Friday, 21 February 2020

थेरगाथा

थेर - गाथा मालुक्यपुत्त गाथा मनुजस्स पमत्तचारिनो , तण्हा वकृति मालुवा विय । सो पलवती हुराहुरं , फलमिच्छं व वनस्मिं वानरो । । १ । । यं एसा सहती जम्मी , तण्हा लोके विसत्तिका । सोका तस्स पववन्ति अभिवनं व वीरणं । । २ । । यो चे तं सहती जम्मि , तह लोके दुरच्चयं । सोका तम्हा पपतन्ति , उदबिन्दु व पोक्खरा । । ३ । । तं वो वदामि भदं वो , यावन्ते ' त्थ समागता । तण्हाय मूलं खणथ , उसीरत्थो व वीरणं । मा वो नळं व सोतो व , मारो भञ्जि पुनप्पुनं । । ४ । । करोथ बुद्धवचनं , खणो वे मा उपच्चगा । खणातीता हि सोचन्ति , निरयम्हि समप्पिता । । ५ । पमादो रजो सब्बदा , पमादानुपतितो रजो । अप्पमादेन विजाय , अब्बहे सल्लं अत्तनो ति । । ६ । । संस्कृतच्छायाः मनुजस्य प्रमत्तचारिणस्तृष्णा वर्धते मालुका इव । स प्लवतेऽसोरसु फलमिच्छन्निव वने वानरः । । १ । । यमेषा सहते जाल्मी तृष्णा लोके विषाक्तिका । शोकास्तस्य प्रवर्धन्ते , अभिवृद्धमिव वीरणम् । । २ । । यश्चेत्ता सहते जाल्मी तृष्णां लोके दुरत्ययाम् । शोकास्तस्मात् प्रपतन्ति उदबिन्दुरिव पुष्करात् । । ३ । । तद्वो वदामि भद्रं वो यावन्तोऽत्र समागताः । तृष्णाया मूलं खनत , उशीरार्थमिव वीरणम । मा वो नडमिव स्रोत इव मारो भाक्षीत् पुनः पुनः । । ४ । । कुरुत बुद्धवचनम् , क्षणं वै मा उपातिगात् । । क्षणातीता हि शोचन्ति निरये समर्पिताः । । ५ । । प्रमादो रजः सर्वदा प्रमादानुपतितं रजः । अप्रमादेन विद्यया आहेच्छल्यमात्मनः । । ६ । ।
हिन्दी अनुवाद : प्रमादपूर्ण आचरण करने वाले मनुष्य की तृष्णा , मालुका लता की अति बढ़ती है । वन में फल को चाहने वाले वानर की भाँति प्रमादी व्यक्ति , एक जन्म से दूसरे जन्म में छलांग लगाता है । । १ । । नीच एवं विषाक्त यह तृष्णा लोक में जिसको अभिभूत कर लेती है , उसके शोक , अत्यधिक बढ़े हुए उशीर ( खस ) की भाँति बढ़ जाते हैं । । २ । । और जो व्यक्ति लोक में दुरतिक्रम , नीच , इस तृष्णा को अभिभूत कर लेता है , उससे कमल से पानी की बूँद की भाँति शोक छूट जाते । । ३ । । इसलिए जितने तुम लोग यहाँ पर आए हुए हो तुम्हारे कल्याण की बात कहता हूँ - जिस प्रकार खस के लिए उसके पौधे को खना जाता है उसी प्रकार तृष्णा की जड़ को खोद डालो काम , नरकुल की घास की भाँति तथा स्रोत की भाँति तुम्हें बार - बार न तोड़े । । ४ । । बुद्ध के वचनों का पालन करो , एक क्षण भी व्यर्थ न चला जाय । एक क्षण को भी व्यर्थ गँवाने वाले लोग नरक में जाकर शोक करते हैं । । ५ । । प्रमाद ही मल है , सर्वदा प्रमाद से ही मल उत्पन्न होता है । प्रमाद रहित होकर तथा ज्ञान से अपने शल्य ( दुःखरूपी काँटे ) को निकालना चाहिए । । ६ । ।

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