Monday, 10 October 2022

चार्वाक

भारत में परजीवियों का एक विशाल समूह है जो बोलता है कि “सब कुछ माया है”, लेकिन व्यवहार में यह समूह सारी जिंदगी इसी “माया” के पीछे पागल रहता है। प्राचीन भारत के लोकायत संप्रदाय ने इन परजीवियों की खूब खबर ली थी।आइए लोकायत दर्शन की कुछ प्रमुख प्रस्थापनाओं को देखते हैं:

      1. यह जगत ही एकमात्र जगत है, यह जीवन ही एकमात्र जीवन है, और हमें इसे सर्वश्रेष्ठ तरीके से जीने का प्रयत्न करना चाहिए।
       2. जब तक जियो सुख से जियो। मृत्यु की निगाहों से कोई नहीं बच सकता। एक बार जब शरीर जलकर राख हो जाएगा, फिर पुनर्जन्म कैसे होगा?
       3. सुख के साथ दुख भी मिश्रित है, इसलिए हमें सुख को त्याग देना चाहिए, ऐसा मूर्खों का विचार है। अपना भला चाहने वाला कौन इंसान धूल और भूसी के कारण उत्कृष्ट सफेद अनाज वाले धान को फेंक देगा?
       4. ना कोई स्वर्ग है, ना कोई मोक्ष, ना आत्मा किसी परलोक में जाती है।
       5. वर्णाश्रम धर्म के पालन से भी कोई फल प्राप्त नहीं होता।
      6. मोर को रंग किसने दिए हैं या कोयल से गीत कौन गवाता है, इसका प्रकृति के सिवा और कोई कारण नहीं है।
      7. अग्निहोत्री यज्ञ, तीनों वेद, त्रिदंड धारण और शरीर में भस्म लगाना, ये सभी बुद्धि और पौरुषहीन लोगों की आजीविका के साधन मात्र हैं।
       8. अगर श्राद्ध में अर्पित भोजन से स्वर्ग में बैठे लोग संतुष्ट हो जाते हैं तो क्यों नहीं छत पर बैठे लोगों को नीचे ही भोजन दे दिया जाता?
      9. अगर श्राद्ध करने से मरे हुए लोगों को तृप्ति हो जाती है, तो फिर किसी राहगीर को साथ में भोजन देने की क्या जरूरत है? घर में दिए भोजन से ही उसे रास्ते में तृप्ति मिल जाएगी।
       10. अगर कोई अपने शरीर को छोड़कर परलोक चला जाता है तो अपने दोस्तों और अन्य लोगों के प्रेम में बंधकर वह दुबारा वापस क्यों नहीं लौट आता?
      11. इसीलिए, ब्राह्मणों ने मात्र अपनी आजीविका के लिए श्राद्ध कर्म की व्यवस्था की है। इसमें अधिक कुछ भी नहीं है।
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Shyam Singh Rawat मनस्वी पुरूष की हर बात ध्यान से सुनना जरूरी है, सो आपकी बात पर गौर किया। मेरी समझ में, चार्वाक को भोगवादी कहना महान ज्ञानी का अपमान है। चार्वाक परलोक को नकार कर इहलोक को सुन्दर बनाने की बात करते हैं। दूसरी बात यह कि चूंकि विज्ञान को नकारा नहीं जा सकता, तो आत्मा और अध्यात्म को लेकर बहुतेरे छद्म-वैज्ञानिक बाजार में हैं।
Rana Singh जी,
मैं कोई मनस्वी नहीं, बल्कि बहुत ही साधारण व्यक्ति हूं।
चार्वाक मत भोगवादी न होता तो वह 'यावत्जीवेत सुखं जीवेत' जैसा अनर्थकारी विचार नहीं देता।
परलोक की अवधारणा को हूबहू गांठ बांध लेना भी कतई स्वीकार्य नहीं हो सकता। इसीलिए आध्यात्मिक ज्ञान-सम्पन्न योगीजनों ने स्वयं अपने अंतर्जगत की यात्रा करने को कहा है। जिसमें अंधानुकरण के लिए कोई स्थान नहीं है। यह तप तो साधक को खुद ही करना पड़ता है। तभी उसे वास्तविक सुखानुभूति हो सकती है।
जैसा कि मैं अपनी पूर्व टिप्पणी में स्पष्ट कह चुका हूं कि विज्ञान जिन छ: आधारभूत सिद्धान्तों के आधार पर कब, क्यों, कैसे, कितना आदि तरह-तरह के प्रश्नों का सम्यक उत्तर खोजने पर काम कर ही निष्कर्ष तक पहुंचता है तो फिर पराभौतिक ज्ञान के मामले में इन सिद्धान्तों को अपनाकर निष्कर्ष तक पहुंचने की कोशिश करने से पहले ही उन्हें नकार देना उचित नहीं है।

Shyam Singh Rawat तो आप जीवनकाल में जब तक जीते हो सुख से नहीं जीते हो??
ढोंग ना कीजिए

Khetaram Beniwal Malwa जी,
संसार के बिरले मनुष्यों को छोड़कर अन्य सभी लोग सारा जीवन सुख की तलाश में यत्र-तत्र भटकते हुए ही व्यतीत कर जाते हैं, क्योंकि वे सुख को इन्द्रियों के माध्यम से प्राप्त करना चाहते हैं और इन्द्रियों की अपनी सीमाएं होती हैं तो स्वाभाविक रूप से वह सुखानुभूति भी सीमित ही रह जाती है। 
कभी सोचकर देखिए कि क्या आपको वह सुख वास्तव में प्राप्त हुआ है जिसमें तल्लीन होने का भाव सदैव भीतर उठता रहता है?

चार्वाक के विचार अवश्य अर्ध सत्य को इंगित करते हैं|

चार्वाक अपने समय का क्रांतिकारी दर्शन था, जो आज भी सत्य है।
महान मनीषी कार्ल मार्क्स ने द्वंदात्मक भौतिकवाद का सिद्धांत उसी का बहुत ही परिष्कृत रूप है

वैज्ञानिक खोजें बता रही हैं कि दृश्यमान जगत से कहीं अधिक विस्तृत अदृश्य संसार है। प्रति-ब्रह्मांड पर काम हो रहा है। ब्लैक मैटर और चतुर्थ आयाम की चर्चा आम है। लाइफ आफ्टर डेथ और
एईडी (आफ्टर डेथ एक्सपीरियंस) जैसे पराभौतिक विषयों पर अनुसंधान हो रहे हैं। क्योंकि जितना हम जानते हैं, यह सकल सृष्टि उससे भी असंख्य गुना अधिक विस्तृत है। 
डॉ. रेमण्ड ए. मूडी नामक विख्यात मनःचिकित्सक का नाम सुना है आपने? उनके अनुसंधान के विषय में भी पढ़ लीजिएगा।
चार्वाक अज्ञानता के उसी अंधे कुएं में जीवन खपा देने की सिफारिश करता है।
चार्वाक दर्शन मनुष्य को पशुओं की तरह भोगवादी जीवन जीने को कहता है। इसीलिए उसे 'शिश्नोदरवाद' कहा गया है। पशु में ज्ञानार्जन की चाह पैदा नहीं होती, मनुष्य में होती है। जिज्ञासा ज्ञान की पहली सीढ़ी है और मनुष्य की समस्त उपलब्धियां इसी से संभव हुई हैं।
वैज्ञानिक उपलब्धियां एक निश्चित प्रक्रिया का परिणाम होती हैं जिसमें परिकल्पना (Hypotheses), सैद्धांतिक अध्ययन (Theory), प्रयोग (Experiment), पर्यवेक्षण (Observation), विश्लेषण (Analysis) और निष्कर्ष/परिणाम (Result/Conclusion) इन छह चरणों का क्रमिक सूक्ष्म और भरपूर प्रयास हमें अंतिम निष्कर्ष तक पहुंचाता है लेकिन स्वयं को नास्तिक, अनीश्वरवादी या वैज्ञानिक विचारधारा का पृष्ठपोषक बताने वाले लोग इस प्रक्रिया का पालन आध्यात्मिक ज्ञान के क्षेत्र में करना बिल्कुल भी आवश्यक नहीं समझते। जबकि इसके बिना किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुंचा जा सकता है।

चार्वाक दर्शन भी भारतीय दर्शन का ही अंग है ,यह कहीं बाहर से नहीं आया। इसे समझने के लिए अन्य भारतीय दर्शनों का अध्ययन बहुत आवश्यक है जो कि एक दूसरे के पूरक हैं न कि विरोधी। मैने भी कुछ समय पूर्व चार्वाक पर एक पुस्तक पढ़ी थी जिसमें विस्तार पूर्वक इस दर्शन पर विचार किया गया था। जो सम्भवतः न्यायदर्शन से प्रभावित था। न्याय दर्शन को ही तर्कशास्त्र भी कहा जाता है। अधूरा ज्ञान अनर्थकारी होता है।

शिवभूषण सिंह गौतम यह वेदों और भारतीय षटदर्शन के पूर्व का दर्शन है भौतिक वादी होने से शास्त्रों में इसकी चर्चा विरोधी दर्शन के रूप में है लोकायत नाम भी है इस दर्शन का।

यही तो बैज्ञानिक सोच और तार्किक खोज है जिसके कारण परिणीती लोग इसका बिरोध करने और आखिरी में उसे नास्तिक नाम पुकारने लगते हैं करें भी क्यों न धंधे पर आंच आने लगतीहै

Saroj Kumar Bishal 'ॠणम् कृत्वा घृतम् पीवेत्’ चार्वाक की बात नहीं है। यह किसी दुष्ट ने चार्वाक दर्शन को बदनाम करने के लिए उनसे जोड़ दिया।

Rana Singh जितने भी दर्शन हैं सभी में दुष्ट घुसकर कुछ न कुछ खुराफात कर दिये हैं।

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