Saturday, 28 September 2024

सचमुच का पेड़

संस्मरण 
एक दिन की बात है कि मैं खेत पर गाय-बैल व भैंस चरा रहा था। जानवर बगर गए खेत में और मैं बोरी बिछा के फैल गया पठला पर ठीक वैसे ही जैसे मानो साक्षात अवलोकितेश्वर लेटे हों। पता ही नहीं चला कि लूघर लगावनी आँख कब लग गई। हमें फैला जान कर चैरिया, पीरा गए सो गए लाली और टिड़को को भी संग पुटिया ले गए।
हल चलाने के लिए बैलों की आवश्यकता से लल्ला (अपने पिता को लल्ला कहते हैं हमारे गांव में) हरामी हर को न हारे हुए कंधे पर हर लियाए। हरकुँअर जिज्जी भी आगे-आगे हरे कड़ा वाले हाथ में हरे छन्ना में हर्दी मिले आलू और हाथों से बनी जुआर की पनपथू ले कर आ गईं और जगा कर बोलीं लै रोटी खा लै।
मैंने छन्ना खोला ही था कि लल्ला की ललकार सुनाई दी- काय रे कितै मर गऔ। मेरी अक्क-वक्क भूल गई। नौरा-सी गर्दन उठा कर जब ढोर देखे तो खेत में सूनर पड़ी थी। लल्ला प्यारे लल्ला के जुड़ई के खेत से चैरिया, पीरा, लाली और टिड़को को अखत्तर की गारी देते हुए वाहर निकाल रहे थे। जानवरों पर जो जंतर(परहैना) और मंतर (ललकार मिमिश्रि गालियाँ) चल रहे थे उनकी मार को भांपकर मैंने रोना शुरू कर दिया। जिज्जी भी दूर जाकर कुछ काम टटकोरने लगीं। क्योंकि वे जानती थीं कि लल्ला की मार से जो भी बचाता है वो भी मार खाता है। और ऊपर से उनको बदले का दिन भी था क्योंकि एक दिन पहले बरी रोटी दिखा कर बाई से उनको पिटवाया था। जीव चिरा कर और ठेंगा दिखाकर 'बच्चू अब आहै मजा सोवे कौ' कह कर रफू-रक्कर हो गईं। 
ज्यों-ज्यों हल्ला मचाते हुए लल्ला हमारी तरफ बढ़ रहे थे त्यों-त्यों हमारे हाथ-पैर तूफान की हवा से हिलते टटेरे की तरह हिलने लगे। 
ज्यों ही पीठ पर परहैनिया की पांच लरें परीं तो हमाई तो मुत्तू छूट गई। जिज्जी से न रहा गया और दौड़ पड़ी बचाने, अब लल्ला का ताव ढाल बनी जिज्जी के कारण दूसरे कामों की तरफ मुड़ चुका था। फिर भी मार-मार के भूत भगाने के बाद बड़बड़ाते हुए हर-बैल जोतने में लग गए। फिर भी बीच-बीच में नसीहत देते रहे कि अगर उनके ढोर हमाई फसल चर जै है तो हमें दर्द हुइऐ कै नईं हुइऐ। अपनी-सी सब की फसल समुझों चइए। अब न्याव धरी हम का कैं हैं उनसें?
तब तक घर तक खबर पहुँच चुकी थी कि रामेत की मराई हो रई। पड़ौसी होने के नाते प्यारे लल्ला भी आ गए। खेत देखने से पहले मेरी चोटें देख कर लल्ला को समझा चुकने के बाद अपना खेत देखकर मन मसोस कर रह गए। व बोले मुलाम बिरवाई अच्छी कर लो हमए ढोर सोई छूट जात कभऊं-कभऊं और वे भी अपने छैंके मूंदने में लग गए।
अब तक बाई(मां) भी गिदविद दै कैं(भागकर) आ चुकीं थीं और उनका बड़-बड़ाना शुरू हुआ। वे बोली इतैई जगा मिलत तोय बैठवे के लानें। जौ गोंण बब्बा कौ ठौर है इतै करिआ मुछिन वारौ सांप रत है। ठीक रऔ दो-चार घल गए। चोटें देखकर- कैसौ बरा सौ सुजे दऔ। कितनौ समझा लऔ कि सोऊ न करे ढोर चरावे की विरियां। रात में लंप लै कैं बैठौ रै है। का पतौ पढ़त है कि ऐसैंई गिलगौंचा करत रै है। इस प्रकार बड़बड़ाते हुए मां के हाथ फेरने से पिता के परहैना की मार से आईं चोटें कुछ ठंडी पड़ीं। उधर जिज्जी भी प्यार से पास मैं बैठी थी। लल्ला भी शांत हो चुकने के बाद पास आ गए। दोनों समझाते हुए बोले कि बेटा पराई खेती भी खून-पसीना सें ही तैयार होउत है, जो कि बरस भर की भूंख मिटाउत है। साऊकार के कर्जे सें बचाउत है। बेटा पढ़ लो तो जा जिंदगी से बच जै हो। कछू न धरौ जा मजदूरन की जिंदगी में। लल्ला-बाई के दुलार से तन की चोंटें दर्द नहीं इलाज के निशान लग रहीं थीं, और उनकी बातें बाल-मन में ऐसे धंस रही थीं जैसे धूल में बीज। वर्षाकाल पाकर उगते बीच की तरह लल्ला-बाई की बात विद्यालय के वातावरण में पनपने लगी। पौधशाला से निकल कर उपवन में पौधा पेड़ बनता है जैसे वैसे ही मैं बड़ा हुआ। आज मैं एक पेड़ हूँ। पूरा व सचमुच का पेड़ होने की कोशिश कर रहा हूँ। पेड़ जो नहीं उजाड़ता है खेत किसी का।

No comments:

Post a Comment