दिल्ली में भाजपा की खिचड़ी
से एक संस्मरण हो आया जो इस प्रकार है-
सत्यनारायण की कथा
एक वार एक मित्र के घर सत्यनारायण की कथा कथा करायी जा रही थी, मित्र ने मुझे भी बुलाया । मित्र का आमंत्रण मना न कर सका , सुबह ही पहुंच गया ।
मित्र के पिता नहा धोकर तैयार होकर बोलते हैं- ए बहू! सीदौ-सामान लगा दऔ कै नईं अवेर हो रई।
बहू- बस दादा टठा लग गऔ लिया रई।
मैंने मित्र से पूछा- सीदौ-सामान क्या है?
मित्र- सत्यनारायण की कथा के लिए भोग- प्रसाद के लिए बाजार से लाकर सूखा सामान, जो पंडित जी को देने जाना है ।
मैं- तुम अपने घर पर तैयार करके ले जाओ वह बेचारे कहाँ बनाते फिरैंगे, तुम कथा करा रहे हो, तुम बनाओ अपने घर।
बनाना नहीं आता क्या?
मित्र- ऐसी बात नहीं है । पंडित जी हमारे हाथ का बना नहीं खाते । और न भगवान को भोग लगाते ।
मैं- जो भगवान तुम्हारे हाथ का बना या छुआ खाने से अपवित्र हो जाता है वह तुम्हारा कल्याण कैसे कर सकता है । तुम उसे दूषित करने का प्रभाव रखते हो क्या उसमें इतना सामर्थ्य नहीं कि तुम्हारे हाथ का भोजन तो क्या तुम्हें ही पवित्र बना ले।
मित्र- छोड़ो ये धर्म की बातें पंडित जी ही जानें एक दिन का ही तो काम है ।
मैं- तुम एक दिन का काम कह कर आंख बन्द करके जी रहे हो । रिस्ता बराबरी वालों होता है ।
जहाँ मान एक तरफा हो वह असन्तुलित समाज है ।
तुम इस असंतुलन को ढो रहे हो ।
मित्र- तो क्या करें । धर्म कर्म तो करना ही पड़ता है ।
'क्षमा करना' कहा
और मैं निकल आया ।
यह खिचड़ी भी सत्यनारायण की कथा के सीदौ-सामान की तरह है जो दलितों को मान नहीं दिला सकती ।
Sunday, 6 January 2019
खिचड़ी
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