Wednesday, 29 December 2021

चोट - ओमप्रकाश वाल्मीकि

पथरीली चट्टान पर
हथौड़े की चोट
चिंगारी को जन्‍म देती है
जो गाहे-बगाहे आग बन जाती है

सानौ सघन-घात
जनयति जातवेदं

.
आग में तपकर
लोहा नर्म पड़ जाता है
ढल जाता है
मनचाहे आकार में
हथौड़े की चोट में ।

एक तुम हो,
जिस पर किसी चोट का
असर नहीं होता ।

(फ़रवरी, 1985)

PC

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-     Udhar


Tuesday, 28 December 2021

गायत्री मंत्र

तत् सवितुर्वरेण्यं। भर्गोदेवस्य धीमहि। धियो यो न: प्रचोदयात्। (ऋग्वेद ३,६२,१०)

वेदों में शूद्र

रुचन्नो धेहि ब्राह्मणेषु रुचं राजसु नस्कृधि रुचं विश्येषु शूद्रेषु मयि धेहि रुचा रुचम् .. यजुर्वेद 18( 48 )
हमारे लिए ज्योति धारिए . ब्राह्मणों व क्षत्रियों में ज्योति स्थापित कीजिए . वैश्यों , शूद्रों में ज्योति स्थापित कीजिए . मेरे लिए ज्योति धारिए . मुझे ज्योतिष्मान बनाने की कृपा कीजिए .

छब्बीसवां अध्याय 
अग्निश्च पृथिवी च सन्नते ते मे सं नमतामदो 
वायुश्चान्तरिक्षं च सन्नते ते मे सं नमतामदऽ 
आदित्यश्च द्यौश्च सन्नते ते मे सं नमतामदs
आपश्च वरुणश्च सन्नते ते मे सं नमतामदः . 
सप्त संसदो अष्टमी भूतसाधनी . 
सकामाँ २ अध्वनस्कुरु संज्ञानमस्तु मेमुना .. ( १ ) 
अग्नि और पृथ्वी देव हमारे अनुकूल होने की कृपा करें . हमें आनंद प्रदान करनेकी कृपा करें। वायु और अंतरिक्ष देव हमारे अनुकूल होने की कृपा करें . हमें आनंद प्रदान करने की कृपा करें . आदित्य और स्वर्गलोक हमारे अनुकूल होने की कृपा करें . हमें आनंद प्रदान करने की कृपा करें . जल और वरुण देव हमारे अनुकूल होने की कृपा करें . हमें आनंद प्रदान करने की कृपा करें . सात संसद ( अग्नि , वायु , अंतरिक्ष , सूर्य , आकाश , जल और वरुण ) और आठवीं पृथ्वी को हमारे अनुकूल बनाने की कृपा करें . आप की कृपा से हमारे यज्ञ सकाम ( कामना को फलीभूत करने वाले हों . आप की कृपा से हमें संज्ञान ( श्रेष्ठ पूर्ण ज्ञान ) हो . ( १ )

 यथेमां वाचं कल्याणी मावदानि जनेभ्यः .
ब्रह्मराजन्याभ्यां शूद्राय चार्याय च स्वाय चारणाय च. 
प्रियो देवानां दक्षिणायै दातुरिह भूयासमयं मे कामः समृध्यतामुप मादो नमतु .. ( २ ) 
जैसे यह वाणी लोगों के लिए कल्याणकारी होती है , वैसे ही हमारे लिए कल्याणकारी हो . ब्राह्मण , क्षत्रिय , वैश्य , शूद्र के लिए आप की वाणी कल्याणकारी हो . ( २ ) हो . दक्षिणा देने वाले देवताओं के प्रिय हों . हमारी इच्छाएं फलीभूत हों . हमें आनंद प्राप्त हो।

बृहस्पते अति यदर्यो अर्हाद् द्युमद्विभाति क्रतुमज्जनेषु . यद्दीदयच्छवस ऽ ऋतप्रजात तदस्मासु द्रविणं धेहि चित्रम् उपयामगृहीतोसि बृहस्पतये त्वैष ते योनिर्बृहस्पतये त्वा .. ( ३ ) 
हे बृहस्पति देव ! आप यज्ञ में लोगों द्वारा पूजनीय हैं . आप स्वर्गलोक में सुशोभित होते हैं . आप सब के स्वामी होने योग्य हैं . आप ॠत और इच्छा शक्ति से सारी प्रजा की रक्षा करते हैं . आप हमें श्रेष्ठ धन प्रदान करने की कृपा कीजिए . आप 
३२२ यजुर्वेद

Wednesday, 1 December 2021

दलित दूल्हा

दलित दूल्हा था,
यह बात पक्की है।
सवर्ण घोड़ी थी।
यह कौन जानता है?
कुछ कट्टर हिन्दू थे,
यह बात पक्की है।
दूल्हे पर क्या बीती,
यह कौन जानता है?
दूल्हे को उतारा गया,
यह बात पक्की है।
भारत घायल हुआ,
यह कौन जानता है?
जातंकवाद जिंदा है,
यह बात पक्की है।
इसका हल क्या है?
यह कौन जानता है?
भारत के हत्यारे वे,
यह बात पक्की है।
तुम चुप क्यों हो?
बात कौन जानता है?
जातंक कभी तो रुकेगा,
यह बात पक्की है।
यह सब कैसे होगा?
सारा जग जानता है।

डॉ रामहेत गौतम

Monday, 15 November 2021

ऊदा देवी शहादत

सोलह नवंबर अठारह सौ सन सत्तावन,
लखनऊ के लड़ाके और लखनऊ वन।
32 अंग्रेज मार गिराए ऊदा ने तत्क्षन,
गौतम करत नमन् नित्-नित् पुरखिन!।।RG

Tuesday, 9 November 2021

जेब कतरों से सावधान

जेब कतरा बस में चढ़ कर- 
अपने सामान की रक्षा स्वयं करें।
सभी लोग अपनी-अपनी जेब टटोलते रहें। 
जेब कतरो से बचें।
कुछ देर बाद पता चला कि 
जिन-जिन लोगों ने जेब टटोली थी 
उनकी जेब कट चुकी है।
गौतम जी!
जेब कतरों से सावधान।

माला तज भाला धारे RG

माला लज भाला धारे 
दुर्व्यवस्था के हत्यारे। 
 इन्द्र आराधकऋत्विज
 शस्त्र धारी हुए द्विज।
वर्णव्यवस्था भंग हुई 
जाति व्यवस्था प्रचण्ड हुई।
वर्ण-जाति धर्म भंग हुआ 
मानव धर्म सुगम्य हुआ। 
हर स्त्री शिक्षित हो रही। 
अब न पुरुष को ढो रही। 
न स्वामी न दास कोई 
जनता चाहे वह अब होई। 
मनु विधान अब बीत रहा 
संविधान अब जीत रहा।
आओ सब मुलाकात करें।
भारत भावे ऐसी बात करें। 
भारत की जय संविधान की
भारत के स्वाभिमान की।
गौतम रामहेत सागर वारे
जय भीम जय भारत धारे।

Saturday, 6 November 2021

दिवाई RG

घर की मरम्मत
साफ-सफाई,
टाल-टकोरा,
लिपाई-पुताई,
नई नाथ-पगहा,
नई गरथनी-मुढ़राई,
नये कपड़ा-लत्ता,
कपड़ों की धुलाई,
नये वर्तन-भांडे,
नई-नई मिठाई,
नये दिया-ग्वालिन
चौकी चौक पुराई,
नई चीज-बसत,
नरक-यम दिवाई,
खेतमेंड़ पर दिया
घूरे पर भी दिवाई,
द्वारे पर दिया 
आंगन में दिया,
मणिया में दिया
चीज-बसत पुजाई,
घर-घर भोजन बंटाई,
गैया-बैल की पूजा,
बरेदी वाली नचाई,
गोधन पूजा 
गोबर दोज पुजाई
जीजी आवें
फिर विदाई।
ऐसी मनती रही
सदियों से दिवाई।

दीपावली बौद्ध त्योहार नहीं

मैं एस चंद्रा बौद्ध जी की बात का समर्थन करता हूं। जो लोग दीपावली मनाना चाहते हैं, उन्हें दीपावली मनाने देनी चाहिए। आखिर हमें सभी धर्मों का सम्मान करना चाहिए और जिसका जो त्यौहार और पर्व है, उसे मनाने का उसे अधिकार है। लेकिन बौद्ध धर्म में इसको लेकर जोड़ देना और दीपावली मनाने के नाम पर दीपदान उत्सव की पाखंडपूर्ण नौटंकी करना, यह गलत है। जिन बौद्धों को दीपावली मनानी है, तो मनाइए, आपको कौन रोक रहा है। लेकिन दीपावली के नाम पर तथागत गौतम बुद्ध का नाम लेना, सम्राट अशोक का नाम लेना और उससे जोड़ना और उसे दीपदानोत्सव के नाम पर मनाना, यह गलत है। साथ में बाबा साहब डॉ भीमराव अंबेडकर का नाम लेकर बौद्ध धर्म से जोड़ देना यह गलत है। बौद्ध समाज के लोगों को इससे बचना चाहिए। यदि दीपदान उत्सव होता, तो यह बौद्ध देशों में मनाया जा रहा होता और अगर इसमें सच्चाई होती तो भारत के जो हिमालयी क्षेत्रों जैसे लाहौल स्पीति किन्नौर में और लद्दाख के क्षेत्र में और उत्तरपूर्व भारतीय क्षेत्र में जो बहुत सारे बौद्ध धर्म के लोग रहते हैं, वे इसको सदियों से बुद्ध पूर्णिमा की तरह मनाते चले आते। इसके अलावा जो परंपरागत बौद्ध समाज के लोग हैं, जैसे बरुआ, चकमा आदिवासी समाज के लोग भी दीपावली मनाते, जबकि वे लोग सदियों से बौद्ध हैं। किसी भी बौद्ध देश में दीपावली नहीं मनाई जाती है। अगर दीपदान उत्सव का संबंध सम्राट अशोक और उसके 84000 स्तूपों के उद्घाटन से जुड़ा होता, तो फिर यह पर्व सम्राट अशोक हर वर्ष मनाता। लेकिन यदि उन्होंने जिस दिन इन स्तूपों का उद्घाटन किया होगा, उस दिन दीए जलाए होंगे। सम्राट अशोक के ऊपर लिखित सभी ग्रंथों में प्रतिवर्ष इस तरह के दीपदान उत्सव मनाए जाने का कोई उल्लेख नहीं है। और सबसे बड़ी बात यह है कि श्रीलंका में जो बौद्ध धर्म पहुंचा है, वह सम्राट अशोक के द्वारा ही पहुंचा है, वहां पर कोई भी दीपावली का उत्सव नहीं मनाया जाता है। इसके अलावा किसी भी प्राचीन पालि त्रिपिटक के बौद्ध ग्रंथों और उसकी अटकथाओं आदि में बौद्धों के द्वारा दीपावली मनाने का कोई संदर्भ एवं उल्लेख नहीं मिलता है। आज इस मामले पर मैंने कई लोगों से बातचीत की है, जिसमें नागपुर के विश्व विख्यात अंबेडकरवादी चिंतक प्रोफेसर प्रदीप आगलावे सर, अम्बेडकरवादी महिला चिंतक डॉ सरोज आगलावे मैडम, नागपुर के अंबेडकरवादी बौद्ध कार्यकर्ता श्री पी एस खोबरागड़े सर, नागपुर के अंबेडकरवादी मिशनरी कार्यकर्ता श्री सुधीर मेश्राम जी, दिल्ली राजस्थान कर्नाटक महाराष्ट्र बिहार में बहुजन समाज पार्टी के प्रदेश प्रभारी रहे डॉ लालजी मेधनकर जी, दिल्ली में साहित्यिक श्री उमराव सिंह सर, दिल्ली विश्वविद्यालय में माता सुंदरी कॉलेज में दर्शनशास्त्र पढ़ा चुके डॉ भरत कुमार भारती जी, गौतम बुद्ध विश्वविद्यालय में बौद्ध अध्ययन विभाग के वरिष्ठ सहायक प्रोफेसर व पालि विषय के जाने-माने राष्ट्रपति पुरस्कार प्राप्त विद्वान डॉ ज्ञानादित्य शाक्य जी, दिल्ली में श्री मुकेश गौतम जी, श्री विजय बौद्ध जी, सुषमा पाखरे ताई आदि शामिल हैं। उन लोगों ने दीपदान उत्सव मनाए जाने का खंडन किया है और इसको गलत परंपरा बताया है। दीपदान उत्सव की यह पाखंड पूर्ण नौटंकी फुले शाहू आंबेडकर मूवमेंट को कमजोर करने का एक षड्यंत्र है। यह बाबा साहब डॉ भीमराव अंबेडकर के विचारों के खिलाफ है और तथागत गौतम बुद्ध के दर्शन व धर्म को एक तरीके से नष्ट कर देने जैसा है।

दीपावलीअथवा 'दीपदानोत्सव' की ऐतिहासिकता:—

आयु,. पंकज कुमार की एक पोस्ट 
के कॉमेंट से नीचे उधृत जानकारी मिली है।
Upendra Prasad दीपावलीअथवा 'दीपदानोत्सव' की ऐतिहासिकता:—
(डॉ० राहुल राज, असि० प्रोफेसर, बी०एच०यू०, वाराणसी)
ऐतिहासिक दृष्टि से देखा जाय तो 'दीपावली' को 'दीपदानोत्सव' नाम से जाना जाता था और यह वस्तुतः एक बौद्ध पर्व है जिसका प्राचीनतम वर्णन तृतीय शती ईसवी के उत्तर भारतीय बौद्ध ग्रन्थ 'अशोकावदान' तथा पांचवीं शती ईस्वी के सिंहली बौद्ध ग्रन्थ 'महावंस' में प्राप्त होता है। सांतवी शती में सम्राट हर्षवर्धन ने अपनी नृत्यनाटिका 'नागानन्द' में इस पर्व को 'दीपप्रतिपदोत्सव' कहा है। कालान्तर में इस पर्व का वर्णन पूर्णतः परिवर्तित रूप में 'पद्म पुराण' तथा 'स्कन्द पुराण' में प्राप्त होता है जो कि सातवीं से बारहवीं शती ईसवी के मध्य की कृतियाँ हैं। तृतीय शती ईसा पूर्व की सिंहली बौध्द 'अट्ठकथाओं' पर आधारित 'महावंस' पांचवीं शती ईस्वी में भिक्खु महाथेर महानाम द्वारा रचित महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है। इसके अनुसार बुद्धत्व की प्राप्ति के बाद तथागत बुद्ध अपने पिता शुद्धोदन के आग्रह पर पहली बार कार्तिक अमावस्या के दिन कपिलवस्तु पधारे थे। कपिलवस्तु नगरवासी अपने प्रिय राजकुमार, जो अब बुद्धत्व प्राप्त करके 'सम्यक सम्बुद्ध' बन चुका था, को देख भावविभोर हो उठे। सभी ने बुद्ध से कल्याणकारी धम्म के मार्गों को जाना तथा बुद्धा की शरण में आ गए। रात्रि को बुद्ध के स्वागत में अमावस्या-रुपी अज्ञान के घनघोर अन्धकार तो प्रदीप-रुपी धम्म के प्रकाश से नष्ट करनें के सांकेतिक उपक्रम में नगरवासियों नें कपिलवस्तु को दीपों से सजाया था। किन्तु 'दीपदानोत्सव' को विधिवत रूप से प्रतिवर्ष मनाना 258 ईसा पूर्व से प्रारम्भ हुआ जब 'देवनामप्रिय प्रियदर्शी' सम्राट अशोक महान ने अपने सम्पूर्ण साम्राज्य, जो कि भारत के अलावा उसके बाहर वर्तमान अफ़ग़ानिस्तान और मध्य एशिया तक विस्तृत था, में बनवाए गए चौरासी हज़ार विहार, स्तूप और चैत्यों को दीपमाला एवं पुष्पमाला से अलंकृत करवाकर उनकी पूजा की थी। 'थेरगाथा' के अनुसार तथागत बुद्ध ने अपने जीवनकाल में बयासी हज़ार उपदेश दिये थे। अन्य दो हजार उपदेश बुद्ध के शिष्यों द्वारा बुद्ध के उपदेशों की व्याख्या स्वरुप दिए गए थे। इस प्रकार भिक्खु आनंद द्वारा संकलित प्रारम्भिक 'धम्मपिटक' (जो कालान्तर में 'सुत्त' तथा 'अभिधम्म' में विभाजित हुई) में धम्मसुत्तों की संख्या चौरासी हज़ार थी। अशोक महान ने उन्हीं चौरासी हज़ार बुद्धवचनॉ के प्रतिक रूप में चौरासी हज़ार विहार, स्तूप और चैत्यों का निर्माण करवाया था। पाटलिपुत्र का 'अशोकाराम' उन्होंने स्वयं अपने निर्देशन में बनवाया था। इस ऐतिहासिक तथ्य की पुष्टि 'दिव्यावदान' नामक ग्रन्थ के उपग्रन्थ 'अशोकावदान' से भी हो जाती है जो कि मथुरा के भिक्षुओं द्वारा द्वितीय शती ईस्वी में लिखित रचना है और जिसे तृतीय शती ईस्वी में फाहियान ने चीनी भाषा में अनूदित किया था। पूर्व मध्यकाल में हिन्दू धर्म के पुनरुत्थान के साथ इस बौद्ध पर्व में मूल तथ्य के स्थान पर अनेक नवीन कथानक जोड़कर इसे हिन्दू धर्म में सम्मिलित कर लिया गया तथा शीघ्र ही यह हिन्दुओं का प्रचलित त्यौहार बन गया।
सन्दर्भ -
K.R. Norman (Tr.) 'Elders Verses' translation of Theragatha,Pali Text Society, Oxford,1995, verse- 1022
T.W. Rhys Davids (1901), 'Ashoka and the Buddha Relics', Journal of the Royal Asiatic Society, Cambridge University Press, UK, pp.397-410
John S. Strong (1989), 'The Legend of King Aśoka: A Study and Translation of the Aśokāvadāna', Motilal Banarsidass, New Delhi ISBN 978-81-208-0616-0
John S. Strong (2004), 'The Relics of the Buddha', Motilal Banarsidass, New Delhi, ISBN 978-81-208-3139-1, p.136

MP ahirwar bhu
सोसल मीडिया में दीवाली और दीप दानोत्सव की बहस के बीच मेरे गांव की दीवाली का स्मरण
आज हिन्दुओं में दीवाली के उत्सव की धूम मची है तो दूसरी ओर बौद्धों और अम्बेडकरवादियों द्वारा व्यापक पैमाने पर दीप दानोत्सव मनाये जाने और उसके विरोध की खबरें सोसल मीडिया में छायी हुई हैं।
हिन्दुओं की दीवाली मनाये जाने की अनेक कपोल कल्पित अवधारणाएं हैं जिनमें से एक यह है कि जब श्रीराम 14 वर्ष के वनवास और लंका विजय के बाद अयोध्या लौटे तो वहां के लोगों ने उनके आगमन पर दीप जलाये यद्यपि, रामायण में आये उल्लेख के अनुसार राम की अयोध्या वापसी बैशाख में हुई थी न कि कार्तिक मास में। इसका मतलब साफ है कि इस कहानी में कहीं झोल है।
वहीं बौद्ध-अम्बेडकरवादियों द्वारा आज के दिन को 2260 वें दीपदानोत्सव के रूप में मनाया जा रहा है। उनके आज के दिन को उत्सव के रूप में मनाये जाने के दो आधार हैं। पहली मान्यता और उसका तार्किक आधार यह है कि "तथागत बुद्ध ने ज्ञान प्राप्ति के 17 वर्ष बाद पहली बार जब अपने गृह नगर कपिलवस्तु लौटे तो नगर वासियों ने उनके स्वागत में दीप जलाये।" बौध्द-अम्बेडकरवादियों द्वारा दीपोत्सव मनाने का दूसरा आधार बताया जाता है कि "सम्राट अशोक ने अपनी धम्म विजय की उद्घोषणा के बाद भगवान बुद्ध के दिये 84 हजार उपदेशों को जीवंत और चिरस्थायी बनाये रखने के लिए 84 हजार स्तूपों, विहारों आदि का निर्माण करवाया और कार्तिक अमावस्या के ही के दिन उन सभी स्तूपों को दीप और फूलमालाओं से सजाकर उनका उद्घाटन किया। उस दिन सभी नगर और गाँवों को भी दीपों और फूलमालाओं से सजाया गया और पूरे साम्राज्य में उत्सव मनाया गया।" तभी से पूरे देश में इस दिन त्यौहार के रूप में मनाया जाने लगा। 
पहली मान्यता का कोई तार्किक आधार नहीं है और न ही इससे जुड़े तथ्य प्राप्त होते हैं क्योंकि भगवान बुद्ध के प्रथम नगरागमन का समय और कार्तिक अमावस्या की तिथि से कोई मेल नहीं है।
दूसरी घटना अर्थात सम्राट अशोक के निर्माण कार्यों के उद्घाटन समारोह को उत्सव के रूप में मनाये जाने की प्रामाणिकता असंदिग्ध है किन्तु तिथि को लेकर अभी भी असमंजस बना हुआ है। यह भी कि क्या तथागत बुद्ध के कपिलवस्तु आगमन की तिथि और सम्राट अशोक के स्तूपों के निर्माण कार्य पूर्ण होने की तिथि कार्तिक अमावश्या ही थी या फिर कोई अन्य।
यहाँ पर एक खास बात जिसपर किसी का ध्यान अभी तक नहीं गया है और न ही कोई चर्चा करता है, वह यह कि इस बात की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता है कि कलिंग युद्ध की विजय के बाद सम्राट अशोक महान ने जिस धम्म विजय की घोषणा की उसके और दीवाली में मात्र 20 दिनों का अंतर है। अतः बहुत संभव है कि कलिंग विजय से राजधानी लौटने के बाद सम्राट ने धम्म विजय का उत्सव भी किया हो। उसे वहां से भारी भरकम फौज के साथ लौटने में कुछ समय तो लगा होगा और अनेक ऐतिहासिक तथ्यों से पता चलता है कि राजागण अपने अभियान से जब लौटते थे तो वह पहले नगर के बाहर छावनी डालते थे तदुपरांत नगरवासी उनके आगमन का उत्सव और अभिनंदन समारोह करते थे। "धम्मविजय की घोषणा" अपने आप में अभूतपूर्व थी ऐसे में सम्राट की नगर वापसी भी खास बन गयी होगी इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता। चूँकि, धम्म विजया दशमी और दीवाली के बीच समय का बहुत अंतर नहीं है अतः इस बात की संभावना को नजरअंदाज भी नहीं किया जा सकता है। कि सम्राट अशोक ने कालांतर में जो निर्माण कार्य सम्पन्न किया उनके उद्घाटन के लिए उसी तिथि का चुनाव किया हो जब उसने धम्म विजय की घोषणा के बाद नगर वापसी की थी। हो सकता है और इस बात की संभावना है कि सम्राट अशोक के धम्म विजय के बाद राजधानी में वापसी की घटना को श्रीराम की अयोध्या वापसी की घटना से जोड़कर प्रचारित किया गया हो। प्रत्यक्षतः श्रीराम के अधर्म पर धर्म की विजय (तथाकथित) के बाद नगर वापसी की कहानी उक्त ऐतिहासिक घटना की नकल प्रतीत होती है। दूसरी ओर हिन्दू मान्यता के अनुसार श्रीराम का अयोध्या आगमन बैशाख माह में बताया जाता है यदि ऐसा है तो फिर कार्तिक मास की अमावस्या को उनके आगमन की घटना पर दीवाली का जश्न न तो तार्किक है और न ही तथ्यपरक।

 कतिपय लोग अन्य देशों में इस दिन दीवाली नहीं मनाये जाने और बाबा साहब डॉ आंबेडकर द्वारा दीवाली नहीं मनाये जाने को भी अपने ठोस तर्क के रूप में प्रस्तुत करके दीपदानोत्सव मनाने वाले बौद्धों व अम्बेडकरवादियों को खरी खोटी सुनाते हैं तथा उन्हें छद्म बौद्ध-अम्बेडकरवादी कहकर हिन्दुओं की दीवाली मनाने के बहाना ढूंढ़ने वाले ढोंगी करार देते हैं। इस दिशा में अभी भी प्रामाणिक शोध अपेक्षित है, हाँ इतना जरूर कहा जा सकता है कि एक प्रतीक के रूप में दीपक और पुण्य तिथियों के रूप में किसी भी अमावश्या, पूर्णिमा और अष्टमी तिथियां बौद्ध धम्म और संस्कृति का अभिन्न हिस्सा हैं। यह भी की बौद्ध धम्म और श्रमण परंपरा के उत्सवों, त्यौहारों और प्रतीकों को विकृत अथवा आत्मसात करके हिन्दू धर्म परम्परा ने पूरी तरह ध्वस्त कर दिया है जिससे उनके वास्तविक स्वरूप एवं महत्व को ढूंढना और समझना आज के युग में बहुत कठिन हो गया है। बहरहाल, यहाँ मेरा मकसद बचपन से लेकर अभी तक मेरे परिवार और गांव की दीवाली कैसी होती है उसका पुनरावलोकन करना है-

मेरे परिवार और पैतृक गाँव की दीवाली जिस रूप में मनायी जाती रही है वह बिना किसी परिवर्तन के आज भी उसी रूप में मनायी जाती है। कार्तिक मास मुख्यत: खरीफ फसलों के आगमन का मास होता है। गाँव में नई फसल के आगमन से पूरा वातावरण उल्लासमय होता है किन्तु विशेष बात यह है कि किसी भी घर में दीवाली के पहले किसी भी नये खाद्यान्न को भोजन के लिए नहीं पकाया जाता है। कार्तिक अमावश्या को शाम को गोधूलि के समय में गाँव के प्रत्येक घर आंगन में जगह-जगह तेल अथवा घी के दिये जलाये जाते हैं। दिये रखने की शुरुआत या पहला दिया अपने पूर्वजों/आराध्य देवी-देवताओं (इनमें कोई भी हिन्दू धर्म के देवी-देवता शामिल नहीं हैं) के लिये बनाये गये प्रतीकों के पास रखा जाता है। इन देवी देवताओं का निर्धारण कुल अथवा गोत्र के आधार पर होता है। यह देवी-देवता स्वाभाविक तौर पर कुल, गोत्र और परिवारिक परंपरा के अनुरूप एक दूसरे कुल, गोत्र अथवा परिवार से भिन्न होते हैं और इनकी पूजा भी भिन्न-भिन्न तरीके से होती है। इन देवी-देवताओं की मूर्तियां किसी भी घर में नहीं होती हैं बल्कि उनके प्रतीक मिट्टी के बने छोटे-छोटे ढूहों के रूप में अथवा लकड़ी के खंभों के रूप में प्रत्येक घर के भीतरी कक्ष में एक कोने में अथवा आंगन में बने होते हैं। यहाँ पर जलाये गये दिये न बुझने पायें इसका विशेष ध्यान रखा जाता है। रात को इन पूर्वजों और आराध्यों की विशेष पूजा होती है जिसमें विशेष तौर पर नये धान के चावल के आटे से बने 'फरे' (फरा= नये चावल के आटे को गूँथकर बनाया गया विशेष व्यंजन जिसे भाप में पकाया जाता है) चढ़ाये जाते हैं। माना जाता है कि खेत से नई फसल आने के बाद उसे अपने आराध्य देवताओं को अर्पण के बाद ही ग्रहण करना शुभ एवं फलदायी है। यह प्रकृति के प्रति विशेष सम्मान का द्योतक भी है। उसके बाद परिवार के सभी लोग रात्रि का भोजन करते हैं इसी के साथ रबी में बोए जाने वाले नये फसलों से प्राप्त खाद्यान्नों को भोजन के रूप में ग्रहण करने की शुरुआत हो जाती है। रात को प्रत्येक गाँव का ग्वाला अपने दल के साथ बांसुरी व अन्य विभिन्न वाद्य यंत्रों के साथ ग्राम देवता, खेर माता के स्थान पर जाकर खीर चढ़ाता है और देव जागरण के बाद घर घर जाकर विशेष नृत्य (अहीरी नृत्य) और गीतों के माध्यम से जागरण करते हैं। उसके हाथों में बांस के बने एक बड़े से डंडे के एक सिरे पर विभिन्न प्रकार की वनस्पतियों की टहनियां गाय की पूंछ के बाल से बनाई रस्सी से बंधी हुई होती हैं। जिसे वे प्रत्येक घर के हर कमरे अथवा घर के कोने कोने में ले जाकर घूमाते हुए तेज आवाज में "हुई भूली" कहते हैं।
अमावश्या के दूसरे दिन दोपहर को नये धान अथवा कोदो के चावल से भात (पका चावल) पकाया जाता है और उसे बैलों को सुसज्जित कर (सींगों को रंगे जाते हैं, शरीर में छाप आदि लगाकर और फूलों की मालाएं गले में बांधी जाती हैं) ससम्मान खिलाया जाता है। इसके अलावा और भी कई तरह के विशेष व्यंजन बनाये जाते हैं। इसके बाद सभी लोग दोपहर में अपने-अपने पशुओं को लेकर खेरखा(वह स्थान जहां प्रतिदिन सुबह के वक्त गाँव वाले अपने पशुओं को खड़ा करते हैं) पर पहुंचते हैं। गाँव की महिलाएं सिर पर कलश लिए गीत गाते हुए जाती हैं और कुछ किशोरवय के युवक नई धोती पहने, गले में फूलों की माला पहने तथा हाथों में जानवरों के पूँछ से बनी हुई विशेष रस्सी धारण किये व अन्य प्रकार से सुसज्जित होकर पहुंचते हैं। ऐसे युवक उस दिन उपवास रखते हैं। जब गाँव के प्रत्येक घर के लोग अपने पशुओं के साथ नियत स्थान पर पहुँच जाते हैं तो ये युवक वहां अगरबत्ती वगैरह जलाकर ग्राम देवता को स्मरण करते हैं और बछिया (she calf) को माला पहनाकर उसके चारों पैरों के नीचे से तीन बार झुक कर या फिर लेटकर गुजरते हैं। इस प्रक्रिया को पूर्ण करने के साथ वे सभी किशोरवय युवक मौन धारण कर लेते हैं। इसके बाद गाँव का ग्वाला जो वर्षपर्यंत गांव वालों के मवेशी चराता है वह आता है, उसका नृत्यगीत होता है तदुपरांत वह एकत्र मवेशियों को विभिन्न वनस्पतियों की टहनियों से युक्त विशाल बांस के डंडे को घूमते हुए "हू हा.." कहते हुए तितर-बितर करता है। मौन धारी किशोर/युवक सभी पशुओं को लेकर जंगल की ओर उन्हें चराने ले जाते हैं। इसे मौनी चराना कहते हैं। (इसे वे बारह वर्षों तक प्रत्येक दीवाली में करते हैं)। इसके बाद गाँववासी वापस लौट जाते हैं और फिर किसी एक स्थान पर एकत्र होकर पुरुष "सैला" और महिलाएं ''रीना" नाचती-गाती हैं। ये दोनों नृत्य मध्य्प्रदेश के प्रमुख आदिवासी नृत्य के रूप में जाने जाते हैं। इस तरह वे शाम होने तक हर्षोल्लास में डूबे रहते हैं। शाम को सभी ग्रामवासी स्त्री, पुरुष बच्चे पुनः कलश धारण किये पारंपरिक लोकगीत गाते हुए अपने मवेशियों और ग्वाले की भूमिका निभाने गये किशोरों युवकों की अगवानी के लिए उसी स्थान पर पहुंचते हैं जहाँ से उन्होंने उन्हें जंगल के लिए बिदा किया था। वापसी में युवक बछिया के पैरों के नीचे से लेटकर चार बार गुजरने के बाद अपना मौन तोड़ते हैं और ग्रामदेवता के समक्ष नारियल फोड़कर जंगल से अपने साथ लाये विभिन्न प्रकार के जंगली फल प्रसाद के रूप में सभी को बांटते हैं। तत्पश्चात सभी ग्रामवासी हर्षोल्लास के साथ लोकगीत गाते हुए वापस लौट आते हैं। घरों में लौटकर मौनी चराने वाले किशोर/युवक अपने परिजनों, निकट संबंधियों और पड़ोसियों के यहां जाकर वही प्रसाद वितरण करते हैं और उनसे शुभकामनाएं प्राप्त करते हैं। रात्रि को हर परिवार अपनी हैसियत के अनुरूप विशेष रूप से तैयार व्यंजनों को ग्रहण कर रात्रि विश्राम करते हैं और अगली सुबह फिर से अपने खेती बाड़ी के काम में लग जाते हैं।
दीवाली के नाम पर मेरे गाँव में इसके अलावा और कुछ भी नहीं होता है न गणेश पूजा और न ही लक्ष्मी पूजा और न ही हिन्दू धर्म के किसी भी देवी देवता की पूजा। इसे आप कौन सी दीवाली का नाम देंगे यह मैं आपके ऊपर छोड़ता हूँ। किन्तु यह बात मेरे समझ से परे है कि आज कार्तिक अमावस्या अथवा दीवाली ही सही अगर कोई व्यक्ति हिन्दू धर्म के अंधविश्वास और कर्मकांडों से मुक्त होकर बुद्ध और बाबा साहब अम्बेडकर की तस्वीरों के समक्ष मोमबत्तियां जलाकर त्रिशरण और पंचशील का पाठ करने लगा है तो क्या उससे बौद्ध परंपरा में दीवाली मनाये जाने का प्रमाण माँगा जाना अपेक्षित है? बहुत से लोग कहते हैं कि अगर दीवाली के दिन बुद्ध के प्रति सम्मान व्यक्त करना है तो बुद्ध विहारों में जाकर दिये जलाओ। आज कुछ गिने चुने शहरों और गांवों को छोड़कर भला कहाँ मिलेंगे बुद्ध विहार जबकि हिन्दू अंधविश्वासों, कर्मकांडों और मंदिरों में प्रवेश पर प्रतिबंध और नाना प्रकार के उत्पीड़न से तंग आकर लोग गांव-गांव में बुद्ध और बाबा साहब के अनुयायी बन चुके हैं। ऐसे में अगर लोग अपने घर पर भी दीप प्रज्वलित कर बुद्ध और बाबा साहब के विचारों का अनुगामी होने और उनपर चलने की प्रतिज्ञा लेते हैं तो भला वे कौन सा गुनाह करते हैं ?
(यह आलेख पुराना है इस बार इसे आंशिक रूप से इसे संपादित किया गया है। सभी छायाचित्र गूगल से लिये गये हैं)

Wednesday, 3 November 2021

बगावत RG

 बगावत 
खेतों पर तुम्हारा कब्जा
कुएं पर भी कब्जा तुम्हारा था।
भैंस तुम्हारी थी क्योंकि
लाठी तुम्हारी थी।
रोटी पर कब्जा तुम्हारा था
बेदर्दी भूख हमारी थी।
जब दरकार थी दो रोटी की
तुमने बेगार कराई थी।
जब ख्वाहिश थी दो कपड़े की
तुमने मजदूरी में उतरन थमाई थी।
जब बेटे ने दो सवाल कर दिए तो
तुमने खाल उधड़वाई थी।
जब बेटी सयानी हुई
तुम्हीं ने घर-खेतों में सताई थी।
सीढ़ी चढ़े जब मन्दिर की
तुमने गौमूत्र से धुलवाई थी।
जब मन न हुआ काम पर जाने का
तुमने पोंदों की खाल उधड़वाई थी।
बीमारी में कुछ रुपये ही तो उधार लिए थे
तुमने खेत-मढ़ैया अपने नाम लिखाई थी।
बच्चों का मन था कि घोड़ी पर बारात हो
तुम्हारे आतंक में रस्म भी न हो पाई थी।
मूँछ का शौंक लगा जब बेटे को
तुमने गुस्ताख़ी समझ वो भी मुड़वाई थी।
दाऊ-महाराज कह खटिया से उठने में देर क्या हुई,
तुमने बहू-बेटियों-बच्चों तक पर लाठी चलाई थी।
कुत्ते तुम्हारी बराबरी से बैठ सकते, चल सकते
पर हमको तो तुमने औकात दिखाई थी।
फिर कोई आया मसीहा की तरह
मरुस्थल में मेघों की तरह कुछ छाया, कुछ बूँदे थीं।
दो बोरी अनाज था और दो लाठियाँ भी
दो मीठे बोल थे और गले भी लगाया था।
तब हमें खोने को कुछ भी न था
पाने को तो पूरी दुनिया की आस थी।
उम्मीद में तो तुम्हारे दादाओं ने क्या नहीं किया?
धन दिया, रियासतें दीं और बेटियाँ भी दीं थीं।
तुमसे ही तो सीखा है अपना ख्याल रखना
दो बोरी में धर्म नहीं बदला, बगावत की थी।
मुझे छोड़ो उनका तो ख्याल रखो
जो जी रहे हैं कुछ बदलने की आस में
बेशर्मी छोड़ो, सहिष्णुता लाओ
दुत्कारो मत, मान दो, गले लगाओ।
बहुसंख्यक हो जिनकी बदौलत
अब तो रुको, बाड़ मत चबाओ।
खैर तुम तुम हो बदलना तुम्हें है
अच्छे पड़ोसी की अब भी दरकार हमें है।
Dr. Ramhet Gautam, Sagar MP

Monday, 1 November 2021

Sanskrit origine

Dr. Rajendra prasad singh

जैसा कि मैंने कहा कि संस्कृत एक भाषा के रूप में ईसा के बाद अस्तित्व में आई है।

आइए, इसे शिलालेखों से सिलसिलेवार जाँच करें।

इस सिलसिले में हमें सबसे पहले गांधार क्षेत्र में मौजूद तीसरी शती ई. पू. के शाहबाजगढ़ी शिलालेख का अध्ययन करना चाहिए।

सम्राट अशोक के शिलालेखों में जो " धम्म " है, वही शाहबाजगढ़ी में " ध्रम " है, यही ईसा के बाद रुद्रदामन के शिलालेख में संस्कृत का " धर्म " हो गया है।

सम्राट अशोक के शिलालेखों में जो " पियदसि " है, वही शाहबाजगढ़ी में " प्रियद्रशि " है, यही ईसा के बाद वाल्मीकि रामायण में " प्रियदर्शी " हो गया है।

अशोक के शिलालेख तीसरी शती ई. पू. के हैं। अब हमें दूसरी शती ई. पू. के शिलालेखों का अध्ययन करना चाहिए। इसके लिए हम बेसनगर का गरुड़ध्वज अभिलेख को लेते हैं। यह अभिलेख प्राकृत मिश्रित संस्कृत में है, जिसमें संस्कृत तत्व कम हैं। इस अभिलेख की अंतिम पंक्ति है - नेयंति दम - चाग अप्रमाद। यही वाक्यांश ईसा के बाद महाभारत में संस्कृत का " दमस्त्यागोप्रमादश्च " ( 5/43/23 ) हो गया है।

दूसरी शती ई. पू. के बाद हमें प्रथम शती का शिलालेख देखना चाहिए। इसके लिए हमें धन का अयोध्या अभिलेख की जाँच करनी चाहिए। यह अभिलेख भी प्राकृत और संस्कृत का मिश्रण है जैसे कि इसमें संस्कृत नियमानुसार " पुष्यमित्रात् " होना चाहिए, किंतु प्राकृत के  कारण " पुष्यमित्रस्य " लिखा है।

अभी तक ईसा से पहले के जितने भी शिलालेखों का अध्ययन किया गया, सभी प्रमाणित करते हैं कि ईसा से पहले बतौर भाषा संस्कृत का एक भी शिलालेख नहीं है, सभी प्राकृत के हैं और कुछ - कुछ  पिजिन संस्कृत जैसे हैं।

अब आइए, ईसा के बाद का रुद्रदामन के शिलालेख का अध्ययन करते हैं। इसमें बतौर भाषा संस्कृत मौजूद है। इसीलिए मैं कहता हूँ कि बतौर भाषा संस्कृत का अस्तित्व ईसा से पहले नहीं था।

हमारे यहाँ उल्टा खूब चलता है। भाषावैज्ञानिकों ने बगैर सोचे - समझे बता दिए हैं कि ईसा के पूर्व के कुछ शिलालेख संस्कृत से प्रभावित हैं। दरअसल वे शिलालेख संस्कृत से प्रभावित नहीं हैं। ईसा से पहले संस्कृत भाषा थी ही नहीं, फिर प्रभावित होने की बात ही गलत है। सही बात यह है कि वह प्राचीन ईरानी और प्राकृत के मिश्रण से निर्माणाधीन थी, जिसे हम पिजिन संस्कृत कह रहे हैं।

आप ध्यान दीजिए ईसा के प्रथम शती और उसके कुछ आगे की भाषा को मिश्रित संस्कृत का काल कहा जाता है। इस मिश्रित संस्कृत में अनेक बौद्ध ग्रंथ लिखे गए जैसे ललितविस्तर, दिव्यावदान, अवदान शतक, लंकावतार, महावस्तु आदि। इनमें प्राकृत और संस्कृत का मिश्रण है। मगर भाषा मूलतः प्राकृत है, संस्कृत छौंक के रूप में है जैसे पुष्पेहि में प्रातिपदिक संस्कृत जैसा है, मगर विभक्ति प्राकृत जैसी है।

आप आसानी से निष्कर्ष दे सकते हैं कि जिसे हम मिश्रित संस्कृत कहते हैं, वह वस्तुतः मिश्रित प्राकृत है। यदि कालिदास ने नाटकों में निम्न वर्ग से प्राकृत और उच्च वर्ग से संस्कृत में संवाद समायोजित किए हैं तो यह कोई आश्चर्य नहीं।

Saturday, 11 September 2021

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गणपति-

  गणपति सम्बन्धी पौरणिक कथाएं जितना जटिल और गल्प भरी हुई हैं उतना ही उनका नाम सरल है, गणपति का शाब्दिक अर्थ हुआ गणों का पति अर्थात गणों का स्वामी या नायक। आइए जानते हैं कि क्या गणपति का कोई ऐतिहासिक चिंन्ह भी है या सिर्फ वह पौरणिक कथाओं के गल्प तक सीमित हैं? 

 वाजसनेयी संहिता के अपने भाष्य में महिधर ने व्यख्या की है " गणनाम गणरूपेण पालकम' अर्थात जो गणों या सैन्य दलों की रक्षा करता है। फ्लीट ने गण शब्द का अर्थ करते हुए कहा है 'गण शब्द का प्रमुख अर्थ है जनजातीय समूह और संगठन या परिषद। पाणिनि ने संघ शब्द की व्युत्पत्ति गण शब्द से बताया है।

गणपति के प्रमुख नामो में से कुछ नाम इस प्रकार है -विघ्नकृत, विघ्नेश, विघ्ननेश्वर ,विनायक आदि। इन सबका विशुद्ध शाब्दिक अर्थ है विघ्न डालने वाला । प्रचीन ब्रह्मणिक ग्रन्थो में गणपति के प्रति तिरस्कार और घृणा के भाव हैं। 'मानव गृह्य सूत्र ' में कहा गया है - शासन करने योग्य राजकुमार को राज्य नही मिलता, सभी गुण सम्पन कुमारियों को पति नही मिलते, संतान उतपन्न करने योग्य स्त्रियां भी बांझ रह जाती हैं, स्त्रियों की संतानों की मृत्यु हो जाती है ।" 

देवीप्रसाद चट्टोपाध्याय जी भी याज्ञवल्क्य का उदहारण देते हुए अपनी पुस्तक ' लोकायत' में कहते हैं कि " याज्ञवल्क्य के अनुसार रुद्र और ब्रह्मा ने बाधाएं उत्पन्न करने के लिए विनायक को गणों का मुखिया नियुक्त किया ।उसका आक्रांता स्वप्न में देखता है कि वह डूब रहा है ,लाल कपड़े पहने हुए सिर मुंडे लोग हैं। मांसाहारी पशुओ की सवारी कर रहा है, चांडालों , ऊंटों , कुत्तो, गधों आदि के साथ रह रहा है । "

गौर तलब है कि मनु ने शूद्रों का धन कुत्ते और गधे बताया है , और लाल वस्त्र पहना तथा सिर मुंडाना बौद्ध परम्परा रही है। तो क्या हम कह सकते हैं की गण वास्तव में शुद्र और बौद्ध रहे होंगे? जैसा कि पाणिनि ने भी कहा है कि गण का अर्थ संघ होता है। संघ बौद्ध परम्परा का हिस्सा था।

ब्रह्म वैवर्त पुराण में एक कथा आई है जिसमे गणपति एक दन्त होने की कथा इस प्रकार है , परशुराम और गणपति के बीच एक युद्ध हुआ था जिसमे परशुराम ने अपना कुल्हाड़ा गणपति पर मारा जिससे उनका एक दांत टूट गया । इस कथा में रोचक बात यह है कि परशुराम से उनका युद्ध, जैसा कि सभी जानते हैं कि परशुराम ब्राह्मणों और पुरोहितों के सर्वोच्च स्थिति के घोर समर्थक थे । क्या इसका तात्पर्य यह हुआ की गणपति के काल मे उनका सबसे प्रमुख शत्रु पुरोहित और ब्राह्मण वर्ग था? प्राचीन ब्रह्मणिक ग्रन्थों में जिस प्रकार गणपति के प्रति तिरस्कार और घृणा है उससे तो यही जाहिर होता है। बौद्ध और शूद्रों के प्रति जो घृणा और तिरस्कार ब्राह्मणिक ग्रन्थों में हैं उससे इसकी पुष्टि भी होती है की गणपति का सम्बंध जरूर बौद्ध धम्म से रहा होगा।

मनु ( 3/219) में तो ब्राह्मणो को गणो का अन्न तक खाने को निषेध कर देते है ।मनु सीधा शुद्रो और दलितों का अन्न खाने से मना करते है , यानि मनु के अनुसार गण शुद्र -अछूत और बौद्ध रहे होंगे ।

देवीप्रसाद जी मोनियर विलियम्स जैसे विद्वान का हवाला देते हुए कहते हैं कि" यद्यपि गणपति बाधाएं उत्पन्न करने वाले हैं किंतु साथ मे इसे दूर भी करते हैं इसलिए सभी कार्यो के आरम्भ में ' नमो गणेशाय विघ्नेश्वराय ' के साथ उनका स्मरण किया जाता है।जिसका अर्थ है कि मैं विघ्नों के देवता गणेश के सम्मुख नमन करता हूँ। यह बात तो सही है किंतु यह बात बदली हुई परिस्थितियों की है ,यानी ऐसा बाद में विकसति हुई गणपति संबंधी परिवर्तित भावनाओ के कारण हुआ। देवीप्रसाद जी कहते है कि गणपति की आरंभिक प्रतिमाओं में कुछ में उन्हें भयावह दानव के रूप में दिखाया गया है जो नग्नता के साथ साथ 
आभूषण रहित दिखाया गया है जो संकेत हैं कि आरम्भ में गणपति के प्रति कैसी धारणाएं थीं।

कोडिंगटन ने अपने 'एशेन्ट इंडिया ' में गणपति की ऐसी प्रतिमा का उल्लेख किया है जो पूर्ण साज सज्जा के साथ है और इसका काल गुप्त काल के निकट है । कुमारस्वामी जैसे विद्वानों ने माना है कि गुप्त शासन से पहले इस प्रकार की गणेश की कोई प्रतिमा नही थी , गुप्त काल मे ही गणेश की प्रतिमाएं अचानक बनने लगी। गौर तलब है कि गुप्त राजाओं के शासन में ब्रह्मणिक ग्रँथ नए सिरे से लिखे जाने लगे थे तो यह संभवना रही है कि गणपति का बदला हुआ नया रूप गुप्त काल मे ही प्रकट हुआ हो।गणपति का ब्राह्मणीकरण इसी काल मे हुआ होगा।

आगे देवी प्रसाद जी फिर कहते है की मध्य काल के ग्रन्थो में गणेश ( गणपति) के हस्ती मुख , मूषक वाहन आदि कई तरह जिक्र है जबकि प्राचीन ग्रंथो में ऐसा नहीं है ।इसका उत्तर देते हुए वे कहते हैं की हस्ती सर टोटम (प्रतीक चिन्ह ) दर्शाता है । जैसा की हैम जानते है दुनिया भर में प्रत्येक काबिले का एक टोटम होता है जो पशु , पक्षी अथवा पेड़ पौधों पर हो सकता था ।जैसे जब यूनानी भारत आये तो उनका टोटम पंख फैलाये बाज था ।

भारत में भी टोटमवाद रहा है , मतंग( हाथी) राजवंश की स्थापना कोसल के बाद के काल की है ।मतंग राजवंश ने सिक्के चलवाए और एक विस्तृत राजसत्ता कायम की ।
मतंग राजसत्ता ललित विस्तार के अनुसार मौर्य राजाओ से पहले की है पंरतु हम यह नहीं कह सकते की मतंग राजसत्ता स्थापित होने से गणपति के देवत्य का स्थान प्राप्त हुआ होगा ।
परन्तु इससे यह सिद्ध होता है की हाथियो (टोटम) की राजसत्ता कभी रही होगी ।

अब केवल मतंग सत्ता ही नहीं हस्ती सत्ता नहीं रही होगी बल्कि शिलालेखो से पता चलता है की बहुत से हस्तिसत्ता भारत में रही जैसे खारवेल की रानी ने स्वयं को हस्ती की पुत्री बताया ।

एक और गौर करने लायक उदहारण देना चाहूँगा मैं आपको , की बौद्धों का और हाथियों का सम्बन्ध जग उजागर है । किद्वंतीयो के अनुसार गोतम के जन्म से पूर्व उनकी माता के सपने में हाथी आता है ।

अतः बाद के कई बौद्ध राजो जैसे मतंग आदि ने हाथी को अपना टोटम बनाया ।तो यह सिद्ध है की गणपति का जो हस्ती सर है वह दरसल बौद्ध राजाओ का टोटम रहा था, तो क्या माने की गणपति वास्तव में बौद्ध धम्म से सम्बंधित थें? । जो गण शब्द है जिसका अर्थ पाणिनि ने भी संघ किया है उसका सीधा संबंध बौद्ध अनुयायिओं से है? हम सांची स्तूप द्वार में बुद्ध की माता लुम्बनी को कमल आसन पर बैठे देखते है जिनके बगल में दो हाथी उनपर जल वर्षा कर रहे हैं, बिल्कुल इसी चित्र की कल्पना लक्ष्मी देवी के लिए की गई है। 

तो क्या ब्राह्मणिक व्यवस्था में विघ्न डालने वाले ' विघ्नेश्वर' वास्तव में कभी बौद्ध संघ के नायक थें ? 

- संजय

Monday, 30 August 2021

ये बुद्ध की धूप है

ये बन्द की जा सकती नहीं मुट्ठियों में,
न ही तिजोरियों में। 
ये बुद्ध की धूप है,
फैली है आंगन में, 
फुलवारियों में।
झोपड़ी में,
महलों में।
सेक पाता है वही इसे 
जो उतार फेंकता है आवरण
कुलीनता का।

Monday, 16 August 2021

yoga

दूरस्थ शिक्षा संस्थान, डॉ. हरिसिंह गौर विश्वविद्यालय, सागर (एमपी) पीजीडीवाईएम- पेपर फर्स्ट (5 क्रेडिट) योग फाउंडेशन ब्लॉक I यूनिट I योग की परिभाषा और अर्थ, लक्ष्य और उद्देश्य यूनिट II योग का ऐतिहासिक विकास यूनिट III योग की प्रासंगिकता आधुनिक युग और दायरे में इकाई IV योग के बारे में भ्रांतियां। खंड II इकाई I वेद में योग इकाई II उपनिषद में योग इकाई III गीता में योग इकाई IV पतंजल योग सूत्र में योग। आयुर्वेद, III JO1 यूनिट I राज योग (अष्टंग योग) यूनिट II हठ योग यूनिट III कर्म योग, ज्ञान योग, यूनिट IV भक्ति योग, मंत्र योग। खंड IV इकाई I योगाभ्यास की अनिवार्यताएं - प्रार्थना, स्थान और समय, इकाई II योग अभ्यास में अनुशासन, योगिक आहार, इकाई III योग अभ्यास के मार्ग में बाधाएं, इकाई IV व्यायाम की योगिक और गैर-योगिक प्रणाली के बीच अंतर। IV ब्लॉक V यूनिटी महर्षि पतंजलि और महर्षि याज्ञवल्क्य- यूनिट II आदि शंकराचार्य के लिए जीवन रेखाचित्र और उनका योगदान, और गोरखानाथ-जीवन स्केच और योग इकाई III के लिए उनका योगदान यूनिट III रामकृष्ण परमहंस और स्वामी विवेकानंद-जीवन स्केच और यूनिट IV आचार्य श्री राम के लिए उनका योगदान शर्मा और स्वामी कुवल्यानंद जीवन रेखाचित्र और उनका योगदान सुझाई गई पुस्तकें: 1. विज्ञानानंद सरस्वती - योग विज्ञान, योग निकेतन इरुस्त, ऋषिकेश, 1998, 2. राजकुमारी पांडे-भारतीय योग परम्परा के विविध आयम, राधा प्रकाशन, एनडी, 2008 3. स्वामी विवेकानंद - ज्ञान, भक्ति, कर्म योग और राजयोग, अद्वैत आश्रम, कुलेट्टा 2000। 4. केएस जोशी - योग इन डेली लाइफ, ओरिएंट पेपर बैक प्रकाशन, नई दिल्ली, 1985, 6. विश्वनाथ मुखर्जी भारत के महान योगी, विश्वविद्यालय प्रकाशन, 6. कल्याण (योगंक) - गीता प्रेस गोरखपुर, 2002। 7. कल्याण (योग तत्व) - गीता प्रेस गोरखपुर, 1991। नई दिल्ली ग्राम परियोजना रिपोर्ट (पीटीआर) और एफजीडीवाईएम की प्रॉस्पेक्टस

डॉ विश्वविद्यालय संस्थान, ऋषि पीजीडीवाईएम - पेपर सेकेंड (5 क्रेडिट) मानव जीव विज्ञान और योग ब्लॉक I यूनिट 1, मानव कडी अर्थ और योग इकाई में इसका महत्व 2. मानव बाल इकाई की डिफरेंट अवधारणा 3. सेल स्टेनिचर और फंक्शन यूनिट 4. ऊतकों के प्रकार, संरचना और कार्य। सामान्य जानकारी, विभिन्न भाग, संरचना, कार्य और यौगिक अभ्यासों का प्रभाव। यूनिट 1. कंकाल प्रणाली सामान्य जानकारी, विभिन्न भागों, संरचना इकाई 2. कंकाल प्रणाली- यौगिक प्रथाओं के कार्य और प्रभाव इकाई 3. मांसपेशी प्रणाली- सामान्य जानकारी, विभिन्न भाग, संरचना जानकारी, विभिन्न भागों, संरचना, कार्य और यौगिक प्रथाओं का प्रभाव। इकाई 1. श्वसन प्रणाली - सामान्य जानकारी, विभिन्न भाग, संरचना इकाई 2. श्वसन प्रणाली - यौगिक अभ्यास का कार्य और प्रभाव इकाई 3. संचार प्रणाली- सामान्य जानकारी, विभिन्न भाग, संरचना इकाई 4. संचार प्रणाली - योगिक अभ्यासों का कार्य और प्रभाव खंड IV सामान्य जानकारी, विभिन्न भागों, संरचना, विराम चिह्न और यौगिक अभ्यासों का प्रभाव। इकाई 1. पाचन तंत्र- सामान्य जानकारी, विभिन्न भाग, संरचना इकाई 2. पाचन तंत्र- यौगिक अभ्यास का कार्य और प्रभाव इकाई 3. उत्सर्जन प्रणाली- सामान्य जानकारी, विभिन्न भाग, संरचना ब्लॉक V सामान्य जानकारी, विभिन्न भाग, संरचना, कार्य और यौगिक अभ्यासों का प्रभाव। यूनिट इनर्वस सिस्टम- सामान्य जानकारी, विभिन्न भाग, संरचना यूनिट 2. तंत्रिका तंत्र- योगिक अभ्यास का कार्य और प्रभाव यूनिट 3. एंडोक्राइन सिस्टम जेरियल जानकारी, विभिन्न भाग, संरचना इकाई 4. एंडोक्राइन सिस्टम फ़ंक्शन और योगिक प्रथाओं का चुनाव 1. डॉ। कक्श दीक्षित-शरीर कचना और क्रिया विज्ञान, भाषा भवन, मथुरा, २००५: २ इंद्रवीर सिंह-एनाटॉमी एंड फिजियोलॉजी फॉर नर्स, जेपी ब्रदर्स पब्लिशर, २००८। विवेकानंद योग प्रकाशन, बैंगलोर 4. एम.एम. गोर एनाटॉमी एंड फिजियोलॉजी ऑफ योगिक प्रैक्टिसेज, मोतीलाल बनारसीदास, नई दिल्ली, 2 5. पीजीडीवाईएम के प्रोग्राम प्रोजेक्ट केपोर्ट trTk KFrospectus


प्रिसर नंबर इंस्टिट्यूट ऑफ डिस्टेंस एजुकेशन, डॉ हरिसिंह गौर विश्वविद्यालय, सागर (एमपी) पीजीडीवाईएम-पेपर थर्ड (5 क्रेडिट) एम. हठ योग ब्लॉक I इंट्रोडक्शन यूनिट 1. हठ योग - अर्थ, परिभाषा और अवधारणा इकाई 2. उद्देश्य और उद्देश्य हठ योग इकाई एस। हठ योग इकाई की उत्पत्ति और परंपरा 4. मूल हठयोगी पाठ का सामान्य परिचय ब्लॉक II हठ योग इकाई की अनिवार्यता 1. स्थान का महत्व। यूनिट 2. हठ साधना के लिए पर्यावरण और मौसम। इकाई ३. हठ साधना में सहायता और बाधा, इकाई ४. हठ साधना में निषिद्ध और प्रवाहकीय भोजन। ब्लॉक II अर्थ, परिभाषा, उद्देश्य, तकनीक, लाभ और सावधानियां इकाई 1. षट्कर्म इकाई 2. आसन इकाई 3. प्राणायाम ब्लॉक IV मैकिंग, परिभाषा, उद्देश्य, प्रकार, तकनीक, प्रक्रिया और लाभ इकाई 1. मुद्रा - बंध इकाई 2. ध्यान इकाई 3. समाधि खंड V आध्यात्मिक ऊर्जा: इकाई 1. प्राण और नाड़ी इकाई 2. चक्र इकाई 3. कुंडलिनी शक्ति इकाई4। स्वर जना सुझाई गई पुस्तकें: 1. एल.वी. रेड्डी-हठ योग के आधार और प्रयोग, एमडीएनआईवाई, नई दिल्ली 2. स्व. निरंजनन्द - घेरंडा संहिता, बिहार योग भारती, मुंगेर, 1997. 3. स्व. दिगंबर जी और रघुनाथ शास्त्री - हठ योग प्रदीपिका, कैवल्यधाम एसएमवाईएम समिति, लोनावाला, २००६। दिगंबरजी और एम.एल. घरोट- घेरंडा संहिता, कैवल्यधाम एसएमवाईएम समिति, लोनावाला, 1978। 5. स्व. मुक्तिबोधानंद सरस्वती - हठ योग प्रदीपिका, योग प्रकाशन ट्रस्ट, मुंगेर, "000z 6. स्वामी सत्यानंद सरस्वती - आसन, प्राणायाम, मुद्रा, बंध, योग प्रकाशन ट्रस्ट, मुंगेर, 2006। आर्मे प्रोजेक्ट रिपोर्ट (पीपीआर) और पीजीडीवाईएम की प्रॉस्पेक्टस


दूरस्थ शिक्षा संस्थान, डॉ. हरिसिंह गौर विश्वविद्यालय, सागर (एम पीजीडीवाईएम - पेपर चौथा (5 क्रेडिट) पतंजल योग ब्लॉक I यूनिट 1. पतंजल योग सूत्र का परिचय और चार चरणों / अध्यायों में वर्गीकरण। यूनिट 2. योग का अर्थ और परिभाषा , यूनिट 3. चित्त यूनिट की मैकिंग 4. चित्त के विभिन्न राज्य यूनिट 1. चित्तवृत्तियां यूनिट 2. पंच कलेश यूनिट 3. चित्त विक्षा यूनिट 4. चित्त प्रसादन ब्लॉक III यूनिट 1. ईश्वर यूनिट की अवधारणा 2. अभ्यास और वैराग्य यूनिट 3. क्रिया योग, इकाई 4. अष्टांग योग। खंड IV इकाई 1. संयम इकाई 2. समापत्ति और समाधि इकाई 3. विभूति/सिद्धि इकाई 4. कैवल्य खंड V ध्यान की विभिन्न तकनीकें इकाई 1. ध्यान की अवधारणा और परिभाषा, इकाई 2 वपश्यना ध्यान, प्रेक्षा ध्यान इकाई 3. अजपा-जप, योग निद्रा इकाई 4. शत चक्र, पंच कोष ध्यान सुझाई गई पुस्तकें: 1. स्व. ओमानन्द - पतंजल योग प्रदीप, गीता प्रेस गोरखपुर। 2. हरि कृष्णदास गोयंदका-पतंजलियोग दर्शन, गीता प्रेस गोरखपुर, २००७, ३. पीवी करंबेल्क एआर-फतंजल योग सूत्र, कैवल्यधाम एसएमवाईएम समिति, लोनावाला, 2011। 4. श्रीराम शर्मा आचार्य - सांख्य दर्शन और योग दर्शन, अखंड ज्योति मथुरा, 5. स्व। सत्यानंद सरस्वती स्वतंत्रता पर चार अध्याय, योग प्रकाशन ट्रस्ट, मुंगेर, बिहार, 2001। 6. श्रीराम शर्मा आचार्य- साधना पद्धतियों का ज्ञान और विज्ञान, अखंड ज्योति मथुरा, 1998।

दूरस्थ शिक्षा संस्थान, डॉ. हरिसिंह गौर विश्वविद्यालय, सागर (एमपी) पीजीडीवाईएम - पेपर पांचवां (5 क्रेडिट) योग थेरेपी ब्लॉक I स्वास्थवृता यूनिट 1. स्वास्थवृत्ति यूनिट 2 का अर्थ और परिभाषा, दिनचार्य यूनिट 3. ऋतुचर्य यूनिट 4. रात्रीचार्य, सद्वृत्ता ब्लॉक II आहार इकाई 1. आहार इकाई 2 का अर्थ, परिभाषा और वर्गीकरण, आहार का महत्व, आहार की गुणवत्ता और मात्रा इकाई 3. संतुलन आहार इकाई 4. आहार के घटक- कार्बोहाइड्रेट, प्रोटीन, वसा, विटामिन, खनिज, जल योग चिकित्सा III XJO18 यूनिट 1. थेरेपी- अर्थ और वर्गीकरण यूनिट 2. योग थेरेपी- परिभाषा और अवधारणा। यूनिट 3. योग थेरेपी के सिद्धांत यूनिट 4. योग थेरेपी के घटक, योग थेरेपी की सीमाएं ब्लॉक IV निम्नलिखित बीमारियों का योग प्रबंधन यूनिट 1. हाइपर एसिडिटी, कब्ज यूनिट 2. पीठ दर्द, स्पॉन्डिलाइटिस यूनिट 3. गठिया, धमनीकाठिन्य इकाई 4. उच्च निम्न रक्तचाप और निम्न रक्तचाप का योगिक प्रबंधन इकाई 1. मधुमेह, मोटापा इकाई 2. अस्थमा, ब्रोंकाइटिस इकाई 3. तनाव, चिंता इकाई 4. अनिद्रा, अवसाद सुझाई गई पुस्तकें: 1. केएन उडुपा- योग द्वारा तनाव और इसका प्रबंधन, मोतीलाल बनारसीदास प्रकाशन, 1998। 2. स्व। सत्यानंद सरस्वती - योगिक मैनेजमेंट ऑफ कॉमन, योग प्रकाशन ट्रस्ट, मुंगेर, बिहार, 2002 3. डॉ अरुण के. साओ और डॉ अखिलेश्वर साओ - तनव अवम योग, राधा पब। नई दिल्ली, 2013. 4. सुरेश बरनवाल-मानसिक स्वास्थ्य एवं योग, नई भारतीय पुस्तक निगम, नई दिल्ली, 2002. 5. डॉ. रुडोल्फ- डाइट एंड न्यूट्रिशन, हिमालयन इंस्टीट्यूट प्रेस, 6. श्रीराम शर्मा आचार्य- चिकित्सा उपचार के विविध आयम , अखंड ज्योति मथुरा, 1998. फ्रोग्राम प्रोजेक्ट रिपोर्ट (एफएफआर) और पीजीडीवाईएम की प्रॉस्पेक्टस


दूरस्थ शिक्षा के संस्थान, डॉ. हरिसिंह गौर विश्वविद्यालय पीजीडीवाईएम-पेपर सिक्सथ (5 क्रेडिट) योग व्यावहारिक योगिक अभ्यास एन'एस प्रार्थनाएं फ्रैक्टीओ विषय अलमंत्र और पवरेट्स 20 चिक्रशा सूर्यनमस्कार / अतनिर्स और अथक जट्टें रग्या पदानाथन, वीरकोणासन, वीरकोणासन, वीरकोणासन, वीरकोणासन, वीरकोणासन, वीरकोणासन, वीरकोणासन के साथ। , संकट गिरतासन, पदंगुष्ठासन, सर्वांगपुष्टी, मुंथासन। वृषभासन, गुप्तासन, सिंहासन, उष्ट्रासन, सुप्तवज्रासन, वक्रा गोमुखासन, पुरुंग मिनपुय वुर्प, गुन्नूर्प पीपी उन्नो पश्चिमोत्तानाना, अकामधनुरासन, भद्रासन शशांकासन, मंडुकासन को सुपरन करने के लिए आसन सांस्कृतिक। बांधना चक्रासन, कर्मपिडासन, भुजंगासन, शलभासन, धनुरासन, नौकानन एडवांस उन्न कुक्कुटासन, गढ़ासन, गोरक्षनाना, उग्रानाना, आकासन, मस्तेन्द्रासन केलेक्सेटिव / मेडिटेटिव सुल्डलासन ब्रीदिंग चेस्ट, एब्सलोमिनल एंड योगी, पुरमब्ला, अनुलेम, उजाय, रेचक, रेचक और और चद्रभेदन।, भस्त्रिका, भ्रामरी, शीतल, प्राणायाम मुद्रा / बंध जालंधर बंध, उड्डियान बैधा, मूल बंध, महाबंध, काकी मुद्रा यो मुद्रा, विप्रितकर्णी मुद्रा, मालमुद्रा, शांभवी मुद्रा, अश्विनी मुद्रा, पसबिनी मुद्रा, नासिका मुद्रा, ब्रह्ममुद्रा, नासिका . शुद्धि क्रिया कपालहति, नानली, अग्निसार, त्राटक, नेति जल और सूत्र, वामनधन्ति, वस्त्रधौत, दिंडाधौती, शंख प्रक्षालन। ध्यान २१ सोहम साधना, प्राण धारणा, सविता डायलन, ज्योति अवतारन, पंच कोष, दीया येक निद्रा सुझाई गई पुस्तकें; 1, ओपी तिवारी - आसन क्यों और कैसे, कैवल्यधाम एसएमवाईएम समिति, लोनावाला, 2012। 2. एम.एल. घरोट - यौगिक अभ्यासों के लिए दिशानिर्देश, मेधा प्रकाशन, लोनावला। 3. स्वामी सत्यानंद सरस्वती ट्रस्ट, मुंगेर, 2006. 4. पीआई। श्री राम शर्मा- प्रज्ञा अभियान का योग व्यायाम, ब्रह्मवर्चस शोध संस्थान, आसन, प्राणायाम, मुद्रा, बंध, योग प्रकाशन शांतिकुंज, हरिद्वार, 1998, 5. बी.के.एस. लिएंगर - लाइट ऑन योगा, हार्पर कॉलिन्स पब्लिशर, नई दिल्ली, 2012। 6. बी.के.एस. लिएंगर - प्राणायाम पर प्रकाश, हार्पर कोलिन्स प्रकाशक, नई दिल्ली, 2012। 7. स्वामी कुवलयनंद - आसन, किवल्याधम एसएमवाईएम समिति, लोनावाला, 1993। 8. स्वामी कुवलयनंद- प्राणायाम, कैवल्यधाम एसएमवाईएम समिति, लोनावाला, 2009। पीजीडीवाईएम - (पेपर सातवां) 2क्रेडिट) परियोजना परियोजना का विषय पीसीपी के समय समन्वयक द्वारा दिया जाएगा। पीजीडीवाईएम की कार्यक्रम परियोजना रिपोर्ट (पीपीआर) और आईरोस्पेक्टस


Thursday, 12 August 2021

तूं न मानेगी

जब-जब शाम आती है,
तब-तब तूं याद आती है।
जब-जब शाम आती है,
आंचल की याद आती है।
जब-जब शाम आती है,
दी के खिलौने याद आते हैं।
जब-जब शाम आती है,
समझाती शिक्षिका आती है।
जब-जब शाम आती है,
दादी की कहानी आती है।
जब-जब शाम आती है,
सखी समझाती आती है।
जब-जब शाम आती है,
संगिनी साथ निभाती है।
ये चांदनी कभी न मानेगी,
ये शाम आने से न मानेगी।
तुझसे ही तो जीवन है मेरा,
तूं स्त्री है त्राण से न मानेगी।

Tuesday, 3 August 2021

तुम साथ हमारा दे नहीं सकते तो

हमें फंसा भंवर में देखकर भी
तुम साथ हमारा दे नहीं सकते, 
तो साथ तुम्हारे क्यों चलें।

मीत जान पुकारें तुम्हें जो
बात हमारी सुन नहीं सकते
तो इशारों पर तुम्हारे क्यों चलें।

हाथ बढ़ाया जब भी हमने
हाथ तुम थाम नहीं सकते, 
तो पीछे तुम्हारे क्यों चलें।

चिंता तुम्हारी करते रहें जो
तुम चिंता हमारी कर नहीं सकते, 
तो हम अरदास तुमसे क्यों करें।
तुम सम्मान हमें दे नहीं सकते, 
तो साथ तुम्हारे क्यों चलें।
तुम रक्षा हमारी कर नहीं सकते, 
तो साथ तुम्हारे क्यों चलें।
साथ तुम्हारे समृद्धि पा नहीं सकते, 
तो साथ तुम्हारे क्यों चलें।
शिक्षा तुम सी पा नहीं सकते, 
तो साथ तुम्हारे क्यों चलें।
मैत्री तुम निभा नहीं सकते, 
तो साथ तुम्हारे क्यों चलें।
समता तुम ला नहीं सकते, 
तो साथ तुम्हारे क्यों चलें।
गर बात करो सर्व-ऐक्य की, 
आओ मिलकर साथ चलें।
Rg

Monday, 2 August 2021

वन में जाने की चाहत

जंगल में जाना चाहती हो,
जाओ कोई नहीं रोकेगा तुम्हें।
वहां एकांत होगा,
यहां अकेलेपन की क्या कमी है?
वहां झाड़-झंखाड़ होंगे,
यहां उलझने वालों की क्या कमी है?
वहां बन्दर लंगूर होंगे,
यहां उचक्कों की क्या कमी है?
वहां गीदड़ होंगे,
यहां भभकियों की क्या कमी है?
वहां भालू होंगे,
यहां तलवा चाट प्रान लेने वालों की क्या कमी है?
वहां आदमखोर शेर होंगे,
यहां क्या आदमखोरों की क्या कमी है?
फिर भी जाओ,
उनके साथ जीना ज्यादा आसान है।
वहां हवा है,
खुला नीला आसमान है।
झरने हैं,
स्वच्छ सरोवर भी हैं।
शीतल छांव है,
कंद-मूल, फूल-फल, तरु-लताऐं भी हैं।
कंदराएं हैं,
बैठ के सोच सकती हो कि मैं कौन हूं?
Rg

Sunday, 1 August 2021

धुंध थी

धुन्ध थी, हवाये चल रही थीं,
काकभगोड़े के कपड़े हिल रहे थे।
दूर से लोग इंसान समझ बैठे,
तोते इंसानों की तरह बोल रहे थे।rg

अंधविश्वास

एक गांव में एक जगह देवी दरबार लगता है उस दरवार में मेरे परिजन जाया करते में उन्हें उस चक्कर में न पड़ने को कहता पर वे बुजुर्ग होने का भावनात्मक दबाव बनाने में सफल हो जाते। एक वार मैं वहां रिस्तेदारी में रुका, देखा सारे लोग वहां बैठक में जा चुके थे, मेरे पिता भी वहां चले गए मैं उन्हें लेने वहां गया तो वहां पूर्ण भक्ति में डूबे लोगों के मनोविज्ञान को समझने की कोशिश कर रहा था। देखा लोगों में एक विशेष नशा था सम्मोहन था बिना प्रयास के काम बनाने का, बिना औषधि के रोग मुक्त हो जाने का, बिना समय सुविधा दिये बच्चों के पढ़ जाने, नौकरी लग जाने का। मेरे पिता भी उनमें से एक थे। मेरी माली हालत में मैं पिता को नाराज करके अपनी पढ़ाई की निरंतरता को ख़तरे में नहीं डालना चाहता था।

Saturday, 31 July 2021

फूलन

फूलन फूल सी थी,
शूलन बिंधी वो थी।
कोमलता तजी वो
शूलसूर वो करी थी।
आतंक से यूं लड़ी,
आदर्श बन खड़ी है।

Thursday, 29 July 2021

शास्त्र संस्कृति और प्रयोग

आंखों पर शास्त्र चढ़ाया कानों में संस्कृति लपेट दिये।
हथकड़ी से हाथ बांधे, ले गये लैब कहे प्रयोग कीजिए।



Wednesday, 28 July 2021

उठो पशुता छोड़ो


तुम पशु से बदतर हो,
क्योंकि तुम गुलाम हो।
तुम गुलाम हो, 
क्योंकि तुम पतित हो। 
तुम पतित हो,
क्योंकि तुम निर्धन हो। 
तुम निर्धन हो, 
क्योंकि तुम बेरोजगार हो। 
तुम बेरोजगार हो, 
क्योंकि तुम निष्क्रिय हो। 
तुम निष्क्रिय हो, 
क्योंकि तुम व्यसनी हो।
तुम व्यसनी हो,
क्योंकि तुम्हारे पास कोई योजना नहीं है। 
तुम्हारे पास कोई योजना नहीं है, 
क्योंकि तुम्हारे पास समझ नहीं है। 
तुम्हारे पास समझ नहीं है, 
क्योंकि तुम शिक्षित नहीं हो। 
उठो पढ़ो, पशुता छोड़ो, 
देखो तुम कहां खड़े हो। 

रामहेत गौतम।

Friday, 23 July 2021

Mahashweta vritant

तस्य च दक्षिणां मूर्तिमाश्रित्याभिमुखीमासीनाम् , उपरचितब्रह्मा सनाम् , अतिविस्तारिणा सदिङ्मुखप्लावकेन प्रलयविप्लुतक्षीरपयोधिपयः पूरपाण्डुरेणातिदीर्घकालसंचितेन तपोराशिनेवविसर्पतापादपान्तरैत्रिस्रोतो जलनिभेन पिण्डीभूय वहतेव देहप्रभावितानेनसगिरिकाननं दन्तमयमिव तं प्रदेशं कुवतीम् , अन्यथैव धवलयन्ती कैलासगिरिम् , अन्तद्रष्टुरपि लोचन पथप्रविष्टेन श्वेतिमानमिव मनोनयन्तीम् , अतिधवलप्रभापरिगत देहतया स्फटिकगृहगतामिव दुग्धसलिलमग्नामिव विमलचेलाशुकान्तरितामिवादर्शत लसंक्रान्तामिव शरदभ्रपटलतिरस्कृतामिवापरिस्फुटविभाव्यमानावयवाम पञ्चमहाभूतमयमपहाय द्रव्यात्मकमङ्गनिष्पादनोपकरणकलापं धवलगुण ने . - केवलेनोत्पादिताम् , दक्षाध्वर क्रियामिवोद्धतगणकचग्रहभयोपसेवित त्र्यम्ब काम , रतिमिव मदनदेहनिमित्तं हरप्रसादनार्थमागृहीतहराराधनाम् , झीरो दधिदेवतामिव सहवासपरिचितहरचन्द्रलेखोत्कण्ठाकृष्टाम् , इन्दुमूमिव स्वर्भानुभयकृतत्रिनयनशरणगमनाम् , ऐरावतदेहच्छविमिव गजाजिनवगु ण्ठनोत्कण्ठितशितिकण्ठचिन्तितोपनताम् , पशुपतिदक्षिणमुखहासच्छमिव बहिर्निर्गत्य कृतावस्थानाम् , शरीरिणीमिव रुद्रोद्धलनभूतिम , आविर्भूतां ज्यो स्नामिव हरकण्ठान्धकारविघट्टनोद्यमप्राप्ताम् , गौरीमनःशुद्धिमिव कृतदेहपरि ग्रहाम , कार्तिकेयकौमारबतक्रियामिव मूर्तिमतीम् , गिरीशवृषभदेहयतिष्ठिव पृथगस्थिताम् , आयतनतरुकुसुमसमृद्धिमिव शङ्कराभ्यर्चनाय स्वयमुना ताम् , पितामहतप.सिद्धिमिव महोतलमवतीर्णाम् , आदियुगप्रजापतिकी - मिव सत्रलोकभ्रमणखेदविश्रान्ताम् , त्रयीमिव कलियुगध्वस्तधर्मशोकगृहज वनवासाम् , आगामिकृतयुगबीजकलामिव प्रमदारूपेणावस्थिताम् , देहवती . मिव मुनिजनध्यानसम्पदम , अमरगजवीथीमिवाभ्रगङ्गाभ्यागमवेगपतिताम् , कैलासश्रियमिव दशमुखोन्मूलनक्षोभनिपतिताम् , इवेतद्वीपलक्ष्मीमिवान्यद्वी पावलोकनकूतूहलागताम् , काशकुसुम विकासकान्तिमिव शरत्समय मुदीश्रमा णाम् : शेषशरीरच्छायामिव रसातलमपहाय निर्गताम् , मुसलायुधदेहभा -मिव मधुमदबिघूर्णनायासविगलिताम् । शुक्लपक्षपरम्परामिव पुञ्जीकृताम , सहसैरिव धवलतया कृतसंविभागाम , धर्महृदयादिव निर्गताम् , शङ्खादिवो त्कीर्णा प् , मुक्ताफलादिवाकृष्टाम् , मृणालैरिव विरचितावयवाम , दन्तदटैरिव घटिताम , इन्दुकरकूर्चकैरिव प्रभालिताम् , वर्णसुधाच्छटाभिरिवाच्छारताम् , अमृतफेनपिण्डेरिव पाण्डुरीकृताम , पारदरसधाराभिरिव धौताम , रजतद्रवेणेव निदृष्टाम् । चन्द्रमण्डला दिवोत्कीर्णाम् , कुटज कुन्दसिन्धुवारकुसुमच्छ विभिरिवोल्लासिताम् , इयत्तामिव धवलिम्नः , स्कन्धावलम्बिनीभिरुदयतट गताद बिम्बादुद्धत्य बालरश्मिप्रभाभिरिव निर्मिताभिरुन्मिपत्तडित्तरलते जस्ताम्राभिरचिरस्नानावस्थितविरलवारिकणतया प्रणासलग्नपशुपतिचरणभ भ स्मचूर्णाभिरिव जटाभिरुद्भासितशिरोभागाम् , जटापाशग्रथितमुत्तमाङ्गेन मणिमयं नामाङ्कमीश्वरचरणद यमुद्रहन्तीम , रविरथतुरगखुरक्षुणनक्षत्रक्षोद विशदेन भस्मनालंकृतललाटपट्टिकाम , शिखरशिलाश्लिष्टश शाककला मिव शैलराजमेखलाम , अतुलभक्तिप्रसाधितया लक्ष्यीकृत लिङ्ग याद्वितीययेव पुण्डरीकमालया दृष्टया सम्भावयन्ती भूतनाथम , अनवरतगीतपरिस्फुरिताध रपुटवशादति शुचिभिः शुद्धहृदयमयूखैरिव गीतगुणैरिव स्वरैरिव स्तुतिवर्णरिव मूर्तिमद्भिर्मुखान्निष्पत द्भिर्दशनांशुभिः पुनरिव स्नपयन्ती गौरीपतिम् , अति विमलैश्च वेदार्थैरिव साक्षात्पितामहमुखादाकृष्टैगायत्रीवणैरिव प्रथनतामु पगतैर्नारायणनाभिपुण्डरीकबीजैरिवोद्भुतैः सप्तर्षिभिरिव करस्पर्शपूतमात्मान मिच्छद्भिस्तारकारूपेणागतैरामलकीफलस्थूलैर्मुक्ताफलैरुपरचितेनाक्षवलयेनाधि ष्ठितकण्ठभागाम , परिवेषपरिगतचन्द्रमण्डलामिव पौर्णमासीनिशाम् , अधो मुखहर शिरःकपालमण्डलाकारेण मोक्षद्वारकलशकान्तिना स्तनयुगलेनैकहंस मिथुनसनाथामिवश्वेतगङ्गाम् , गौरीसिंहसटामयेनेव चामररुचिराकृतिना स्तन युगलमध्यनिबद्धग्रन्थिना कल्पतरुलतावल्कलेन कृतोत्तरीय कृत्याम , अयुग्म लोचनसकाशात्प्रसादलब्धेन चूडामणिचन्द्रमयूखजाले नेत्र मण्डलीकृतेन ब्रह्मसूत्रेण पवित्रीकृतकायाम् , आप्रपदीनेन च स्वभावसितेनापि ब्रह्मासन बन्धोत्तानचरणतलप्रभापरिष्वङ्गाल्लोहितायमानेन दुकूलपटेन प्रावृतनित म्बाम् , यौवनेनापि स्वकालोपसर्पिनिर्विकारविनीतेन शिष्येणेवोपास्यमानाम , लावण्येनापि कृतपुण्येनेव स्वच्छात्मना परिगृहीताम , रूपेणापि रुचिरलोचनेन विगतचापलेनायतनमृगेणेव निषेविताम , उत्सङ्गगता च स्वसुतामिव सूक्ष्म शङ्खखण्डिकाङ्गलीयकपूरिताडलिना त्रिपुण्ड्रकावशेषभस्मपाण्डुरेण प्रकोष्टब दशहखण्डकेन नखर यूखदन्तुरतया गृहीतदन्तकोणेनेव दन्तमयीं दक्षिणकरेण वीणामास्फालयन्तीम् , प्रत्यक्षामिव गन्धर्वविद्याम , मणिमण्डपिकास्तम्भल . माभिरात्मानुरूपाभि सहचरीभिरिव सवीणाभिः प्रतिमाभिरुपेताम , स्नपना लिङ्गसंक्रान्त प्रतिबिम्बतयातिप्रबलभक्त्याराधितस्य हृदयमिव प्रविष्टां हरस्य , हारलेखयेव प्राप्तकण्ठयोगया ग्रहपङ्क्त्येव ध्रुवप्रतिबद्धयाक्रद्धयेव रक्त मुख वर्णया मत्तयेव घूर्णितमन्द्रतारयोन्मत्तयेवानेककृततालया , मीमांसयेवानेक भावनानुविद्धया गी " देव विरूपाक्षमुपवीणयन्तीम् ; अतिमधुरगीतावकुष्टै ानमिवाभ्यस्यदिनिश्चलकर्णापुटै गवराहवानरवारणशरभसिंहप्रभृतिभिर्वन चरैराबद्धमण्डलैराकर्ण्यमानगीतानुविद्धविपश्चीघोपाम , अमरापगामिव नभसोऽवतीर्णाम् , दीक्षितवाचमिवाप्राकृताम् , त्रिपुरारिशरशलाकामिव तेजो मयीम् , पीतामृता मिव विगत तृष्णाम् । ईशान शिरः शशिकलामिवानुप जातरागाम् , अमथितोदधिजलसम्पदभिवान्तः प्रसन्नाम् , असमस्तपदवृत्ति मिवाद्वन्द्वाम् , बौद्धबुद्धिमिव निरालम्बनाम् , वैदेहीमिव प्राप्तज्योतिःप्रवे शाम् , द्यूतकलाकुशलामिव वशीकृताक्षहदयाम् , महीमिव जलभृतदेहाम् , हिमसमयदिनमुखलक्ष्मीमिव परिपीतभास्करातपाम् , आयर्यामिव समुपात्तय तिगणोचितमात्राम् , आलिखितामिवाचलावस्थानाम् , अंशुमयीमिव तनुच्छायानुलिप्तभूतलाम् , निर्ममा निरहङ्कारां निर्मत्सराम् , अमानुषाकृतिं दिव्य त्वादपरिज्ञायमानवयःप्रमाणामप्यष्टादशवर्षदे शीयामिवोपलक्ष्यमाणां प्रतिपन्न पाशपतव्रतां कन्यकां ददर्श ।


ततोऽवतीर्य तरुशाखायां बद्ध्वा तुरङ्गमुपसृत्य भगवते भक्त्या प्रणम्य त्रिलोचनाय तामेव दिब्ययोषितमनिमेषपक्ष्मणां निश्चलनिबद्धलक्ष्येण चक्षुषा पुनर्निरूपयामास । उदपादि चास्य तस्या रूपसम्पदा कान्त्या प्रशान्त्या चावि भूतविस्मयस्य मनसि " अहो जगति जन्तूनामसमर्थितोपनतान्यापतन्ति वृत्ता - सूक्ति न्तान्तराणि । तथा हि - मयामृगयायां यदृच्छया निरर्थकमनुबध्नता तुरङ्गमुख मिथुनमयमतिमनोहरो मानवानामगम्यो दिव्यजनसंचरणोचितः प्रदेशो वीक्षितः । अत्र च सलिलमन्वेषमाणेन हृदयहारि सिद्धजनोपसृष्टजलं सरो
दृष्टम् । तत्तीरलेखाविश्रान्तेन चामानुषं गीतमाकर्णितम् । तच्चानुसरता मानु षदुर्लभदर्शना दिव्यकन्यकेयमालोकिता । नहि मे संशीतिरस्यो दिव्यतां प्रति । आकृतिरेवानुमापयत्यमानुषताम् । कुतश्च मर्त्यलोके संभूति रेवंविधानां गन्धर्व ध्वनिविशेषाणाम् । तद्यदि मे सहसा , दर्शनपथानापयाति , नारोहति वा कैला सशिखरम् , नोत्पतति वा गगनतलम् , ततः ' का त्वम् , किमभिधाना वा ,
किमर्थं वा प्रथमे वयसि प्रतिपन्ना व्रतम् ' , इति सर्वमेतदेनामुपसृत्य पृच्छामि । अतिमहानयमवकाश आश्चर्याणाम् इत्यवधार्य तस्यामेव स्फटिकमण्डपि कायामन्यतमं स्तम्भमाश्रित्य समुपविष्टो गीतसमाप्यवसरं प्रतीक्षमाणस्तस्थौ । अथ गीतावसाने मूकीभूत वीणा प्रशान्तमधुकररुतेव कुमुदिनी सा कन्यका समुत्थाय प्रदक्षिणीकृत्य कृतहरप्रणामा परिवृत्य स्वभावधवलया तपःप्रभाव
प्रगल्भया दृष्ट्या समाश्वासयन्तीव , पुण्यैरिव स्पृशन्ती , तीर्थजलैरिव प्रक्षा लयन्ती , तपोभिरिव पावयन्ती , शद्धिमिव कुर्वाणा , वरप्रदानमिवोपपादयन्ती , पवित्रतामिव नयन्ती , चन्द्रापीडमाबभाषे , ' स्वागतमतिथये , कथमिमां भूमि मनुप्राप्तो महाभागस्तदुत्तिष्ठागम्यतामनुभूयतामतिथिसत्कारः इति । एवमुक्तस्तु तया सम्भाषणमात्रेणैवानुगृहीतमात्मानं मन्यमान उत्थाय भक्त्या कृतप्रणामः , भगवति यथाज्ञापयसि ' इत्यभिधाय दर्शितविनयः शिष्य इव तां ब्रजन्ती
मनुवबाज । व्रजंश्च समर्थमामास , ' हन्त तावन्नेयं मां दृष्टवा तिरोभूता , कृतं हि मे कुतूहलेन प्रश्नाशया हृदि पदम् । यथा चेयमस्यास्तपस्विजनदुर्ल भदिव्यरूपाया अपि दाक्षिण्यातिशया प्रतिपत्तिरभिजाता विभाव्यते तथा सम्भावयामि नियत मियखिलमात्मोदन्तमभ्यर्थ्य माना मया कथयिष्यति ' इति । एवं च कृतमतिः पदशतमात्रमिव गत्वा निरन्तरैर्दिवापि रजनीसमयमिव दर्श यद्भिस्तमालतरुभिरन्धकारित पुरोभागाम् , उत्फुल्लकुसुमेषु लतानिलजेपु
कृजतां मन्द्रं मदमत्तमधुलिहां विरुतिभिर्मुखरीकृतपर्यन्ताम , अतिदूरपातिनीनां च धवलशिलातलप्रतिघातोत्पतनफेनिलानामपां प्रस्रवणैरुत्कोटिग्राव विटङ्कव पाट्यमानैरुच्चरद्ध्वनिभिरवशीर्यमाणतुषारशिशिरसीकरासारैराबध्यमाननीहा राम हिमहारहरहासधवलैश्चोभयतः क्षरद्भिनिर्झरैारावलम्बितचलचामरकला पामिवोपलक्ष्यमाणाम , अन्तःस्थापितमणिकमण्डलुमण्डलाम , एकान्तावलम्बित
योगपट्टिकाम् , बिशाखिकाशिखरनिबद्धनालिकेरीफलवल्कलमयधौतोपाना गोपेताम् , अवशीर्णाङ्गभस्मधूसरवल्कलशयनीयसनाथैकदेशाम् , इन्दुमण्ड लेनेव टङ्कोत्कीर्णन शङ्खमयेन भिक्षाफपालेनाधिष्टिताम् , सन्निहितभस्माला बुकां गुहामद्राक्षीत् । तस्याश्च द्वारि शिलातले समुपविष्टो वल्कलशयनशिरो भागविन्यस्तवीणां ततः पर्णपुटेन निर्झरादागृहीतमर्घसलिलमादाय तां कन्यकां
समुपस्थिताम् ' अलमतियन्त्रणया , कृतमतिप्रसादेन , भगवति , प्रसीद विमुच्य तामयमत्यादरः , त्वदीयमालोकनमपि सर्वपापप्रशमनमघमर्षणमिव पवित्री करणायालम् , आस्यताम् " इत्यब्रवीत् । अनुवध्यमानश्च तया तां सर्वामति थिसपर्यामतिदूरावनतेन शिरसा सप्रश्रयं प्रतिजग्राह । 

कृतातिथ्यया च तया द्वितीयशिलातलोपविष्टया क्षणमिव तूष्णीं स्थित्वा क्रमेण परिपृष्टो दिग्विजयादारभ्य किन्नरमिथुनानुसरणप्रसङ्गेनागमनमात्मनः
सर्वमाचचक्षे । विदितसकलवृत्तान्ता चोत्थाय सा कन्यका भिक्षाकपालमादाय तेषामायतनतरूणां तलेषु विचचार । अचिरेण तस्याः स्वयंपतितैः फलैरपूर्यत भिक्षाभाजनम् । आगत्य च तेषां फलानामुपयोगाय नियुक्तवती चन्द्रापीडम् । आसीच तस्य चेतसि , ' नास्ति खल्वसाध्यं नाम तपसाम । किमतः परमाश्चर्य यत्र व्यपगतचेतना अपि सचेतना इवास्यै भगवत्यै समतिसृजन्तः फलान्या त्मानुग्रहमुपपादयन्ति वनस्पतयः । चित्रमिदमालोकितमस्माभिरदृष्टपूर्वम ।
इत्यधिकतरोपजातविस्मयश्चोत्थाय तमेव प्रदेशमिन्द्रायुधमानीय व्यपनीत पर्याणं नातिदूरे संयम्य निर्झरजलनिवर्तितस्नानविधिस्तान्यमृतरसस्वादून्युप भुज्य फलानि पीत्वा च तुषारशिशिरं प्रस्रवणजलमुपस्पृश्यैकान्ते तावद्वतस्थे यावत्तथापि कन्यकया कृतोजलफलमूलमयेष्वाहारेषु प्रणयः । इति परिसमापिताहारां निर्वर्तितसन्ध्योचिताचारां शिलातले विश्रब्ध चित्रम् = आश्चर्यम् , आलोकितम् = दृष्टम् । ' इति = एवम् , अधिकतरोपजात
मुपविष्टां निभृतमुपसृत्य नातिदूरे समुपविश्य मुहूर्तमिव स्थित्वा चन्द्रापीडः सविनयमवादीत्- " भगवति , त्वत्प्रसादप्राप्तिप्रोत्साहितेन कूतूहलेनाकुली क्रियमाणो मानुषतासुलभो लघिमा बलादनिच्छन्तमपि मां प्रश्नकर्मणि नियोजयति । जनयति हि प्रभुप्रसादलवोऽपि प्रागल्भ्यमधीरप्रकृतेः । स्वल्पाप्ये कदेशावस्थाने कालकला परिचयमुत्पादयति । अणुरप्युपचारपरिग्रहः प्रणयमा रोपयति । तद्यदि नातिखेदकरमिव ततः कथनेनात्मानमनुग्राह्यमिच्छामि।
अतिमहत्खलु भवदर्शनात्प्रभृति मे कौतुकमस्मिन्विषये । कतरन्मरुतामृधीणां गन्धर्वाणां गुह्यकानामप्सरसां वा कुलमनुगृहीतं भगवत्या जन्मना । किमर्थं वास्मिन्कुसुमसुकुमारे नवे वयसि व्रतग्रहणम् । क्वेदं वयः । क्वेयमाकतिः । क चायं लावण्यातिशयः । क्वेयमिन्द्रियाणामुपशान्तिः । तदद्भुतमिव मे प्रतिभाति । किंनिमित्तं वानेकसिद्धसाध्यसंबाधानि सुरलोकसुलभान्यपहाय दिव्याश्रमपदान्ये कानिनी वनमिदममानुषमधिवससि । कञ्चायं प्रकारो यत्तैरेव पञ्चभिर्महाभूतैरारब्धमी ली धवलतां धत्ते शरीरम् । नेदमस्माभिरन्यत्र दृष्टश्रुतपूर्वम् । अपनयतु नः कौतुकम् । आवेदयतु भवती सर्वम् । ” इत्ये वमभिहिता सा किमप्यन्तायन्ती तूष्णीं मूहूर्तमिव स्थित्वा निःश्वस्य स्थूल स्थूलैरन्तर्गतहृदयशद्धिमिवादाय निर्गच्छद्भिः , इन्द्रियप्रसादमिव वर्षद्भिः , तपारमनिस्यन्दमिव स्रवद्भिः , लोचनविषयं धवलिमानमिव द्रवीकृत्य पातयद्भिः , अच्छाच्छैः , अमलकपोलस्थलस्खलितैः अवशीर्णहारमुक्ताफलतरलपातैः , अनुबद्धविन्दुभिः , वल्कलावृतकुचशिखरजर्जरितसीकरैः , अभिरामीलित लोचना निःशब्दं रोदितुमारेभे । तां च प्ररुदितां दृष्ट्वा चन्द्रापीडस्तत्क्षणमचिन्तयत् , “ अहोदुर्निवा रता , व्यसनोपनिपातानां यदीढशीमप्याकृतिमनभिभवनीयामात्मीयां कुर्वन्ति।

सर्वथा नन कंचन स्पृशन्ति शरीरधर्माणमुपतापाः । बलवती हि द्वन्द्वानां प्रवृत्तिः । इदम परमधिकतरमुपजनितमतिमहन्मनसि मे कौतुकमस्या बाष्पसलिलपातेन न ह्यल्पीयसा शोककारणेन क्षेत्रीक्रियन्त एवंविधा मूर्तयः । न हि क्षद्रनिर्घात पाताभिहता चलति बसुधा " | इति संवर्धितकुतूहलश्च शोकस्मरणहेतुतामुप गतमपराधिनमिवात्मानमवगच्छन्नुत्थाय प्रस्रवणादञ्जलिना मुखप्रक्षालनो दकमुपनि - ये । सा तु तदनुरोधादविच्छिन्नवाष्पजलधारासन्तानापि किञ्चित्कषार्यितोदरे प्रक्षाल्य लोचने वल्कलोपान्तेन वदनमपमृज्य दीर्घमुष्णं च निःश्वस्य शनैः प्रत्यवादीत् , " राजपुत्र , किंमनेनातिनिघृणहृदयाया मम मन्द भाग्यायाः पापाया जन्मनः प्रभृति वैराग्यवृत्तान्तेन्नाश्रवणीयेन श्रुतेन । तथापि यदि महत्कुतूहलम् तत्कथयामि । श्रयताम् । एतत्प्रायेण कल्याणाभिनिवेशिनः श्रतिविषयमापतितमेव यथा विबुध समन्यप्सरसो नाम कन्यकाः सन्ति । तासां चतुर्दश कुलानि । एकं भगवतःकमलयोनेर्मनसः समुत्पन्नम् । अन्यद्वेदेभ्यः सम्भूतम् । अन्यदग्नेरुद्भुतम् । अन्यत्पवनात्प्रसूतम् । अन्यदमृतान्मथ्यमानाद त्थितम् , अन्यज्जलाज्जातम् । अन्यदर्ककिरणेभ्यो नितम् । अन्यत्सोमरश्मिभ्यो निष्पतितम् । अन्यद्भमे रुद्भूतम् । अन्यत्सौदामनीभ्यः प्रवृत्तम् । अन्यनमृत्युना निर्मितम् । अपरं मकर केतुनासमुत्पादितम् । अन्यत्तु दक्षस्य प्रजापतेरतिप्रभूतानां कन्यकानां मध्ये द्वे सुते मुनिररिष्टा च बभूवतुस्ताभ्यां गन्धर्वैः कुलद्वयं जातम् । एवमेतान्येकत्र चतुर्दश कुलानि । गन्धर्वाणां तु दक्षात्मजाद्वितयसम्भवं तदेवं कुलद्वयं जातम् ।अत्र मुनेस्तनयश्चित्रसेनादीनां पञ्चदशानां भ्रातृणामधिको गुणैः षोडशश्चित्र रथो नाम समुत्पन्नः । स किल सकलत्रिभुवनप्रख्यातपराक्रमो भगवता समस्त सुरमौलिमालालालितचरणनलिनेनाखण्डलेन सुहृच्छब्देनोपबृंहितप्रभावः सर्वेषां गन्धर्वाणामाधिपत्यमसिलतामरीचिनिचयमेचकितेन बाहुना समुपाजितं शैशव एवाप्तवान् । इतश्च नातिंदूरे तस्यास्मानारतवर्षादुत्तरेणानन्तरे किंपुरुष नाम्नि वर्षे वर्षपर्वतो हेमकूटो नाम निवासः । तत्र तद्भजयुगपरिपालितान्यने कानि गन्धर्वशतसहस्राणि प्रतिवसन्ति । तेनैव चेदं चैत्ररथं नामातिमनोहरंकाननं निर्मितम् । इदं चाच्छोदाभिधानमतिमहत्सरः खानितम् । अय च भवानीपतिस्परचितो भगवान् । अरिष्टायास्तु पुत्रस्तुम्बुरुप्रभृतीनां सोदर्याणां षण्णां ज्येष्टो हंसो नाम जगद्विदितो गन्धर्वस्तस्मिन्द्वितीये गन्धर्वकुले गन्धर्व राजेन चित्ररथेनैवाभिषिक्तो वाल एव राज्यपदमामादितवान् । अपरिमित गन्धर्ववलपरिवारस्य तस्यापि स एव गिरिरधिवासः । यत्तु तत्सोममयूख सम्भूतानामप्सरसा कुलं तस्मात्किरणजलानुसारगलितेन सकलेनेवरजनिकरकलाकलापलावण्येन निर्मितात्रिभुवननयनाभिरामा भगवती द्वितीयेव गौरी गौरीतिनाम्ना हिंमकरकिरणावदातवर्णा कन्यका प्रसूता । तां च द्वितीयगन्धर्वकुलाधिपतिहसो मन्दाकिनोमिव क्षीरसागरः प्रणयिनीमकरोत् । सा तु भगवता मकरकेतनेनेव रतिः , शरत्समयेनेव कमलिनी , हंसेनसंयोजिता सहशसमागमोपजनितामतिमहतीं मुटु मुपगतवती । निखिलान्तः पुरस्वामिनी च तस्याभवत् । तयोश्च तादृशयोर्महात्मनोरहमीदशी विंगतलक्षणा शोकाय केवलमनेक दुःखसहस्रभाजनमेकैवात्मजा समुत्पन्ना । तातस्त्वनपत्यतया सुतजन्मातिरि क्तेन महोत्सवेन मज्जन्माभिनन्दितवान् । अवाप्ते च दशमेऽऽहनि कृत यथो चितसमाचारो महाश्वेतेति यथार्थमेव नाम कृतवान् । साहं पितृभवने बालतया कलमधुरप्रलापिनी वीणेव गन्धर्वाणामङ्कादहू सञ्चरन्त्यविदितस्नेह शोका यासमनोहरं शैशवमतिनीतवती । क्रमेण च कृतं मे वपुर्षि , वसन्त इव मधुमासेन , मधुमास इव नवपल्लवेन , नवपल्लव इव कुसुमेन , कुसुम इव मधुकरेण , मधुकर इव मदेन , नवयौवनेन पदम् । ' अथ विज़म्भमाणनवनलिनवनेषु , अकठोरचूतकलिफाकलापकृतकामुकोत्कलिंकेपु , कोमलमल लयमारुताव मारतरङ्गितानङ्गध्वजांश केषु , मदकलितकामिनी गण्डू पसोधुसेकपुलकितबकुलेषु , मधुकरकुलकलङ्ककालीकृतकालेयककुसुमकुड्म अशोक तरुताडनारणितरमणीमणिनूपुरझङ्कारसहस्रमुखरेषु , विकस न्मुकुटपरिमलपुञ्जितालिजालमजुसिञ्जितसुभगसहकारेषु , अविरलकुसुमधूलिबालुकापुलिनधवलितधरातलेषु , मधुमदविडम्बितमधुकरकदम्बकसंवाय मानलतादोलेषु उत्फुल्लपल्लवलवलीलीयमानमत्तकोकिलोल्लासितमधुसीकरोदाम दुर्दिनेषु , प्रोषितजनजायाजीवोपहारदृष्टमन्मथास्फालितचापरवभय स्फुटितपथि कहृदयरुधिरार्द्रमार्गेषु , अविरतपतत्कुसुमशरपतत्रिपत्रसूत्कारबधिरीकृतदिङमु खेषु , दिवापि प्रवृत्तान्तर्मदनरागान्धाभिसारिकासार्थसंकुलेषु , उद्वेलरतिरससागरपूरप्लावितेषु , सकलजोवलोकहृदयानन्ददायकेषु , मधुमासदिवसेष्वेकदाह मम्बया सह मधुमासविस्तारितशोभं प्रोत्फुल्लनवनलिनकुमुदकुवलयकल्हार मिद मच्छोदं सरः स्नातुमभ्यागमम् । अत्र च स्नानार्थमागतया भगवत्या पार्वत्या तटशिलातलेषु विलिखितानि सभृङ्गिरिटोनि पांशुनिमग्नकृशपदमण्डपांशुनिमग्नकृशपदमण्डलातुमितमुनिजनप्रणामप्रदक्षिणानि त्र्यम्बकप्रतिबिम्बकानि वन्दमाना , भ्रमर भरभुग्नगर्भकेसरजर्जरे कुसमोपहाररम्योऽयं लतामण्डपः , परभृतनखकोटिपाटित कुडमलनालविवरगलितमधुनिकरधारः सुपुष्पितोऽयं सहकारतरुः , उन्मदमयूर कुलकलकलभीतभुजङ्गमुक्ततला शिशिरेयं चन्दनवीथिका , विकचकुसुमपुञ्जपातसूचितवनदेवताप्रेङ्खोलनशोभनेयं लतादोला , वहलकुसमरजः - पटलमग्नकल हंसपदलेखमतिरमणीयमिदं तीरतमतलमिति स्निग्धमनोहरतरोदेशदर्शनलोभा क्षिप्रहृदया सह सखीजनेन व्यचरम । एकस्मिश्च प्रदेशे झटिति वनानिलेनोपनीतम , निर्भरविकसितेऽपि कानने उभिभूतान्यकुसुमपरिमलम् , विसर्पन्तम् , अति सुरभितयानुलिम्पन्तमिव तर्प यन्तमिव पूरयन्तमिव घ्राणेन्द्रियम , अहमहमिकया मधुकरकुलैरनुबध्यमानम् , अनाघ्रातपूर्वम् , अमानुषलोकोचित्तं कुसुमगन्धमभ्यजिघ्रम् । कुतोऽय मित्युपारूढकुतूहला चाहं मुकुलितलोचना तेन कुसुमगन्धेन मधुकरीवाकृप्य माणा कौतुकतरलाभ्यधिकतरोपजातमणिनू पुरझङ्काराकृष्टसरःकलहंसानि कति त्पदानि गत्वा हरहुताशनेन्धनीकृतमदनशोकविधुरं वसन्तमिव तपस्यन्तम् , अखिलमण्डलप्राप्त्यर्थमीशानशिरःशशाङ्कमिव धृतव्रतम , अयुग्मलोचनं वशीकर्तुकामं काममिव सनियमम् , अतितेजस्वितया प्रचलतडिल्लतापञ्जरमध्यगत मिव ग्रीष्मदिवसदिवसकरमण्डलोदरप्रविष्टमिव ज्वलनज्वालाकलापमध्यस्थित मिव विभाव्यमानम् , उन्मिषन्त्या बहुलबहुलया दीपिकालोकपिङ्गलया देह प्रभया कपिलीकृतकाननं कनकमयमिव तं प्रदेशं कुर्वाणम् , रोचनारसलुलित प्रतिसरसमानसुकुमारपिङ्गलजटम् , पुण्यपताकायमानया सरस्वतीसमागमोत्कण्ठाकृतचन्दनलेखयेव भस्मललाटिकया बालपुलिनलेखयेव गङ्गाप्रवाह मुद्रा समानम , अनेकशापभ्रकुटिभवनतोरणेन भ्रलताद्वयेन विराजितम , अत्याचत तया लोचनमयीं मालामिव प्रथितामुद्रहन्तम् , सर्वहरिणैरिव दत्तलोचन शोभासंविभागम् , आयतोत्तङ्गघ्राणवंशम् , अप्राप्तहृदयप्रवेशेन नवयौव नरागेणेव सर्वात्मना पाटलीकृताधररुचकम् , अनुद्भिन्नश्मश्रुत्वादनासादितमधुकरावलीवलयपरिक्षेपविलासमिव वालकमलमाननं दधानम् , अनङ्गकार्मुक गुणेनेव कुण्डलीकृतेन तपस्तडागकमलिनीमृणालेनेव यज्ञोपवीतेनालंकृतम् एकेन सनालवकुलफलाकारं कमण्डलुमपरेण मकरकेतुविनाशशोकरुदिताया रतेरिव वाष्पजलबिन्दुभिरारचितां स्फटिकाक्षमालिकां करेण कलयन्तम् , अने कविद्यापगासङ्गमावर्त निभया नाभिमुद्रयोपशोभमानम् , अन्तर्ज्ञाननिराकृतस्यमोहान्धकारस्यापयानपदवीमिवाञ्जनरजोलेखाश्यामलारोमराजिमुदरेणतनीयसी विभ्राणम , आत्मतेजसा विजित्य सवितारमागृहीतेन परिवेषमण्डलेनेव मौज मेखलागुणेन परिक्षिप्तजघनभागम् , अभ्रगङ्गास्रोतोजलप्रक्षालितेन जरञ्चकोर लोचनपुटपाटलकान्तिना मन्दारवल्कलेनोपपादिताम्बरप्रयोजनम् , अलङ्कार मिव ब्रह्मचर्यस्य , यौवनमिव धर्मस्य , विलासमिव सरस्वत्याः , स्वयंवरपतिमिवसर्वविद्यानाम् , सङ्केतस्थानमिव सर्वश्रुतीनाम् , निदाघकालमिव साघाटम् , हिमसमयकाननमिव स्फुटितप्रियङगुमञ्जरीगौरम् , मधुमासमिव कुसुमधवल तिलकभूतिभूषितमुखम् , आत्मानुरूपेण सवयसापरेण देवतार्चनकुसुमान्युचिन्वता तापसकुमारेणानुगतम् , अतिमनोहरम् , स्नाना मागतं मुनि कुमारकमपश्यम् । तेन च कर्णावतंसीक तां वसन्तदर्शनानन्दितायाः स्मितप्रभामिव वनश्रिय ' , मलयमास्तागम नाईलाजाञ्जलिमिव मधुमासस्य , यौवनलीलामिव कुसुम लक्ष्म्याः , सुरतपरिश्रमस्वेदजलकणजालकावलीमिव रतेः , ध्वजचिह्नचामरपिच्छि कामिव मनोभवगजस्य , मधुकरकामुकाभिसारिकाम् , कृत्तिकातारास्तबकानु, कारिणीम् , अमृतबिन्दुनिस्यन्दिनीम् , अदृष्टप्वाँकुसुममजरीमद्राक्षम् । " अस्याः परिभूतान्यकुस्मामोदो नन्वयं परिमलः " इति मनसा निश्चित्य तं तपोधनयुबानमोक्षमाणाहमचिन्तयम् - ' अहोरूपातिशयनिष्पादनोपकरणकोष स्याक्षीणता विधातुः , यस्त्रिभुवना दूतरूपसम्भारं भगवन्तं कुछमायुधमुत्पाद्य तदाकारातिरिक्तरूपराशिरयम परो मुनिमायामयोमकरकेतुरुत्पादितः । मन्ये च सकलजगन्नयनानन्दकरं शशिबिम्बं विरचयता लक्ष्मीलीलावासभवनानिकसलानि सृजता प्रजापतिनाप्रथममेतदाननाकारकरणकौशलाभ्यास एव कृतः । अन्यथा क्रिभिव हिं सदृशवस्तुविरचनायां कारणम् । अलीकं चेदं यथा किल सकलाः कलाः कलावतो बडुलपक्षे क्षीयमाणस्य सुषुम्नानाम्ना रश्मिना रविरा पिवतीति । ताः खल्वस्य गभस्तयः समस्ता वपुरिदमाविशन्तीति । कुतोऽन्यथा रूपापहारिणि क्लेशबहुले तपसि वर्तमानस्येदं लावण्यम् । ' इति विचिन्तयन्ती मेव मामविचारितगुणदोषविशेषो रूपैकपक्षपाती नवयौवनसुलभः कुसुमा युधः कुसुमसमयमद इव मधुकरी परवशामकरोत् । उच्छ्वसितैः सह विस्मतनिमेषेण किम्चिदामुकुलितपक्षमणा जिमिततरल तरतारसारोदरेण दक्षिणेन चक्षुपा सस्पृहमापिबन्तीव , विमपि याचमानेव , त्वदायत्तास्मि ' इति वदन्तीव , अभिमुखं हृदयमर्पयन्तीव , सर्वात्मनानुप्रविशन्तीव , तन्मयताभिव गन्तुमीह माना , ' मनोभवाभिभूतां त्रायस्व ' इति शरणमिवोपयान्ती , ' देहि हृदयेऽवकाशमः इत्यथितामिव दर्शयन्ती , हा हा किमिदमसांप्र तमतिहेपणमकुलकुमारीजनोचितमिदं मया प्रस्तुतम् ' इति जानानाध्यप्रभवन्ती करणानाम् , म्नम्भितेव लिखितेव उत्कीर्णेव संयतेव मूछितेव केनापि विधृतेव निष्पन्दसकलावयवा तत्कालाविर्भूतेनावष्टम्भेन , अकथितशिक्षितेनानाख्येयेन स्वसंवेद्येन केवलं न विभाव्यते किं तद्रपसंपदा किं मनसा मनसिजेन किमभि नवयौवनेन किमनुरागेणेवोपदिश्यमाना किमन्येनैव केनापि प्रकारेणामपिन जानामि कथंकथमिति तमतिचिरं व्यलोकयम् । उक्षिप्य नीयमानेव तत्समी पमिन्द्रियैः पुरस्तादाकृष्यमाणेव हृदयेन पृष्ठतः प्रेर्यमाणेव पुष्पधन्वना कथमपि मुक्त प्रयत्नमप्यात्मानमधारयम् । अनन्तरं च मेऽन्तर्मदनावकाशमिव दातुमाहित सन्ताना निरीयुः श्वासमरुतः । साभिलाषं हृदयमाख्यातुकाममिव स्फुरितमुखमभूत्कुचयुगलम् । स्वेदसलिलवलेखाक्षालितेवागलहजा । मकरध्वजनिशित शरनिकरनिपातत्रस्तेवाकम्पत गात्रयष्टिः । तद्रूपाति शयं द्रष्टुमिव कुतूहलादा लिङ्गनलालसेभ्योऽङ्गभ्यो निरगाद्रोमाञ्चजालकम् । अशेषतः स्वेदाम्भसा धौत श्वरणयुगलादिव हृदयमविशद्रागः । आसीच्च मम मनसि – ' शान्तात्मनि दूरीकृतसुरतव्यतिकरेऽरिमअने मां निक्षिपता किमिदमनार्येणासदृशमारब्धं मनसिजेन । एवं च नामातिमूढंहृदयमङ्गनाजनस्य , यदनुरागविषययोग्यतामपि विचारयितुं नालम् । क्वेद मतिभास्वरं धाम तेजसां तपसां च ; क च प्राकृतजनाभिनन्दितानि मन्मथ परिस्पन्दितानि । नियतमयं मामेवं मकरलाञ्छनेन विडम्व्यमानामुपहसति मनसा । चित्रं चेदं यदह मे वमवगच्छन्त्यपि न शक्नोम्यात्मनो विकारमुप संहर्तुम् । अन्या अपि कायकास्त्रपामपहाय स्वयमुपयाताः पतीन् । अन्या अप्यनेन दुर्विनीतेन मन्मथेनोन्मत्तता नीता नार्यः । न पुनरहमका यथा ।कथमनेन क्षणेनाकारमात्रालोकनाकुलीभूतमेवमस्वतन्त्रतामुपैत्यन्तःकरणम् । कालो हि गुणाश्च दुर्निवारतामारोपयन्ति मदनस्य सर्वथा । यावदेव सचेत नास्मि , यावदेव च न परिस्फुटमनेन विभाव्यते मे मदनदुश्चेष्टितलाघव मेतत् , तावदेवास्मात्प्रदेशादपसर्पणं श्रेयः । कदाचिदनभिमतस्मरविकारदर्श नकुपितोऽयं शापाभिज्ञां करोति माम् । अदूरकोपा हि मुनिजनप्रकतिः ' इत्य वधार्यापसर्पणाभिलाविण्यहमभवम् । अशेषजनपूजनीया चेयं जातिरिति कृत्वातद्वदनाकृष्टदृष्टिंप्रसरम् , अचलितपक्ष्ममालम , अदृष्टभूतलम् , ईषदुल्लसितक पल्लवोन्मुक्तकपोलमण्डलम् , आलोलालकलतालसत्कुसुमावतंसम् , अंसदेशदो लायितमणिकुण्डलमस्मै प्रणाममकरवम् । अथ कृतप्रणामायां मयि दुर्लङ्घ्यशासनतया भगवतो मनोभुवः , मदन ननतया च मधुमासस्य , अरि रमणीयतया च तस्य प्रदेशस्य , अविनयबहुलतया चाभिनवयौवनस्य , चञ्चलपक तितया चेन्द्रियाणाम् , दुर्निवारतया च विषयाभिलाषाणाम् , चपलतया च मनोवृत्तेः , तथाभवितव्यतया च तस्य तस्य वस्तुनः ; किं बहुना , मम मन्दभाग्यदौरात्म्यादस्य चेदृशस्य क्लेशस्य विहि तत्वात्तमपि मर्द्विकारदर्शनापहृतधैर्य प्रदीपमिव पवनस्तरलतामनयदनङ्गः । तदा तस्याप्यभिनवागतं मदनं प्रत्युद्गच्छन्निव रोमोद्गमः , प्रादुरभवत् । मत्सकाशमभिप्रस्थितस्य मनसो मार्गमिवोपदिशद्भिः पुरः प्रवृत्तं श्वासैः । वेपथुगृहीता व्रतभङ्गभीतेवाकम्पत करतलगताक्षमाला । द्धितीयेव कर्णावसक्त कुसुममञ्जरी कपोलतलासङ्गिनी समदृश्यत स्वेदसलिलसीकरजालिंका । महर्शनप्रीति विस्तारितस्य चोत्तानतारकस्य पुण्डरीकमयमिव तमुद्देशमुपदर्शयतो लोचनयुगलस्य विपिभिरंशसन्तानैर्यदृच्छयाच्छोदसलिलमपहाविकचकुव लयवनेरिव गगनतलसमुत्पतितैररुध्यन्तदशदिशः । तया तु तस्यातिप्रकटया विकृत्या द्विगुणीकृतमदनावेशा तत्क्षण महमवर्णनयोग्यां कामप्यवस्थामन्वभवम् । इदं च मनस्यकरवम् - ' अनेकसुरतसमागमलास्यलीलोपदेशोपाध्याया मकर केतुरेब विलासानुपदिशति ; अन्यथा विविधरसासङ्गललितेष्वीदृशेषु व्यतिकरेष्वप्रविष्टबुद्धरस्य जनस्य कुत इयमनभ्यस्ताकृती रतिरसनिस्यन्दमिव क्षर न्त्यमृतमिव वर्षन्ती मदमुकुलितेव खेदालसेव निद्राजडेवानन्दभरमन्थर तरत्तारसञ्चारिण्यनिभृतभ्रलतोल्लासिनी दृष्टिः । कुतश्चेदमतिनैपुण्यं यच्चक्षु षैवानक्षरमेवमन्तर्गतो हृदयाभिलाषः कथ्यते ' ।
प्राप्तप्रसरा चोपसृत्य तं द्वितीयमस्य सहचरं मुनिबालकं प्रणामपूर्वकम पृच्छम् - ' भगवन्किमभिधानः कस्य चायं तपोधनयुवा ? किनाम्नस्तरोरिय मनेनावतंसीकृता कुसुममञ्जरी ? जनयति हि मे मनसि महत्कौतुकमस्याः समुत्सर्पन्नसाधारणसौरभोऽयमनाघ्रातपूर्वोगन्धः ” इति । स तु मामीषद्विहस्या ब्रवीत्- “ बाले किमनेन पृष्ठेन प्रयोजनम् ? अथ कौतुकमावेदयामि । श्रृयताम् : अस्ति खलु सकलत्रिभुवनप्रख्यातकीर्तिरत्युदारतया सुरासुरसिद्धवृन्दवन्दिसुरासुरसिद्धवृन्दवन्दितचरणयुगलो महामुनिर्दिव्यलोकनिवासी श्वेतकेतुर्नाम । तस्य भगवतः सुरा सुरलोकसुन्दरीहृदयानन्दकरम् , अशेषत्रिभुवनमुन्दरम् , अतिशयितनलकूबरं रूपमासीत् । स कदाचिद्देवतार्चनकमलान्युद्धर्तुमैरावतमदजलबिन्दुबद्धचन्द्रक शतखचितजलां हरहसितसितस्रोतसं मन्दाकिनीमवततार । अवतरन्तं च तदा कमलवनेषु संततसंनिहिता विकचसहस्रपत्रपुण्डरीकोपविष्टा देवी लक्ष्मीर्ददर्श
तस्यास्तु तमवलोकयन्त्याः प्रेममदमुकुलितेनानन्दबाष्पभरतरङ्गतरलतारेण लोचनयुगलेन रूपमास्वादयन्त्या जम्भिकारम्भमन्थरमुखविन्यस्तहस्तपल्लवाया मन्मथविकृतं मन आसीत् । आलोकनमात्रेण च समासादितसुरतसमागमसु खायास्तस्मिन्नेवासनीकृते पुण्डरीके कृतार्थतासीत् । तस्माच्च कुमारः समुद पादि । ततस्तमुत्संगेनादाय सा ' भगवन्गृहाण तवायमात्मजः ' इत्युक्त्वा तस्मै श्वेतकेतवे ददौ । असावपि बालजनोचिताः सर्वाः क्रियाः कृत्वा तस्य पुण्डरीकसंभवतया तदेव ' पुण्डरीक ' इति नाम चक्रे । प्रतिपादितव्रतं च तमागृहीत सकलविद्याकलापमकार्षीत् । सोऽयम् । इयं च सुरासुरैर्मथ्यमानाक्षीरसागरादुद्गतः पारिजातनामा पादप स्तस्य मञ्जरी । यथा चैषा व्रतविरुद्धमस्य श्रवणसंसर्गमासादिवती तदपि कथयामि । अद्य चतुर्दशीति भगवन्तमम्बिकापति कैलासगतमुपासितु ममरलोकान्मया सह नन्दनवनसमीपेनायमनुसरन्निर्गत्य साक्षान्मधुमासलक्ष्मीदत्तललितहस्तावलम्बया बकुलमालिकामेखलया कुसुमपल्लवग्रथिताभिरा जानुल म्बनीभिः कण्ठमालिकाभिनिरन्तराच्छादितविग्रहया नवचूताङ्कुर कर्णपूरया पुष्पासवपानमत्तया नन्दनवन देवतया पारिजातकुसुम् मञ्जरी मिमामादाय प्रणम्याभिहितः — ' भगवन्सकलत्रिभुवनदर्शनाभिरामायास्तवा कृतेरस्याः सदृशोऽयमलङ्कारः प्रसादी क्रियताम् । इयमवतंसविलासटुललिता समारोप्यतां श्रवणशिखरम् । बजतु सफलतां जन्म पारिजातस्य ' । इत्येव मभिधानां चायमात्मरूपस्तुतिवादत्रपावनमितविलोचनस्तामना इत्यैव गन्तुंप्रवृत्तः । मया तु तामनुयान्तीमालोक्य ' को दोषः सखे क्रियतामस्याः प्रणयपरिग्रहः ' इत्यभिधाय बलादियमनिच्छतोऽप्यस्य कर्णपूरीकृता । तदेतत्का स्न्येन योऽयं या चेयं , यथा चास्य श्रवणशिखरं समारूढा तत्सर्वमावेदितम् । इत्युक्तवति तस्मिन् स तपोधनयुवा किञ्चिदुपदर्शितस्मितो मामवाईत्अयि कुतूहलिनि , किमनेन प्रश्नायासेन । यदि रुचितसुरभिपरिमला गृह्यतामियम् ' इत्युक्त्वा समुपसृत्यात्मीयाच्छवणादपनीय कलैरलिकुलक्कणितैः प्रारब्धरतिसमागमप्रार्थनामिव मदीये श्रवणपुटे तामकरोत् । मम तु तत्कर तलस्पर्शलोभेन तत्क्षणमपरमिव पारिजातकुसुममवतंसस्थाने पुलकमासीत् । स च मत्कपोलस्पर्शसुखेन तरलीकृताङ्गलिजालकात्करतलादक्षमाला लज्जया सह गलितामपि नाज्ञासीत् । अथाहं तामसंप्राप्तामेव भूतलमक्षमालां गृहीत्वासलीलं तद्भुजपाशसंदानितकण्ठग्रहसुखमिवानुभवन्ती दर्शितापूर्वहारलतालीलां कण्ठाभरणतामनयम । इत्थंभूते च व्यतिकरे छत्रग्राहिणी मामवोचत् - भर्तृदारिके स्नाता देवी । प्रत्यासीदति गृहगमनकालः । तत्क्रियतां मजनविधिः ' इति । अहं तु तेन तस्या वचनेन नवग्रहा करिणीव प्रथमाङ् कुशपातेनानिच्छया कथंकथमपि समाकृष्यमाणा तन्मुखाल्लावण्यामृतपकमग्नामिव कपोलपुलककण्टकजालकलग्नामिव मदनशरशलाकाकीलितामिव सौभाग्यगुणस्यूतामिवातिकृच्छे ण दृष्टिमाकृष्य स्नातुमुदचलम् । उच्चलितायां च मयि द्वितीयो मुनिदारकस्त थाविधं तस्य धैर्यस्खलितमालोक्य किंचित्प्रकटितप्रणयकोप इवावादीत् ' सखे पुण्डरीक ! नतदनुरूपं भवतः । क्षुद्रजननण एष मार्गः । धैर्यधना पवित्र हि साधवः । किं यः कश्चित्प्राकृत इव विक्लवीभवन्तमात्मानं न रुणसि ।

कुतस्तवापूर्वोऽयमद्येन्द्रियोपप्लवो येनास्येवं कृतः । व ते तद्धैर्यम् । कासा विन्द्रियजयः । न तद्वशित्वं चेतसः । क्व सा प्रशान्तिः । क तत्कुलक्रमागतं ब्रह्मचर्यम् । क सा सर्वविषयनिरुत्सुकता । क ते गुरूपदेशाः । क तानि श्रतानि । कता वैराग्यबुद्धयः । क्व तदुपभोगविद्वेषित्वम् । क सा सुखपराङ् मुखता । कासौ तपस्यभिनिवेशः । क सा भोगानामुपर्यरुचिः । क तद्यौवना नुशासनम् । सर्वथा निष्फला प्रज्ञा , निर्गुणो धर्मशास्त्राम्यासः , निरर्थकःनिरर्थकःसंस्कारः , निरुपकारको गुरूपदेशविवेकः , निष्प्रयोजना प्रबुद्धता , निष्कारणं ज्ञानम् , यत्र भवाहशा अपि रागाभिषडैः कलुषीक्रियन्ते प्रमादैश्चाभि भूयन्ते । कथं करतलागलितामपहृतामक्षमालामपि न लक्षयसि । अहो विगत चेतनत्वम । अपहृता नामेयम् । इदमपि ताबदपह्रियमाणमनयानार्यया निवार्यतां हृदयम् । ' इत्येवमभिधीयमानश्च तेन किंचिदुपजातलज्ज इव प्रत्य वादीत् – ' सखे कपिजल ! किं मामन्यथा संभावयसि नाहमेवमस्या दुर्विनीतकन्यकायामर्पयाम्यक्षमालाग्रहणापराधमिमम् । ' इत्यभिधायालीककोपकान्तेन प्रयत्न विरचितभीषणभ्रुकुटिभूषणेन चुम्बनाभिलाषस्फुरिताधरेण मुखेन्दुना माम वदत् - ' चञ्चले , प्रदेशादस्मादिमामक्षमालामदत्त्वा पदात्पदमपि न गन्तव्यम् ' इति । तच्च श्रुत्वाहमात्मकण्ठादुन्मुच्य मकरध्वजलास्यारम्भलीलापुष्पाञ्जलि मेकावलीं ' भगवनगृह्यतामक्षमाला ' इति मन्मुखासक्तदृष्टेः शून्यहृदस्यास्य प्रसा रिते पाणौ निधाय स्वेदसलिलस्नातापि पुनः स्नातुमवातरम् । उत्थाय च कथमपि प्रयत्नेन निम्नगेव प्रतीपं नीयमाना सखीजनेन बलादम्बयआच सह तमेव चिन्तयन्ती स्वभवनमयासिषम् । गत्वा प्रविश्य कन्यान्तःपुरं ततः प्रभृति तद्विरहविधुरा किमागतास्मि , किं तत्रैव स्थितास्मि , किमेकाकिन्यस्मि ' किं परिवृत्तास्मि , किं तूष्णीमस्मि , किं प्रस्तुतालापास्मि , किं जागर्मि , कि सुप्तास्मि , किं , रोदिमि , किं न रोदिमि , किं दुःखमिदम् , किं सुखमिदम् , किमुत्कण्ठेयम् , किं व्याधिरयम् किं व्यसनमिदम् , किमुत्सवोऽयम् , किं दिवस एषः , किं निशेयम् , कानि रम्याणि , कान्यरम्याणीति सर्वं नावागच्छम् । अविज्ञातमदनवृत्तान्ता च क गच्छामि किं करोमि किं शृणोमि किं पश्यामि किमालपामि कस्य कथयामिकोऽस्य प्रतीकार इति सर्व च नाज्ञासिषम् । केवलमारुह्य कुमारीपुरप्रासादं विसर्म्य च सखीजनं द्वारि निवारिताशेषपरिजनप्रवेशा , सर्वव्यापारानुत्सृज्यै काकिनी मणिजालगवाक्षनिक्षिप्तमुखी , तामेव दिशं तत्सनाथतया प्रसाधिता मिव कुसुमितामिव महारत्ननिधानाधिष्ठितामिवामृतरससागरपूरप्लावितामिव पूर्णचन्द्रोदयालंकृतामिव दर्शनसुभगामीक्षमाणा , तस्मादिगन्तरादागच्छन्तमनिलमपि वनकुसुमपरिमलमपि शकुनिध्वनिमपि तद्वार्ता प्रष्टुमीहमाना , तद्वल्लभतया तपःक्लेशयापि स्पृहयन्ती , त प्रीत्येव गृहीतमौनव्रता , स्मर जनितपक्षपाता च तत्परिग्रहान्मुनिवेषस्याग्राम्यतां तदास्पदतया यौवनस्य चारुतां तच्छ्रवणसम्पर्कात्पारिजातकुसुमस्य मनोहरतां तन्निवासात्सुरलोकस्य रम्यतां तद्रूपसंपदा कुसुमायुधस्य दुर्जयतामध्यारोपयन्ती , दूरस्थस्यापि कमलिनीव सवितुः सागरवेलेव चन्द्रमसो मयूरीव जलधरस्य तस्यैवाभिमुखी , तथैव तां तद्विरहातुरजीवितोद्गमरक्षाबलीमिवाक्षावली कण्ठेनोद्वहन्ती , तथैव च तया प्रस्तुततद्रहस्यालापयेव कर्णलग्नया पारिजातमञ्जर्या तथैव च तेन तत्करतलस्पर्शसुखजन्मना कदम्बमुकुलकर्णपूरायमाणेन रोमाञ्चजालेन कण्ट कितैककपोलफलका निस्पन्दमतिष्ठम् ।

Tuesday, 20 July 2021

वर्तिका

वर्तिका/पत्नी 

लोग कहते हैं कि 
दीपक जल रहा है, 
पर सच तो यह है कि 
बाती जल रही है 
और उसका पसीना जल रहा है।
यह आलोक जो आप देख रहे हैं 
उसी की कोख से उपजा है 
मैं तो उसका वल्लभ हूँ।
वर्तिका तो वही है।

Sunday, 18 July 2021

बारिश धूप हवा और तुम

बारिश, धूप, हवा और तुम
जब -जब घातक नहीं होते
आलिंगन का मन होता है
अन्यथा बचके ही रहता हूॅं।

वृद्धाश्रम

ये वृद्धाश्रम 
ये नन्हे-नन्हे पौधे
वो नाती-पोते
वो नन्हे-से घरोंदे
आंखों में आंसू
ये गम के, वे खुशी के।

Wednesday, 7 July 2021

फुले युगलानि

विनश्यन्ति तानि उपवनानि,
येषां न सन्ति फुलेयुगलानि।

Tuesday, 6 July 2021

चींटी

छोटा सा दर
सुखों का संसार
चींटी का घर।

एकता का असर
वस्ति में घर
खाद्य का भंडारण
आलसहर
चींटियां खेतिहर।

Monday, 5 July 2021

नये फूल कहां से आयेंगे?

शाखों से नोंच-नोंच कर 
गुलदस्ता हमने सजा दिया।
नये फूल कहां से आयेंगे
बागों में फल आने न दिया।।

Sunday, 4 July 2021

धातुगणपाठ-पकरणं।

 

धातुगणपाठ-पकरणं।

रचनाकारो- गोतमो रामहेतो। 05.07.2021

पालियं पठति यो, अञ्ञानं रुन्धति सो।

तक्केन दिब्बति यो, रागेन न तुदति सो।

कोधं जिनातीति यो, मोदं किणातीति सो।

सच्चं सुणोतीति यो, दुक्खं चोरयति सो।

सुखं तु तनोति तस्स, बुद्धो मुत्तो भवति।

जननमरणं भिद्द, उभयत्थ नन्दति सो।

हस्तिनापुर ढहा स्वार्थ में

पेट की आग में द्रोण झुलसे,
कर्ण डूबे कर्ज़ के गर्त में।
वचन गलघोंटू हुए भीष्म के
हस्तिनापुर ढहा स्वार्थ में।

pali shikshan

आगच्छन्तु, पालिं सिक्खाम ...

💐💐💐पालिसिक्खणं💐💐💐

💐💐किरियपदानि💐💐

😀 - हसति 
😬 - निन्दति 
😭 - रोदिति 
😇 - भमति 
🤔 - चिन्तयति/चिन्तेति
😡 - कुज्झति
😴 - सयति
😩 - खमं याचति
😳 - पस्सति
😌 - झायेति
👁 - पस्सति
🗣 - वदति 
✍ - लिखति 
🙏� - पणमति/नमति/वन्दति
👉 - निद्दिसति
🙌 - अभिसंसति
�👃 - घायति
🚶🏻- गच्छति 
🏃🏻- धावति 
💃🏻 - नच्चति 

💐💐पालि सद्दा 💐💐

।। पालिसद्दे जानन्तु, पालिं पचारन्तु ।।
✈ विमानं
🎁 उपायनं
🚘 यानं
💺 आसन्दी / आसनं
⛵ नावा
🗻 पब्बतो
🚊 रेलयानं
🚌 लोकयानं
🚲 द्विचक्किका
🇮🇳 धजो
🐰 ससो
🐯 ब्यग्यो
🐵 वानरो
🐴 अस्सो
🐑 मेसो
🐘 गजो
🐢 कच्छपो
🐜 पिपीलिका 
🐠 मच्छो
🐄 धेनु, गो
🐃 महिसो
🐐 अजा 
🐓 कुक्कुटो
🐕 कुक्कुरो/सुनखो
🐁 मूसको
🐊 मकरो
🐪 उट्ठो
🌸 पुप्फ'
🍃 पण्ण'
🌳 रुक्खो
🌞 सुरियो
🌛 चन्दो/चंदिमा
⭐ तारको/चंदिका/नक्खत्त'
☔ छत्तं
👦 बालको
👧 बालिका 
👂 Kanno
👀 नेत्तानि/लोचनानि
👃नासिका 
👅 जिहवा
👄 ओट्ठा
👋 हत्थो
💪 बाहु
🙏 नमक्कारो
👟 उपानहानि
👔 युतकं
💼 पसिब्बको
👖 ऊरुकं
👓 उपनेत्तं
💎 वजिरं/रतनं
💿 सन्दमुद्दिका
🔔 घण्टा 
🔓 तालो/तालको
🔑 कुञ्चिका
⌚ घटी
💡 विज्जुदीपो
🔦 करदीपो
🔋 विज्जुकोसो
🔪 छूरिका
✏ अङ्कनी
📖 पोत्थकं
🏀 कन्दुकं
🍷 चसको/जलपत्त'
🍴 चमसा
📷 चित्तग्गाहकं
💻 सङ्गणकं
📱जङ्गमदूरवाणी
☎ दूरवाणी
📢 धनिवद्धकं/धनिवड्ढकं
⏳समयसूचकं
⌚ घटी/होरालोचनं
🚿 जलसेचकं
🚪द्वारं
🔫 भुशुण्डिका
🔩आणि
🔨ताडकं
💊 गुलिका/ओसधं
💰 धनं/वित्तं
✉ सासनावरणं
📬 पत्तपेटिका
📃 कग्गजं/कागदं
📊 सूचिपत्त'
📅 दिनदस्सिका
✂ कत्तरी
📚 पोत्थकानि
🎨 रंगा/Vanna
🔭 दूरदस्सकं
🔬 सुक्खमदस्सकं
📰 पत्तिका
🎼🎶 संगीतं
🏆 पुरेक्खार/उपहारो
⚽ पादकन्दुकं
☕ चायं/चाहं
🍵सूपो/पेयं
🍪 रोटिका/गोधूमपूपो
🍧 पयोहिमो/हिमवत्थु
🍯 मधु
🍎 सेवफलं
🍉कलिंगफलं
🍊नारंगफलं
🍋 अम्बफलं
🍇 मुद्दिकाफलाणि
🍌कदलीफलं
🍅 रत्तफलं
🌋 जालामुखी
🐭 मूसको
🐺 गद्रभो
🐷 वराहो
🐗 वनवराहो
🐝 मधुकरो
🐘 गजो/हत्थी
🐑 मेसो
🐒 वानरो
🐍 सप्पो
🐠 मीनो/मच्छ
🐈 बिडालो/मज्जारो
🐄 गो
🐊 मकरो
🐪 उट्ठो
🌹 पाटलं
🌺 जपाकुसुमं
🍁 Pannam/पत्रं
🌞 सूरियो
🌝 चंदिमा/चन्दो
🌜अड्ढचंदो
⭐ Nakkhattam/तारको/चंदिका
☁ मेघो/बलाहको
⛄ कीळनकं
🏠 घरं/गेहं/गहं
🏫 भवनं
🌅 सुरियुदयो
🌄 सुरियत्थगमो
🌉 सेतु
🚣 लघुनावा
🚢 नावा
✈ गगनयानं/विमानं
🚚 भारवाहनं
🇮🇳 भारतधजो
1⃣ एकं
2⃣ द्वे 
3⃣ तीनि
4⃣ चत्तारि
5⃣ पञ्च 
6⃣ छ
7⃣ सत्त
8⃣ अट्ठ
9⃣ नव 
🔟 दस
2⃣0⃣ विसति
3⃣0⃣ तिंसति
4⃣0⃣ चत्तालिसति
5⃣0⃣ पंचासा
6⃣0⃣ सfट्ठ
7⃣0⃣ सत्तति
8⃣0⃣ असीति
9⃣0⃣ नवति
1⃣0⃣0⃣ सतं
⬅ वामतो
➡ दक्खिणतो
⬆ उपरि ।
⬇ अधो/हेट्ठा
🎦 चलचित्तग्गाहकं
🚰 नल्लिका
🚾 जलसीतकं
🛄 यानपेटिका
📶 तरंगसूचकं ( तरंगा)
+ योजनं/संकलनं
- ब्यवकलनं
× गुणाकारो
÷ भागाकारो
% पटिसतं
@ दरो
🔵 नीलो
🔴 रत्तो/लोहितो
⬜ सेतो
⬛ kanho/असेतो

- डॉ. प्रफुल्लगडपालो

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इसे याद कीजिये

नमोबुद्धाय,जयभीम 🙏🙏🙏

     पालि में परिचय 
1)मम नाम स्वाति/साति अत्थि।
 मेरा नाम स्वाती है।
 
पुल्लिंगी नाम
2)भवन्तस्स नाम किं? 
तुम्हारा/आपका नाम क्या है?
➡️भवन्तस्स नाम पफ्फुल्लो अत्थि।
 तुम्हारा नाम प्रप्फुल्ल है।

इत्थिलिंगी नाम
3)भोतिया नाम किं? तुम्हारा।आपका नाम क्या है?
  ➡️भोतिया नाम सालिनि अत्थि।
आपका नाम शालिनी है।

3)नपुसकलिंग सद्द

मुल सद्ध    
जल----- जलं
फल----- फलं
मञ्च-----मञ्चं
नगर-----नगरं

4) स्मरणिय विभक्ती सुत्र

अ)पुल्लिंगी विभक्ती 

1)ओ,आ 2)अं,ए 3)न,हि, 4)स,नं
5)स्मा,हि 6) स,नं 7) स्मिं , सु

सद्द:- नरो, बुद्धो, पफ्फुल्लो 
न् + अ + र् + (अ) = नर
 ब् + उ + द् + ध् + (अ)= बुद्ध 
प् +अ + प् + फ् + उ +ल् +ल् +(अ)
अत: अकारान्त (अकार + अन्त)

     नर
 पठमा :- नरो ------- नरा
द्वितीया:- नरं --------- नरे
तृतीया :- नरेन ------- नरहि
चतुत्थि:- नरस ------- नरनं
पञ्चमि :- नरस्मा ---- नरहि
छठी :- नरस ---- नरनं
सप्तमी:- नरस्मि ---नरसु

आ)इत्थिलिंगी विभक्ती
1)आ,यो 2)अं,ए 3)य,ही 4)य, नं
5) य,ही 6)य,नं 7)यं सु

आकारात इत्थिलिंगी सद्द
लता  
ल् + अ +त+ आ ( अन्त आ)

लता 
 प ---- लता लतायो
द्वि--- लतां---- लतायो
तृ -- लताय -----लताहि
च --- लताय ---- लतानं 
पं -- लताय ----- लताहि
छ --- लताय ----- लतानं
स ---- लतासं ---- लतासु


स्वाती गायकवाड
अहं सीला।
अहं सिक्खिका।
अहं अज्झापिका।
अहं लेखिका।
अहं अमनो।
अहं पुत्तो।
अहं आचरिया।
अहं उपासिका।
अहं साधिका।
अहं साविका
अहं वाणिजो 1
अहं कसको 2
अहं वेज्जो 3
अहं अज्झापिको 4
अहं मानवको 5
अहं यक्खो 6
अहं देवो 7
अहं पुरिसो 8
अहं दारको 9
अहं याचको 10
अहं पुत्तो 11
अहं भूपालो 12
अहं नरपतियो 13
अहं दासो 14
अहं अच्छरा 15
अहं माया 16
अहं कञ्ञा 17
अहं तारका 18 
अहं मुनि 19
अहं इसि 20
अहं कवि 21
अहं सारथि 22
अहं कमला 23 
अहं उय्यानपालको 24
अहं गायको 25
अहं नटो 26
अहं कुम्भकारो 27
अहं सुदो 28 
अहं आचरियो 29
अहं उपासको 30
अहं लेखको 31
अहं नापितो 32
अहं सम्पादको 33
अहं ओसधिको 34 
अहं तापसो 35
अहं लोहकारो 36 
अहं रजको 37 
अहं चालको 38
अहं तिकिच्छको 39
अहं पाजिका 40
अहं वनिता 41
अहं सुमना 42 
अहं कम्मारी 43
अहं गन्धिका 44
अहं सुदिका 45
अहं चित्तकारणी 46 
अहं कस्सिका 47
अहं तेलिका 48 
अहं सिप्पिनी 49
अहं नच्चकी 50
अहं सिक्खको
अहं वाणिजो 
अहं कसको 
अहं पुत्तो
अहं वेज्जो 
अहं अज्झापिको 
अहं सचिनो
अहं मानवको 
अहं यक्खो 
अहं महानंदा
अहं देवो 
अहं पुरिसो 
अहं संबोधी 
अहं दारको 
अहं याचको 
अहं पुत्तो 
अहं भूपालो 
अहं नरपतियो 
अहं दासो 
अहं अच्छरा 
अहं माया 
अहं कञ्ञा 
अहं तारका 
अहं मुनि 
अहं इसि 
अहं कवि 
अहं सारथि 
अहं आचरियो 
अहं उपासको 
अहं लेखको 
अहं नापितो 
अहं सम्पादको 
अहं ओसधिको 
अहं तापसो 
अहं लोहकारो 
अहं रजको 
अहं चालको 
अहं तिकिच्छको  
अहं पाजिका 
अहं वनिता 
अहं सुमना 
अहं कम्मारी 
अहं गन्धिका 
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अहं चित्तकारणी 
अहं कस्सिका 
अहं तेलिका 
अहं सिप्पिनी 
अहं नच्चकी 
अहं कमला 
अहं उय्यानपालको 
अहं गायको 
अहं नटो 
अहं कुम्भकारो 
अहं सुदो
अहं पल्हादो
अहं नरिन्दो
अहं गायको
अहं अज्झापिको
अहं कलाकारो 
अहं रक्खिको
अहं सावको 
अहं कम्मारो
अहं रज्जको 
अहं लुध्दको 
अहं सुदो 
अहं पाचको
अहं धिवरो
अहं भुपालो 
अहं सुरेसो राज्य
अहं भरतो
अहं अचरिओ
अहं लता 
अहं सरिता
अहं वनिता
अहं भारति
अहं आरति 
अहं सविता
अहं माला 
अहं सिला 
एतं साटकं 
तं विजनं 
एतं रथं 
एतं फलं 
तं पुप्पं  
सो बालको
एसो नरिन्दो
सा राधिका
एसा नारी
बालको हसति 
कविता रोदति 
एसा नटी
एसो नटो

अहं नारी
अहं माता
अहं भार्या
अहं कञ्ञा
अहं भगिनी
अहं सखी
अहं अचारिया
अहं सिक्खिका
अहं निदेसिका
अहं गेहणि
अहं गायिका
अहं नटी
अहं नच्चकी
अहं बालिका
अहं सारथिनि
अहं अज्झापिका
अहं कलाकारा
अहं लोहकारा
अहं कस्सिका
अहं नाहपिति
अहं नपिति
अहं लेखिका
अहं संपादिका
अहं वैज्झा
अहं चालिका
अहं वाणिजा
अहं चित्तकारा
अहं किळिका
अहं कुम्भकारा
अहं लिपिका
अहं उय्यानपालिका
अहं पाचिका
अहं पत्तवितरीका
अहं घरणि
अहं विक्कय्या
अहं तुण्णवाया
अहं कुम्मकारा
अहं सेविका
अहं निवेदिका
अहं नितिवेदा
अहं नाविका
अहं रजिका
अहं धोविका
अहं समिका
अहं आरक्खिका
अहं साधिका
अहं सेविका
अहं सुव्वणकारा
अहं पसाधका


काही चुका असतील तर सांग, मी पहिल्यांदा प्रयत्न केला आहे

अहं नारी
अहं माता
अहं भार्या
अहं कञ्ञा
अहं भगिनी
अहं सखी
अहं आचरिया
अहं सिक्खिका
अहं निदेसिका
अहं घरणी
अहं गायिका
अहं नटी
अहं नच्चकी
अहं बालिका
अहं सारथिनी
अहं अज्झापिका
अहं कलाकारा
अहं लोहकारा
अहं कस्सिका
अहं नाहपिती
अहं नापिती
अहं लेखिका
अहं संपादिका
अहं वेज्झा
अहं चालिका
अहं वाणिजा
अहं चित्तकारा
अहं कीळिका
अहं कुम्भकारा
अहं लिपिका
अहं उय्यानपालिका
अहं पाचिका
अहं पत्तवितरिका
अहं घरणी
अहं विक्कय्यिनी
अहं तुण्णवाया
अहं कुम्मकारा
अहं सेविका
अहं निवेदिका
अहं नीतिवेदिनी
अहं नाविका
अहं रजिका
अहं धोविका
अहं सामिका
अहं आरक्खिका
अहं साधिका
अहं सेविका
अहं सुव्वणकारा
अहं पसाधका

HOMEWORK
Date: 27/06/2021
माणविका नाम : बोराडे मयुरी मा.
आचरियो नाम: डॉ. प्रफुल्ल गड़पाल सर

1) अहं मयुरी। 
2)अहं माणविका। 
3) अहं नीतिवेदिनी। 
4) अहं लेखको। 
5) अहं सम्पादिका। 
6) अहं कलाकारो। 
7) अहं नटी। 
8) अहं गायको। 
9) अहं गायिका। 
10) अहं पकासको।
11) अहं पकासिका।
 12) अहं आचरियो। 
 13) अहं सिक्खापिका। 
 14) अहं सिक्खको। 
 15) अहं आरक्खको।
16) अहं सिस्सो। 
17) अहं भटो। 
18) अहं यन्तसिप्पी। 
19) अहं नच्चकी। 
20) अहं नच्चको।
21) अहं द्वारपालको। 
22) अहं वित्तकोसकम्मकारो। 
23) अहं पसाधको। 
24) अहं कस्सको। 
25) अहं पाजको।
26) अहं वाणिजो। 
27) अहं रजको। 
28) अहं लोहकारो। 
29) अहं कुंभकारा। 
30) अहं मालाकारा।
31) अहं अज्झापको। 
32) अहं अज्झापिका। 
33) अहं आरक्खिका। 
34) अहं सुवण्णकारा। 
35) अहं सुवण्णकारो।
36) अहं कम्मकारो। 
37) अहं नीतिवेदी। 
38) अहं उपदेसको। 
39) अहं उपदेसिका। 
40) अहं आपणिको।
41) अहं आपणिका। 
42) अहं पकासिका। 
43) अहं कम्मकारा। 
44) अहं मालाकारो। 
45) अहं सम्पादको।
46) अहं सिक्खापको। 
47) अहं सिक्खिका। 
48) अहं भटी। 
49) अहं दासो। 
50) अहं वक्किला।
गृहपाठो
२७/०६/२०२१
मम नाम : सुवर्णा रामटेके
आचारियो नाम:डॉ. प्रफुल्ल गडपाल जी.
१).अहं सुवण्णा |
२).अहं गृहीणी |
३).अहं लेखिका
४).अहं सम्पादिका
५).अह अज्झापिका
६).अहं नटी
७). अहं कलाकारा
८).अहं नच्चकी
९).अहं नहापिती
१०).अहं कुम्मारी
११).अहं वड्ढकिनी
१२).अहं सारथिनी
१३).अहं वञ्चिका
१४)अहं सुदिका
१५).अहं पाचिका
१६).अहं कस्सिका
१७).अहं सिप्पिनी
१८).अहं चितकारिणी
१९).अहं विक्कयिनी
२०).अहं ओसधिका
२१).अहं तेलिका
२२).अहं गन्धिका
२३).अहं सुकरीका
२५).अहं पाजिका
२६).अहं चालिका
२७).अहं सखी
२८).अहं तापसी
२९).अहं इसिका
३०).अहं वेज्झा
३१).अहं तिकिच्छिका
३२).अहं अभियान्तिका
३३).अहं यन्तसिप्पीनी
३४).अहं उय्पानपालिका
३५).अहं मालाकारा
३६).अहं आरक्खिका
३७).अहं द्वारपालिका
३८).अहं सुवण्णकारा
३९).अहं व्याधिना
४०).अहं कम्मकारा
४१).अहं नीतिवेदिनी
४२).अहं वक्किला
४३).अहं गणिका
४४).अहं वाणिजा
४५).अहं वण्णलेपिका
४६).अहं कीळका
४७).अहं उपदेसिका
४८).अहं भिक्खुनी
४९).अहं पकासिका
५०).अहं उपाहनिका
५१).अहं चम्मकारा
५२).अहंआपणिका
५३).अहं रजिका
५४).अहं धोविका
५५).अहं लोहकारा
५६).अहं कुम्भकारा
५७).अहं सिस्सा
५८).अहं रज्जुगाहिका
५९).अहं तुण्णवाय
६०).अहं योधजीवा

१) अहं यन्तसिप्पिनी
२) अहं गन्धिका
३) अहं सखी
४) अहं सुवण्णकारा
५) अहं अभियान्तिका
६) अहं विक्कयिनी
७) अहं सम्पादिका
८) अहं कलाकारा
९) अहं कृषिका
१०) अहं लेखिका
११) अहं अज्झापिका
१२) अहं कम्मारी
१३) अहं वड्ढकिनी
१४) अहं सुदिका
१५) अहं विक्कयिनि
१६) अहं ओसाधिका
१७) अहं नच्चकी
१८) अहं सिक्खापिका
१९) अहं वेज्झा
२०) अहं तिकिच्छिका
२१) अहं भटो
२२) अहं दासो
२३) अहं वक्किला
२४) अहं पकासिका
२५) अहं गृहीणी
२६) अहं नहापिती
२७) अहं लेखको
२८) अहं चित्तकारिणी
२९) अहं वधु
३०) अहं भगिनी
३१) अहं व्याधिनी
३२) अहं आरक्खको
३३) अहं इसिका
३४) अहं बालिका
३५) अहं पुत्तो
३६) अहं तापसो
३७) अहं चालिका
३८) अहं अनुजा
३९) अहं साधिका
४०) अहं संघमित्ता
४१) अहं कुम्भकारा
४२) अहं उपासिका
४३) अहं मित्तो
४४) अहं सुकरिको
४५) अहं व्दारपालिका
४६) अहं सिप्पी
४७) अहं तेलिको
४८) अहं आचरियो
४९) अहं वाणिजा
५०) अहं गायिका
१) अहं पसाधका
२) अहं सुव्वणकारा
३) अहं सेविका
४) अहं साधिका
५) अहं आरक्खिका
६) अहं समिका
७) अहं धोविका  
८) अहं रजिका
९) अहं नाविका
१०) अहं नारी
११) अहं महिला
१२) अहं उपासिका
१३) अहं बालिका
१४) अहं घरणी
१५) अहं नक्की
१६) अहं लेखको
१७) अहं अज्झापिका
१८) अहं नहापितो
१९) अहं कस्सको
२०) अहं चित्तकारो
२१) अहं वणिजो
२२) अहं कुम्भकारो
२३) अहं तुण्णवायो
२४) अहं कलाकारो
२५) अहं यन्तसिप्पी
२६) अहं पत्तवाहको
२७) अहं लोहकारो
२८) अहं नीतिवेदी
२९) अहं वेज्झो 
३०) अहं उय्यानपालको
            
          अहं सुनिता वनकर
           यवतमाळ

अहं गायको
अहं नरो
अहं सिक्खको 
अहं नटो
अहं नच्च्को 
अहं बालको
अहं रजको
अहं सेवको
अहं कस्सको 
अहं लेखको
अहं नहापितो
अहं सुदो
अहं चित्तकारो
अहं विक्कयी 
अहं पाजको 
अहं वेज्झो
अहं यन्तसिप्पी 
अहं उय्यानपालको
अहं आरख्को
अहं भटो
अहं सेनिको
अहं कम्मकारो
अहं नीतिवेदी
अहं वाणिजो
अहं कीळको
अहं तुण्णवायो
अहं नाविको
अहं पत्तवाहको
अहं दोवारिको
अहं महीसो
अहं सुदेसो
अहं मातुलो
अहं पाजकों
अहं टिकिच्छ्को
अहं पाणि 
अहं भूपाला
अहं भूपति
अहं बंधु
अहं भत्तु 
अहं सप्पूरि
अहं सेट्ठी 
अहं सेट्ठी 
अहं सुसू
अहं मातुला
अहं मंती
अहं सामी
अहं सिस्सा 
अहं धिवरा
अहं दूता
अहं पति
अहं गायिका
अहं नारी 
अहं सिक्खिका 
अहं नटी
अहं नचिका 
अहं बालिका 
अहं रजिका 
अहं सेविका 
अहं कस्सिका
अहं लेखिका
अहं नाहपिती 
अहं सुदा 
अहं चित्तकारा 
अहं विक्कयीनि 
अहं पजिका 
अहं वेज्झा
अहं यन्तसिप्पीनि 
अहं उय्यानपालिका 
अहं आरक्खिका
अहं भटि 
अहं सेनिका
अहं कम्मकारा
अहं नीतिवेदिका 
अहं वाणिजा 
अहं डेसिका 
अहं तुण्णवाया
अहं नाविका
अहं पत्तवाहको
अहं दोवारिका
अहं पतिभा
अहं वन्नलेपिका
अहं धम्मासेविका
अहं पजिका
अहं टिकिच्छिका
अहं पाणि 
अहं महिसी 
अहं अवेरा 
अहं घरणी 
अहं वरा 
अहं सप्पूरिसा 
अहं सेट्ठा 
अहं छ्त्ता 
अहं दहरा
अहं धम्मिका
अहं गाहपतानि 
अहं साधिका
अहं संघरक्खिता 
अहं माणविका 
अहं माधुरी
अहं कन्ना
अहं मातुच्छा अहं गायिका
अहं नारी 
अहं सिक्खिका 
अहं नटी
अहं नचिका 
अहं बालिका 
अहं रजिका 
अहं सेविका 
अहं कस्सिका
अहं लेखिका
अहं नाहपिती 
अहं सुदा 
अहं चित्तकारा 
अहं विक्कयीनि 
अहं पजिका 
अहं वेज्झा
अहं यन्तसिप्पीनि 
अहं उय्यानपालिका 
अहं आरक्खिका
अहं भटि 
अहं सेनिका
अहं कम्मकारा
अहं नीतिवेदिका 
अहं वाणिजा 
अहं डेसिका 
अहं तुण्णवाया
अहं नाविका
अहं पत्तवाहको
अहं दोवारिका
अहं पतिभा
अहं वन्नलेपिका
अहं धम्मासेविका
अहं पजिका
अहं टिकिच्छिका
अहं पाणि 
अहं महिसी 
अहं अवेरा 
अहं घरणी 
अहं वरा 
अहं सप्पूरिसा 
अहं सेट्ठा 
अहं छ्त्ता 
अहं दहरा
अहं धम्मिका
अहं गाहपतानि 
अहं साधिका
अहं संघरक्खिता 
अहं माणविका 
अहं माधुरी
अहं कन्ना
अहं मातुच्छा
अहं वेज्झा |
अहं सखी |
अहं मालाकारा|
अहं नितिवेदिती |
अहं आचरिया |
अहं साधिका |
अहं बालिका |
अहं नच्चकी |
अहं चालको |
अहं लोहकारो |
अहं पत्तवितरको |
अहं लिपिको |
अहं नाविको |
अहं कुम्भकारो |
अहं वणिजो |
अहं कीळको |
अहं नाहपितो |
अहं विञ्ञाणिको |
अहं गायको 

१- अहं इच्छामि। (उत्तम पुरिसो एकवचन).
२- अहं चजामि.
३- अहं देमि
४-अहं ददामि
५-अहं जलामि
६-अहं चलामि
७-अहं नहायामि
८-अहं निसिदामि
९-आहं उट्ठहामि
१०-अहं पापुणोमि
११-अहं उपदिसामि
१२-अहं पस्सामि
१३-अहं नच्चामि
१४-अहं धोवामि
१४- अहं पचामि
१५- अहं रक्खामि
१६- अहं रुदामि
१७ - अहं वसामि 
१८- अहं सुणोमि
१९- अहं पेसेमि
२०-अहं पसंसामि
२१- अहं किणामि
२२-अहं सेमि
२३-अहं तिट्ठामि
२५- अहं होमि
२६-अहं भवामि
२७-अहं गण्हामि
२७-अहं खिपामि
२८- अहं निवासेमि
२९-अहं धावामि
३०-अहं गायामि
३१- अहं कम्पामि
३२-अहं वदामि
३३- अहं लभामि
३४-अहं अम्हि(मैं हूं)
३५-अहं विज्जामि
३६-अहं पतामि
३७-अहं कथेमि
३८-अहं नमामि
३९-अहं जानामि
४०- अहं सक्कोमि
४१-अहं अरहामि
४२-अहं स्वामि
४३- अहं पुच्छामि
४४-अहं भमामि
४५-अहं पविसामि
४६- अहं भासामि
४७- अहं निम्मामि
४८- अहं करोमि
४९-अहं वन्दामि
५०-अहं पुजेमि--++++++++
अञ्ञ पुरिसो
                           
१-बालको गच्छति।       
   बालका गच्छन्ति
२-बालिका आगच्छति
    बालिकायो आगच्छन्ति
३-आनन्दो पठति
   ते पठन्ति
४-गोपा लिखति
   ते लिखन्ति
५-नरो आगच्छति
   नरा आगच्छन्ति
६-गजो चलति
   गजा चलन्ति
 ७-अस्सो धावति
    अस्सा धावन्ति
८- सहोदरो हसति
      सहोदरा हसन्ति
९- मनुस्सो वदति
       मनुस्सा वदन्ति
१०- धनिकों खादति 
       धनिका खादन्ति
११-वानरो कूद्दति
      वानरा कूद्दन्ति
१३-गद्रभो चरति
      गद्रभा चरन्ति
१४ -मज्जारो पिबति 
     मज्जारा पिबन्ति
१५-महिसो नहायति
     महिला नहायन्ति
१६- काको डेति
       काका डेन्ति
१७ -मोरों नच्चति
       मोरा नच्चन्ति
१८ सुको वदति 
      सुका वदन्ति
१९-सप्पो डंसति
       सप्पा डंसन्ति
२०-आचरियो पाठेति
      आचरिया पाठेन्ति
२१-सिस्सो उच्चारेति 
       हिस्सा उच्चारेन्ति
२२-देवो वसति
       देवा वसन्ति
२३-मुनि तपति
      मुनयो तपन्ति
२४-साधको झायति 
        साधका झायन्ति
२५-गहपति दानं देति
       गहपतयो दानानि देन्ति।
मम सुवण्णा रामटेके
अझ्यापकस्स नाम डॉ पप्फुलो गडपाल सर
गहकरियं /गहपाठो
४/७ /२०२१

करियालया/विविधठानानि
१).करियालयस्स नाम आरक्खिठ्ठानं
२).करियालयस्स नाम पतालयो/डाकघरं
३).करियालयस्स नाम वितकोसो
४).करियालयस्स नाम सङ्गहालयो
५).करियालयस्स नाम तिकिच्छालयो
६).करियालयस्स नाम विज्जालयो
७).करियालयस्स नाम आरक्खणट्ठानं
८).करियालयस्स नाम विस्सविज्जालयो
९).करियालयस्स नाम अधिकरणमण्डलं
१०).करियालयस्स नाम चलचितघरं

 दिनानं नामानि:-

१).दिनस्स नाम रविवारो
२).दिनस्स नाम चन्दवारो/सोमवारो
३).दिनस्स नाम कुजवारो/मङ्गलवारो
४).दिनस्स नाम बुधवारो
५).दिनस्स नाम गुरवारो
६).दिनस्स नाम सुक्कवारो
७).दिनस्स नाम सनिवारो 

मासानं नामानि:-
१).मासस्स नाम फुस्सो(फुरसमासो) 
२).मासस्स नाम माघो
३).मासस्स नाम फग्गुणो/फग्गुनो
४).मासस्स नाम चितमासो
५).मासस्स नाम वेसाको
६).मासस्स नाम जेट्ठमासो
७).मासस्स नाम आसाळहो
८).मासस्स नाम सावणो
९).मासस्स नाम पोट्ठपादो
१०).मासस्स नाम अस्सयुजो
११).मासस्स नाम कतिको
१२).मासस्स नाम मागसिरे

अच्छादनं
१).अच्छादस्स नाम साटकं
२).अच्छादस्स नाम करासुकं
३).अच्छादस्स नाम पादासुकं
४).अच्छादस्स नाम युतकं
५).अच्छादस्स नाम उरुकं
६).अच्छादस्स नाम कोट-पेण्ट
७).अच्छादस्स नाम साटिका
८).अच्छादस्स नाम चोली/चोलकं
९).अच्छादस्स नाम सीरवेठनं
१०).अच्छादस्स नाम मुखावरं
११).अच्छादस्स नाम मुकुटो/फिरीटो
१२).अच्छादस्स नाम सीसिवरणं
१३).अच्छादस्स नाम मुखपुञ्छनं
१४).अच्छादस्स नाम हत्थपुञ्छनं
१५).अच्छादस्स नाम उपनेतं
 
पसवो
१).पसुवस्स नाम उसभो/बलिवदो
२).पसुवस्स नाम धेनु
३).पसुवस्स नाम महिसो
४).पसुवस्स नाम अजो
५).पसुवस्स नाम अच्छो
६).पसुवस्स नाम ओट्ठो
७).पसुवस्स नाम ससो
८).पसुवस्स नाम अस्सो
९).पसुवस्स नाम सुनको
१०).पसुवस्स नाम बिडालो
११).पसुवस्स नाम खग्गविसाणो
१२).पसुवस्स नाम गण्डको
१३).पसुवस्स नाम वराहो
१४).पसुवस्स नाम गद्रभो
१५).पसुवस्स नाम सीहो