उतर आता है कर्मों का लेखा
जब खड़ी दिखती है मौत सामने
चारों ओर पाण्डव थे
सामने धृष्टद्युम्न भी
और उसके हाथ में तलवार थी
कानों में छल का शंखनाद था
देहमात्र थी रथ पर
मन अतीत में था
बुद्धि विचार रही थी
जिस वंश के लिए मांगा था
अगूँठा मैंने स्वयंसिद्ध का
वही काटने को आतुर शीश मेरा
तलवार बन गया है वही तेगा
कटा था अँगूठा निषाद् युवराज का
या कटा था शिर शिष्यत्व के विश्वास का
होता गर एकलव्य यहाँ
गुरु के लिए मस्तक कटा देता
पर मार दिया था मैंनें शिष्य के विश्वास को
आज छलनी हो रहा विश्वास गुरु का।
यह सत्ता है बलि लेती है।
भीम द्रोही हो गया,
धर्मराज भी हाँ में हाँ मिला दिये
गाण्डीव अर्जुन का मौन है
हे एकलव्य तुमसे श्रेष्ठ कौन है?
गुरु शिष्य के पास था
धृष्टद्युम्न देह के पास था
तलवार ने शव को काट दिया।
अब एकलव्य न नीच था
न अर्जुन श्रेष्ठ था।
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