊंचा रहेगा।

इन विस्तार वादियों के लिए, 
विद्यार्थियों में विभेद मत करो,
बचा रहेगा गर अगूंठा तो
धृष्टद्युम्न को रोकने के भी काम आयेगा।

कट जाने पर अंगूठा यह मेरा,
आपका मस्तक भी न बच पायेगा।
नस्लें मेरी वन-वन भटकेंगी, 
हस्तिनापुर-मथुरा सब उजड़ जायेंगा।

पीकर पड़े रहेंगे लोग इधर-उधर 
उन्मत्त खूंखार सियार सब उहायेंगे।
जंगल जला दिए जायेंगे, 
भरतखंडी खंड-खंड, अंड-बंड 
गुलाम गुलामी में मग्न हो जाएंगे।

मुट्ठीभर होंगे ठेकेदार धर्म के,
किसान की खाल बेच कुछ ही कमायेंगे,
हथियारबंद गिरायेंगे घोड़ियों से किसी को,
बहू-बटियों को भी उठाकर लटकायेंगे।

सारे संसाधन अपने कब्जे में लेकर 
धूर्त सियार झंडाबरदार बन कहेंगे,
हम जन्मना योग्य हैं रे जानवरों!
सब को क्या करना है? 
यह सिर्फ हम बतलायेंगे।

अंगूठा कटने से उपजा असंतुलन 
फिर कब दूर हो पायेगा नहीं पता,
यह मांग आपकी जायज नहीं है,
यह तो है सदियों की धूर्तता,
वचनबद्धता से छले जाते हैं यहाँ मासूम 
नहीं दूंगा अपना अंगूठा,
और कहूँगा कोई अंगूठा न काटे।

तभी सत्ता के हथियारबंदों ने 
अकेले में एकलव्य का अंगूठा काट लिया,
और कह दिया मुनादी लगवाकर, 
एकलव्य गुरुभक्त था।

तब से काटे जा रहे हैं
साहुकारों द्वारा,
नेताओ द्वारा
बोतल और अनाज के बदले,
नंगे-भूखे, अंधे-गूंगे
आदिवासियों-दलितों के अंगूठे।







Saturday, 28 September 2024

सचमुच का पेड़

संस्मरण 
एक दिन की बात है कि मैं खेत पर गाय-बैल व भैंस चरा रहा था। जानवर बगर गए खेत में और मैं बोरी बिछा के फैल गया पठला पर ठीक वैसे ही जैसे मानो साक्षात अवलोकितेश्वर लेटे हों। पता ही नहीं चला कि लूघर लगावनी आँख कब लग गई। हमें फैला जान कर चैरिया, पीरा गए सो गए लाली और टिड़को को भी संग पुटिया ले गए।
हल चलाने के लिए बैलों की आवश्यकता से लल्ला (अपने पिता को लल्ला कहते हैं हमारे गांव में) हरामी हर को न हारे हुए कंधे पर हर लियाए। हरकुँअर जिज्जी भी आगे-आगे हरे कड़ा वाले हाथ में हरे छन्ना में हर्दी मिले आलू और हाथों से बनी जुआर की पनपथू ले कर आ गईं और जगा कर बोलीं लै रोटी खा लै।
मैंने छन्ना खोला ही था कि लल्ला की ललकार सुनाई दी- काय रे कितै मर गऔ। मेरी अक्क-वक्क भूल गई। नौरा-सी गर्दन उठा कर जब ढोर देखे तो खेत में सूनर पड़ी थी। लल्ला प्यारे लल्ला के जुड़ई के खेत से चैरिया, पीरा, लाली और टिड़को को अखत्तर की गारी देते हुए वाहर निकाल रहे थे। जानवरों पर जो जंतर(परहैना) और मंतर (ललकार मिमिश्रि गालियाँ) चल रहे थे उनकी मार को भांपकर मैंने रोना शुरू कर दिया। जिज्जी भी दूर जाकर कुछ काम टटकोरने लगीं। क्योंकि वे जानती थीं कि लल्ला की मार से जो भी बचाता है वो भी मार खाता है। और ऊपर से उनको बदले का दिन भी था क्योंकि एक दिन पहले बरी रोटी दिखा कर बाई से उनको पिटवाया था। जीव चिरा कर और ठेंगा दिखाकर 'बच्चू अब आहै मजा सोवे कौ' कह कर रफू-रक्कर हो गईं। 
ज्यों-ज्यों हल्ला मचाते हुए लल्ला हमारी तरफ बढ़ रहे थे त्यों-त्यों हमारे हाथ-पैर तूफान की हवा से हिलते टटेरे की तरह हिलने लगे। 
ज्यों ही पीठ पर परहैनिया की पांच लरें परीं तो हमाई तो मुत्तू छूट गई। जिज्जी से न रहा गया और दौड़ पड़ी बचाने, अब लल्ला का ताव ढाल बनी जिज्जी के कारण दूसरे कामों की तरफ मुड़ चुका था। फिर भी मार-मार के भूत भगाने के बाद बड़बड़ाते हुए हर-बैल जोतने में लग गए। फिर भी बीच-बीच में नसीहत देते रहे कि अगर उनके ढोर हमाई फसल चर जै है तो हमें दर्द हुइऐ कै नईं हुइऐ। अपनी-सी सब की फसल समुझों चइए। अब न्याव धरी हम का कैं हैं उनसें?
तब तक घर तक खबर पहुँच चुकी थी कि रामेत की मराई हो रई। पड़ौसी होने के नाते प्यारे लल्ला भी आ गए। खेत देखने से पहले मेरी चोटें देख कर लल्ला को समझा चुकने के बाद अपना खेत देखकर मन मसोस कर रह गए। व बोले मुलाम बिरवाई अच्छी कर लो हमए ढोर सोई छूट जात कभऊं-कभऊं और वे भी अपने छैंके मूंदने में लग गए।
अब तक बाई(मां) भी गिदविद दै कैं(भागकर) आ चुकीं थीं और उनका बड़-बड़ाना शुरू हुआ। वे बोली इतैई जगा मिलत तोय बैठवे के लानें। जौ गोंण बब्बा कौ ठौर है इतै करिआ मुछिन वारौ सांप रत है। ठीक रऔ दो-चार घल गए। चोटें देखकर- कैसौ बरा सौ सुजे दऔ। कितनौ समझा लऔ कि सोऊ न करे ढोर चरावे की विरियां। रात में लंप लै कैं बैठौ रै है। का पतौ पढ़त है कि ऐसैंई गिलगौंचा करत रै है। इस प्रकार बड़बड़ाते हुए मां के हाथ फेरने से पिता के परहैना की मार से आईं चोटें कुछ ठंडी पड़ीं। उधर जिज्जी भी प्यार से पास मैं बैठी थी। लल्ला भी शांत हो चुकने के बाद पास आ गए। दोनों समझाते हुए बोले कि बेटा पराई खेती भी खून-पसीना सें ही तैयार होउत है, जो कि बरस भर की भूंख मिटाउत है। साऊकार के कर्जे सें बचाउत है। बेटा पढ़ लो तो जा जिंदगी से बच जै हो। कछू न धरौ जा मजदूरन की जिंदगी में। लल्ला-बाई के दुलार से तन की चोंटें दर्द नहीं इलाज के निशान लग रहीं थीं, और उनकी बातें बाल-मन में ऐसे धंस रही थीं जैसे धूल में बीज। वर्षाकाल पाकर उगते बीच की तरह लल्ला-बाई की बात विद्यालय के वातावरण में पनपने लगी। पौधशाला से निकल कर उपवन में पौधा पेड़ बनता है जैसे वैसे ही मैं बड़ा हुआ। आज मैं एक पेड़ हूँ। पूरा व सचमुच का पेड़ होने की कोशिश कर रहा हूँ। पेड़ जो नहीं उजाड़ता है खेत किसी का।

Thursday, 26 September 2024

त्रुटि

त्रुटियों से तर कर उबरते हैं,
सतत्सफल सर्वोत्तम लोग।
दाने-दाने को तरसने वाले,
पा लेते छक छप्पन भोग।।rg 24.9.24

जनपीड़ा गाते हो
या राजा की ठाट।
पता चल जाता है
कवि हो या भाट।।rg 27.09.24

Tuesday, 24 September 2024

जनी से ठनी

रात तना-तनी में जनी से 
रार विकट ठनी हमाई।
कछु देर दोऊ चिमाए रए
बिनबोलें नींद न आयी।। rg

चर्चा चरत न विरत,
भैंस बैठ गई पानी।
बरेदी फिरत गिरत 
डांग पूरी है छानी। rg

फूल हैं मगर मसली जा सकतीं नहीं,
बेल हैं मगर मरोड़ी जा सकतीं नहीं,
चिरैयां है, पिंजरे में की सकतीं नहीं,
महक हैं मुट्ठीबंद कीं जा सकतीं नहीं,
रंग हैं बेढंग वे कभी रह सकतीं नहीं,
बलैयां हैं, बला बन सकती हैं दुष्ट को।rg 24.09.24


Sunday, 22 September 2024

शुभकामनाः

🙏🙏🙏🙏🙏🙏
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धनं इच्छति धनं लभेत् , 
रूपं इच्छति रूपं लभेत् ,
ज्ञानं इच्छति ज्ञानं लभेत्,
बलं इच्छति बलं लभेत्,
येन दीप्तं संविधानदीप:
भीमपादयो: नत्वा सदा
गौतमेन प्रियमिदं काम्यते
भवान् सदा सुखी भवेत्। 

💐💐💐💐💐💐
🙏🙏🙏🙏🙏🙏

Thursday, 19 September 2024

सनातन

जम्बूद्वीप में लोकतंत्र को पैदा हुए अभी 70 साल बीत चुके थे, भेड़ें, बकरियां भी अब बरेदी से मुक्त हो चली थीं। कुछ एक भेड़ों की दुर्बलता दूर होने लगी थी। अब उनके भी सींग मोटे-मोटे और नुकीले होने लगे थे। उनके 
 भेड़िया 

Tuesday, 17 September 2024

ए भोषणी के चमरा वाले

एक वार मैं मेरी शिक्षिका साथी के पति के साथ उनके(शिक्षिकापति के) संस्थान गया। वह उच्च शिक्षा के नाम पर कुकुरमुत्ते की तरह उग आया संस्थान है। वहां अध्ययन के अलावा सबकुछ होता है। वहाँ उनके विभाग को देखने के बाद उनके संस्थान प्रमुख से मिला। वे कभी उनके शहर के सरकारी संस्थान में जातीय ववर्चस्व के आधार पर प्राप्त राजनैतिक पकड़ का फायदा उठाते हुए बच्चों को पास कराने का ठेका लेकर पैसा कमाते थे। लोग कहते हैं कि शिक्षकों से मिलकर पहले फेल कराते, फिर छात्रों से मेल करते फिर पैसा ले देकर पास कराते। इस तरह जोड़-तोड़ कर संस्थान खड़ा कर लिया। आज मैं उसी संस्थान में वैठा चर्चा कर रहा था। बहुत सारी शास्त्रचर्चा के दौरान तिवारी जी अपना जनेऊ संवारते हुए बोले - साला आजकल तो पता ही नहीं चलता कि कब कोई चमार ब्राह्मणों में घुस आये। अब तो चमट्टे भी ब्राह्मणों जैसी वेशभूषा बना कर घूमने लगे हैं।  वे फिर अपनी सपोले सी लटकती चोटी को दुलारते हुए कहते हैं कि एक वार की बात है- मैं ट्रेन में यात्रा कर रहा था कि तभी एक साधु मेरे पास आया और जय श्रीराम बोला,  मैंने भी जजय श्रीराम बोल दिया। मैंने कहा बैठिए महाराज, और वह बैठ गया। बातचीत आगे बढ़ी और मैंने शास्त्र चर्चा शुरू की। कुछ-कुछ उसने बताया भी। फिर मैंने नाम और गोत्र, शिखा पूछा, मेरे पूछते ही वह घबरा गया कि आज तो साला असली ब्राह्मण से पाला पड़ गया। फिर मैंने तेज आवाज में पूछा असलियत बताओ को हौ? फिर उसने बताया कि वह पथरिया का चमार है। पेट पालने के लिए ट्रेन में मांगता है। 
तिवारी जी ने फिर बाहें उस्कारते हुए जूते के तले से उगलती कीच की भांति मुँह से पान की पीक की कुछ बूंदें हवा में उछालने से जोर से बोलने में असुविधा महसूस कर पहले पान को डस्टबीन में उगल कर वाग्जहर उगलते हुए बोले- भाग भोषड़ी के चमट्टा, आज के बाद इन कपड़न में जा क्षेत्र में दिख गऔ तो खाल उधेर कैं भुस भर दें।
इतना सुनते ही मैं अन्दर से हिल गया और मेरी बगल में बैठे बाजपेई जी। हीं हीं हीं की ध्वनि के साथ पेट हिलाते हुए हँस पड़े। 
मुझे मनुस्मृति याद आ गई। याद आ गया यह श्लोक- 
सम्मानाद् ब्राह्मणो नित्यमुद्विजेत विषादिव।
अमृतस्य चाssकाङ्क्षेदवमानस्य सर्वदा।।
सुखं ह्यवमतः शेते सुखं च प्रतिबुध्यते। 
सुखं चरति लोकेsस्मिन् नवमन्ता विनश्यति।। मनुस्मृति 2.162-163
अर्थात् ब्राह्मण सम्मान पाने से बचे, साथ ही हमेशा अपमान के लिए तैयार रहे। अपमान पाने वाला सुख से सोता-जागता व समाज में रहता है और अपमान करने वाला स्वयं ही मर जाता है।
सम्मान पाने से राग में बृद्धि होती है जो कि दुःख का कारण है। तथा सदा अपमान के लिए तैयार रहने पर अगर कोई अपमान कर दे तो द्वेष नहीं होगा। राग-द्वेष से रहित होना ही ब्राह्मण होना है, ऐसा धम्मपद में वर्णित है।
इस प्रकार एक युद्ध के माकूल अवसर पर मेरा मन बुद्ध होकर मुस्करा गया।

Sunday, 15 September 2024

दबाये रखने में खुशी पाने की लत लगी हो जिनको उन्हें इलाज की जरूरत है।

दबा के रखने की लत

एक वार की बात है 
प्राथमिक विद्यालय में मेरा नाम लिखा दिया गया था।
स्कूल से बाहर निकलता तो गूजरों के लड़के परेशान करना शुरु करते, जैसा-जैसा वे कहते मुझे करना पड़ता, मना करने पर बेशरम और गुलटेना के आरीनुमा लगोदे उनके हाथों में लफ-लफाते हुए मेरी टांगों में आकाशीय बिजली की तरह आ चिपकते थे। शिकारियों को सामने देख अपने ठिकाने को छोड़ निकलने को विकलित पखेरुओं की भाँति मुँह से चीख, आँखों से आँसू निकल आये, टाँगें खून और मूत से सन चुकीं थीं। मैं भयाक्रांत क्रंदन कर रहा था और शौर्य से सराबोर उनके चेहरे खिलखिलाहट से युक्त थे। कुछ लातें पड़ीं और मैं धूल धूसरित हो गया, मेरीं आंख, नाक, मुँह में धूल भरने पर उनका शौर्य उफान पर आ चुका था, सटासट लगोदे बरसाए जा रहे थे। खिड़कियों से अपने बच्चों के पराक्रम प्रदर्शन को देखकर तृप्त हो चुके कुछ लोग बाहर निकले और बोले ऐ मोड़े! अब जान दे, भौत है, इनें दबा जरूर रखनैं पर इनकी हत्या नईं कन्नै। नातर हड्डा हारन में काम करवे नईं जै हैं। सरकार ने भोषड वालों के मन बड़ा दए। यह सब सुन रहा था। और सोच रहा था अब इतै सें नईं निकरनैं। और मैंने स्कूल जाने की हिम्मत दो-तीन साल तक नहीं की। रोज-रोज लल्ला-बाई भी लेने-छोड़ने नहीं जा सकते थे। साथ ही मोहल्ले के किसी भी आदमी में पढ़ाई के प्रति ललक भी न थी। यह घटनाक्रम कई बार दोहराया गया और मैं पढ़ने के वारे सोचना छोड़ हल्के कक्का के साथ ढोर चराने जाने लगा। 
उस घटनाक्रम को याद करके ऐसे कुकृत्यों के कारणों पर आज विचार करता हूँ तो पाता हूँ कि दलितों में दहशत बाल-मन से ही भरने का उपक्रम जातंकवादियों का स्वाभाविक कर्म बन चुका है। उनको विजेता होने की अनुभूति के लिए कोई न कोई चाहिए जिसे वे दबाकर रखें, लोग उनके सामने गिड़गिड़ाते रहें। गिड़गिड़ाहट सुनकर उनका मनोरंजन होता है। उनकी रूह कुछ पल के लिए तृप्त होती है। इस तृप्ति की लत उन्हें बचपन से ही जातंकी सोच वाले बड़े-बुजूर्गों द्वारा लगाई जाती है। इस लत का उपचार एक अच्छी न्यायि समझ पैदा करने वाली शिक्षा से ही संभव है। अतः जरूरी है कि शैक्षणिक संस्थान, प्रबंधन व शिक्षक न्यायिक हों।

Thursday, 12 September 2024

बम्बई बाई का घर

बात उन दिनों की है जब मैं शासकीय उच्दचतर माध्यमिक विद्यालय उनाव से कला संकाय में12वीं तक अध्ययन कर चुकने के बाद शासकीय स्वशासी स्नातकोत्तर महाविद्यालय, दतिया में  अध्ययन हेतु प्रवेश ले चुका था। रोज-रोज गुजर्रा से दतिया कालेज लगभग 25 किलोमीटर एक तरफ से साईकिल चलाने से पसीना-पसीना देह से आती दुर्गंध के साथ कक्षा में बैठकर पढ़ता, कक्षाओं के बाद सहपाठियों के कक्ष की कुलियाओं में कट-कट करते हुए कपाटों के कपाल पर कुंदी से खट्ट-खट्ट कर जा धमकता। कुछ गपशप कुछ पढ़ाई की बातें करने के बाद कुछ किताबें मांग लेता, कक्षा में बनती होशियार छात्र की छवि के कारण सहयोग व दोस्ती की अपेक्षा में मुझे किताब देने में उन्हें खुशी मिलती। किताबें थैले में रखकर घर पहुँचते-पहुँचते अंधेरा हो जाता। अंधेरी ऊबड़-खाबड़ सड़क दचा-दच होती साईकिल उफनते काजल की नदी में भटकती नाव खेने से कम न होती। जब-जब पीछे से वाहन का प्रकाश आता तो खुशी लाता और कुछ चेतावनी कि संभल कर चल, तेज चल, लड़खड़ाना मत, वाहन जबतक दूर है और उजाला सड़क पर तबतक सड़क पर चल, सरपट चल, चैन न उतरने पाये एक चाल चल, अरे रे! पीछे से वाहन और आगे गड्ढा, इकदम ब्रेक, और झटके में में चैन उतरकर फ्राईबैल (फ्रीव्हील) में ऐसे फंस जाती जैसे  खेत में बखर हांकते समय चैरिया बैल गुस्सा कर एक बार बैठ पाए तो कुछ आराम कर लेने पर ही जोर-जबरदस्ती से नहीं सहलाने पर प्यार ही उठता, बैसे ही सुलझती चैन भी। हाथों को धूल में माजकर साफ कर फिर सड़क पर घनघनाने लगती साईकिल। सामने से आते वाहन का मंद उजाला मन से डर को दूर कर देता। छिनकते, थूकते, हांफते, पसीना पोंछते भागते हुए अचानक चकाचौंधिया जाती आँखें, सड़क, गड्ढे, गट्टी में फिसलती साईकिल को पैर घसीटते हुए एक तरफ खड़े रह जाते जैसे रह जाते थे कभी रहट की लकड़िया पकड़कर थाम लेते थे घरिया माल को। भर्राते हुए निकल जाता वाहन, कहीं-कहीं कभी-कभार तो दूर से एक बल्ब की लाईट देख मोटरसाइकिल जान पड़ती, तो सकरी सड़क की एक पट्टी पकड़कर चलते रहते, फिर पास आती से लगता टेंपो होगा, ज्यों हि धड़-धड़ खड़-खड़ की आवाज होती और हड़बड़ाहट में ट्राली में उलझते-उलझते बचते। जैसे-तैसे महुआ परासरी तक पहुँचते, अब टूटी गांव की सड़क की पुलियायों के आसपास सांप साईकिल में उलझ जाते, आसपास की झाड़ियों से निकलते गीदड़ न काट लें, कोई बदमाश न रोक ले, कीरासींग के खोड़ पै भूत न मिल जाए आदि डरों से डरते, चौंकते घर पहुँचता। इस प्रकार का रोज का सफर मुझसे ज्यादा घर वालों को डराता। अतः बाई बोली- मौड़ा दतियई में कमरा लै ले, होईं रौ।

सड़क से उतरकर चल

Saturday, 7 September 2024

एसोसिएट प्रोफेसर पद साक्षात्कार

एसोसिएट प्रोफेसर अनारक्षित पद के लिए साक्षात्कार 
के लिए डाक्यूमेंट वेरिफिकेशन के बाद साक्षात्कार के लिए सभा कक्ष में बुलाया जाता है।
दरवाज़े पहुंचकर 
मैं- किं अहं अन्तः आगन्तुं सक्नोमि?
पैनल-आईए, आईए। 
मैं प्रणमामि।
पैनल- उपविशतु। 
मैं बैठता हूं।
तभी डॉक्टर हरिसिंह गौर विश्वविद्यालय सागर म.प्र. की कुलपति- ये डॉक्टर रामहेत गौतम हैं, ये इस विश्वविद्यालय के संस्कृत विभाग में 2013 से काम कर रहे हैं।
डॉक्टर साहब 

Thursday, 5 September 2024

व्याकरण की वाधा

शोले हो लगान हो या फिर हो चाइनागेट 
इनकी सफलता के फीछे भावनात्मक जुड़ाव है
जो कि बोलिओं के प्रयोग से संभव हुआ है। बोलियों में व्याकरण नहीं होता। व्याकरण समाज से भावनात्मक जुड़ाव को रोकता है।

कान में स्वर

गायक के गले में स्वर हो न हो श्रोता के गले में स्वर जरूर होना चाहिए। 

एक ही वर्तन

अलग वर्तन क्यों

Wednesday, 4 September 2024

मुर्गों के भ्रम पर पहली प्रतिक्रिया

इस कथा को सुनकर
डॉक्टर किरण आर्या जी ने सुनाया चुटकला, एक व्यक्ति ट्रेन में चढ़ा और बोला कैसे जानवरों से ठसे हैं तभी उनमें से बोला हां एक गधे की कभी थी अब वो भी पूरी हो गई। 04-09-2024

Tuesday, 3 September 2024

गटर का आदमी

अरे! ओ छोटे!
गटर में बैठकर 
दिव्यता का भ्रम और 
कचरादेव को छोड़।

मलाई खाने का सपना 

राजकुमार का नवोदय का फार्म

संस्मरण 
जवाहर नवोदय विद्यालय में प्रवेश के लिए फार्म निकलने का इंतजार बैसे ही था
जैसे कटिया डालकर मछली फंसने का इंतजार करते थे मेरी बस्ती के बच्चे।
एक दिन दतिया के संगम प्रेस के फार्म बिक्री वाली सूचनाओं के बीच कंजी राख में सुलगते तिलगे की भांति सूचना, बोर्ड से उड़कर मेरी आँखों के रास्ते दिमाग में समा गई। 
पिछले इतवार को घिसलनी के घूरे डालने से मिली मजदूरी से घिस चुके टायर को डलाने के बाद बचे रुपये जेब में इसी घड़ी का इंतजार कर रहे थे। तभी गुल्ली वाले डंडे की तरह लपक कर हाथ ने संचित संपत्ति को भाग्यपत्र बेचने वाले की तरफ 'सर! नवोदय का एक फार्म और एक नवोदय की किताब दे दो' कहते हुए बड़ा दिया। ऊं की आवाज के साथ अपनी ओर बढ़ाए गए फार्म और किताब को बड़े जाब्ते से थैले में रख, थैला हैंडिल पर टांग कर, टांग डार कर कट-कट, खिस्स-खिस्स की आवाज के साथ चैन की कालिख से काले हाथों से ट्रिन-ट्रिन करते हुए सरपट भागती गाड़ी उड़न खटोला बन चुकी थी। मन भी उड़कर बीकर नवोदयi विद्यालय में भाई को पढ़ते हुए देख रहा था। पता ही न चला कि कब प्राथमिक विद्यालय, गुजर्रा आ गया। पसीना बिलमने से पहले भरा हुआ फार्म प्रधानाध्यापक जी की टेबल पर साष्टांग हो चुका था। 
परासरी वाले सर जी के हाथ फार्म पर जाते उससे पहले उनकी नजर मेरे हुलिया पर, और मेरी नजर उनके मरूरफली से इठते ओठों पर जाकर अटक गई। 
ठीक है, 'बाद में ले जाना' सुनकर घर को निकल आया। हैंईं के मास्साब ने पूंछा कि काय रामहेत, कछु काम हतौ का? जी सर के साथ मेरे हाथ उनके पैरों की ओर बढ़ गए। ठीक है, खुशी रओ की आवाज सुन खुशी-खुशी घर तहुंचा। ढूँढ़ कर राजकुमार को पढ़ाने बैठा लिया। डर के मारे कुनमुनाते हुए दो-तीन घंटे कैसे काटे पप्पू ने अतिखुशी की चकाचौंध में मैं जान ही न पाया। लंप के उजाले में थककर 10 साल का बच्चा तो सो गया, पर आने वाली रातों की कालिमा लंप की लौं से उठकर मेरी नाक में जमा होती रही। मेरे हिस्से की नींद पप्पू की नींद में समा चुकी थी। उसके हिस्से की किताब मैं ही पढ़ न डालूं इस जलन के कारण भुनसारे की रात ने मेरी आँखों को दबोच लिया। सुबह आँख खुलते ही हंगनौटी में गुसाईं की गालियां खाकर, मोदी के कुआँ पर भी चमारिनों को ताकने के लिए नहाने के बहाने बैठे गूजर दाऊ के 'भोषड़ी वाले हड्डा ----'मंत्र के साथ घाट से उतर जाने के बाद खरोंच में कांटे वाली गत से चकरी के भिनभिना की भांति भन्नाते हुए सपर-खोरकर घर आकर जैसे बाई और कक्को सारे काम निपटाकर हार के लिए निकलीं, मैं भी उठा साईकिल पहुंच गया प्राथमिक विद्यालय, गुरुजनों को प्रणाम करने के बाद प्रधानाध्यापक के सामने उसी मुद्रा में जा खड़ा हुआ जिस मुद्रा में प्रधान के सामने खड़े रहते थे मेरी बस्ती के लोग, यद्यपि सोच के तो गया था कि सीधी गर्दन करके बात करूंगा पर सुन रखा था कि कुछ पाने के लिए कुछ खोना पड़ता है, पर हमारे पास कुछ था ही कहाँ, अंकुरित होते स्वाभिमान के सिवाय। पर वह मुद्रा भी छू मंतर तब हो गई जब फार्म में पिता के नाम में श्री मुलायम सिंह गौतम की जगह काटकर मुलाम लिखा पाया। शालीनता का बांध टूट गया और मुँह से निकल गया कि 'मास्साब नाव लिखावे वारौ फारम निकारो हम नें का लिख कैं दई हती और तुमने अपएं रजस्टर में का लिख लई'
अब हम जौई फारम कलेक्टर कैं लै कैं जै हैं।
प्रधानाध्यापक जी सकपका गए। और फिर सही नाम लिख दिया। अब राजकुमार गौतम का जवाहर नवोदय विद्यालय में प्रवेश परीक्षा का फार्म कम्प्लीट था।

Monday, 2 September 2024

हाथी की खाल

गजासुर को मारकर 
ओढी उसकी खाल।
गणपति माया कुमार 
ब्राह्मण किया कमाल। ।