कुछ धूप, कुछ हवा, कुछ मिट्टी, कुछ पानी
देकर सींचते हैं जैसे सींचता है माली।
अंकुर पौधा, पौधा पेड़ बनने लगता है।
निकलने लगती हैं शाखाएं।
शाखाओं पर पंछी कलरव करने लगते हैं।
स्वाभिमान से सर ऊंचा हो जाता है।
अपने काम को कला मान बैठता है।
कला का सम्मान हो मांग बैठता है।
काम का वाजिब दाम दो कह उठता है।
आहत हो जाता है कोई,
औकात में रहो कह उठता है।
पर कवि की सृष्टि है।
मरती नहीं है।
नयीं जड़े पैदा कर लेती है
वरगद की तरह।
No comments:
Post a Comment