एक वार मैं मेरी शिक्षिका साथी के पति के साथ उनके(शिक्षिकापति के) संस्थान गया। वह उच्च शिक्षा के नाम पर कुकुरमुत्ते की तरह उग आया संस्थान है। वहां अध्ययन के अलावा सबकुछ होता है। वहाँ उनके विभाग को देखने के बाद उनके संस्थान प्रमुख से मिला। वे कभी उनके शहर के सरकारी संस्थान में जातीय ववर्चस्व के आधार पर प्राप्त राजनैतिक पकड़ का फायदा उठाते हुए बच्चों को पास कराने का ठेका लेकर पैसा कमाते थे। लोग कहते हैं कि शिक्षकों से मिलकर पहले फेल कराते, फिर छात्रों से मेल करते फिर पैसा ले देकर पास कराते। इस तरह जोड़-तोड़ कर संस्थान खड़ा कर लिया। आज मैं उसी संस्थान में वैठा चर्चा कर रहा था। बहुत सारी शास्त्रचर्चा के दौरान तिवारी जी अपना जनेऊ संवारते हुए बोले - साला आजकल तो पता ही नहीं चलता कि कब कोई चमार ब्राह्मणों में घुस आये। अब तो चमट्टे भी ब्राह्मणों जैसी वेशभूषा बना कर घूमने लगे हैं। वे फिर अपनी सपोले सी लटकती चोटी को दुलारते हुए कहते हैं कि एक वार की बात है- मैं ट्रेन में यात्रा कर रहा था कि तभी एक साधु मेरे पास आया और जय श्रीराम बोला, मैंने भी जजय श्रीराम बोल दिया। मैंने कहा बैठिए महाराज, और वह बैठ गया। बातचीत आगे बढ़ी और मैंने शास्त्र चर्चा शुरू की। कुछ-कुछ उसने बताया भी। फिर मैंने नाम और गोत्र, शिखा पूछा, मेरे पूछते ही वह घबरा गया कि आज तो साला असली ब्राह्मण से पाला पड़ गया। फिर मैंने तेज आवाज में पूछा असलियत बताओ को हौ? फिर उसने बताया कि वह पथरिया का चमार है। पेट पालने के लिए ट्रेन में मांगता है।
तिवारी जी ने फिर बाहें उस्कारते हुए जूते के तले से उगलती कीच की भांति मुँह से पान की पीक की कुछ बूंदें हवा में उछालने से जोर से बोलने में असुविधा महसूस कर पहले पान को डस्टबीन में उगल कर वाग्जहर उगलते हुए बोले- भाग भोषड़ी के चमट्टा, आज के बाद इन कपड़न में जा क्षेत्र में दिख गऔ तो खाल उधेर कैं भुस भर दें।
इतना सुनते ही मैं अन्दर से हिल गया और मेरी बगल में बैठे बाजपेई जी। हीं हीं हीं की ध्वनि के साथ पेट हिलाते हुए हँस पड़े।
मुझे मनुस्मृति याद आ गई। याद आ गया यह श्लोक-
सम्मानाद् ब्राह्मणो नित्यमुद्विजेत विषादिव।
अमृतस्य चाssकाङ्क्षेदवमानस्य सर्वदा।।
सुखं ह्यवमतः शेते सुखं च प्रतिबुध्यते।
सुखं चरति लोकेsस्मिन् नवमन्ता विनश्यति।। मनुस्मृति 2.162-163
अर्थात् ब्राह्मण सम्मान पाने से बचे, साथ ही हमेशा अपमान के लिए तैयार रहे। अपमान पाने वाला सुख से सोता-जागता व समाज में रहता है और अपमान करने वाला स्वयं ही मर जाता है।
सम्मान पाने से राग में बृद्धि होती है जो कि दुःख का कारण है। तथा सदा अपमान के लिए तैयार रहने पर अगर कोई अपमान कर दे तो द्वेष नहीं होगा। राग-द्वेष से रहित होना ही ब्राह्मण होना है, ऐसा धम्मपद में वर्णित है।
इस प्रकार एक युद्ध के माकूल अवसर पर मेरा मन बुद्ध होकर मुस्करा गया।
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