अलंकारस्वरूप सर्पोके फणामण्डलमें विद्यमान रनोंकीदीप्तिसे देदीप्यमान एवं मुक्तजनों द्वारा आराधित । शिवरूपी कल्पतरुको नमस्कार है ॥ १ ॥ तृतीय नेत्रमें स्थित अग्निकी लपटों तथा केसर के तिलकसे सुशोभित ललाटयुक्त एवं काल करते हुए सर्पोक चपलमुख तथा झलते हए कुण्डलोंसे शोभायमान कानावाला , समुद्रस उत्पन्न जथवा शंखकी दीप्तिसे निर्मल कण्ठकी शोभासे सम्पन्न , वृपके चिहसे चिहित , उत्तम कंचुकोस आवृत । वक्ष स्थल एवं आधी देहसे नर और आधीसे नारीका वेप धारण किये हुए शिवजीका दाहिना अथवा वामभाग आप लोगोंका कल्याण करे ॥ २ ॥ अमृत के प्रवाहको भी तच्छ कर देनेवाला एवं अनिर्वचनीय सुकविजनोंका । गुण चन्दनीय है । उसके प्रभावसे अपना और पराया यशरूपी शरीर अमर हो जाता है । क्योंकि अमृतपानस । केवल पान करनेवालेका भौतिक शरीर अमर होता है , किन्तु कविके काव्यामृतका पान करनेपर कविका और । उसके काव्यम वणित पात्रोंका यशःशरीर चिरस्थायी हो जाता है । इसी कारण काव्यरसको अमृतसे भी श्रेष्ठ कहा गयाहे ॥ ३ ॥ रमणीय काव्यके निर्माणकारी कवियोंके सिवाय अन्य कौन प्राणी भूतकालकी बातोंको वर्तमान कालकी तरह प्रत्यक्ष उपस्थित कर सकता है | ४ | | नयी - नयी सझ देनेवाली अपनी बुद्धिसे . कवि यदि सहृदयसंवेद्य भावोंकोन देखता तो उसकी दिव्यदृष्टिका प्रमाण ही क्या होता ? | | ५ ॥ कथाविस्तारके मयसे यद्यपि इस ग्रन्थमें विचित्र रचनाओंका समावेश नहीं हो पाया है , फिर भी सहृदय जनोंके लिए सुखदायी कुछ कथानक स्थान - स्थानपर अवश्य रक्खे हए मिलेंगे ॥ ६ ॥ वह गणवान कवि ही प्रशंसाका पात्र होता है , जिसका
वाणी राग - द्वेषसे रहित एवं सो इतिहासको बतलाने में समर्थ हो । । ७ । । प्राचीन इतिहासकारोंके लिखे इतिहास को फिरसे लिखते हुए मुझ कल्हणसे पुनलेखनके प्रयोजनको समझे बिना ही सुजनोंका विमुख हो जाना अनुचित है । ॥ ८ ॥ पूर्वकालके इतिहासकारोंने विस्तारके साथ राजाओंके जो इतिहास लिखे हैं , उन्हें देख तथा उनकी सत्यता एवं असत्यताको परखकर सर्व इतिहासको जनसाधारणके सम्मुख रखना पया साधारण नैपुण्यात कार्य है ? नहीं । अतएव पूर्णतः निर्दोष और सत्य इतिहासको प्रकट करनेके लिए ही मैं यह उद्योग कर रहा हूँ ॥ ९ ॥ १० ॥ पहलेके लिखित इतिहासप्रन्थ बहुत विस्तृत थे । उन्हें संक्षिप्त करनेके लिए सुव्रतने अन्य ग्रन्थ - की रचना कर दी । जिससे वे प्राचीन ऐतिहासिक अन्य लप्त हो गये । । ११ ॥ किन्तु कवि सुव्रतकी रचना फटोर किरनापूर्ण होनेके कारण लोगोंको वास्तविक इतिहासका ज्ञान प्राप्त कराने में समर्थ नहीं हो सकी । । १२ । । क्षेमेन्द्र फविकृत ' नृपावलि ' नामका इतिहासग्रन्थ चद्यपि काव्यकी दृष्टिसे एक उत्तम रचना है , किन्तु अनव - धानता वश उसमें इतनी त्रुटियाँ हो गयी हैं कि उसका कोई अंश निर्दोष नहीं रह गया है . ॥ १३ ॥ मैंने प्राचीन विद्वानों द्वारा रचित राजकथाविषयक ग्यारह ग्रन्थ पढ़े हैं और नीलमुनि द्वारा विरचित नीलमत्त - पुराणका भी अध्ययन किया है ॥ १४ ॥ प्राचीन राजाओं द्वारा निर्मित देवमन्दिरों , नगरों , ताम्रपत्रों , आज्ञापत्रों , प्रशस्तिपत्रों एवं अन्यान्य शाखोंका मनन - मन्थन करनेके कारण मेरा सारा भ्रम दूर हो चुका है । । १५ । । ऐतिहासिक प्रमाणों के अभाव वश पुराने ग्रन्थकारोंको ५२ राजाओंका इतिहास ज्ञात ही नहीं था । उनमेंसे गोनन्द आदि चार राजाओंका इतिवृत्त मुझे नीलमत - पुराणसे ज्ञात हुआ । । १६ । । प्राचीनकालमें महात्रती हेलाराज नामके विप्रने १२ हजार श्लोकोंमें ' पार्थिवावलि ' नामके ग्रन्थकी रचना की थी । । १७ ॥ उसीके आधारपर पूर्व मिहिर नामके विद्वान्ने अपने ग्रन्थमें अशोकके पूर्वज लव आदि आठ राजाओंका वर्णन किया है । । १८ ॥ इसी तरह छबिल्लाकर नामके विद्वान्ने भी अपने ग्रन्थमें बावन राजाओंमेंसे अशोकसे लेकर अभिमन्यु तकके पाँच नरेशों का उल्लेख किया है । उसका श्लोक यह है - ' अशोकसे लेकर अभिमन्यु तकके पाँच नरपतियोंको प्राचीन कवियोंने उन अप्रसिद्ध बावन राजाओंमेंसे ही उपलब्ध किया है ' ॥ १९ ॥ २० ॥ मेरे द्वारा रचित यह इतिहासग्रन्थ विभिन्न राजाओंके शासनकाल में देश - कालकी उन्नत एवं अवनतिके विषयमें पुरातन ग्रन्थोंसे उत्पन्न भ्रमको दूर करनेमें सहायक सिद्ध होगा ॥ २१ ॥ सुन्दर ढंगसे वर्णित प्राचीन कालके अनेक व्यवहारोंसे परिपूर्ण यह अन्ध किस
सहृदय प्राणीके लिए न आनन्ददायक होगा ? ॥ २२ ॥ सभी प्राणियोंके जीवनकी क्षणभङ्गरताको सोचकर शान्त रसको ही सब रसोंमें प्रधान स्थान देना उचित है ॥ २३ ॥ अतएव हे सहदय सजनों ! शान्त रसके प्रबल प्रवाह से रमणीय इस राजतरंगिणीकी कथाको कर्णपुट द्वारा आप तृप्ति पर्यन्त पौजिये ॥ २४ ॥ कल्पके आरम्मसे छ मन्वन्तर तक हिमालयके मध्यमें अगाधजलसे परिपूर्ण सतीसर नामका एक महान् सरोवर था । । २५ । । तदनन्तर बेवस्वत नामके सप्तम मन्वन्तरमें महर्षि कश्यपने ब्रह्मा , विष्णु , महेश आदि देवताओं के द्वारा उस सरोवरमें रहनेवाले जलोद्भव नामके असुरको मरवाकर सरोवरकी भूमिपर काश्मीर मण्डलकी स्थापना की । । २६ । । २७ । । वितस्ता नदीके बहावरूपी दण्ड तथा कुण्डरूपी छत्र धारण किये हुए सब नागोंके राजा नीलनाग इस मण्डलका पालन करते हैं । । २८ । । स्वामिकार्तिकेयकी आश्रयदात्री , गणेशको दुग्धपान करानेवाली , कन्दराओंसे युक्त होने के कारण गुहाश्रिता और सोको जलपान करानेके कारण नागपीतपया बितस्तारूपधारिणीने पार्वती अपना औचित्य नहीं त्यागा । जैसे पार्वतीमें गुहाश्रितत्व तथा नागपीतपयस्त्वरूपी दोनों धर्म रहते है , वैसे ही वितस्ता नदीमें भी दोनों धर्म विद्यमान दीखते हैं ॥ २९ ॥ शंख - पद्म आदि विविध रत्नमय आभूषणोंसे आभू पित नागों युक्त कुबेरके नगरके सदृश वह कश्मीरमण्डल विभिन्न निधियोंसे भरा पर्वतके समान प्राकाररूपी भुजाओंको उठाकर यह नगर गरुड़के भयसे शरणागत सॉंकी प्राणरक्षाके लिए उद्युक्त - सा रहता है । । ३० ॥ ३१ ॥ यहकि पापसूदन तीर्थमें विराजमान काष्टरूपधारी उमेशका दर्शन तथा स्पर्श करनेसे भोग तथा मोक्ष दोनों फल प्राप्त होत ह । । ३२ । । संध्या देवी यहाँके निर्जल पर्वतोपर पाप और पुण्यका निर्णय जलरूपसे करती है अर्थात् यहाँ पुण्यात्माओंको जल मिलता है और पापियोंको नहीं मिल पाता ॥ ३३ ॥ यहाँकी पृथ्वीसे स्वतः निकली नई आग अपनी ज्वालारूपी भजाओंसे होताओं द्वारा अर्पित हव्य ग्रहण करती है ॥ ३४ ॥ गंगाके प्रादुभोबसे पवित्र यहाँक भेड पर्वतके सरोवरमें हंसरूपधारिणी सरस्वती प्रत्यक्ष दिखायी देती है ॥ ३५ । । यहॉपर नन्दिक्षेत्रके शिवालयमें देवताओं द्वारा अर्पित पूजाके चन्दनबिन्दु आज भी दीख रहे हैं ॥ ३६ । यहाँ सरस्वतीके दशनमात्रसे कविसेवित मधुरवाणी तथा मधुमती नदी दोनों प्राप्त हो जाती है ॥ ३७ ॥ चक्रधर , विजयेश , शप एवं ईशान आदि पुनीत देवालयों युक्त कश्मीर प्रदेशका कोई भी स्थान ऐसा नहीं है कि जिसको तीथे न
कहा जासके । । ३८ ॥ पुण्य - लये दी इस प्रदेशपर विजय प्राप्त की जा सकती है , शस्त्र - बलसे नहीं । अतएव कश्मीर वासी परलोकसेही डरते हैं . शत्रऑसे नहीं डरते ॥ ३९ ॥ शीत - कालमें काम कर रहा अनेक स्थान है , जहाँके स्नानागारोंमें गरम जल मिलता रहता है और उण - काल में स्नान योग्य तथा जल - जन्तुओंके भयसे रहित एवं शीतल जलबाले कई नदी - तट विद्यमान है ॥ ४० ॥ अपने पिता कश्यपके द्वारा निर्मित इस कश्मीर प्रदेशको सूर्यनारायण अपनी उष्ण - किरणोंसे तपानेके अयोग्य समझकर ग . रव भरे हृदयसे प्रीष्ाकालमें भी तीव्रता प्रगट नहीं करते । । ४१ . ॥ यहॉपर बड़े बड़े विद्या - भवन , हिम - सदृश शीतल जल एवं द्राक्षाफल आदि स्वर्ग में भी दुर्लभ पदार्थ साधारण वस्तु माने जाते हैं । । ४२ । । तीनों लोकोंमें भूलोक श्रेष्ठ है , भूलोकमें कौवेरी ( उत्तर ) दिशाकी शोभा उत्तम है , उसमें भी हिमालय पर्वत प्रशंसनीय है और उस पर्वतपर भी कारमौर मण्डल परम रमणीक है ॥ ४३ । । कलियुगमें यहाँ कौरव - पाण्डवके समकालीन तृतीय गोनन्द तक ५२ बावन राजे हो चुके थे । । ४४ । । परन्तु उस समय उन नरेशोंके बुकृत्यसे यशःशरीरनिर्माता कवि नहीं थे ॥ ४५ ॥ जिन महा प्रतापशाली राजाओंकी भुजवनरूपी वृक्षोंकी छायामें यह समुद्रपरिवेष्टिता भूमि सर्वथा निर्भय थी , उन राजाओं का भी नाम जिनके अनुग्रहके विना स्मरण नहीं आता , स्वभावतः महत्त्वशालिनी उस कविकृतिको हम सादर प्रणाम करते है । । ४६ । । जिन नरपतियोंके चरण हाथियोंके मस्तकोंपर पड़ते थे , जो लक्ष्मीको प्राप्त कर चुके थे , जिनके महलों में दिनके समय भी चमकनेवाली चन्द्रिका जैसी सुन्दरी युवतियाँ रहा करती थी , उन लोकतिलक नरेशोंको यह संसार जिस कवि - कृति के बिना स्वप्नमें भी उत्पन्न नहीं मान सकता , अत हे भ्रातः कविकृत्य ! हम से कड़ों स्तुतियोंसे आपके गुण कहाँ तक गायें । बस , इतना ही कहना पर्याप्त है कि आपके बिना सारा संसार अन्धा हे । । ४७ । । कलियुगमें उन गोनन्द आदि बावन राजाओंने २२६८ वर्ष तक कश्मीर देशपर शासन किया । ' महाभारतका युद्ध द्वापरयुगके अन्त में हुआ था ' ऐसी मिथ्या बातोंसे भ्रान्तचित्त अनेक इतिहासकार मेरी इस कालगणनाको सही नहीं मानते ॥ ४८ ॥ ४५ ॥ किन्तु कश्मीरके राज्यासनको अलंकृत करनेवाले राजाओंका शासन - काल तथा भुक्त कलिका समय दोनों बराबर है । । ५० ॥ कलिके ६५३ वर्ष बीत जानेपर कौरव - पाण्डव
हुए थे । । ५१ । । इस समय शककालके २४वें लौकिक वर्षमें १०७० वर्ष बीत चुके हैं । । ५२ । । तीसरे गोनन्दके लगएसे लेकर आज तक पाग ३० वर्षे पीते हैं । । ५३ । । अब उन ५२ बावन राजाओंके हासनकालका १२६६ याँ वर्ष है ॥ ५४ । " चित्रशिखण्डि ( सप्त - ऋषिगण ) एक नक्षत्रसे दूसरे नक्षत्र पर १०० वर्षमें जाते है यह ज्योतिष - संहिताकारोंका निर्णय है ॥ ५५ ॥ राजा युधिष्ठिर जब पृथ्वीपर शासन करते थे , तब सप्तर्षि मघा नक्षत्रपर विद्यमान थे । युधिष्ठिरका शक - काल २५५६ माना जाता है । । ५६ । । उस समय गंगाका चञ्चल प्रवाहरूपी शुभ्र वस्त्र धारण करके कैलास पर्वतकी धवलिमाका उपहास करती हुई उत्तर दिशा परम प्रतापी कश्मीरनरेश राजा गोनन्दकी सेवामें संलग्न थी । । ५७ ॥ विपसे भयभीत पृथ्वी शेषनागका मस्तक त्यागकर शालिमणिखचित आभूषणोंसे आभूषित राजा गोनन्दकी भुजाओंका आश्रय पाकर निर्भय हो गयी थी ॥ ५८ । । कारबपने मित्र जरासंध द्वारा सहायताके लिए आमन्त्रित राजा गोनन्दने यमुनाके तीरपर अपनी सेना टिका दी और चारों ओरसे मथुरा नगरीको घेर लिया ॥ ५९ ॥ इस प्रकार सेनाको डटाकर गोनन्दने अपने प्रबल आकसे यादब रमणियोंकी मुसकान के साथ ही यादव वीरोंका यश भी लुप्त कर दिया था । ६० । । उस युद्धमें यादवी सेनाको बुरी तरह हारते देख उसकी रक्षाके लिए बलरामने आकर गोनन्दको घेर लिया । । ६१ । । समनि चली उत्तंन्दोनों वीरोंके युद्ध में बहुत समय तक किसी भी पक्षकी विजयको अनिश्चित देखकर जयश्री के करकमलोंमें विद्यमान विजयमाला मुरझा गयी ॥ ६२ ॥ कालान्तरमें गोनन्दने बलरामके शस्त्रप्रहारोंसे जेरित होकर पृथ्वीका आलिंगम किया और बलदेवको विजयलक्ष्मीके आलिंगनका श्रेय मिला । । ६३ । । इस प्रकार गोनन्दको वीरगति मिल जानेके बाद उसका पुत्र दामोदर पृथ्वीकी रक्षा करने लगा । । ६४ ॥ सर्वथा भोग सम्पत्तिसम्पन्न राज्य मिलनेपर भी स्वाभिमानी राजा दामोदरको पिताके वधका स्मरण करनेपर शांति नहीं पात होती थी । । ६५ । । उसी समय गांधार देशके नरेश द्वारा अपनी कन्याके स्वयंवरमें यादवोंका निमन्त्रण सुनकर दामोदर युद्धकी इच्छासे फड़कती भुजाओंकी खुजली मिटानेके लिए घोडोंकी टाप द्वारा उड़ी धूलसे । आकाशको आच्छादित करती हुई विशाल सेना साथ लेकर लड़नेके निमित्त गांधार देशमें जा पहुँचा । । ६६ । । ॥ ६७ । इससे उस कन्याके स्वयंवरमें ऐसा विघ्न उत्पन्न हुआ कि जिससे युद्ध में मरे वीरोंके साथ स्वर्गीय रमणियों
का स्वयंवर होने लग गया । । ६८ ॥ अन्त में शत्रुसैन्यपर भीषण प्रहार करनेवाले बीरश्रेष्ठ दामोदरने श्रीकृष्णके सुदर्शन चक्रके आघातसे वीरगति प्राप्त की । । ६९ । । तब यादवश्रेष्ठ कृष्णने ब्राह्मणों के द्वारा दामोदरकी गर्भवती स्त्री यशोमती देवीका राज्याभिषेक करा दिया ॥ ७० । । इस कार्यकलापसे अपने मन्त्रि - मण्डलको रुप देखकर भगवान कृष्णने “ कश्मीर देश पावतीका स्वरूप है और वहाँका राजा साात् शिव है । अतएव दुष्ट होनेपर भी वह कल्याणेच्छुक विद्वानोंके लिये पूजनीय है " ऐसे पौराणिक श्लोकका प्रमाण देकर उन्हें शांत किया । । ७१ ॥ ॥ २ ॥ पहले जो लोग खियोंको भोग्य पदार्थके समान गौरवविहीन इष्टिसे देखते थे . वे ही अब रानी यशोमती को देवताकी भाँति आदरपूर्ण दृष्टिसे देखने लग गये | | ७३ । । दशम मासमें यशोमतीके गभेसे दग्ध वंशवृदा के अंकुरकी तरह एक दिव्य पुत्र जनमा । । ७४ ॥ राज्याभिषेकके साथ ही प्रचुर सामग्रियोंको एकत्रित करके श्रेष्ठ ब्राह्मणों द्वारा उस बालकका जातकर्म संस्कार कराया गया | | ७ | | उस बालक राजाने राज्यश्रीके साथ साथ पितामहके क्रमसे ( द्वितीय ) गोनन्दका नाम भी लाभ किया । । ७६ । । उसका उचित पोषण करनेके लिये जलपूर्ण बितस्ता नदी और सर्वसंपत्प्रसविनी भूमि ये दोनों ही उपमाताओंका कार्य करने लगीं ॥ ७७ । । उस बालक राजाकी अकारण मुसकानको भी देखकर उसकी प्रसन्नताको सफल बनानेके निमित्त मंत्रिगण अनुचरों को पारितोषिक ( इनाम ) देखकर संतुष्ट करते रहते थे । । ७८ ॥ उस बालककी अव्यक्त वाणीका आशय न समझने के कारण आज्ञा पालन करने में असमर्थ मन्त्री अपनेको अत्यन्त अपराधी मानते थे । । २ । । अपने पिताके सिंहासनपर बैठे उस बालक नरेशके पैर पादपीठ तक नहीं पहुँचते थे । अतएव उस पादपीठकी निराशा दूर नहीं होने आती थी । । ८० ॥ चामरोंकी पवनसे चञ्चल काकपक्षवाले उस बालक नरेशको राज्यासनपर बैठाकर मन्त्री लोग राज्य - कार्य करते थे । । ८१ । । महाभारतके युद्धमें कौरवों तथा पाण्डवोंने कश्मीर - शासक उस राजाको बालक जानकर सहायतार्थ निमन्त्रित नहीं किया था । । ८२ ॥ उसके बाद जो राजे हुए , उनका इतिहास नष्ट हो जानेके कारण वे बिस्मृति - सागरमें डूब गये हैं और इतिहास न मिलनेसे आज उन्हें कोई नहीं जानता । । ८३ । । तदनन्तर फरफराते हुए यशोवासे वेष्टित तथा जयश्रीका प्रेम - यात्र एवं भूमि - भूषणस्वरूप लव नामका राजा कश्मीरका शासक बना । । ८४ ॥ समस्त संसारकी निद्रा भंग करनेवाले उसके सेनानिनादने शत्रुओंको दी ।
कालीन निद्राके अधीन कर दिया । । ८५ ॥ उस नरेशने लाख पत्थरकें मकान बनवाकर लोलोर नगर बसाया । । ८६ ॥ निष्कलंक वीरश्रीसे विभूषित राजा लब लेदरी नदीके तटपर बसा लेवार प्राम ब्राहाणोंको दान देकर स्वर्ग चला गया । । ८७ । । उसके बाद उसका परम प्रतापी पुत्र कुशेशयाम राजा बना और उसने कुरुहार नामका अग्रहार ब्राह्मणोंको दान दिया । । ८८ ॥ तदनन्तर शत्ररूपी सर्पदंशका घातक एवं महावीर खगेन्द्र नामक उसका पुत्र कश्मीर देशका शासक बना । । ८९ । । खागी और खोनमुष नामके दो अग्रहारोंको स्थापित करके राजा खगेन्द्र भगवान् शंकरके अट्टहासकी तरह अपने निर्मल पुण्यके प्रभावसे स्वर्गको सुशोभित करने THIचला गया । । ९० । उसके बाद परम प्रतापवान् राजा सरेन्दने कश्मीर देशके राज्यसिंहासनको अलंकृत किया । वह खगेन्द्रका पुत्र था , अत उससे इन्द्र भी लजित होता था । क्योंकि इन्द्र ' शतमन्यु ' ( संकड़ों तरहसे क्रुद्ध ) शान्तमन्यु ( शांतक्रोध ) था और इन्द्र गोत्रभिद् ( पर्वतनाशक ) कहलाता है और राजा सुरन्द्र गोत्र कुलशक्षक था । । ९१ । । ९२ ॥ श्रीमान् , यशस्वी और परम पुण्यात्मा उस राजाने दरद देशके पास सरिक । माएकासद्ध नगर बसाया । उसके साथ ही उसने नरेन्द्रभवन तथा सौरभ नामके दो विहार भी बनवाय मा कोई सन्तान न होनेसे उसकी मृत्यूके पश्चात् अन्यवंशज राजा गोधर सपर्वता पृथ्वापर शासन करने लगा । । ९५ ॥ परम पुण्यात्मा और उदार राजा गोधर ब्राह्मणोंको हस्तिशाला नामका पहार दकर स्वर्ग चला गया । । ९६ । । उसके बाद याचकोंको प्रचुर सुवर्ण देनेवाला तथा कराल नामक दशम । रणणिकुल्या नंदी बहा देनेवाला उसका पुत्र सवर्ण कश्मीर देशका राजा हुआ । । २७ ॥ उसके बाद जनक ता ) के समान विज्ञ उसका पुत्र जनक अपने पिताके सिंहासनका अधिकारी हुआ और प्रजाका पालन फानलमाबाउसने विहार तथा जालोर नामके अग्रहारका निर्माण कराया । । ९८ ॥ उसके दिवंगत होजानपर । माई तथा परम क्षमाशील उसका पुत्र शचीनर सिंहासनासीन हुआ । कोई भी व्यक्ति उसकी आज्ञाका उल्लंघन महा करता था । । ९९ ॥ शमाङ्ग और असाहानार नामके अग्रहारोंका निर्माण कराके अपुत्री रह राजा पुल सारवाई इन्द्र के आधे आसनका अधिकारी होता हा स्वर्गवासी हो गया । । १०० । । उसके बाद राजा शकुना
Tuesday, 25 February 2020
Rajtarangini hindi
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