घुस रही है सर्दी धीरे से सदरी के अंदर,
बन्द कर रही है पलकें नींद होके अंदर,
शिथिल कमर मुरझा रही गरदन निरंतर,
मन्द होते कान आ रही जम्भाई निरंतर।
Wednesday, 30 January 2019
सर्द रात्रि का जागना ।
नव भोर की नव किरण
नव भोर की नव किरण
आलोकित रहे
आपके जीवन नभ में
गुंजन भौरों सी,
फुदकन चिड़ियों सी
गुंजित हो कानों में
नव वर्ष की अठखेलियां
व्यापें आपके आँगन में
मुदित रहें मित्र आपसे
धर्म कर्म के प्रांगण में
शहद घोले जीवनसाथी
हर पल तव जीवन में
वरद हस्त मां बाप के
थामें तुम्हें ज्यों पतंग गगन में
नव वर्ष नव रस भरे तव जीवन में ।
डाॅ रामहेत गौतम सहायक प्राध्यापक, संस्कृत विभाग, डाॅ हरिसिंह गौर विश्वविद्यालय, सागर मप्र ।
Saturday, 26 January 2019
गणतंत्र दिवस
आओ! उत्सव मनायें हम,
ये गणतंत्र दिवस है भाई।
सदियों के खूनी संघर्षों में
पुरखों ने जान है गंवाई
अनगिनत शीषों के भाव,
आजादी हमने है पायी।
आओ उत्सव मनायें हम,
ये गणतंत्र दिवस है भाई।
छः दिसंबर छियालीस
संविधान सभा थी बनी
तीन सौ नवासी सदस्य
राजेन्द्र जी अध्यक्ष थे भाई।
आओ उत्सव मनायें हम,
ये गणतंत्र दिवस है भाई।
सात जन की प्रारूप सभा
भीमराव अम्बेडकर नेता बने
कोई बीमार कुछ छोड़ गये
भीम भार धरे अकेले भाई।
आओ उत्सव मनायें हम,
ये गणतंत्र दिवस है भाई।
विश्व भरे विधान पढ़े हैं
पढ़े हैं धर्मशास्त्र सभी
परंपराऐं सभी विचारी
सभी पर बहस करायी।
आओ उत्सव मनायें हम,
ये गणतंत्र दिवस है भाई।
अच्छा-अच्छा ले लिया था
बुरा सभी था छोड़ दिया
अनुच्छेद तीन सौ पंचानवे
बारह अनुसूचियां हैं भाई।
आओ उत्सव मनायें हम,
ये गणतंत्र दिवस है भाई।
दो वर्ष ग्यारह माह दिन अठारह
दिवस-रात थे भीम ने एक किये
चौबीस नवम्बर उन्चास में पूर्ण
छब्बीस में अंगीकृत हुआ है भाई।
आओ उत्सव मनायें हम,
ये गणतंत्र दिवस है भाई।
छब्बीस जनवरी पचास को
लागू हुआ था तंत्र हमारा
लगा तिरंगा लाल किले पर
महोत्सव पर जनता हर्षाई
आओ उत्सव मनायें हम,
ये गणतंत्र दिवस है भाई ।
अधिकार तो सिर्फ लड़ के मिलेगा
मांगे मिला है न कभी मांगे मिलेगा
अधिकार तो सिर्फ लड़के मिलेगा ।
शरण पड़े और दोउ हाथ थे जोड़े
नाक थी रगड़ी और दांत निपोरे
अकड़कर रौब से कहा था उसने
दास हो तुम दास ही रहना पड़ेगा।
मांगे मिला है,,,
मांगी थी शिक्षा जब एकलव्य ने
दुत्कार दिया था तब दुष्ट द्रोण ने
स्वयं अभ्यास से सीख लिया था
द्रोण कहा था अंगूठा देना पड़ेगा।
मांगें मिला है,,,
जाग्रत किया जब हमें शम्बूक ने
क़लम कसाई थे योजना बनाये
लाए थे वे राम को भड़का कर
राम कहा शम्बूक! मरना पडेगा।
मांगें मिला है,,,
जाग्रत किया फिर रविदास ने
ज्ञान पाया फिर नारी मीरा ने
कुचक्र रचाया फिर धोखेवाज़ ने
रवि था जाना मानार्थ मरना पडेगा।
मांगे मिला है,,,
बाबा भीम ने चउदार तालाब
कालाराम मंदिर सत्याग्रह कर
सबके सम्मुख साबित किया था
मानव हो तो तुम्हें दिखना पड़ेगा।
मांगे मिला है,,,
कांशीराम भी न मौन रहे थे
बात वे सबके हित की कहे थे
चाहते हो अगर अधिकार तुम
चाबी सत्ता की थामना पड़ेगा।
मांगे मिला है,,,
लड़ना है तो गढ़ना होगा
गढ़ना है तो तपना होगा
तपने के लिए जागना होगा
कठोर श्रम से पढना पड़ेगा ।
मांगे मिला है,,,
पढ़ लिख कर याद रखना होगा
पले थे जहाँ पर मुड़ना होगा
साथ समाज के बढ़ना होगा
हित समाज का यहीविध होगा।
मांगे मिला है न मांगे मिलेगा
अधिकार तो सिर्फ लड़के मिलेगा ।
Friday, 25 January 2019
आजादी तो हमको भीम ने दी है ।
आजादी तो हमको भीम ने दी है
पण्डों ने दी है न पुरोहितों दी है,
देवों ने दी है न प्रेतों ने दी है,
आजादी तो हमको भीम ने दी है।
मंदिरों में दौड़े मजारों में भी दौड़े,
धूप है जलाई, नारियल हैं फोड़े
चढावा चढ़ाकर इज्ज़त न मिली है ।
देवों ने दी,,,
कंधो पे पालकी हमने है ढोई,
शरण पड़े और जूठन है खाई,
भूख से फिर भी निजात न मिली है।
देवों ने दी,,,
रहने को घर न तन पे पट था,
चलने को राह न खेती को खेत था,
कुएं से पानी लिया तो मार पड़ी है ।
देवों ने दी,,,
पैरों में जूते न सर पर पगड़ी,
न रख पाते मूंछ न नये कपड़े,
गुलामी से हमको राहत न मिली है ।
देवों ने दी,,,
विवाहों में वारूद न बाजे बजे हैं,
दुल्हन हमारी न पालकी चढ़ी है,
दूल्हे को कभी भी न घोड़ी मिली है।
देवों ने दी,,,
बचपन हमारा परये खेतों में बीता,
ज़वानी भी हमने गुलामी में खपाई,
स्कूलों में हमको न शिक्षा मिली है।
देवों ने दी,,,
शिक्षा के अभाव में हिम्मत न पाई,
हिम्मत के बिना हम एक न हुए हैं,
एक न हुए तो आजादी न मिली है ।
देवों ने दी,,,
बुद्ध की राह बाबा ने पायी,
कष्ट सहे और शिक्षा है पायी,
अपमान पीकर लड़ाई लड़ी है ।
देवों ने दी,,,
ग्रंथ पढ़े फिर विधान बनाया,
विधान बनाकर देश बचाया,
अधिकारों की नीव पड़ी है ।
देवों ने दी है न प्रेतों ने दी है,
आजादी तो हमको भीम ने दी है ।
लेखक
डाॅ रामहेत गौतम
सहायक प्राध्यापक, डाॅ हरिसिंह गौर विश्वविद्यालय, सागर मप्र ।
आजादी तो हमको भीम ने दी है
आजादी तो हमको भीम ने दी है
पण्डों ने दी है न पुरोहितों दी है,
देवों ने दी है न प्रेतों ने दी है,
आजादी तो हमको भीम ने दी है।
मंदिरों में दौड़े मजारों में भी दौड़े,
धूप है जलाई, नारियल हैं फोड़े
चढावा चढ़ाकर इज्ज़त न मिली है ।
देवों ने दी,,,
कंधो पे पालकी हमने है ढोई,
शरण पड़े और जूठन है खाई,
भूख से फिर भी निजात न मिली है।
देवों ने दी,,,
रहने को घर न तन पे पट था,
चलने को राह न खेती को खेत था,
कुएं से पानी लिया तो मार पड़ी है ।
देवों ने दी,,,
पैरों में जूते न सर पर पगड़ी,
न रख पाते मूंछ न नये कपड़े,
गुलामी से हमको राहत न मिली है ।
देवों ने दी,,,
विवाहों में वारूद न बाजे बजे हैं,
दुल्हन हमारी न पालकी चढ़ी है,
दूल्हे को कभी भी न घोड़ी मिली है।
देवों ने दी,,,
बचपन हमारा खेतों में बीता,
ज़वानी भी हमने गुलामी में खपाई,
स्कूलों में हमको न शिक्षा मिली है।
देवों ने दी,,,
शिक्षा के अभाव में हिम्मत न पाई,
हिम्मत के अभाव में एक न हुए हम,
एक न हुए तो आजादी न मिली है ।
देवों ने दी,,,
लेखक
डाॅ रामहेत गौतम
सहायक प्राध्यापक, डाॅ हरिसिंह गौर विश्वविद्यालय, सागर मप्र ।
हमें तो आजादी भीम ने दी
पण्डों ने दी है न पुरोहितों दी है,
देवों ने दी है न प्रेतों ने दी है,
हमें तो आजादी भीम ने दी है ।
मंदिरों में दौड़े मजारों में भी दौड़े,
धूप है जलाई, नारियल हैं फोड़े
चढावा चढ़ाकर इज्ज़त न मिली है ।
देवों ने दी,,,
कंधो पे पालकी हमने है ढोई,
शरण पड़े और जूठन है खाई,
भूख से फिर भी निजात न मिली है।
देवों ने दी,,,
रहने को घर न तन पे पट था,
चलने को राह न खेती को खेत था,
कुएं से पानी लिया तो मार पड़ी है ।
देवों ने दी,,,
पैरों में जूते न सर पर पगड़ी,
न रख पाते मूंछ न नये कपड़े,
गुलामी से हमको राहत न मिली है ।
देवों ने दी,,,
विवाहों में वारूद न बाजे बजे हैं,
दुल्हन हमारी न पालकी चढ़ी है,
दूल्हे को कभी भी न घोड़ी मिली है।
देवों ने दी,,,
बचपन हमारा खेतों में बीता,
ज़वानी भी हमने गुलामी में खपाई,
स्कूलों में हमको न शिक्षा मिली है।
देवों ने दी,,,
शिक्षा के अभाव में हिम्मत न पाई,
हिम्मत के अभाव में एक न हुए हम,
एक न हुए तो आजादी न मिली है ।
देवों ने दी,,,
RHG Address
Dr. Ramhet Gautam
Assistant professor
Department of sanskrit,
Dr. Harisingh gour central university, Sagar MP. Pin 470003 ,
Email- drrhgautam@gmail.com
mob. 8827745548
C-13 Professor Campus , Dr. Harisingh gour university, Sagar MP.
Thursday, 24 January 2019
अधिकारस्तु संविधाने मिलिस्यति
वेदे मिलिस्यति न पुराणे मिलिस्यति,
गीतायां मिलिस्यति न कुराणे मिलिस्यति
अधिकारस्तु संविधाने मिलिस्यति।
भ्रमन्-भ्रमन् शताब्द्यः व्यतीताः
साम्प्रतमपि नोनः दशा शोधिताः
सत्यज्ञानन्तु बुद्धमार्गे मिलिस्यति।
गीतायां-----
बुद्धेन उक्तं भीमेन स्वीकृतम्,
भीमेनोक्तं अस्माभिः न स्वीकृतम्।
साम्प्रतं न कोsपि व्याजो चलिसष्यति।
गीतायां-----
भीमेन कापि न्यूनता न क्षिप्ता,
चतुर्चतुर्बालैः प्राणाः त्यक्ताः।
मित्र! एतादृशः हीरः न मिलिस्यति ।
गीतायां-----
डाॅ रामहेतगौतमः
सहायक प्राध्यापकः
संस्कृत-विभागः, डाॅ हरिसिंह-गौर-विश्वविद्यालयः, सागरं मप्र।
Saturday, 19 January 2019
अधिकारं तु संविधाने एव मेलिस्यति।
वेदे मेलिस्यति न पुराणे मेलिस्यति,
गीतायां मेलिस्यति न कुराणे मेलिस्यति
अधिकारं तु संविधाने एव मेलिस्यति।
भ्रमन्-भ्रमन् शताब्द्याः व्यतीताः
साम्प्रतमपि नः न दशा शोधिताः
सत्यज्ञानन्तु बुद्धमार्गे मेलिस्यति।
गीतायां-----
बुद्धेन उक्तं भीमेन स्वीकृतम्,
भीमेनोक्तं अस्माभिः न स्वीकृतम्।
साम्प्रतं न कोsपि व्याजो चलिस्यति।
गीतायां-----
भीमेन कापि न्यूनता न क्षिप्ता,
चतुर्चतुर्बालाः प्राणान् त्यक्ताः।
मित्र! एतादृशः हीरः न मेलिस्यति ।
गीतायां-----
डाॅ रामहेतगौतमः
सहायक प्राध्यापकः
संस्कृत-विभागः, डाॅ हरिसिंह-गौर-विश्वविद्यालयः, सागरं मप्र।
Thursday, 17 January 2019
Saturday, 12 January 2019
अहिंसा
*💐हिंसाभावेन वरमहिंसाभावम्
चंदनेन वरं वंदनं शीतलतरञ्च
योगीभावेन उपयोगीभावं महत्तरम्।
प्रभावेन वरं स्वभावं शीतलसरलञ्च।
मुदितमुखन्ते वर्धते तवाभाम्।
मुदित-भावेन कृत-कार्यं वर्धते ते यशम्।
एवमेव मोदेत भो अहिरवारकुलज!
मित्रन्ते गौतमरामहेत-सागरम्।
💐 *शुभन्ते प्रभातम्* 💐
संघर्षं जयते
संघर्षमार्गमारोहति यो,
संसारम्परिवर्तते एव सो।
रंजनरणे राकां जयते यो
सूर्यो भूत्वा प्रभवति सो।
सुप्रभातम् आचार्य!
आकांक्षते आशीषं ते
गौतम-रामहेत- सागरम्
Sunday, 6 January 2019
खिचड़ी
दिल्ली में भाजपा की खिचड़ी
से एक संस्मरण हो आया जो इस प्रकार है-
सत्यनारायण की कथा
एक वार एक मित्र के घर सत्यनारायण की कथा कथा करायी जा रही थी, मित्र ने मुझे भी बुलाया । मित्र का आमंत्रण मना न कर सका , सुबह ही पहुंच गया ।
मित्र के पिता नहा धोकर तैयार होकर बोलते हैं- ए बहू! सीदौ-सामान लगा दऔ कै नईं अवेर हो रई।
बहू- बस दादा टठा लग गऔ लिया रई।
मैंने मित्र से पूछा- सीदौ-सामान क्या है?
मित्र- सत्यनारायण की कथा के लिए भोग- प्रसाद के लिए बाजार से लाकर सूखा सामान, जो पंडित जी को देने जाना है ।
मैं- तुम अपने घर पर तैयार करके ले जाओ वह बेचारे कहाँ बनाते फिरैंगे, तुम कथा करा रहे हो, तुम बनाओ अपने घर।
बनाना नहीं आता क्या?
मित्र- ऐसी बात नहीं है । पंडित जी हमारे हाथ का बना नहीं खाते । और न भगवान को भोग लगाते ।
मैं- जो भगवान तुम्हारे हाथ का बना या छुआ खाने से अपवित्र हो जाता है वह तुम्हारा कल्याण कैसे कर सकता है । तुम उसे दूषित करने का प्रभाव रखते हो क्या उसमें इतना सामर्थ्य नहीं कि तुम्हारे हाथ का भोजन तो क्या तुम्हें ही पवित्र बना ले।
मित्र- छोड़ो ये धर्म की बातें पंडित जी ही जानें एक दिन का ही तो काम है ।
मैं- तुम एक दिन का काम कह कर आंख बन्द करके जी रहे हो । रिस्ता बराबरी वालों होता है ।
जहाँ मान एक तरफा हो वह असन्तुलित समाज है ।
तुम इस असंतुलन को ढो रहे हो ।
मित्र- तो क्या करें । धर्म कर्म तो करना ही पड़ता है ।
'क्षमा करना' कहा
और मैं निकल आया ।
यह खिचड़ी भी सत्यनारायण की कथा के सीदौ-सामान की तरह है जो दलितों को मान नहीं दिला सकती ।
सुहाग की कोख
हे बहू! सास का सम्मान कर
तू युवती है
पर वो वृद्धा है
तेरे पास घर की चाबी है
पर उसके पास वो खजाना है
जिसे लुटाती रहती वह
हर पल तेरे पति पर
अपने पोतों पर भी
अक्षय है वह खजाना
तू भी पा सकती है वह
पर अदा करनी होगी
कुछ श्रद्धा,
कुछ भावनाएँ
कुछ मान
कुछ अभिमान
कुछ प्यारे बोल
समझनी होगा उसको
उसकी भावनाओं को
सहना होगा उसकी
साठोत्तरी हठों को
जो सही थी उसने भी
कभी तेरे सुहाग कीं
आज घर तेरा है
था जो कभी उसी का
पर वह कोख
अब भी उसी के पास है
पला था जहाँ कभी सुहाग तेरा ।
सींचा था जिसे कभी उसने
कुक्षि में रक्त से
गोदी में दुग्ध से
फिर पसीने से
और आशीषों से
मन्नतों से
टोनों टोटकों से
छाती पर काले टीके से
माथे पर तिलक और काले डठूले से
ले लेती थी सारी बलायें अपने सर
डाल दिए तेरे आंचल में उसने सारे सुख
अब बारी तेरी है
संभाल उन्हें
और सींचती रह प्रेम से
अपने सुहाग के साधन को
पाती रह सुख सुहाग से।
सुहाग के साधन से।
Saturday, 5 January 2019
महागठबंधन
ऐसा हो महागठबंधन
लोकहिताय हो जनबंधन
लोकमत का नित सद् मंथन
फण पूंछ का न हो कोई बंधन
मथना है समुद्र
निकलेंगे रत्न कई
और विश भी
बटेंगे सभी बराबरी से
सबमें सबका हक़ होगा
अमृत सबको
सबको बिष भी लेना होगा
न होगी कोई कुटिलता अब
वितरण भी समता से होगा
न रुंधेगा गला किसी का
न ही अब गलों का कर्तन होगा
न पियेगा सुरा कोई
न अब स्त्री नर्तन होगा
आओ करें महागठबंधन हम
लोकहित लोकतंत्र संबोधन होगा ।
जूट का बोरा
मैं किसान हूँ
उगाता हूँ रेशम
तुम्हारे लिए
तुम्हारे चमकीले वस्त्रों के लिए
तुम्हारी चमड़ी जो नाजुक है
खरोच न आये
वदन पर तुम्हारे
लालिमा धरने का हक़ जो है उसे
महंगे लेपों से सींचते हो उसे
खयाल रखो
अपनी खाल का
बाल का
और रेशमी डाॅगी का भी
मेरी फ़िक्र तुम क्यों करो
मुझे भी तो नहीं है
फ़िक्र अपनी
अपनी औलाद की
पत्नी के अरमानों की
बेटे की ख्वाहिश की
बेटी के मान की
पिता की घुटान की
मां के अरमान की
मुझे कहाँ आता है
सूट-बूट में अकड़ना
सूट मेरा,
मेरे बैलों का
मेरी गाय का
मेरे शेरू का
बिछौना यही
ओड़न यही
जूट का बोरा ही है ।
यह मेरा अपना है
छलकती है
इसी में शान मेरी
और मेरे खेत की।
Wednesday, 2 January 2019
सावित्री बाई फुले
'भगवान के लिए मुझे छोड़ दो' गिड़गिड़ाते हुए कहती है - काशी
बूढ़ी महिला- अरी कुल्टा! भगवान की दुहाई दे रही है और भगवान के ही धर्म को भ्रष्ट करने पर तुली है.----
कुछ चलावेदार लोग- पकड़ लो इसके हाथ-पैर और कर दो इसका मुंडन।
कि तभी आवाज़ आती है 'ठहरो , न चाहते हुए भी क्योँ करना चाहते हो उसका मुण्डन'
एक वृद्ध ब्राह्मण- रे विधर्मिन! हमारे धार्मिक कर्मकांड में टांग अड़ाने की जरूरत नहीं है चल भाग यहाँ से नहीं तो-----
सावित्रीबाई- अरे पाखण्डियों! क्या यही है तुम्हारा 'यत्र नार्यस्तु पूजयन्ते रमन्ते तत्र देवता।'
यह भी तो ब्राह्मणी ही है।
बन्द करो नारी जाति का अपमान । जीने दो उसे भी मान के साथ।
और नाई भाईयों 'तुम कब खोलोगे अपनी अकल का ताला' फटकारती हुई।
कुछ खुसुरफुसुर के बाद
नाई मुण्डन करने से मना करते हुए सावित्रीबाई फुले तुमने तो हमारी आखें खोल दीं, अब हम लोग विधवाओं के मुण्डन की दुष्ट परम्परा में सहायक नहीं होंगे ।
कुछ दिनों के बाद
मैली- कुचैली सफेद साड़ी में मुण्डित सिर, सूखी देह वाली एक स्त्री आत्महत्या करने का प्रयास करती हुई ।
तभी आवाज़ आती है अरी! क्या करने जा रही हो! रुको ।
मुझे मर जाने दो, कैसे जीऊं इस कलंक को ढोते हुए, आर्त स्वर में कहती है काशी ।
कौन सा कलंक? पूछती है सावित्री ।
यही जो पेट में पनप रहा है । पति की मौत के बाद लाद दिया है डराकर उनके अपनों ने और कलंकिनी कह कर निकाल दिया है मुझे घर से भी - कहती है काशी ।
लड़ती क्यों नहीं तू इन अत्याचारियों से और इनके अत्याचारी ढकोसलों से - सावित्रीबाई ।
मुझ अबला के वश की बात कहाँ? - काशी ।
सावित्री बाई- चलो मेरे साथ ।
ले जाती है उसे अपने विधवा आश्रम ।
कुछ दिन बाद
सावित्रीबाई- काशी! बेटा हुआ है ।
रोते हुए कशी- कैसे पालूंगी इसे इस समाज में और कैसे जियेगा यह भी तानों को सुनते हुए ।
सावित्रीबाई- कैसे पालोगी! अरे! यह तेरा ही नहीं हमारा भी बेटा है यह।
कशी जोर-जोर से रोने लगती है ।
सावित्री बाई पति ज्योति राव के पास जाकर
अजी सुनते हो!
ज्योति राव- हुं ।
सावित्रीबाई- काशी का बेटा ही आज से हमारा बेटा होगा।
हम अब और संतान पैदा नहीं करेंगे ।
ज्योति राव- ठीक है । आज से हमारे बेटे का नाम होगा- यशवंतराव ।
समय बीतता है । यशवंतराव पढ़ लिखकर डाॅक्टर बन जाता है ।
और एक दिन
सावित्रीबाई ज्योति राव के स्वर में स्वर मिलाते हुए- बेटा यह घर-द्वार तुम्ही संभालो। हमें समाज के लिए ही जीने दो।
यशवंतराव- ठीक है मां-बापू, आप की खुशी में ही मेरी खुशी है ।
सावित्रीबाई एक दिन प्लैग के रोगियों की सेवा करते हुए अपना जीवन पूर्ण कर लेती हैं
डाॅ रामहेत गौतम सहायक प्राध्यापक, संस्कृत विभाग , डाॅ हरिसिंह गौर विश्वविद्यालय, सागर मप्र ।