संस्कृतच्छाया अतीते वाराणस्यां ब्रह्मदत्ते राज्यं कारयति बोधिसत्त्वो मयूरयोन्यां निर्वृत्य बुद्धिमन्वित्य सौभाग्यप्राप्तोऽरण्ये व्यचारीत् । तदैकतरे वणिजो दिशाकाक गृहीत्वा नावा बावेरुराष्ट्रमगमन् । तस्मिन् किल काले बावेरुराष्ट्र शकुना नाम न सन्ति । आगतागता राष्ट्रवासिनस्त कूपाये निषण्णं दृष्ट पश्यतास्य छविवर्ण गलपर्यवसानं मुखतुण्डक मणिगोलकसदृशेऽक्षिणीति । काकमेवं प्रशस्य ते वणिजोऽवोचन् - ' इदमार्याः शकुनमस्मभ्यं दत्त । अस्माकं ह्यनेनार्थः । यूयमात्मनो राष्ट्रेऽन्य लप्स्यच्चे । तेन हि मूल्येन गृहीतेति । कार्षपणेन नो दत्तेति । न दद्म इति । आनुपूर्येण वर्धयित्वा शतेन दत्त ' इत्युक्ते अस्माकमेष बहूपकारः । युष्माभिः पुनः सार्ध मैत्री भवत्विति कार्षापणशतं गृहीत्वादु । ते तं गृहीत्वा सुवर्णपञ्जरे प्रक्षिप्य नानाप्रकारेण चैव मत्स्यमांसेन चैव फलाफलेन च प्रत्यग्रहीषुः । अन्येषां शकुनानामविद्यमानस्थाने दशभिरसद्धः समन्वागतः काको लाभाग्यशोऽग्रप्राप्तोऽभूत । पुनरि ते वणिज एक मयूरराज गृहीत्वा यथाक्षरशब्देन वाश्यते पाणिप्रहारशब्देन नत्यत्येवं शिक्षयित्वा बावेरुराष्ट्रमगमन् । स महाजने सन्निपतिते नावो धुरि स्थित्वा पक्षौ विधूय मधुरस्वरं निश्चार्यानीत् । मनुष्यास्तं दृष्ट्वा सौमनस्यजाताः एतमार्याः सौभाग्यप्राप्त सुशिक्षितशकुनराजमस्मभ्यं दत्त ' इत्यवोचन् । ' अस्माभिः प्रथम काक आनीतः , तमग्रहीषुः इदानीमेत मयूरराजमानैष्म , एतमपि याचथ । युष्माकं राष्ट्र शकुनं नाम गृहीत्वागन्तुं न शक्यमिति । भवत्वार्या ! आत्मनो राष्ट्रेऽन्यं लप्स्यध्वे , इमं नो दत्तेति मूल्य वर्धयित्वा सहसेणाग्रहीषुः । अथैनं सप्तरत्नविचित्रे पञ्जरे स्थापयित्वा मत्स्यमा - सफलाफलैश्चैव मधुलाजाशर्करापानकादिभिश्च प्रत्यग्रहीषुः मयूरराजो लाभाग्यशोऽग्रप्राप्तो जातः । तस्यागतकालतः प्रस्थाय काकस्य लाभसत्कारः पर्यहायि , कश्चिदेनमवलोकयितुमपि नैषीत् । काकः खादनीय भोजनीयमलभमानः का का इति वाश्यमानो गत्वोत्कारभूम्यामवातरीत् ।
अदर्शनेन मयूरस्य शिखिनो मञ्जुभाषिणः । काकं तत्रापूपुजन मांसेन च फलेन च । । यदा च स्वरसम्पन्नो मयूरो बावेरुमागमत् । अथ लाभश्च सत्कारो वायसरयाहीयत । । यावन्नोत्पद्यते बुद्धो धर्मराजः प्रभाकरः । तावदन्यानपूपुजन् पृथून श्रमणब्राहाणान् । । यदा च स्वरसम्पन्नो बुद्धो धर्ममदिक्षत् । अथ लाभश्च सत्काररतीथिकानामहीयत । । हिन्दी अनुवाद : प्राचीन काल में वाराणसी में ब्रह्मदत्त के शासन करवाने पर बोधिसत्त्व मोर योनि में उत्पन्न होकर , बुद्धि से युक्त हुए एवं सौभाग्य को प्राप्त होकर , जङ्गल में घूम रहे थे । उस समय व्यापारी एक विदेशी कौए को लेकर नाव से बावेरुराष्ट्र गये । उस समय बावेरु राष्ट्र में पक्षी नहीं थे । इधर - उधर से आए हुए राष्ट्रवासी कुएँ के ऊपर बैठा हुआ उसे देख कर ' इसकी कान्ति एवं रङ्ग को , गले तक लम्बी चोंच को एवं मणि के गोले के सदृश आँखों को देखो ' इस प्रकार से कौवे की प्रशंसा करके व्यापारियों ने कहा - ' आर्य ! इस पक्षी को हमें दे दो । हमारा इससे प्रयोजन है । आपको अपने राष्ट्र में दूसरा मिल जायेगा । तो मूल्य देकर ले लो । हमें एक कार्षापण में दे दो । नहीं देते हैं क्रमशः बढ़ाकर ' सौ कार्षापणों में दे दो ऐसा कहने पर यह कौआ हमारे लिए बहुत उपकार करने वाला है , लेकिन आपके साथ मित्रता हो जाय यह कहकर सौ कार्षापण लेकर दे दिया । उन्होंने उसे लेकर सोने के पिंजड़े में रखकर अनेक प्रकार के मत्स्यमास से , फल तथा फलेतर पदार्थों से उसकी देखभाल ( पालन - पोषण ) करते थे । अन्य पक्षियों के न होने के कारण दस असत् धर्मों से युक्त कौए ने श्रेष्ठ लाभ एवं यश को प्राप्त किया । दूसरी बार वे व्यापारी एक मयूरराज को लेकर , जैसे चुटकी बजाने पर शब्द करे तथा करतल ध्वनि पर नाचे इस प्रकार सिखा कर बावेरु राष्ट्र गये । वह लोगों के एकत्र होने पर नाव की धुरी पर बैठकर , पंखों को हिलाकर , मधुरस्वर का उच्चारण करते हुए नाचने लगा । मनुष्यों ने उसे देखकर , सौमनस्य युक्त होकर ' आर्य सौभाग्य से हमारे पास आए हुए , सुशिक्षित इस
पक्षिराज को हमें दे दो , ऐसा कहा । पहले हमारे द्वारा कौआ लाया गया , उसे ले लिया , इस समय इस मयूरराज को लाए है , इसे भी माँग रहे हो । आपके राष्ट्र में पक्षियों को लेकर नहीं आया जा सकता । ठीक है आर्य ! ' अपने राष्ट्र में आपको दूसरा मिल जायेगा , इसे हमें दे दीजिए ' इस प्रकार मूल्य बढाकर एक हजार कार्षापण में खड़ीद लिया । इसके बाद इसे सात रत्नों से विचित्र पिंजडे में रखकर , मछली के मांस , फल एवं फलेतर पदार्थों से तथा मधु , लावा शर्करा एवं शर्बत आदि से इसकी देखभाल की । मयूरराज श्रेष्ठ लाभ एवं सत्कार प्राप्त करने लगा । उसके आने के बाद से कौए के लाभ एवं सत्कार कम हो गये । कोई इसकी तरफ देखना भी नहीं चाहता था । कोआ खाने योग्य भोज्य सामग्री न प्राप्तकर का का ' इस प्रकार शब्द करता हुआ जाकर कूड़े के ढेर की जगह उतर गया । सुन्दर - शिखा वाले मजुभाषी मयूर के न देखने के कारण लोगों ने मांस एवं फल से कौए की पूजा की । किन्तु जब स्वरसम्पन्न मयूर बावेरु राष्ट्र में आ गया तब कौए का लाभ एवं सत्कार कम हो गये । जब तक धर्मराज प्रभाकर भगवान बुद्ध नहीं उत्पन्न हुए तब तक अन्य बड़े श्रमणों एवं ब्राह्मणों की लोग पूजा करते रहे । जब स्वरसम्पन्न बद्ध ने धर्म का उपदेश किया तब तीर्थकों के लाभ एवं सत्कार की हानि हो गयी ।
Friday, 21 February 2020
बावेरुजातकं
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