Thursday, 12 September 2024

बम्बई बाई का घर

बात उन दिनों की है जब मैं शासकीय उच्दचतर माध्यमिक विद्यालय उनाव से कला संकाय में12वीं तक अध्ययन कर चुकने के बाद शासकीय स्वशासी स्नातकोत्तर महाविद्यालय, दतिया में  अध्ययन हेतु प्रवेश ले चुका था। रोज-रोज गुजर्रा से दतिया कालेज लगभग 25 किलोमीटर एक तरफ से साईकिल चलाने से पसीना-पसीना देह से आती दुर्गंध के साथ कक्षा में बैठकर पढ़ता, कक्षाओं के बाद सहपाठियों के कक्ष की कुलियाओं में कट-कट करते हुए कपाटों के कपाल पर कुंदी से खट्ट-खट्ट कर जा धमकता। कुछ गपशप कुछ पढ़ाई की बातें करने के बाद कुछ किताबें मांग लेता, कक्षा में बनती होशियार छात्र की छवि के कारण सहयोग व दोस्ती की अपेक्षा में मुझे किताब देने में उन्हें खुशी मिलती। किताबें थैले में रखकर घर पहुँचते-पहुँचते अंधेरा हो जाता। अंधेरी ऊबड़-खाबड़ सड़क दचा-दच होती साईकिल उफनते काजल की नदी में भटकती नाव खेने से कम न होती। जब-जब पीछे से वाहन का प्रकाश आता तो खुशी लाता और कुछ चेतावनी कि संभल कर चल, तेज चल, लड़खड़ाना मत, वाहन जबतक दूर है और उजाला सड़क पर तबतक सड़क पर चल, सरपट चल, चैन न उतरने पाये एक चाल चल, अरे रे! पीछे से वाहन और आगे गड्ढा, इकदम ब्रेक, और झटके में में चैन उतरकर फ्राईबैल (फ्रीव्हील) में ऐसे फंस जाती जैसे  खेत में बखर हांकते समय चैरिया बैल गुस्सा कर एक बार बैठ पाए तो कुछ आराम कर लेने पर ही जोर-जबरदस्ती से नहीं सहलाने पर प्यार ही उठता, बैसे ही सुलझती चैन भी। हाथों को धूल में माजकर साफ कर फिर सड़क पर घनघनाने लगती साईकिल। सामने से आते वाहन का मंद उजाला मन से डर को दूर कर देता। छिनकते, थूकते, हांफते, पसीना पोंछते भागते हुए अचानक चकाचौंधिया जाती आँखें, सड़क, गड्ढे, गट्टी में फिसलती साईकिल को पैर घसीटते हुए एक तरफ खड़े रह जाते जैसे रह जाते थे कभी रहट की लकड़िया पकड़कर थाम लेते थे घरिया माल को। भर्राते हुए निकल जाता वाहन, कहीं-कहीं कभी-कभार तो दूर से एक बल्ब की लाईट देख मोटरसाइकिल जान पड़ती, तो सकरी सड़क की एक पट्टी पकड़कर चलते रहते, फिर पास आती से लगता टेंपो होगा, ज्यों हि धड़-धड़ खड़-खड़ की आवाज होती और हड़बड़ाहट में ट्राली में उलझते-उलझते बचते। जैसे-तैसे महुआ परासरी तक पहुँचते, अब टूटी गांव की सड़क की पुलियायों के आसपास सांप साईकिल में उलझ जाते, आसपास की झाड़ियों से निकलते गीदड़ न काट लें, कोई बदमाश न रोक ले, कीरासींग के खोड़ पै भूत न मिल जाए आदि डरों से डरते, चौंकते घर पहुँचता। इस प्रकार का रोज का सफर मुझसे ज्यादा घर वालों को डराता। अतः बाई बोली- मौड़ा दतियई में कमरा लै ले, होईं रौ।

सड़क से उतरकर चल

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