काव्स्यात्मा स एवार्थस्तदा चादिकवे: पुरा।
क्रौञ्चद्वन्द्ववियोगोत्थ:शोक: श्लोकत्वमागत:।।
दलितानां दशां दृष्ट्वा, सः आयाति कवेः न किम्।।
आचार्य आनन्दवर्धन ,ध्वन्यालोक /१/५
अर्थात् काव्य की आत्मा तो वही अर्थ है जब प्राचीन काल में क्रौंच पक्षी के जोड़े में से शिकारी द्वारा एक के मार दिये जाने के कारण जब दूसरा पक्षी विलाप कर रहा था उस वियोग के कारण संवेदन शीलता की पराकाष्ठा के कारण आदि कवि वाल्मीकि का हृदय का शोक श्लोक बन गया ।
यह विश्व में पहला लौकिक काव्य अभिव्यक्त होने का समय था ।यह पहला पहला संस्कृत का श्लोक था । यहां प्राचीन काव्यशास्त्र के आचार्य आनन्द वर्धन यह तो प्रमाणित कर रहे हैं कि कवि में स्वार्थ के स्थान पर परार्थ ही होता है कि वह दूसरे के दु:ख को अपना सके जिससे उसके हृदय का दु:ख ही भावनाओं में बहता हुआ वाणी का रूप ग्रहण करे । वह वाणी समाज में दुराचारी का सामुहिक बहिष्कार कर सदाचारी की प्रतिष्ठा करे
वह वाणी सत्य ,शिव और सुन्दर हो जोकि संसार में ऐसे कल्याण धारण किये हो जो कि जो किसी काल और स्थान की सीमा से दूर कालजयी समाज प्रेरक वाणी हो ।
इस श्लोक को आधार कर आदि कवि वाल्मीकि द्वारा रचित रामायण सनातन रूप से मानव मात्र को मार्ग दिखाती रहेगी कि" रामादिवद्वर्तितव्यं न रावणादिवत्" राम जैसा आचरण करो रावण जैसा नहीं ।इसलिये राम हमारे शाश्वत भाव है ।कहा गया है" धर्मस्य तत्वं निहितं गुहायां "अर्थात् धर्म का तत्व तो हमारे हृदय में रहता है वह राम का भाव ही हमारी भावनाओं में बहता ।विग्रहवान् धर्म हो जाता है इसलिये कहा है "रामस्तु साक्षाद्विग्रहवान् धर्म:"अर्थात् राम तो प्रत्यक्ष रूप से धर्म का शरीर धारण किये हैं ।
जय सियाराम 🙏
जय आदिकवि महर्षि वाल्मीकि 🙏
जय महाकवि गोस्वामी तुलसीदास 🙏
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