हे आचार्य!
वख़्श दो अंगूठा मेरा,
आदिवासियों के ही नहीं,
तुम्हारे भी काम आयेगा।
जब सत्ता के गलियारों में,
झूठ की ढाल ले,
उतारे जा रहे होंगे सर,
यह अंगूठा तुम्हारे काम आयेगा।
यकीन करो,
आदिवासी दरख्त नहीं जलाते,
देखो कुछ देर में,
माचिस लेकर, दरवान आ जायेगा।
पहले तुमसे
मेरा घर उजड़वायेगा,
फिर धीरे से विधर्मी! कह,
गर्दन तुम्हारी भी उड़वायेगा।
बचा रहेगा अगर अंगूठा यह,
हमारे ये वन भी वचे रहेंगे,
बचा रहेगा गुरुत्व आपका,
और आपका मस्तक ऊंचा रहेगा।
इन विस्तार वादियों के लिए,
विद्यार्थियों में विभेद मत करो,
बचा रहेगा गर अगूंठा तो
धृष्टद्युम्न को रोकने के भी काम आयेगा।
कट जाने पर अंगूठा यह मेरा,
आपका मस्तक भी न बच पायेगा।
नस्लें मेरी वन-वन भटकेंगी,
हस्तिनापुर-मथुरा सब उजड़ जायेंगा।
पीकर पड़े रहेंगे लोग इधर-उधर
उन्मत्त खूंखार सियार सब उहायेंगे।
जंगल जला दिए जायेंगे,
भरतखंडी खंड-खंड, अंड-बंड
गुलाम गुलामी में मग्न हो जाएंगे।
मुट्ठीभर होंगे ठेकेदार धर्म के,
किसान की खाल बेच कुछ ही कमायेंगे,
हथियारबंद गिरायेंगे घोड़ियों से किसी को,
बहू-बटियों को भी उठाकर लटकायेंगे।
सारे संसाधन अपने कब्जे में लेकर
धूर्त सियार झंडाबरदार बन कहेंगे,
हम जन्मना योग्य हैं रे जानवरों!
सब को क्या करना है?
यह सिर्फ हम बतलायेंगे।
अंगूठा कटने से उपजा असंतुलन
फिर कब दूर हो पायेगा नहीं पता,
यह मांग आपकी जायज नहीं है,
यह तो है सदियों की धूर्तता,
वचनबद्धता से छले जाते हैं यहाँ मासूम
नहीं दूंगा अपना अंगूठा,
और कहूँगा कोई अंगूठा न काटे।
तभी सत्ता के हथियारबंदों ने
अकेले में एकलव्य का अंगूठा काट लिया,
और कह दिया मुनादी लगवाकर,
एकलव्य गुरुभक्त था।
तब से काटे जा रहे हैं
साहुकारों द्वारा,
नेताओ द्वारा
बोतल और अनाज के बदले,
नंगे-भूखे, अंधे-गूंगे
आदिवासियों-दलितों के अंगूठे।