Sunday, 10 November 2019

अनभिज्ञानशाकुन्तलम्

अभिज्ञानशाकुन्तलम् ( षष्ठोऽङ्कः ) ( ततः प्रविशति नागरिकः श्यालः पश्चाद् बद्धपुरुषमादाय रक्षिणी च । ) रक्षिणी - अले कुम्भीलेओ , कहेहि कहिं तुए एक मणिबन्धणुक्तिण्णणामहेए लाजकीअए अङ्गुलीअए शमाशादिए । पुरुषः - ( भीतिनाटितकेन ) पशीदन्तु भावमिश्शे । हगे ण ईदिशकम्मकाली । प्रथमः - किं शोहणे बम्हणेत्ति कलिअ रण्णा पडिग्गहे दिण्णे । पुरुषः - शुणुध दाणिं । हगे शवावदालभन्तरालवाशी धीवले । द्वितीयः - पाडच्चला , किं अम्हेहिं जादी पुच्छिदा । श्यालः - सूअअ , कहेदु शव्वं अणुक्कमेण । मा णं अन्तरा पडिबन्धह । उभौ - जं आवुत्ते आणवेदि । कहेहि । पुरुषः - अहके जालुग्गालादिहिं । मच्छबन्धणोवाएहिं कुडुम्बभलणं कलेमि । श्यालः - ( विहस्य ) विसुद्धो दाणिं आजीवो । पुरुषः - भट्टा मा एव्यं भण शहजे किल जे विणिन्दिए ण हु दे कम्म विवज्जणीअए । पशुमालणकम्मदालुणे अणुकम्पामिदु एव्व शोत्तिए । । १ । । श्यालः - तदो तदो । पुरुषः - एकश्शिं दिअशं खण्डशो लोहिअमच्छे मए कप्पिदे । जाव तश्श उदलब्भन्तले एवं लदणभाशुल अगुलीअअं देविखअं पच्छा अहके शे विक्कआअ दंशअंते गहिदे भावमिश्शेहिं । मालेह वा मुञ्चेह वा । अअंशे आअमवुत्तन्ते । श्यालः - जाणुअ , विस्सगन्धी गोहादी मच्छबन्धो एव्व गच्छामो । निस्संश । अगुलीअअदंसणं से विमरिसिदब्ब । राअउलं एव्व रक्षिणी - तह गच्छ अले गण्डभेद । ( सर्वे परिकामन्ति ) श्यालः - सूअअ , इमं गोपुरदुआरे अप्पमत्ता पडिवालह जाव इम णिकमामि । अगुलीअअं जहागमणं भट्टिनो णिवेदिअ तदो सासणं पडिजिअ उभौ – पविशदु आवुत्ते शामिपशादश्श ।
( इति निष्क्रान्तः श्यालः ) प्रथमः - जाणुअ , चिलाअदि क्खु आवुत्ते । द्वितीयः - णं अवशलोवशप्पणीया लाआणो । ( इति पुरुषं निर्दिशति ) प्रथमः - जाणुअ , फायन्ति मे हत्था इमरश वहश्श शुमणा पिणछ । पुरुषः - ण अलुहदि भावे अकालणमालणे भविदूं । द्वितीयः - ( विलोक्य ) एशे अम्हाणं शामी पत्तहत्थे लाअशाशणं पडिच्छिअ इदोमुहे देखीअदि । गिद्धबली भविश्शशि , शुणो मुहं या देक्खिश्शशि । ( प्रविश्य ) श्यालः - सूअअ , मुञ्चेदु एसो जालोअजीवी । उववण्णो क्खु से अङ्गुलीअअस्स आअमो । सूचकः - जह आवुत्ते भणादि । एशे जमशदणं पविशिअ पडिणिवुत्ते । ( इति पुरुषं परिमुक्तबन्धनं करोति ) पुरुषः - ( श्यालं प्रणम्य ) भट्टा , अह कीलिशे मे आजीवे । श्यालः - एसो भट्टिणा अगुलीअअमुल्लसम्मिदो पसादो वि दाविदो । ( इति पुरुषाय स्वं प्रयच्छति । ) पुरुषः - ( सप्रणाम प्रतिगृह्य ) भट्टा , अणुग्गहिदम्हि । सूचकः - एशे णाम अणुग्गहे जे शूलादो अवदालिअ हत्थिक्खन्धे पडिट्ठाविदे । जानुकः - आवृत्त , पालिदोशिअं कहेदि , तेण अङ्गुलीअएण भट्टिणो शम्मदेण होदबं त्ति । श्यालः - ण तस्सिं महारुहं रदणं भट्टिणो बहुमदं ति तक्केमि । तस्स दंसणेण भट्टिणो अभिमदो जणो सुमराविदो । मुहुत्तअं पकिदि गम्भीरो वि पजस्सुणअणो आसि । सूचकः - शेविदं णाम आवुत्तेण । जानुकः - णं भणाहि । इमश्श कए मच्छिअभत्तुणो त्ति । ( इति पुरुषमसूयया पश्यति ) पुरुषः - भट्टालक , इदो अद्धं तुम्हाणं शुमणोमुल्लं होदु । जानुकः - एत्तके जुज्जइ ।
श्याल - धीवर , गारो तुम चिअपारसओ वाणिं मे संतो । कादम्बरीसक्खिा अहाणं पतमसोहि इच्छीअदि । ता सोगिडआपण एव्य गायो । ( इति निष्कान्ताः सखें । ) इति प्रवेशक संस्कृतच्छाया । ( तत प्रविशति नागरिक : श्याल पश्चादबद्धपुरुषमादाय रक्षिणीय ) रक्षिणी - अरे कुनीलका कषय करिमन चर्यग मणिबनानोत्कीर्णनामधेय राजकीयमहगुलीयक समासादितमा पुरुष - ( गीतिनाटितकेन ) प्रसीदन्तु गाथमिश्रा । अह नेतादृशकर्मकारी । प्रथमः - कि शोभनो वाहाण इति कलयित्वा राज्ञा प्रतियहो दत्त ? पुरुषः - पृणुतेदानीम । अ शक्रावताराप्यन्तरालयासी धीवर । द्वितीयः - पाटण किमस्माभिर्जाति पृष्टा । श्याल - सूचका कषयतु सर्वमनुक्रमेण । मैनमन्तरा प्रतिबनीतम् । उभी - यदायुत्त आशापयति । कथय । पुरुषः - अह जालोझालादिमिर्मत्स्यबन्धनोपाय कुटुग्यमरणं करोमि । श्याल - ( विहस्य ) विशुद्ध इदानीमाजीयः । पुरुषः - भर्तः । मा एवं भण । सहजं किल यद्विनिन्दित न खलु तत्कर्म विवर्जनीयम् । पशुमारणकर्मदारुणोऽनुकम्पामृदुरेव ओत्रियः । । ५ । । श्यालः - ततस्ततः । पुरुषः - एकस्मिन् दिवसे खण्डशो रोहितमत्स्यो मया कल्पितः । यावत्तस्योदराभ्यन्तरे प्रेक्षे तावदिद रत्नभासुरमडगुलीयकं दृष्टम् । पश्चादहमस्य विक्रयाय दर्शयन गृहीतो भावमिश्रः । मारयत वा मुशत था । अयमस्यागमवृत्तान्तः । श्याल - जानुका विसगधी गोधादी मत्स्यबन्ध एव निसंशयम । अडगुलीयकदर्शनमस्य विमर्शयितव्यम् । राजकुलमेव गच्छामः । रक्षिणी - तथा । गच्छ , अरे ! ग्रन्थिभेदका ( सर्व परिक्रामन्ति ) श्याल - सूचका इमं गोपुरखारेजामती प्रतिपालयतमा याचदिद मङ्गुलीयकं यथागमन भनिवेद्य तत शासन प्रतीष्य निष्काम्यामि । उभी - प्रविशत्वायुत्तः स्वामिप्रसादाय । ( इति निष्कान्तः श्याल ) प्रथमः - जानुका चिरायते खल्वावुत्त । द्वितीय - नववसरोपसर्पणीया राजान । प्रथम - जानुका स्फुरती मम हस्तावस्य कास्य सुमनस पिनाम् । ।
( इति पुरुषं निर्दिशति ) पुरुषः - नार्हति भावोऽकारणमारणो भवितुम । द्वितीयः - ( विलोक्य ) एषोऽस्माक स्वामी पत्रहस्तो राजशासन प्रतीष्येतोमुखो दृश्यते । गृध्रबलिर्भविष्यसि शुनो मुख वा दक्ष्यसि । ( प्रविश्य ) श्यालः - सूचक ! मुच्यतामेष जालोपजीवी । उपपन्नः खल्वस्या गुलीयकस्यागमः । सूचकः - यथावुत्तो भणति । एष यमसदनं प्रविश्य प्रतिनिवृत्तः । ( इति पुरुष परिमुक्तबन्धनं करोति ) पुरुषः - भर्तः । अथ कीदृशो मे आजीवः । श्यालः - एष भडिगुलीयकमूल्यसम्मित प्रसादोऽपि दापितः । ( इति पुरुषाय स्वं प्रयच्छति ) पुरुषः - ( सप्रणाम प्रतिगृह्य ) भर्तः ! अनुगृहीतोऽस्मि । सूचकः - एष नामानुग्रहो यच्छूलादवतार्य हस्तिस्कन्धे प्रतिष्ठापितः । जानुकः - आवुत्त ! परितोषिकं कथयति , तेनाङ्गुलीयकेन भर्तुः सम्मतेन भवितव्यमिति । श्यालः - न तरिमन्महार्ह रत्नं भर्तुबहुमतमिति तर्कयामि । तस्य दर्शनेन भर्तुरभिमतो जनः स्मारित मुहूर्तक प्रकृतिगम्भीरोऽपि पर्यश्रुनयन आसीत् । सूचकः - सेवितं नामावुत्तेन । जानुकः - ननु भण । अस्य कृते मात्स्यिकभर्तुरिति । ( इति पुरुषमसूयया पश्यति ) पुरुषः - भट्टारक ! इतोऽय युष्माकं सुमनोमूल्यं भवतु । जानुक : - एतावद्युज्यते । श्यालः - धीवर ! महत्तरस्त्वं प्रियवयस्क इदानी मे संवृत्तः । कादम्बरी साक्षिकमरमाकं प्रथमसोह्रदमिष्यते । तच्छौण्डिकापणमेव गच्छामः । ( इति निष्क्रान्ताः सर्वे ) इति प्रवेशकः । हिन्दी अनुवाद : ( तदनन्तर शहर कोतवाल राजश्यालक तथा बैंधे हुए एक पुरुष को लेकर दो आरक्षी प्रवेश करते है । ) दोनों आरक्षी - अरे चोर ! बता , रत्नयुक्त , राजनामाङ्कित यह राजकीय अँगूठी तुमने कहाँ से हथिया ली ?
पुरुष - ( भय का अभिनय करते हुए ) महाशय प्रसन्न हो । ऐसा कार्य करने वाला नहीं है । प्रथम आरक्षी - क्या सुन्दर ब्राह्मण हो यह समझकर राजा के द्वारा दान दिया गया है ? पुरुष - मेरी बात तो सुनिए । मैं शक्रावतार ( तीर्थ ) में रहने वाला माछुआरा हूँ । द्वितीय आरक्षी - चोर क्या हमारे द्वारा जाति पूछी गयी है ? कोतवाल - सूचक इसे क्रम से सब कुछ बताने दो । इसे बीच में मत टोको । दोनों आरक्षी - जैसी महानुभाव की आज्ञा । अरे बोल । पुरुष - मैं जाल , कॉटा ( बडिश ) आदि मछली पकड़ने के साधनों से अपने परिवार का पालन - पोषण करता हूँ । कोतवाल - हिंसकर ) निश्चय ही तुम्हारी आजीविका बहुत पवित्र है । पुरुष - स्वामी , ऐसा मत कहिए । विनिन्दित भी स्वाभाविक ( जातिगत ) कर्म का परित्याग कभी नहीं करना चाहिए , क्योंकि अनुकम्पा के कारण सुकुमार वेदपाठी बाहाण ही यज्ञीय पशुमारण कर्म में कठोर बनता है । । १ । । कोतवाल - फिर क्या हुआ ? पुरुष - एक दिन जब मैं रोहू मछली को टुकड़े - टुकड़े में काट रहा था तब उसके पेट के भीतर , रन के कारण , चमकती हुई अंगूठी मैंने देखी । इसके बाद इसको बेचने के लिए दिखाता हुआ मैं आप लोगों के द्वारा पकड़ लिया गया । मारिये अथवा छोडिये । यही इसकी प्राप्ति की कथा है । कोतवाल - जानुक कचे मास की गन्धवाला एवं गोह खाने वाला यह , निश्चित रूप से मछुआरा ही है । इसको अँगूठी कैसे दिखी , इसका अनुसन्धान करना चाहिए । राजदरबार मे ही चलते है । दोनों आरक्षी - ठीक है । अरे गिरहकट ! आओ । ( सभी घूमते है ) कोतवाल - सूचका सावधानी से तुम दोनों नगर के मुख्य द्वार पर इसकी निगरानी करो । तब तक मैं महाराज को इस अंगूठी की प्राप्ति का विवरण देकर , उनका आदेश लेकर निकलता हूँ ।
दोनों आरक्षी - आप , स्वामी को प्रसन्न करने के लिए प्रवेश करिये । ( इस प्रकार कोतवाल निकल गया ) प्रथम आरक्षी - जानुका श्रीमान् कोतवाल देर कर रहे हैं । द्वितीय आरक्षी - अरे ! राजाओं के पास उचित अवसर पर ही जाया जाता है । प्रथम आरक्षी - जानुक ! इसके वध के लिए फूलों ( की माला ) को पहनाने के लिए मेरे हाथ फड़क रहे हैं । पुरुष - आप , अकारण मुझे नहीं मार सकते । द्वितीय आरक्षी - ( देखकर ) यह हमारे स्वामी , कुछ कागजात हाथ में लिए हुए . राजाज्ञा को लेकर , इधर मुखातिब दिखायी पड़ रहे हा तू या तो गिद्धों की बलि बनेगा या कुत्तों का मुख देखेगा । ( प्रवेश कर ) कोतवाल - सूचका इस मछुआरे को छोड़ दो । इस अंगूठी की प्राप्ति का समाधान हो गया है । सूचक - श्रीमान् जी का जैसा आदेश । यह यमराज के घर में प्रवेश कर ( वहाँ से ) लौट आया है । ( इस प्रकार मछुआरे को बन्धन से मुक्त करता है । ) पुरुष - ( कोतवाल को प्रणाम कर ) स्वामी , अब बताइये मेरी आजीविका कैसी है ? कोतवाल - महाराज ने अंगूठी के मूल्य के बराबर यह पारितोषिक भी इसे दिलवाया है । ( यह कह कर मछुआरे को धन देता है ) पुरुष - ( प्रणाम पूर्वक लेकर ) स्वामी मैं अनुगृहीत हूँ । सूचक - यही राजकीय कृपा है कि शूली से उतार कर यह , हाथी की पीठ पर बैठा दिया गया । जानुक - श्रीमान् पारितोषिक से यह सूचित होता है कि वह अंगूठी महराज को विशेष प्रिय रही होगी । कोतवाल - मैं समझता हूँ उस अंगूठी में खचित बहुमूल्य रत्न के कारण वह महाराज को प्रिय नहीं थी , अपितु उसके देखने से महाराज को किसी विशेष प्रिय स्वजन की याद आ गयी । प्रकृत्या गम्भीर होने पर भी क्षण भर के लिए उनकी आँखों में आँसू छलछला आए ।
सूचक - तब तो आपने महाराज की अच्छी सेवा की । जानुक - अरे ! कहो - इस मछुआरे के कारण ( सेवा हुई है । ) मछुआरे को ईर्ष्या से देखता है ) पुरुष - इस पारितोषिक का आधा तुम्हारा सुमनोमूल्य ( रक्तपुष्प मूल्य तथा सुहृन्मूल्य ) हो । जानुक - इतना ठीक है । कोतवाल - मछुआरे ! इस समय तुम मेरे सर्वाधिक प्रियमित्र हो गये हो । हमारी पहली मित्रता का प्रकाशन मदिरा को साक्षी बनाकर होना चाहिए । अतः मदिरालय की ओर ही चलें । ( इस प्रकार सब निकल जाते है )

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