Thursday, 16 May 2019

नीर

हे नीर! ये तो बताओ
कहाँ से पायी है तुमने यह सरलता
नहीं है कणमात्र की कर्कशता।
कहाँ से पायी है तुमने यह तरलता
हर आकार में ढल जाते हो।
कहाँ से लाये हो यह रूप,
जिस रंग में मिलते हो वही हो जाते हो।
कहाँ से पाये हो यह ढलने की कला,
आग में हवा, शीत में पत्थर, धरा पे पानी।
कहाँ से पाये हो यह वाक्-चातुर्य,
सागर में मौन, सरित में कलकल, झरने पर गीत।
कहाँ से सीखा है कर्म-कौशल,
दे देते हो आकार मनचाहा तड़ाग को, नदी को, रत्नाकर को भी।
सरल हो, तरल हो, सहज भी हो
पर देखा है दुनियां ने तुम्हें चट्टानों को भेदते हुए।
तुम सुधीर हो, तुम सुतीर हो, तुम नीर हो।

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