Monday, 1 April 2019

कटा ज़िंदगी का सफ़्रर धीरे-धीरे। रामदरश मिश्र

बनाया है मैंने ये घर धीरे-धीरे,
खुले मेरे ख़्वाबों के पर धीरे-धीरे।

किसी को गिराया न ख़ुद को उछाला,
कटा ज़िंदगी का सफ़्रर धीरे-धीरे।

जहाँ आप पहुँचे छ्लांगे लगाकर,
वहाँ मैं भी आया मगर धीरे-धीरे।

पहाड़ों की कोई चुनौती नहीं थी,
उठाता गया यूँ ही सर धीरे-धीरे।

न हँस कर न रोकर किसी में उडे़ला,
पिया खुद ही अपना ज़हर धीरे-धीरे।

गिरा मैं कहीं तो अकेले में रोया,
गया दर्द से घाव भर धीरे-धीरे।

ज़मीं खेत की साथ लेकर चला था,
उगा उसमें कोई शहर धीरे-धीरे।

मिला क्या न मुझको ए दुनिया तुम्हारी,
मोहब्बत मिली, मगर धीरे-धीरे।

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