Sunday, 15 September 2024

दबाये रखने में खुशी पाने की लत लगी हो जिनको उन्हें इलाज की जरूरत है।

दबा के रखने की लत

एक वार की बात है 
प्राथमिक विद्यालय में मेरा नाम लिखा दिया गया था।
स्कूल से बाहर निकलता तो गूजरों के लड़के परेशान करना शुरु करते, जैसा-जैसा वे कहते मुझे करना पड़ता, मना करने पर बेशरम और गुलटेना के आरीनुमा लगोदे उनके हाथों में लफ-लफाते हुए मेरी टांगों में आकाशीय बिजली की तरह आ चिपकते थे। शिकारियों को सामने देख अपने ठिकाने को छोड़ निकलने को विकलित पखेरुओं की भाँति मुँह से चीख, आँखों से आँसू निकल आये, टाँगें खून और मूत से सन चुकीं थीं। मैं भयाक्रांत क्रंदन कर रहा था और शौर्य से सराबोर उनके चेहरे खिलखिलाहट से युक्त थे। कुछ लातें पड़ीं और मैं धूल धूसरित हो गया, मेरीं आंख, नाक, मुँह में धूल भरने पर उनका शौर्य उफान पर आ चुका था, सटासट लगोदे बरसाए जा रहे थे। खिड़कियों से अपने बच्चों के पराक्रम प्रदर्शन को देखकर तृप्त हो चुके कुछ लोग बाहर निकले और बोले ऐ मोड़े! अब जान दे, भौत है, इनें दबा जरूर रखनैं पर इनकी हत्या नईं कन्नै। नातर हड्डा हारन में काम करवे नईं जै हैं। सरकार ने भोषड वालों के मन बड़ा दए। यह सब सुन रहा था। और सोच रहा था अब इतै सें नईं निकरनैं। और मैंने स्कूल जाने की हिम्मत दो-तीन साल तक नहीं की। रोज-रोज लल्ला-बाई भी लेने-छोड़ने नहीं जा सकते थे। साथ ही मोहल्ले के किसी भी आदमी में पढ़ाई के प्रति ललक भी न थी। यह घटनाक्रम कई बार दोहराया गया और मैं पढ़ने के वारे सोचना छोड़ हल्के कक्का के साथ ढोर चराने जाने लगा। 
उस घटनाक्रम को याद करके ऐसे कुकृत्यों के कारणों पर आज विचार करता हूँ तो पाता हूँ कि दलितों में दहशत बाल-मन से ही भरने का उपक्रम जातंकवादियों का स्वाभाविक कर्म बन चुका है। उनको विजेता होने की अनुभूति के लिए कोई न कोई चाहिए जिसे वे दबाकर रखें, लोग उनके सामने गिड़गिड़ाते रहें। गिड़गिड़ाहट सुनकर उनका मनोरंजन होता है। उनकी रूह कुछ पल के लिए तृप्त होती है। इस तृप्ति की लत उन्हें बचपन से ही जातंकी सोच वाले बड़े-बुजूर्गों द्वारा लगाई जाती है। इस लत का उपचार एक अच्छी न्यायि समझ पैदा करने वाली शिक्षा से ही संभव है। अतः जरूरी है कि शैक्षणिक संस्थान, प्रबंधन व शिक्षक न्यायिक हों।

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