अंधविश्वास का जाल फैला कर मौज करता है दुष्ट मकड़ी की तरह, उस जाल का एक सिरा हमारे घर में है। पकड़ में नहीं आयेगा, सोता है केन्द्र में। बच नहीं सकते जब तक सिरा सुरक्षित रखेंगे। आस्था जागृत है उसके प्रति, चमत्कार की उम्मीद या डर पाल रक्खा है हमने, पुरखे भी छाति से चिपकाए बैठे हैं कुछ इस तरह कि जान निकलती है उसके बिना। एक उखाड़ना चाहता है तो चार भावनाओं की ढालों से ढक लेते हैं। अब उपाय कि बुद्धि सींचो अपनों की। हट जायेंगी ये ढालें और हाथ भी साथ होंगे, अंधविश्वास का खूंटा उखड़ेगा जरूर एक दिन। सुरक्षित होगा घर उस दुष्ट मकड़े से।
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